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________________ ४२६ AIITTEmmunicim प्रश्न किया गया है और उसीके कथनकी करता है कि ग्रंथमें पहलेसे कोई कथन चल प्रतिज्ञा भी की गई है । यथाः रहा है जिसके बादका यह प्रकरण है; परन्तु सुखग्राह्यं लंघुग्रंथं स्पष्टं शिष्यहितावहम् । ग्रंथमें इससे पहले कोई कथन नहीं है। सिर्फ सर्वज्ञभाषितं तथ्यं निमित्तं तु अवीहि नः ॥२-१-१४॥ मंगलाचरणके दो श्लोक और दिये हैं जो भवद्भिर्यदहं पृष्ये निमित्तं जिनभाषितम् । 'नत्वा ' और 'प्रणम्य ' शब्दोंसे शुरू होते समासव्यासतः सर्वे तन्निबोध यथाविधि ॥ -२-२॥ हैं और जिनमें कोई अलग प्रतिज्ञावाक्य नहीं ऐसी हालतमें इस खंडका नाम 'ज्योतिष- है। इस लिए इन दोनों श्लोकोंसे सम्बंध रखनेखंड कहना पूर्वापर विरोधको सूचित करता है। वाला यह 'अधुना' शब्द नहीं हो सकता। खंडोंके इस नामकरणके समान बहुतसे अध्या- परन्तु इसे रहने दीजिए और खास प्रतिज्ञा पर योंका नामकरण भी ठीक नहीं हुआ। उदाहर- ध्यान दीजिए । प्रतिज्ञामें संहिताका अभिधेयणके तौरपर तीसरे खंडके — फल ' नामके संहिताका उद्देश-वणे और आश्रमोंकी स्थितिको अध्यायको लीजिए। इसमें सिर्फ कुछ स्वमों बतलाना प्रगट किया है । इस अभिधेयसे दूसरे और ग्रहोंके फलका वर्णन है । यदि इतने परसे तीसरे खंडोंका कोई सम्बंध नहीं; खासकर ही इसका नाम 'फलाध्याय' रक्खा गया दसरा 'ज्योतिषखंड ' बिलकुल ही अलग हो तो इससे पहलेके स्वप्नाध्यायको और ग्रहाचार जाता है और वह कदापि इस वर्णाश्रमवती प्रकरणके अनेक अध्यायोंको फलाध्याय कहना संहिताका अंग नहीं हो सकता। दूसरे खंडके चाहिए था। क्योंकि उनमें भी इसी प्रकारका " शुरूमें, ' अथ भद्रबाहुसंहितायां उत्तरखंडः विषय है। बल्कि उक्त फलाध्यायमें जो ग्रहा- प्रारभ्यते' के बाद 'ॐनमः सिद्धेभ्यः, श्रीभचारका वर्णन है उसके सब श्लोक पिछले ग्रहा- दबाहवे नमः ये दो मंत्र देकर, ' अथ भद्रबाहुचारसंबंधी अध्यायोंसे ही उठाकर रक्खे गये हैं, र रक्ख गय है, कृत निमित्तग्रंथः लिख्यते । यह एक वाक्य तो भी उन पिछले अध्यायोंको फलाध्याय नाम, दिया है । इससे भी इस दूसरे खंडका अलग ग्रंथ नहीं दिया गया। इसलिए कहना पड़ता है कि होना पाया जाता है। इतना ही नहीं, इस खंडके यह नामकरण भी ठीक नहीं हुआ । इसके पहले अध्यायमें ग्रंथके बननेका सम्बंध (शिष्योंसिवाय ग्रंथके आदिमें मंगलाचरणपूर्वक जो का भद्रबाहुसे प्रश्न आदि ) और ग्रंथके ( दूसरे प्रतिज्ञा-वाक्य दिया है और जिसे संपूर्ण ग्रंथके ?' थक खंडके ) अध्यायों अथवा विषयोंकी सूची लिए व्यापक समझना चाहिए वह इस प्रकार है:- भी दी है जिससे इस खंडके भिन्न ग्रंथ गोवर्धनं गुरुं नत्वा दृष्ट्वा गौतमसंहिताम् । होनेकी और भी अधिकताके साथ पुष्टि वर्णाश्रमस्थितियुता संहिता वण्येतेऽधुना ॥ ३॥ होती है । अन्यथा, ग्रंथके बननेकी यह __ अर्थात्-' गोवर्धन ' गुरुको नमस्कार करके सब सम्बंध-कथा और संहिताके पूरे अध्यायों और 'गौतमसंहिता' को देखकर अब वर्णो वा विषयोंकी सूची पहले खंडके शुरूमें दी जानी तथा आश्रमोंकी स्थितिवाली सहिताका वर्णन चाहिए, जहाँ वह नहीं दी गई। यहाँपर खसूकिया जाता है। सियतके साथ एक खंडके सम्बंधमें वह असम्बद्धइस प्रतिज्ञा-वाक्यमें ' अधुना ' ( अब ) मालूम होती है। दूसरे खंडमें भी इतनी विशेषता शब्द बहुत खटकता है और इस बातको सूचित और है कि वह संपूर्ण खंड किसी एक व्यक्ति Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522828
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 09 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size13 MB
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