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________________ ४२८ SAMRIDAIMIMIMARATHAMAT जैनहितैषी किया गया मालूम होता है। यदि श्लोक नं०१९को करूँगा कि यह ग्रंथ भद्रबाहु श्रुतकेवलीका ब१६ के बाद रक्खा जाय तो “ बलाबलं च नाया हुआ नहीं है। सर्वेषां ' इस पदके द्वारा ग्रहोंके बलाबलकथ- श्वेताम्बरोंकी मान्यता। नका बोध हो सकता है। और श्लोक नं० ___ परन्तु इस सिद्ध करनेकी चेष्टासे पहले मैं १४ में दिये हुए ‘सुखग्राह्यं लघुग्रथं ' इस , - अपने पाठकोंको यह बतला देना जरूरी समपदका भी कुछ अर्थ सध सकता है ( यद्यपि झता हूँ कि यह ग्रंथ (भद्रबाहुसंहिता ) श्वेताश्रुतकेवलीके सम्बन्धमें लघुग्रंथ होनेकी बात ! म्बर सम्प्रदायमें भी भद्रबाहु श्रुतकेवलीका बनाकुछ अधिक महत्त्वकी नहीं समझी जा सकती)। ' या हुआ माना जाता है। श्वेताम्बर साधु मुनि परन्तु ऐसा करनेपर श्लोक नं० १७-१८ १७-१८ आत्मारामजीने अपने ' तत्त्वादर्श' के अन्तिम और उनके कथन-विषयक समस्त अध्या- परिलेटमें भद्रबाह श्रुतकेवलीके साथ उसका योंको अस्वीकार करके-ग्रन्थका अंग न मान । भी नामोल्लेख किया है और उसे एक ज्योतिष कर-ग्रंथसे अलग करना होगा जो कभी इष्ट शास्त्र बतलाया है, जिससे इस संहिताके उस नहीं हो सकता । इस लिए कथन अधूरा है और - दूसरे खंडका अभिप्राय जान पड़ता है जो ऊपर उसके द्वारा प्रतिज्ञाका सिर्फ एक अंश पालन एक अलग ग्रंथ सूचित किया गया है । बम्बईके किया गया है, यही मानना पड़ेगा। इस प्रकारकी श्वेताम्बर बुकसेलर शा भीमसिंह माणिकजीने और भी अनेक विलक्षण बातें हैं जिनको इस इसी भद्रबाहुसंहिता नामके ज्योतिःशास्त्रका समय यहाँपर छोड़ा जाता है । इन सब विलक्षणोंसे ग्रंथमें किसी विशेष गोल गुजराती अनुवाद संवत् १९५९ में छपाकर प्रसिद्ध किया था, जिसकी प्रस्तावनामें उक्त मालकी सूचना होती है जिसका अनुभव । प्रसिद्धकर्ता महाशयने लिखा है किःपाठकोंको आगे चलकर स्वतः हो जायगा। “आ भद्रबाहुसंहिता ग्रंथ जैनना ज्योतिष विषयहाँ पर मैं इतना जरूर कहूँगा और इस कह , इस कह यमा आद्य ग्रंथ छे. तेमना रचनार श्रीभद्रबाहुस्वामि, नेमें मुझे जरा भी संकोच नहीं है कि ऐसा चौद पूर्वधर श्रुतकेवली हता. तेमनां वचनो जैनमां असम्बद्ध,अधूरा, अव्यवस्थित और विल- आप्त वचनो गणाय छे । ... श्रीभद्रबाहुसंहिता क्षणोंसे पूर्ण ग्रंथ भद्रबाहु श्रुतकेवली जैसे नामना ग्रंथनी महत्वता अति छतां आ प्रसिद्ध थयेला विद्वानोंका बनाया हुआ नहीं हो सकता। भाषांतररूप ग्रंथनी महत्वता जो जनसमुदायने क्यों नहीं हो सकता ? यद्यपि विद्वानोंको इस अल्प लागे तो तेनो दोष पंचमकालने शिर छ ।” बातके बतलानेकी जरूरत नहीं है; वे इस ऊप- प्रसिद्धकीके इन वाक्योंसे श्वेताम्बरसम्परके कथन. परसे ही सब कुछ अनुभव कर दायमें ग्रंथकी मान्यताका अच्छा पता चलता सकते हैं; परन्तु फिर भी चूँकि समाजमें घोर है; परन्तु इतना जरूर है कि इस सम्प्रदायमें अज्ञानान्धकार फैला हुआ है, अन्धी श्रद्धा- भी दिगम्बर सम्प्रदायके समान, यह ग्रंथ कुछ का प्रबल राज्य है, गतानुगतिकता चल रही अधिक प्रचलित नहीं है। इसी लिए श्रीयुत है, स्वतंत्र विचारोंका वातावरण बंद है और कछ मुनि जिनविजयजी अपने पत्रमें लिखते हैं किविद्वान् भी उसमें दिशा भूल रहे हैं, इस लिए मैं १ यह पत्र श्रीयुत पं० नाथूरामजी प्रेमीके नाम सविशेष रूपसे इस बातको सिद्ध करनेकी चेष्टा लिखा गया है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522828
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 09 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size13 MB
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