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________________ CHOLITILIBALLOODOOTO OTHARALERY जैनधर्मके पालनेवाले वैश्य ही क्यों? tuinthinfinitititiotiiiiiiinfORTRAITAREER ४५१ है और कोई शक्तिशाली विद्वान् या आचार्य लक्षणमें अन्तर नहीं पड़ा है, पर उसका उसकी पूर्तिका प्रयत्न करता है त्यों ही उपयोग किसे और किस प्रकार करना चाउसके विरोधी खड़े हो जाते हैं-विवाद खड़ा हिए, इसमें अन्तर पड़ गया है। हमारा खयाल हो जाता है और अन्तमें दो भेद हो जाते है कि इसी प्रकारके अन्तर पड़ते रहनेसे हैं। आगे उनके चार, छह, आठ आदि जैनधर्ममें आजसे दो हजार वर्ष पहले जो विभाग होने लगते हैं । आज दुनियाका जीवनप्रद तत्त्व थे, जिनसे मनुष्य कर्मवीर, शायद ही कोई धर्म ऐसा हो, जिसकी दो कार्यक्षम और सच्चा महात्मा बन सकता था, चार शाखायें या सम्प्रदाय न हों। हमारा वे धीरे धीरे कम होते गये और इसका विश्वास है कि इस विषयमें जैनधर्म भी परिणाम यह हुआ कि जैनधर्मको पालते हुए अपवादरूप नहीं है । उसमें भी समय अपने क्षात्रधर्मका निर्वाह करना, या उसके समय पर अनेक परिवर्तन हुए हैं और वह तेजको बनाये रखना क्षत्रियोंके लिए कठिन भी अनेक मेद उपभेदोंमें बँटता रहा है। हो गया। उनकी वृत्ति धीरे धीरे बदलती हम यह नहीं कहते हैं कि इन परिवर्तनोंके गई और उसने भीरु दुर्बल सहनशील वैश्यकारण जैनधर्म सर्वथा ही बदल गया है, वृत्तिमें जाकर विश्राम लिया । क्षत्रियोंमें और अथवा उसके असलीरूपको हम देख ही वैश्योंमें जितना अन्तर है, हमारी समझमें नहीं सकते हैं, परन्तु यह अवश्य कहना उतना ही अन्तर पूर्वकालके और वर्तमानपड़ेगा कि साधारण आँखोंसे उसके दर्शन नहीं कालके जैनधर्ममें है । पं० सदासुखजीकृत हो सकते। उसके मूलरूपकी तो बहुत कुछ रक्षा रत्नकरण्डश्रावकाचारको पढ़कर क्षत्रिय वैश्य हुई है, परन्तु उसका बाह्यरूप-उसका ऊपरी बन जायगा और वैश्य उदासीन, निराशाआवरण-बहुत ही बदल गया है । एक अहिंवादी, कर्तव्यशून्य ‘धर्मात्मा ' बन जायगा। साको ही ले लीजिए। इसका एकरूप तो उस क्यों ? इस लिए कि उसकी उपदेशप्रणाली समय प्रचलित था, जब जैनधर्मके पालने- ही ऐसी है । तत्त्व उसमें जैनधर्मके ही बतवाले बड़े बड़े युद्ध करके खूनकी नदियाँ लाये गये हैं, पर यह खयाल नहीं रक्खा गया बहाते थे और एक स्वरूप अब प्रचलित है, है कि गृहस्थोंका संसारको त्याज्य समझने, जिसके कारण साधुओंकी तो बात ही जुदी फॅकफूंककर पैर रखने और शुद्ध धर्मात्मा है, साधारण नीचेसे नीचे दर्जेका श्रावक भी बन जानेके सिवाय और भी कुछ कर्तव्य है। हिंसाके डरसे रातको चिराग नहीं जलाता है जैनधर्मके प्राचीन साहित्यमें और पिछले और दन्तधावनके बिना मुँहको दुर्गन्धका घर साहित्यमें यही अन्तर है । आप जितना बनाये रहता है ! हिंसाके स्वरूपमें या जितना पिछला साहित्य देखेंगे, उसमें वेश्य Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522828
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 09 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size13 MB
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