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________________ ४३४ भद्रबाहु और राजा श्रेणिकके समयतककी (प्रवर्त्यति )। ४७० वर्षसे ( ? ) प्रभु विक्रम भी खबर नहीं थी । हिन्दुओंके यहाँ ‘बृह- राजा उज्जयिनीमें अपना संवत् चलावेगा ( वर्तत्पाराशरी होरा' नामका एक बहुत बड़ा ज्योति- यिष्यति )। शक राजाके बाद ३९४ वर्ष और षका ग्रंथ है । इस ग्रंथके ३१ वें अध्यायमें, सात महीने बीतनेपर सद्धर्मका द्वेषी और ७० दरिद्रयोगका वर्णन करते हुए, सबसे पहले जो वर्षकी आयुका धारक 'चतुर्मुख' नामका श्लोक दिया है वह इस प्रकार है:- पहला कल्की हुआ (आसीत् )। उसने एक " लग्नेशे वै रिष्फगते रिष्फेशे लग्नमागते। दिन अजितभूम नामके मंत्रीको यह आज्ञा की मारकेशयुते दृष्टे जातः स्यान्निर्धनो नरः ॥ १॥ (आदिशत् ) कि 'पृथ्वी पर निग्रंथमुनि ऊपर उद्धृत किये हुए संहिताके दोनों हमारे अधीन नहीं हैं।' उनके पाणिपात्रमें सबसे पद्योंमेंसे पहले पयका पूर्वार्ध और दूसरे पद्यका पहले जो ग्रास रक्खा जाय उसे तुम करके तौर उत्तरार्ध अलग कर देनेसे यही श्लोक शेष रह पर ग्रहण करो । इस नरककी कारणभूत. आज्ञाजाता है । सिर्फ 'लग्नेशे वै' के स्थानमें 'लग्ना- को सुनकर मूढ़बुद्धि मंत्रीने वैसा ही किया धिपे ' का परिवर्तन है । इस श्लोकके आगे पीछे (अकरोत् )। इस उपद्रवके कारण मुनिजन लगे हुए उपर्युक्त दोनों आधे आधे पद्य बहुत राजासे व्याकुल हुए (आसन् ), उस उपसर्गको ही खटकते है और असम्बद्ध मालूम होते हैं। जानकर जिनशासनके रक्षक असुरेन्द्र चतुदूसरे पद्यका उत्तरार्ध तो बहुत ही असम्बद्ध र्मुखको मार डालेंगे ( हनिष्यन्तिं )। तब वह जान पड़ता है । उसके आगे इस प्रकरणके ९ पापात्मा कल्की मरकर अपने पापकी वजहसे पद्य और दिये हैं, जो उक्त होराके प्रकरणमें भी समस्त दुःखोंकी खान पहले नरकमें गया श्लोक नं. १ के बाद पाये जाते हैं। इससे (गतः)। उसी समय कल्कीका जयध्वजनामका मालूम होता है कि संहिताका यह सब प्रकरण पुत्र सुरेन्द्र के भयसे सुरेन्द्रके किये हुए जिनउक्त होरा ग्रंथसे उठाकर रक्खा गया है और शासनके माहात्म्यको प्रत्यक्ष देखकर और उसे भद्रबाहुका बनानेकी चेष्टा की गई है । इस काललब्धिके द्वारा सम्यक्त्वको पाकर अपनी सेना प्रकारकी चेष्टा अन्यत्र भी पाई जाती है और और बन्धुजनादि सहित सुरेन्द्रकी शरण गया इस 'पाराशरी होरा'से और भी बहुतसे श्लोकों- (जगाम ) ॥ ४७-५७ ॥" का संग्रह किया गया है जिसका परिचय पाठ- ऊपरके इस वर्णनको पढ़कर निःसन्देह कोंको अगले लेखमें कराया जायगा। पाठकोंको कौतुक होगा! उन्हें इसमें भूत ४ इस ग्रंथके दूसरे ज्योतिषखंडमें- काल और भविष्यत् कालकी क्रियाओंका केवलकाल नामके ३४ वें अध्यायमें-पंचम बड़ा ही विलक्षण योग देखनेमें आयगा । कालका वर्णन करते हुए, शक, विक्रम और साथ ही, ग्रंथकर्ताकी योग्यताका भी अच्छा परिचप्रथम कल्कीका भी कछ थोडासा वर्णन दिया य मिल जायगा। परन्त यहाँ ग्रंथकर्ताकी योग्यहै जिसका हिन्दी आशय इस प्रकार है:- ताका परिचय कराना इष्ट नहीं है-इसका विशेष "वर्धमानस्वामीको मुक्ति प्राप्त होनेपर ६०५ परिचय दूसरे लेख द्वाग का या जायगा, यहाँपर वर्ष और पाँच महीने छोड़कर प्रसिद्ध शकराजा सिर्फ यह दखनकी जरूरत है कि इस वर्णनसे हुआ (अभवत् )। उससे शक संवत् प्रवर्तगा ग्रंथके सम्बंध किस 3 का पता चलता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522828
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 09 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size13 MB
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