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________________ ComHOLESHOBHARA भद्रबाहु-संहिता । ४२५ उसके दस अध्यायोंकी सूची देते हुए, · उत्तर- खंडमें सिर्फ 'ऋषिपुत्रिका ' और 'दीप' खंड'ही लिखा है। यथाः नामके दो अध्याय ही ऐसे हैं जिनमें 'निमित्त' ग्रहस्तुतिः प्रतिष्टां च मूलमंत्रर्षिपुत्रिके। का कथन है। बाकीके आठ अध्यायोंमें दूसरी शास्तिचक्रे क्रियादीपे फलशान्ती दशोत्तरे ॥८॥ ही बातोंका वर्णन है । इससे पाठक सोच इसलिए खंडोंका यह विभाग समुचित प्रतीत सकते हैं कि इस खंडका नाम कहाँतक 'निमित्तनहीं होता। खंडोंके इस विभाग-सम्बंधमें एक खंड ' हो सकता है । रही दूसरे खंडकी बात । बात और भी नोट किये जाने योग्य है और वह इसमें १ केवलकाल, २ वास्तुलक्षण, ३ दिव्येन्दुयह है कि इस ग्रंथमें पूर्व खंडकी संधि देनेके संपदा, ४ चिह्न और ५ दिव्योषधि नामके पाँच पश्चात्, दूसरे खंडका प्रारंभ करते हुए, “अथ अध्याय तो ऐसे हैं जिनका ज्योतिषसे प्रायः कुछ भद्रबाह-संहितायां उत्तरखंडः प्रारभ्यते, सम्बंध नहीं और 'उल्का' आदि २६ अध्याय ग्रह वाक्य दिया है और इसके द्वारा दूसरे खंडको तथा शकुन ( स्वरादि द्वारा शुभाशुभज्ञान ), 'उत्तरखंड' सचित किया है; परन्त खंडके अन्तमें लक्षण और व्यंजन नामके कई अध्याय ऐसे हैं उसे वही 'मध्यमखंड ' लिखा है। हो सकता जो निमित्तसे सम्बंध रखते हैं और उस अष्टांग है कि ग्रंथकर्ताका ग्रंथमें पहले दो ही खंडोंके निमित्तमें दाखिल हैं जिसके नाम 'राजवार्तिक' रखनेका विचार हो और इसी लिए दूसरा खंड में इस प्रकार दिये हैं:शुरू करते हुए उसे 'उत्तरखंड' लिखा हो. परन्त अंतरिक्ष-भौमांग-स्वर-स्वप्न-लक्षण-व्यंजन-छिन्नानि बादको दूसरा खंड लिखते हुए किसी समय वह । अष्टौमहानिमित्तानि । विचार बदलकर तीसरे खंडकी जरूरत पैदा हुई इस खंडके शुरूके २६ अध्यायोंको उनकी हो और इस लिए अन्तमें खंडको 'मध्यमखंड , संधियोंमें दिये हुए ‘भद्रबाहुके निमित्त ' इन करार दिया हो और पहले जो उसके लिए शब्दों द्वारा निमित्ताध्याय सूचित भी किया है। * उत्तरखंड ' पद लिखा गया था उसका सुधार शेषके अध्यायोंमें एक अध्याय (नं. ३०) करना स्मृतिपथसे निकल गया हो । कुछ भी का नाम ही 'निमित्त ' अध्याय है और उसके हो, पर इससे ग्रंथका अव्यवस्थितपना प्रगट होता र प्रतिज्ञा-वाक्यमें भी निमित्त कथनकी प्रतिज्ञा है। यह तो हुई खंडोंके साधारण विभागकी की गई है । यथाः- बात; अब उनके विषय-विभागकी अपेक्षा विशेष अथ वक्ष्यामि केषांचिनिमित्तानां प्ररूपणं । नामकरणको लीजिए । ऊपर उद्धृत किये हुए कालज्ञानादिभेदेन यदुक्तं पूर्वसूरिभिः ॥ १॥ श्लोक नं. १ में दूसरे खंडका नाम 'ज्योतिष ___ इस तरह पर इस खंडमें निमित्ताध्यायोंकी रखंड ' और तीसरेका नाम 'निमित्तखंड, दिया बहुलता है । यदि दो निमित्ताध्यायोंके होनेसे है जिससे यह सूचित होता है कि ये दोनों ही तीसरे खंडका नाम 'निमित्त ' खंड रक्खा विषय एक दूसरेसे भिन्न अलग अलग खंडोंमें गया है तो इस खंडका नाम सबसे पहले 'निमित्त रक्खे गये हैं। परंतु दोनों खंडोंके अध्यााँका किया गया। इस लिए खंडोंका यह नामकरण भी खंड ' रखना चाहिए था; परन्तु ऐसा नहीं पाठ करनेसे ऐसा मालूम नहीं होता। तीसरे समचित प्रतीत नहीं होता । यहाँ पर पाठकोंको १ तीसरे खंडके अन्तमें भी उसका नाम 'नि- यह जानकर और भी आश्चर्य होगा कि इस मित्तखंड ' लिखा है। खंडके शुरूमें निमित्तग्रंथके कथनके लिए ही Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522828
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 09 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size13 MB
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