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________________ ५०२ जैनहितैषी - वहाँसे हम कभी सजे हुए उस बागकी ओर देखते थे,कभी निमन्त्रित व्यक्तियों के वस्त्रों की शोभाको देखते थे और कभी कभी निस्तब्ध प्रकृतिको भी देख लेते थे । इसी समय किसीने हमारा कन्धा छुआ । पीछे फिरकर देखा तो स्वामीजी ! पागल स्वामी, मुण्डित शिर, कृशकाय, एक मैला गेरुआ वस्त्र पहने हुए, शरीरमें धूल रमाये, दैन्य और दारिद्र्यका जीता जागता चित्र लिये हुए उस वैभवविचित्र स्थल में खड़े हुए थे । यह वैपरीत्य हमें बहुत अच्छा लगा । एक ओर धन, ऐश्वर्य, विलास और राजसम्मान था, दूसरी ओर दैन्य दारिद्र्य और वैराग्य था । सिर्फ उनके मुँहकी ज्योति विशेष थी; किन्तु वह ज्योति रातमें अधिक दिखाई न पड़ती थी । हमने पागल स्वामीको प्रणाम करके पूछा- “स्वामीजी, आज इधर कहाँ ? ” अनेक बड़े आदी अनरेन्द्रको घेरे हुए धन्यवाद दे रहे थे । बिजली के प्रकाशमें अमरेन्द्रके चेहरे पर हँसी साफ मालूम हो रही थी । हमने कहा - " स्वामीजी, आप सामने जिसे आदमियोंसे घिरा हुआ खड़ा देखते हैं- उसने राजसम्मान पाया है, खिताब पाया है-ये सब लोग उसीका अभिनन्दन कर रहे हैं । कैसा आनन्द है ! दूसरी ओर उसकी स्त्री स्त्रियोंको भोज दे रही है। बड़ी सुन्दरी स्त्री है । अप्सराओंकी तरह उसका चेहरा है । कहिए स्वामीजी, क्या अब भी आप कह सकते हैं कि कामिनी और काञ्चन में सुख नहीं है ? " स्वामीजी सूखे हुए वृक्षके ऊपर बैठ गये । इस बार हमें उनका ज्योतिः पूर्ण मुख दिख गया । वे कहने लगे - " आज हमने मनको पूर्ण रूपसे जीत लिया है। गुरुदेव कहते हैं अब कुछ भय नहीं है। याद पड़ता है हमने तुमसे कहा था कि हन धनीके पुत्र थे और अतुल धनके मालिक थे । रुपया भी था, सुन्दरी स्त्री भी थी। अप्स - राओंके समान उसका रूप था । वह मन्थरगमना मदालसा, विलासविलोलनेत्रा और मक्खन के समान कोमल शरीरवाली थी । कामिनी और काञ्चन दोनों ही थे तब मैंने क्यों वैराग्य ग्रहण किया ?” 2 उन्होंने कहा - " हमारे पिताके एक मातृपितृस्वामीजीने हँसते हुए कहा - " तुमसे मिलने के होन भानजा था । उमरमें वह मेरी बराबरका लिए। यह क्या हो रहा है ? ” था । हम दोनों ही पिताको दादा कहते थे। हमा रा विवाह हो गया था पर वह कुँवारा था । हम स्त्रीका भी विश्वास करते थे और उसका भी विश्वास करते थे । एक दिन हमने अपनी आँखोंसे देखा - कहने की बात नहीं - हमारी स्त्री और फुफेरा भाई - " Jain Education International 'क्यों?' यह प्रश्न हमारे मन में बहुत दिनों से उठ रहा था । हम स्थिर हो कर उनकी बातको सुनने लगे । स्वामीजी चुप होगये । हमने अच्छी तरह उनके मुखको देखा । वह एकदम भावहीन था । उस पर द्वेष नहीं था, लज्जा नहीं थी, क्रोध नहीं था, काम नहीं था - थी केवल एक स्वर्गीय ज्योति । वे कहने लगे - " जवानीके मदमें मत्त होकर उस समय मैने विचार किया कि दोनोंको मार स्वामीजीने हँस दिया । फिर कहा - "हमारी डालूँ । एक पुराना नौकर भी उनके पापमें कहानी सुनोगे ? " लिप्त था । सभीको मार डालूँ और पृथ्वीका भार उतार दूँ। फिर भय हुआ, लज्जा हुई, हमने कहा - " जरूर ।” For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522828
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 09 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size13 MB
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