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________________ ४२४ ammmmmmmm जैनहितैषीCARTOOTEmitTTERRDESH दिग्दर्शन पहले तीन ग्रंथोंपर लिखे गये परीक्षा- की जाय और ग्रंथके साहित्यकी जाँच द्वारा लेखोंद्वारा भले प्रकार कराया जा चुका है+। भ- यह मालूम किया जाय कि यह ग्रंथ वास्तवमें कब द्रबाहुको हुए आज २३ सौ वर्षका लम्बा चौड़ा बना है और इसे किसने बनाया है । इसी लिए समय बीत गया। इस अर्सेमें बहुतसे अच्छे अच्छे आज पाठकोंका ध्यान इस ओर आकर्षित किया विद्वान् और माननीय आचार्य होगये; परन्तु जाता है । उनमेंसे किसीकी भी कृतिमें इस ग्रंथका नामोल्लेख ग्रन्थकी विलक्षणता। तक नहीं मिलता और न किसी प्राचीन शिलालेखमें ही इस ग्रंथका उल्लेख पाया जाता है। जिस समय इस ग्रन्थको परीक्षा-दृष्टिसे श्रुतकेवली जैसे आदर्श पुरुष द्वारा रचे हुए एक अवलोकन करते हैं उस समय यह ग्रन्थ ऐसे ग्रंथका, जिसका अस्तित्व आजतक चला बड़ा ही विलक्षण मालूम होता है । इस ग्रंथमें आता हो, बादको होनेवाले किसी भी माननीय तीन खंड हैं-१ पूर्व, २ मध्यम, ३ उत्तर प्राचीन आचार्यकी कृतिमें नामोल्लेख तक न और श्लोकोंकी संख्या लगभग सात हजार है। होना संदेहसे खाली नहीं है। साथ ही, श्रवण- परंतु ग्रंथके अन्तमें जो १८ श्लोकोंका ' अन्तिम बेल्गोलके श्रीयुत पंडित दौर्बलि जिनदास शास्त्री- वक्तव्य ' दिया है उसमें ग्रन्थके पाँच खंड बतजीसे मालूम हुआ कि उधर दक्षिणदेशके भंडा- लाये हैं और श्लोकोंकी संख्या १२ हजार सूचित रोंमें भद्रबाहुसंहिताकी कोई प्रति नहीं है और की है । यथाःन उधर पहलसे इस ग्रंथका नाम ही सुना जाता प्रथमा व्यवहाराख्यो ज्योतिराख्यो द्वितीयकः । है। जिस देशमें भद्रबाहुका अन्तिम जीवन तृतीयोपि निमित्ताख्यश्चतुर्थोपि शरीरजः ॥ १॥ व्यतीत हुआ हो, जिस देशमें उनके शिष्यों पंचमोपि स्वराख्यश्च पंचखंडैरियं मता । और प्रशिष्योंका बहुत बड़ा संघ लगभग १२ द्वादशसहस्रप्रमितासंहितेयं जिनोदिता ॥२॥ वर्षतक रहा हो, जहाँ उनके शिष्यसम्प्रदायमें अन्तिम वक्तव्य अन्तिम खंडके अन्तमें होना अनेक दिग्गजविद्वानों की शाखा प्रशाखायें फैली चाहिए था; परन्तु यहाँपर तीसरे खंडके अन्तमें हों और जहाँपर धवल, महाधवल आदि ग्रन्थाको दिया है। चौथे पाँचवें खंडोंका कछ पता नहीं, सुरक्षित रखनेवाले मौजूद हों, वहाँपर उनकी, और न उनके सम्बंधमें इस विषयका कोई अद्यावधिपर्यंत जीवित रहनेवाली, एक मात्रसंहि- शब्द ही लिखा है । किसी ग्रंथमें तीन खंडाके ताका नामतक सुनाई न पड़े, यह कुछ कम आश्च- हानेपरही उनका पूर्व, मध्यम और उत्तर इस प्रकापनी बात नहीं है। ऐसा होना कुछ अर्थ रखता है रका विभाग ठीक हो सकता है, पाँच खंडोंकी और वह उपेक्षा किये जानेके योग्य नहीं है । इन हालतमें नहीं । पाँच खंडोंके होनेपर दूसरे खंडको सब कारणोंसे यह बात बहुत आवश्यक जान पड़ती मध्यम ' और तीसरेको 'उत्तरखंड' कहना है कि इस ग्रंथ ( भद्रबाहुसंहिता) की परीक्षा ठीक नहीं बैठता । पहले और अन्तके खंडाके बीचमें रहनेसे दूसरे खंडको यदि 'मध्यमखंड' + इससे पहले उमास्वामि-श्रावकाचार, कुन्द-कुन्दश्रावकाचार और जिनसेन-त्रिवर्णाचार ऐसे तनि कहा जाय तो इस दृष्टिसे तीसरे खंडको ग्रंथोंकी परीक्षा की जा चुकी है, जिनके पाँच परीक्षा- भी 'मध्यमखंड ' कहना होगा, 'उत्तरखंड ' लेख जैनहितैषीके १० वें भागमें प्रकाशित हुए हैं। नहीं । परन्तु यहाँपर पद्यमें भी तीसरे खंडको, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522828
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 09 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size13 MB
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