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________________ mamIIMILAMILLIDITORIMARY सार्वजनिक धनकी जिम्मेवारी। ४८५ क्या अन्याय किया और क्या बुराभला कहा, अनेक लोगोंके मुँहसे सुनी गई है कि खर्च जिससे वे असभ्य ठहराये गये । यदि उनके अन्धाधुन्ध हो रहा है। ऐसी दशामें बाबू लेखका परिणाम लालाजीके मुकद्दमेके या दयाचन्दनीने यदि एक नोट सचेत करनेके चन्देके लिए बुरा होताथा, तो उन्हें शीघ्र ही लिए लिख दिया तो कोई अन्याय नहीं हिसाव प्रकाशित करनेकी व्यवस्था करनी थी। किया। जनसाधारणके स्वत्वोंकी रक्षाके लिए अथवा यह प्रकट करना था कि इस कारणसे प्रत्येक व्यक्तिको इस तरह लिखनेका अधिहिसाब प्रकाशित नहीं हो सकता है । सो कार है । तीर्थक्षेत्रकमेटीके संचालक यदि न करके एक जातिकी सेवा करनेवालेको लोगोंकी ऐसी सूचनाओंका आदर नहीं करते असभ्य बतलाना, साफ बतला रहा है कि हैं, उलटा उन्हें झिड़कते हैं, तो वे अन्याय लालाजी अपने उत्तरदायित्वको नहीं समझते करते हैं और सार्वजनिक संस्थाओंके महत्त्वहैं। उन्हें यह खयाल ही नहीं है कि हम को गिराते हैं। जैनसमाज सेवक हैं, न कि स्वेच्छाचारी संस्थाओंका धन केवल किफायतशारीसे स्वामी । ही खर्च न किया जाना चाहिए, किन्तु ईमानशिखरजीका यह मुकद्दमा कोई७-८महीनेसे चल रहा है। इसमें लगभग ७०-८० हजार दारी भी उसके साथ रहनी चाहिए । एक रुपये खर्च हए बतलाये जाते हैं । ऐसी तो लोगोंसे जो धन जिस कामके लिए अवस्थामें कमेटीपर समाजका चाहे जितना लिया जाय, वह उसी काममें खर्च किया अधिक विश्वास हो, कमेटीका क्या यह कर्तव्य जाना चाहिए। यदि कभी दूसरे काममें खर्च नहीं है कि वह स्वयं अपने उक्त विश्वास- करनेकी आवश्यकता आन पड़े, तो दाताको स्थिर रखने के लिए जनसाधारणके सम्मुख ओंसे उस काममें खर्च करनेकी अनुमति ले नियमित रूपसे हिसाब प्रकाशित करती जाय ? लेनी चाहिए। दूसरे केवल इस प्रकारके समाधायह कोई ऐसा काम नहीं था जो समय पर - तयार न हो सके। यदि यह कहा जाय। नसे कि 'हम स्वयं तो नहीं खा जाते हैं ' कि बहुतसे खर्च ऐसे किये जाते हैं कि जिन- किसी कामका खर्च छुपाकर किसी दसरे के प्रकाशित होनेसे मुकद्दमा बिगड सकता मदमें डाल देना या और किसी प्रकारसे है, या प्रतिपक्षियोंको लाभ पहुँच सकता है, बतला देना भी ठीक नहीं हैं । गरज यह तो कमसे कम इतना तो हो सकता था कि कि सार्वजनिक धनका उपयोग पूरी सत्यता कमेटीके मेम्बरोंके पास ही साप्ताहिक या मा- और मितव्ययताके साथ होना चाहिए। सिक हिसाब भेजा जाता, पर सुनते हैं कि जैनसिद्धान्तप्रकाशिनी संस्थाके समान ऐसा भी नहीं होता। कमेटीके सारे मेम्बरोंको एक दो संस्थायें ऐसी भी चल रही हैं यह भी मालूम नहीं है कि क्या खर्च हो रहा जिनमें सर्व साधारणका कुछ भी हाथ नहीं है। है और किस तरह हो रहा है। यह शिकायत जो महाशय उन्हें चला रहे हैं, उनकी ९-१० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522828
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 09 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size13 MB
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