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जैनहितैषी
अहिंसाप्रचारका काम बन्द करने पर जिस लवाल भी अपनेको राजवंशीय समझते हैं । तरह वे वैश्य बननेके लिए स्वतंत्र थे उसी जैनहितैषीके पिछले अंकोंमें भंडारियों वच्छाप्रकार क्षत्रिय बननेके लिए भी तो थे। वैश्य- वतों और दूसरे राजपूतानेके जैनोंका त्वमें उनके लिए ऐसा कोई खास प्रलोभन जो इतिहास प्रकाशित हुआ है उससे भी न था जो वे उसे ही स्वीकार करते । यह मालूम होता है कि वहाँ अभी अभी तक भी कैसे मान लिया जाय कि वे अपना काम क्षात्रधर्मकी पालना करनेवाले जैनोंकी खासी पूरा कर चके थे या जैनराजाओंके द्वारा संख्या थी । दक्षिणमें एक 'कासार' नामकी अहिंसाका प्रचार धड़ाधड़ होने लगा था । जाति है जो काँसे पीतलके वर्तन बनाने यह काम इतना बड़ा था कि यदि महावीर और बेचनेका काम करती है। इस जातिके स्वामीके समयसे लगातार आजतक वैसी ही सैकड़ों घर जैन हैं, जो शिल्पवृत्तिके कारण तेजीसे चलाया जाता तो भी समाप्त न होता। शूद्र कहे जा सकते हैं । बरारमें भी कुछ निस समय जैनधर्म उन्नतिके शिखरपर शूद्रजातियाँ जैनधर्मको पालनेवाली हैं। पहँचा हुआ था, उस समय भी भारतवर्षका ४ अब देखना यह है कि यह धर्मआधेसे अधिक भाग हिंसाप्रेमी-मांसभक्षी जिसमें क्षत्रियोंकी प्रधानता थी-मुख्यतः था और विदेशोंमें तो प्रायः सर्वत्र ही निरप- वैश्योंका ही धर्म क्यों बन गया ? तेरह लाख राधी पशुओं और दूसरे जविापर छुरी चलाई जैनोंमें साढ़े बारहलाखसे भी अधिक संख्या जाती थी । इन सबको अहिंसाप्रेमी बनानेका वैश्योंकी ही क्यों हो गई ? जैसा कि हमने काम क्या साधारण था ?
गताङ्कमें लिखा था संसारके अन्य पदार्थों के ___३ इस समय यद्यपि जैनधर्मावलम्बि- समान धर्मों में भी परिवर्तन हुआ करते हैं । योंमें अधिक संख्या वैश्यवृत्तिवालोंकी ही है; समयकी आवश्यकताओं और परिस्थितियों के परन्तु ब्राह्मण, क्षत्रिय, और शूद्र वर्णवालोंका अनुसार उनमें भी धीरे धीरे अलक्ष्यभावसे सर्वथा अभाव नहीं हो गया है । दक्षिण थोड़ा थोड़ा परिवर्तन हुआ ही करता है।
और कर्नाटकमें जैनब्राह्मणोंके बहुतसे घर संसारमें ऐसा कोई भी धर्म नहीं है जो हैं, जो उपाध्याय कहलाते हैं । वहाँ ऐसे अपने ठीक उसी रूपको बनाये हुए होभी कोई सौ घर हैं, जो अपनेको क्षत्रिय जिसमें कि वह अपने स्थापित होनेके समय बतलाते हैं । राजपूतानेके ओसवालोंके था। अपनी इस परिवर्तनशीलताके कारण वे सैकड़ों खान्दान अब भी हथियार बाँधते हैं अनेक भेदों और उपभेदोंमें विभक्त भी हुआ और यदि उनसे कोई वैश्य कहे तो वे करते हैं । ज्यों ही कोई नये परिवर्तनकी या अपनी अप्रतिष्ठा समझते हैं। वहाँके खण्डे- नये सिद्धान्तके ग्रहणकी आवश्यकता होती
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