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________________ IIIतिषी TRImmmmmunita स्ति, नास्ति, अस्तिनास्ति दोनों, और आस्त वेदान्त दर्शनमें संचित, क्रियमाण नास्ति दोनों नहीं, इन चार प्रकारकी भावना- और प्रारब्ध इन तीन प्रकारके कर्मोका वर्णन ओंके जो बहित है, उसे शून्यत्व कहते हैं। है। जैनदर्शनमें इन्हींको यथाक्रम सत्ता, इस प्रकार पूर्वी और पश्चिमी दर्शनोंके बन्ध और उदय कहा है। दोनों दर्शनोंमें जुदे जुदे स्थानोंमें स्याद्वादका मूलसूत्र स्वीकृत इनका स्वरूप भी एक सा है। होनेपर भी, स्याद्वादको स्वतंत्र दार्शनिक "सयोग केवली और अयोग केवली मतवादका उच्चासन देनेका गौरव केवल अवस्थाके सहित हमारे शास्त्रोंकी जीवन्मुक्ति जैनदर्शनको ही मिल सकता है। और विदेहमुक्तिकी तुलना हो सकती है । "जैनदर्शनके विश्वतत्त्व या द्रव्यके सम्ब- जुदे जुदे गुणस्थानोंके समान मोक्षप्राप्तिकी न्धमें जो कुछ कहा गया है उससे ही मालम जुदी जुदी अवस्थायें हमारे यहाँ भी स्वीकृत हो जायगा कि जैनदर्शन यह स्वीकार नहीं हुई हैं । योगवासिष्ठ, शुभेच्छा, विचारणा, करता कि सृष्टि किसी खास समयमें उत्पन्न तनुमानसा, सत्त्वापत्ति, संसक्ति, पदार्थाहुई है। एक ऐसा समय था जब सष्टि नहीं भावनी और नूर्यगा इन सात ब्रह्मविद् भूमिथी, सर्व शून्यमय था, उस महाशन्यके योंका वर्णन किया गया है। भीतर केवल सृष्टिकर्ता अकेला विराजमान पूर्वकथित संवर तत्त्व और प्रतिथा और उसी शून्यसे किसी एक समयमें मापालन जैनदर्शनका चारित्र भाग है । उसने इस ब्रह्माण्डको बनाया- इस प्रकारका इससे एक ऊँचे प्रकारका नैतिक आदर्श प्रतिमतवाद दार्शनिक दृष्टि से अतिशय भ्रमपूर्ण ष्ठापित हुआ है। सर्व प्रकार आसक्तिरहित है। शून्यसे- असत्से–सत्की उत्पत्ति नहीं होकर कर्म करना ही चारित्रसाधनकी मूल हो सकती । सत्कार्यवादियोंके मतसे केवल बात है । आसक्तिके कारण ही कर्मबन्ध होता सत्से ही सत्की उत्पत्ति होना संभव है। है; अनासक्तहोकर कर्म करनेसे उसके द्वारा "तो विदाते भावो नाभावो विद्यते कर्मबन्ध नहीं होता। भगवद्गीतामें निष्काम धर्म'" जैनदर्शनमें जीवतत्वकी जैसी विस्तृत विस्तारित करके व्यवहारिक जीवनका पेगे। आलोचना है वैसी और किसी भी दर्शनमें पग पर नियमित और विधिबद्ध करके एक उपहासास्पद सीमा पर पहुंचा दिया है। आलोचना ह पसा जार in ... नहीं है। उपहासास्पद सीमा पर पहुंचा दिया है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522828
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 09 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size13 MB
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