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________________ SGAMCGLAMILLIOHIBILEmLL SE भदबाह-संहिता। ४३३ दानके भेदोंको ग्रंथान्तरसे जाननेकी प्रेरणा की प्रेरणा की गई है। साथ ही, यह भी मालूम गई है; जिससे साफ मालूम होता है कि गौतम- होता है कि कुमारविन्दुने भी कोई संहिता संहितामें उनका कथन नहीं था तभी ऐसा कह- जैसा ग्रंथ बनाया है जिसमें पाँच खंड जरूर नेकी जरूरत पैदा हुई और इसलिए द्वादशांग- हैं । जैनहितैषीके छठे भागमें ‘दिगम्बर जैनके लक्षणानुसार ऐसे अधूरे ग्रंथका नाम, जिसमें ग्रंथकर्ता और उनके ग्रंथ ' नामकी जो बृहत् दानके भेदोंका भी वर्णन न हो, 'द्वादशांगश्रुत' सूची प्रकाशित हुई है उसमें भी कुमारनहीं हो सकता । बहुत संभव है कि इस संहिता- विन्दुके नामके साथ 'जिनसंहिता' का उल्लेख का अवतार भी भद्रबाहुसंहिताके समान ही हुआ किया है। यह संहिता अभीतक मेरे देखनेमें नहीं हो, अथवा यहाँ पर यह नाम दिये जानेका कोई आई; परंतु जहाँतक मैं समझता हूँ 'कुमारविन्दु' दूसरा ही कारण हो। नामके कोई ग्रंथकर्ता जैनविद्वान् भद्रबाहु श्रुत(घ) एक स्थानपर, इस ग्रंथमें, 'जटिल- केवलीसे पहले नहीं हुए । अस्तु । द्वादशांग श्रुत केश' नामके किसी विद्वान्का उल्लेख मिलता और श्रुतकवलोक स्वरूपका विचार करते हुए, है, जो इस प्रकार है:-. इन सब कथनोंपरसे यह ग्रंथ भद्रबाहुश्रुतकेवलीरविवाराद्या क्रमतो वाराः स्युः कथितजटिलकेशादेः। का बनाया हुआ प्रतीत नहीं होता। वारा मंदस्य पुनर्दद्यादाशी विषस्यापि ॥३-१०-१७३॥ ३ भद्रबाहु श्रुतकेवली राजा श्रेणिकसे इन्द्रानिलयमयक्षत्रितयनदहनाब्धिरक्षसां हरितः। लगभग १२५ वर्ष पीछे हुए हैं । इसलिए राजा इह कथित जटिलकेशप्रभृतीनां स्युः क्रमेण दिशः-॥१७४॥ श्रेणिकसे उनका कभी साक्षात्कार नहीं हो स- इन उल्लेख वाक्योंमें लिखा है कि रविवारा- कताः परन्त इस ग्रंथके दूसरे खंडमें, एक स्थानदिकके क्रमसे वारोंका और इन्द्रादिकके क्रमसे पर, दरिद्रयोगका वर्णन करते हुए, उन्हें साक्षात् दिशाओंका कथन जटिलकेशादिकका कहा राजा श्रेणिकसे मिला दिया है और लिख दिया हुआ है, जिसको यहाँ नागपूजाविधि, प्रमाण है कि यह कथन भद्रबाह मुनिने राजा श्रेणिकके माना है। इससे या तो द्वादशांगश्रुतका इस प्रश्नके उत्तरमें किया है । यथाःविषयमें मौन पाया जाता है अथवा यह नतीजा अथातः संप्रवक्ष्यामि दारिद्रं दुःखकारण । निकलता है कि ग्रंथकर्ताने उसके कथनकी लग्नाधिपे रिष्कगते रिष्केशे लग्नमागते॥अ०४१श्लो०६५ अवहेलना की है। मारकेशयुते दृष्टे जातः स्यानिर्धनो नरः। (ङ ) तीसरे खंडके आठवें अध्यायमें भद्रबाहुमुनिप्रोक्तः नृपश्रेणिकप्रश्नतः ॥-६६ ॥ उत्पातोंके भेदोंका वर्णन करते हुए लिखा है:- पाठक समझ सकते हैं कि ऐसा मोटा झूठ और एतेषां वेदपंचाशद्भेदानां वर्णनं पृथक् । ऐसा असत्य उल्लेख क्या कभी भद्रबाहुश्रुतकेवली कथितं पंचमे खंडे कुमारेण सुविन्दुना ॥ १४ ॥ जैसे मुनियोंका हो सकता है ? कभी नहीं । मुनि अर्थात्-इन उत्पातोंके ५४ भेदोंका अलग तो मुनि साधारण धर्मात्मा गृहस्थका भी यह अलग वर्णन कुमारविन्दुने पाँचवें खंडमें किया कार्य नहीं हो सकता । इससे ग्रंथकर्ताका, है। इससे साफ जाहिर है कि ग्रंथकर्ताने कुमार- असत्यवक्तृत्व और छल पाया जाता है। विन्दुके कथनको द्वादशांगसे श्रेष्ठ और विशिष्ट साथ ही, यह भी मालूम होता है कि वे समझा है तभी उसको देखनेकी इस प्रकारसे कोई ऐसे ही योग्य व्यक्ति थे जिनको Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522828
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 09 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size13 MB
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