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________________ a m AWAIMAMITRAATMALAIMIMALARIAAR विविध प्रसन। दिया जायगा । यह याद रखना चाहिए कि ये मान उद्देश्य अच्छा नहीं है ? अथवा तीनों ही उपाय जुदा जुदा फलदायक न किसी सभा या मण्डलको अपना संकुचित कार्यहोंगे; दर्शन-ज्ञान-चारित्रके समान इन तीनोंकी क्षेत्र बढ़ानेका अधिकार नहीं है ? एसोसियेशन एकतासे ही महासभाका सुधार होगा । उसको या मण्डलके नामके साथ व्यापक — जैन ' शब्द महा समाधि प्राप्त हो जायगी और इससे बढ़- लगा हुआ है, न कि दिगम्बर श्वेताम्बर या कर उसका कोई सुधार हो नहीं सकता । जो स्थानकवासी । अतः उसके उद्देश्य किसी लोग इससे विरुद्ध उपाय बतलाते हैं, वे उसे एक ही सम्प्रदायमें कैद नहीं हो सकते । यह संसारारण्यमें भटकाना चाहते हैं । सम्पादक संभव है कि उसकी स्थापनाके समयकी परिस्थिति महाशय, आशा है कि आप मेरे इन सुधारके ऐसी हो कि वह केवल दिगम्बरसमाजमें ही नये आविष्कारोंको अपने पत्रमें अवश्य प्रकाशित काम कर सकता हो, पर पीछे वह दशा नहीं कर देंगे।" इस पर ठीका टिप्पणी व्यर्थ है। रही यह देखकर मण्डलने अपना कार्यक्षेत्र बढ़ना ३ भारत-जैन-महामण्डलका सुधार। उचित समझा हो । यदि उसने अपना कार्यक्षेत्र ब्रह्मचारीजी महासभाके समान भारत-जैन- बढ़ाया तो कुछ अनुचित नहीं किया । उसके महामण्डलका भी सधार चाहते हैं । गत नवीन उद्देश्यकी सफलता न होनेका कारण पुराने आसोज सदी २ के जैनमित्रमें आपने जैन-. उद्देश्यका मारा जाना नहीं है, किन्तु काम यंगमेन्स एसोसियेशन ' का पुराना इतिहास करनेवालोंकी कमी है । भारतकी तमाम जातिप्रकाशित करनेका परिश्रम उठाया है और यह योंकी अपेक्षा जैन जाति इस विषयमें सबसे अधिक सिद्ध करनेकी कोशिश की है कि शरू शुरूमें अभागिनी है कि उसके प्रायः सभी उच्चशिक्षाप्राप्त उसका उद्देश्य दिगम्बरजैनसमाजकी उन्नति ग्रेज्युएट-जिनकी एक अच्छी संख्या है-न करनेका था । संभव है कि उसका पहले यही अपने धर्म और समाजसे ही कुछ सहानुभूति उद्देश्य रहा हो, परन्तु ब्रह्मचारीजीने उसके जो रखते हैं और न देशसे । राजनीतिक और २५ अक्टूबर सन् १८९९ को निश्चित किये हए सामाजिक दोनों ही क्षेत्र उनसे खाली पड़े हैं। ४ उद्देश्य प्रकाशित किये हैं तथा सन् १९००के वास्तवमें उनके प्रेम और उत्साहके अभावसे ही जो ३ प्रस्ताव दिये हैं, उनसे तो यह कदापि मण्डलको सफलता नहीं मिल रही है । यदि सिद्ध नहीं होता कि एसोसियेशन दिगम्बरजैन- दश बीस शिक्षित युवक अब भी कमर कसके समाजके लिए ही स्थापित हआ था. यद्यपि उस खड़े हो जाये, तो मण्डल वह काम कर सकता समय उसके सारे मेम्बर दिगंबरी ही थे। उद्दे- है जो अबतक किसी भी संस्थाने नहीं किया श्योंमें या प्रस्तावोंमें एक भी शब्द ऐसा नहीं है है। हम ब्रह्मचारीजीसे पूछते हैं कि आपकी जो उसके दिगम्बपिनको सिद्ध करता हो। और महासभाका तो कोई भी उद्देश्य नहीं मारा गया यदि थोड़ी देरके लिए यह भी मान लिया जाय है, फिर उसे सफलता क्यों नहीं हो रही है ? कि पहले यह मण्डल शुद्ध दिगम्बरी ही था. उसकी दुर्दशाका भी क्या यही कारण नहीं है तो भी इससे क्या यह सिद्ध हो गया कि कि उसमें उत्साही काम करनेवाले नहीं हैं ? उसका दिगम्बर-श्वेताम्बर-स्थानकवासी इन भारतजैनमहामण्डल कुछ काम कर रहा तीनों जैन सम्प्रदायोंकी उन्नति करनेका वर्त- है या नहीं, यह दूसरी बात है, पर इसमें Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522828
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 09 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size13 MB
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