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________________ ४३२ जैनहितैषीmultitutitutituitinnitutifumi भद्रबाहु श्रुतकेवलीका बनाया हुआ नहीं है। राज ) द्वादशांग श्रुतका कोई अंग न होनेसे नमूनेके तौरपर यहाँ उसका कुछ थोड़ासा परि- दूसरे ही विद्वानोंके बनाये हुए ग्रंथ मालूम होते चय दिया जाता है । विशेष विचार यथावसर हैं, जिनका यहाँ आदरके साथ उल्लेख किया आगे होगाः गया है और जिनका यह उल्लेख, ग्रंथकर्ताकी (क) दूसरे खंडके ३७ वें अध्यायमें, दृष्टिसे, उनमें द्वादशांगसे किसी विशिष्टताका घोड़ोंका लक्षण वर्णन करते हुए, घोड़ोंके अरबी होना सूचित करता है । आदि १८ भेद बतलाकर लिखा है कि, उनके (ग) पहले खंडके पहले अध्यायमें ‘गौतलक्षण नीतिके जाननेवाले ' चंद्रवाहन ने कहे मसंहिता'को देखकर इस संहिताके कथन करनेकी हैं। यथाः -- ऐरावताश्च काश्मीरा या अष्टादशस्मृताः । प्रतिज्ञा की गई है । साथ ही दो स्थानोंपर ये तेषां च लक्षणान्यूचे नीतिविच्चंद्रवाहनः ॥ १२६॥ वाक्य और दिये हैं:- . इस कथनसे पाया जाता है कि ग्रंथकर्ता १-आचमनस्वरूपभेदा गौतमसंहितातो ज्ञातव्याः । (भद्रबाहु )ने चंदवाहनके कथनको द्वादशांग- २-पात्रभेदा गौतमसंहितायां द्रष्टव्याः । भूम्यादिके कथनसे उत्तम समझा है और इसी लिए उसके दानभेदाश्च ग्रंथान्तरात् उत्सेयाः । देखनेकी प्रेरणा की है। इनमें लिखा है कि (१) आचमनक (ख ) तीसरे खंडमें 'शांतिविधान' नामका स्वरूप और उसके भेद गौतमसंहितासे जानने १० वाँ अध्याय है, जिसमें दो श्लोक इस प्रका- चाहिए। (२) पात्रोंके भेद गौतमसंहितामें रसे पाये जाते हैं: देखने चाहिए और भूमि आदि दानके भेद दूसरे परिभाषासमुद्देशे समुद्दिष्टेन लक्षणात् । ग्रंथोंसे मालूम करने चाहिए । इस संपूर्ण कथनसे तन्मध्ये कारयेत्कुंडं शांतिहोमक्रियोचितं ॥ १५॥ गौतमसंहिता' नामके किसी ग्रंथका स्पष्टोल्लेख हुताशनस्य मंत्रज्ञः क्रियां संधुक्षणादिकां ।। पाया जाता है । गौतमका नाम आते ही विदध्यात्परिभाषायां प्रोक्तन विधिना क्रमात् ॥१६॥ __ इन दोनों श्लोकोंमें परिभाषासमुद्देश' नामके पाठकोंके हृदयमें भगवान महावीरके प्रधान गणकिसी ग्रंथका उल्लेख है। पहले श्लोकमें परिभा- , र धर गौतमस्वामीका खयाल आजाना स्वाभाविक षासमुद्देशमें कहे हुए लक्षणके अनुसार होम- है; परन्तु यह सर्वत्र प्रसिद्ध है कि गौतमस्वामीने कुंड बनानेकी और दूसरेमें उक्त ग्रंथमें कही द्वादशांग सूत्रोंकी रचना की थी। इसके सिवाय हुई विधिके अनुसार संधुक्षणादिक (आग जलाना उन्होंने संहिता जैसे किसी अनावश्यक पृथक आदि) क्रिया करनेकी आज्ञा है। इसी खंडके ग्रंथकी रचना की हो, इस बातको न तो बुद्धि छठे अध्यायमें, यंत्रोंकी नामावली देते हुए, एक- ही स्वीकार करती है और न किसी माननीय 'यंत्रराज' नामके शास्त्रका भी उल्लेख किया प्राचीन आचार्यकी क्रतिमें ही उसका उल्लेख है और उसके सम्बंधमें लिखा है कि, इस शास्त्र- पाया जाता है। इस लिए यह 'गौतमसंहिता' के जानने मात्रसे बहुधा निमित्तोंका कथन गौतमगणधरका बनाया हुआ कोई ग्रंथ नहीं करना आजाता है । यथाः है। यदि ऐसा कहा जाय कि संपूर्ण द्वादशांगयंत्रराजागमे तेषां विस्तारः प्रतिपादितः। सूत्रों या द्वादशांग श्रुतका नाम ही 'गौतमसंहिता' येन विज्ञानमात्रेण निमित्तं बहुधा वदेत् ॥ २६ ॥ है तो यह बात भी नहीं बन सकती। क्योंकि ये दोनों ग्रंथ (परिभाषासमुद्देश और यंत्र- ऊपर उद्धृत किये हुए दूसरे वाक्यमें भूमि आदि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522828
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 09 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size13 MB
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