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जैनहितैषी -
सर्वमान्यता आदिके विषय में इससे अधिक परिचय देनेकी जरूरत नहीं है । वे भद्रबाहुके द्वारा संपूर्ण तत्त्वोंकी प्ररूपणाका उसी प्रकार अविकल रूपसे होते रहना मानते हैं जिस प्रकार कि वह वीर भगवानकी दिव्यध्वनि द्वारा होती रही थी और इस दृष्टिसे भद्रबाहु वीर भगवान के तुल्य ही माने और पूजे जाते हैं । इससे पाठक समझ सकते हैं कि जैनसमाजमें भद्रबाहुका आसन कितना अधिक ऊँचा है । ऐसे महान् विद्वान् और प्रतिभाशाली आचार्यका बनाया हुआ यदि कोई ग्रंथ उपलब्ध हो जाय तो वह निःसन्देह बड़े ही आदर और सत्कारकी दृष्टिसे देखे जाने योग्य है और उसे जैनियों का बहुत बड़ा सौभाग्य समझना चाहिए । अस्तु; आज इस लेख द्वारा जिस ग्रंथकी परीक्षाका प्रारंभ किया जाता है उनके नामके साथ ' भद्रबाहु ' का पवित्र नाम लगा हुआ है। कहा जाता है कि यह ग्रंथ भद्रबहुश्रुतवलीका बनाया हुआ है । ग्रन्थ-प्राप्ति ।
जिस समय सबसे पहले मुझे इस ग्रंथ के शुभ नामका परिचय मिला और जिस समय ( सन् १९०५ में ) पंडित गोपालदासजीने इसके 'दाय - भाग' प्रकरणको अपने 'जैनमित्र' पत्रमें प्रकाशित किया उस समय मुझे इस ग्रंथके देखनेकी बहुत उत्कंठा हुई । परन्तु ग्रंथ न मिलने के कारण मेरी वह इच्छा उस समय पूरी न हो सकी। साथ ही, उस वक्त मुझे यह भी मालूम हुआ कि अभीतक यह ग्रंथ किसी भंडारसे पूरा नहीं मिला । महासभा के सर - स्वतीभंडारमें भी इसकी अधूरी ही प्रति है । इसके बाद चार पाँच वर्ष हुए जब ऐलक पन्नालालजीके द्वारा झालरापाटनके भंडारसे इस ग्रंथकी यह प्रति निकाली गई और ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजी के द्वारा, जैनमित्रमें,
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इस पूरे ग्रंथके मिल जानकी घोषणा की गई और इसके अध्यायोंकी विषय-सूचीका विवरण देते हुए सर्व साधारण पर ग्रंथका महत्त्व किया गया, तब मेरी वह ग्रंथावलोकनकी इच्छा और भी बलवती हो उठी और मैंने निश्चय किया कि किसी न किसी प्रकार इस ग्रंथको एकबार परीक्षा- दृष्टिसे जरूर देखना चाहिए। झालरा - पाटनकी उक्त प्रतिको, उसपर से कई प्रतियाँ करा कर ग्रंथका प्रचार करने के लिए, ऐलक पन्नालालजी अपने साथ ले गये थे । इस लिए उक्त ग्रंथका सहसा मिलना दुर्लभ हो गया । कुछ समके बाद जब उन प्रतियोंमेंसे एक प्रति मोरेनामें पं० गोपालदासजीके पास पहुँच गई तब, समाचार मिलते ही, मैंने पंडितजीसे उसके भेजनेके लिए निवेदन किया । उत्तर मिला कि आधा ग्रंथ पं० धन्नालालजी बम्बई ले गये है और आधा यहाँपर देखा जा रहा है । अन्तको, बम्बई, और मोरेना दोनों ही स्थानोंसे ग्रंथकी प्राप्ति नहीं हो सकी । मेरी उस प्रबल इच्छाकी पूर्ति में इस प्रकारकी बाधा पड़ती देखकर बाबा भागीरथजी वर्णीके हृदयपर बहुत चोट लगी और उन्होंने अजमेर जाकर सेठ नेमिचंदजी सोनीके लेखक द्वारा, जो उससमय भद्रबाहुसंहिता की प्रतियाँ उतारनेका ही काम कर रहा था, एक प्रति अपने लिए करानेका प्रबंध कर दिया। बहुत दिनोंके इन्तजार और लिखा पढ़ीके बाद वह प्रति देहलीमें बाबाजीके नाम वी. पी. द्वारा आई, जिसको लाला जग्गीमलजीने छुड़ाकर पहाड़ी के मंदिरमें विराजमान कर दिया और आखिर वहाँसे वह प्रति मुझको मिल गई। देखनेसे मालूम हुआ कि यह प्रति कुछ अधूरी है। तब उसके कमती भागकी पूर्ति तथा मिलानके लिए दूसरी पूरी प्रतिके मँगानेकी जरूरत पैदा हुई, जिसके लिए अनेक स्थानोंसे पत्रव्यवहार किया गया । इस
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