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________________ SAMIALAMMAAMILLIAMRATANIMAITHALALAIHARMARATRAIIMIMAR '... सार्वजनिक धनकी जिम्मेवारी। पस मPITRNITTITIHTTRIVRITTENTITIRITE ૪૮૭ खर्चमें किसी तरह काम हो ही नहीं सकता सार्वजनिक संस्थाओं के संचालक हमारे हो । मितव्ययता या किफायतशारीके समाजमें दो प्रकारके हैं-एक तो वे जो सूत्रोंकी ओर उसका पूरा पूरा ध्यान होना सर्वसम्मतिसे नियत किये गये हैं और चाहिए । पर हम अपनी वर्तमान संस्था- थोड़ा बहुत स्वार्थत्याग करके इन कार्योंको ओंमें ऐसा बहुत ही कम देखते हैं। कहीं करते हैं और दसरे वे जिन्होंने स्वयं बड़ी कहीं तो अंधाधुंध खर्च किया जाता है। बड़ी रकमें देकर संस्थाओंको स्थापित किया दो तीन वर्ष पहले काशीस्याद्वादपाठशालाका है। हमारी समझमें इन दोनोंको ही एकसा वार्षिकोत्सव किया गया था जिसमें उसके मितव्ययी होना चाहिए । लखपती और करोशौकीन संचालकोंने सिर्फ १०० रुपयोंकी डपती सेठ अपने निजके कामोंमें चाहे जितने स्वीकारता होनेपर भी ढाई तीन हजार रुपये अमितव्ययी या फिजूलखर्च हों,उससे सर्व साधाकेवल ऊपरी ठाटवाटमें ही स्वाहा कर दिये रणका कोई विशेष सम्बन्ध नहीं; पर उनकी थे । एक और संस्थाके संचालकने अपने स्थापित की हुई संस्थाओंमें यदि उनके द्वारा पढ़नेके लिए एक अध्यापकको रख छोड़ा था फिजूल खर्च होगा, तो वह अन्याय होगा । जिसे ६०) रुपया मासिक वेतन दिया जाता क्योंकि वास्तवमें उस संस्था पर उनका उतना था और वे यह लगभग ७००-८०० रुपया ही अधिकार है जितना और सबका है; सालका भारी बोझा कई वर्षतक संस्थाके ही सिर- क्योंकि वह सबकी चीज बना दी गई है। पर डाले रहे थे। अभी थोडे ही दिन पहले हमने यह बात दूसरी है कि उनसे कोई कुछ एक ऐसी संस्थाकी रिपोर्ट देखी थी जिसकी कह न सके; पर न कह सकनेसे उनका आर्थिक स्थिति बहुत ही मामूली है,पर उसकी अन्याय न्याय नहीं कहा जायगा । कई फार्मोंकी रिपोर्ट कीमती आर्ट पेपर पर दानवीर सेठ हुकमचन्दजीकी इन्दौरकी छपी हुई थी ! वास्तवमें कामकी ओर अधिक संस्थाओंकी इमारतोंको देखकर यह खयाल ध्यान दिया जाना चाहिए, नामकी या दिखा- आये बिना नहीं रहता कि यदि सेठजीको सार्ववटकी ओर कम, पर हमारे यहाँ दिखाऊपन जनिक द्रव्यके उतरदायित्वका खयाल होता, दिन पर दिन बढ़ता जाता है। यह हम यदि वे इस कार्य मितव्ययतासे काम लेते, मानते हैं कि कभी कभी लोगोंका चित्त तो उनकी संस्थाओंसे जितने लोगोंको लाभ आकर्षित करनेके लिए मितव्ययताके सूत्रोंकी पहुंच रहा है उससे दूने लोगोंको पहुँचता । पूरी पूरी पालना नहीं हो सकती है। परन्तु अवश्य ही इमारतें इतनी शानदार न बनतीं यह निश्चित है कि यदि पूरी पूरी पालना की और दूरसे देखनेवालों पर सेठजीके दानका जायगी तो उसकी ओर लोगोंका चित्त और इतना अधिक प्रभाव न पड़ता; परन्तु काम भी अधिक आकर्षित होगा। निस्सन्देह अधिक होता। पर अभी कामकी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522828
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 09 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size13 MB
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