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विविध प्रसङ्ग ।
१ भद्रबाहु - संहिता की परीक्षा । गत चौथे पांचवें अंक में हमने सूचित किया था कि हितैषीके पाठकोंके सुपरिचित्त लेखक श्रीयुत बाबू जुगलकिशोरजी मुख्तार ' भद्रबाहु-संहिता' की परीक्षा लिखनेवाले हैं । खुशीकी बात है कि परीक्षाका लिखना शुरू हो चुका है और उसका पहला लेख इस अंक के प्रारंभ में ही प्रकाशित किया जाता है । हम अपने पाठकोंसे आग्रहपूर्वक प्रेरणा करते हैं कि वे इस लेखको . अवश्य पढ़ें और अच्छी तरह विचार पूर्वक पढ़ें । लेख कितने परिश्रमसे लिखा गया है और इसके लिए लेखक महाशयको कितनी कठिन तपस्या करनी पड़ी है, इसका अनुभव विचारशील पाठक स्वयं ही कर लेंगे। तो भी इतना कहे बिना नहीं रहा जाता कि जबसे जैनसमाजमें अन्ध श्रद्धाका साम्राज्य हुआ है, और लोग सच्चे झूठेकी परीक्षा करना भूल गये हैं, तबसे अबतक इस प्रकारका शायद एक भी प्रयत्न नहीं हुआ है । जैनसाहित्य के इतिहास में यह प्रयत्न अपना प्रभाव सदा के लिए छोड़ जायगा । हमारा विश्वास है कि ये ग्रन्थपरीक्षासम्बधी लेख लोगोंको केवल परीक्षापटु ही न बना देंगे; किन्तु यह भी सिख लायँगे कि स्वाध्याय करना-ग्रन्थोंका बारीक दृष्टिसे अध्ययन करना-किसे कहते हैं और इसमें कितने अधिक परिश्रमकी तथा कितने अधिक साधनों की आवश्यकता होती है ।
२ दिगम्बर-जैनमहासभाका सुधार । हमारे एक मित्र लिखते हैं कि " महासभा के सुधारकी कुछ लोगोंको विशेष करके जैन मित्रके
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सम्पादक महाशयको बहुत चिन्ता रहती है। जान पड़ता है कि ये सब लोग महासभा के सुधारकों कोई बहुत बड़ा काम समझते हैं । पर वास्तव में महासभाकी जो वर्तमान दशा है उसके देखते हुए उसका सुधार करना बहुत ही है। दो चार उपचारोंसे ही उसका सुधार हो सकता है । सबसे पहला और अच्छा उपाय यह है कि जैनगजट बन्द कर दिया जाय । बेचारा बहुत समय से कष्ट भोग रहा है, उसका जीना मरना बराबर हो रहा है, जो कोई उसे इस भवयंत्रणा से मुक्त कर देगा उसे बड़ा ही पुण्य होगा । उसके समाधिलाभ करनेसे महासभा के मेम्बरोंका एक बड़ा भारी बोझा घट जायगा । दूसरा उपाय यह है कि महासभाका दफ्तर बिलकुल उठा दिया जाय और महामंत्री साह - बके अनन्त आशीर्वाद ग्रहण किये जायँ । दफ्तरके उठ जानेसे जैनसमाजकी कोई न होगी, उसका कोई भी काम रुक न रहेगा; यदि कोई चाहे तो इस बात की हम गारंटी लिख दे सकते हैं । तीसरा उपाय यह है कि महाविद्यालय मथुरासे उठाकर फिर काशी भेज दिया जाय और उसका फण्ड स्याद्वादपाठशालामें शामिल कर दिया जाय । यदि यह पसन्द न हो, तो विद्यालय बन्द ही कर दिया जाय और जो रुपया है वह किसी तीर्थके मुकद्दमें में खर्च कर दिया जाय । यदि मेरी ये दोनों ही रायें कुतर्क समझी जायँ, तो विद्यालयकी रकम युद्धफण्डमें दे दी जाय और इस बातकी आशा रक्खी जाय कि महासभा के दो चार अधिकारियोंको रायबहादुरीका खिताब
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