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________________ ४८२ जैनहितैषी - तरफ लक्ष्य ही कहाँ है ? यदि कामकी तरफ लक्ष्य होता तो उदासीनोंके - विरक्त लोगोंके रहने के लिए - तक्कूगंज १० - १२ हजार रुपयों की पक्की इमारत न बनवाई जाती, मामूली झोंपड़ियोंसे ही आश्रमका काम निकाल लिया जाता । अवैतनिक संस्थाओंके । दूसरे प्रकारके संचालकोंमें भी बहुत कम लोग ऐसे हैं जो अपने उत्तरदायित्वको समझते हों। उनमें भी जो आनरेरी काम करनेवाले हैं वे तो सर्वशक्तिमान् विधाता ही बन जाते हैं उन्हें इस बातका ख़याल ही नहीं रहता कि स्वार्थत्यागीका महत्त्व ‘ स्वामी ' बननेमें नहीं किन्तु ' सेवक' बननेमें है । यदि तुम स्वामी बन गये, तो तुमने अपने स्वार्थत्यागका बदला पा लिया - वेतन वसूल कर लिया - इससे अधिक और क्या चाहते हो ? वास्तवमें तुम्हारी शोभा इसी में है कि अपने मान सम्मानकी अपेक्षा संस्थाके लाभ हानिकी और अधिक ध्यान रखो और सर्व सम्मतिके बिना कोई भी काम मत करो। हम ऐसे कई आनरेरी कार्यकर्ताओंको जानते हैं कि यदि संस्थायें उनके बदले वैतनिक कर्मचारी रखकर काम चलातीं, तो उनके वेतन देकर भी वे अधिक लाभमें रहतीं - उनके अन्धाधुन्ध खर्चों से बची रहतीं । जैनसमाज बहुत अज्ञान है । उसमें ऐसे ही दानी अधिक हैं जो ' दे देने' में ही पुण्य समझते हैं । इस ओर उनका बहुत ही Jain Education International कम ध्यान जाता है कि हम जो देते हैं, उसका सदुपयोग भी होता है या नहीं । सार्वजनिक संस्थाओंके संचालकोंकी शिथिलताका यह भी एक बड़ा भारी कारण है । उनके ऊपर जनताका या लोकमतका उतना अंकुश नहीं रहता जितना कि रहना चाहिए । यदि जनता अपने धनके सदुपयोगका भी खयाल रखने लगे, जहाँ सदुपयोग न होता हो, वहाँ एक पाई भी न देवे तो बहुतसी संस्थायें सुधर जायँ, उनकी अन्धाधुन्धी आपसे आप कम हो जाय। ऐसे अनेक तीर्थक्षेत्र हैं जहाँ के द्रव्यका कुछ पता नहीं है कि कहाँ गया और कहाँ जाता है, तो भी दाता लोग दिये ही जाते हैं - उन्हें अपने पुण्यसम्पा• दनमें शंका ही नहीं होती । लोकमत का प्रभाव कम रहने से संस्थाओं के संचालक मस्त सोया करते हैं। उन्हें अपनी जि म्मेवारीका खयाल आवे ही क्यों, जब कोई पूछनेवाला ही नहीं है ? स्वर्गीय बाबू देवकुमारजीका सिद्धान्तभवन सार्वजनिक संस्था है । उसके लिए वे जो कुछ दे गये हैं वह सार्वजनिक धन हो गया है और लोगोंने उसमें जो थोड़ा बहुत धन दिया है वह भी सार्वजनिक है । परंतु आज ६ - ७ वर्षसे न तो उसकी कोई रिपोर्ट ही निकलती है और न कोई काम ही होता है । जैनसिद्धांत भास्कर निकलता था सो वह भी बन्द होगया । लोगों को यह भी मालूम नहीं हुआ कि भास्करमें जो लगभग दो ढाई हजार रुपयाका घाटा रहा है, वह भवन से I For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522828
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 09 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size13 MB
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