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________________ HIBAOBOLLEmumIND सम्मानित। ४९९ मालूम पड़ता था; किन्तु हमारे ऊपर कृपा करके द्वेष था । पर हमारी इस अपनी बनाई हुई वृत्तिमें चित्र खिंचाने के लिए वही साधु जिस समय जरूर कुछ सत्य था-यह बात उस दिनकी घटआँखें बन्द करके योगासनसे बैठ गया उस . नासे मालूम हो गई। समय एक अपूर्व कान्तिसे उसका सर्वाङ्ग उज्वल हम लोग जिस समय स्वामीजीका चित्र हो गया। उस रूपका वर्णन करना मुश्किल उतार रहे थे उस समय मोहन भी वहाँ आगया। है। उन्होंने अन्तरंगमें जरूर ही योगारम्भ कर वह स्वामीजीको देखकर काँपने लगा । भूतके दिया था । उस मूर्तिको देखकर हमें एक नये भयसे जिस तरह आदमी काँप उठता है-बूढ़ा प्रकारका आनन्द प्राप्त होने लगा । हमारी मोहन भी उसी तरह स्वामीजीको देखकर धारणा थी कि मनुष्यका तेज आँखको छोड़कर काँपने लगा । इसके बाद वह वहाँसे लड़खड़ाता और किसी इन्द्रियसे प्रकट नहीं होता है । हुआ बाहर चला गया । हमने उससे जाकर मदनको भस्म करते समय महादेवके ललाटमेंसे पूछा-"क्या हुआ मोहन ?" निकली हुई तेजशिखाने विश्वविजयी काम- मोहनने अर्द्धस्फुटस्वरसे कहा-"माजीकी देवको भस्म किया था-यह कथा पुराणों में तबीअत अच्छी नहीं है। आज शामको आप एक जरूर पढ़ी थी, पर आँखको छोड़कर किसी बार उधर हो आइए ।" और स्थानसे हमने तेज निकलता हुआ देखा हमने कहा-"शामको हम जरूर आयेंगे । कभी नहीं था । किन्तु स्वामीजीके सारे शरी- नाद्वारी तबीअत कैसी है " रसे एक अनिर्वचनीय ज्योति बाहर हो रही वहाँ आकर उसकी तबीअत बहुत कुछ ठीक थी। अज्ञलोगोंके लिए वह ज्योति कैसी भया- हो गई थी। उसने झूठी हँसी हँसते हुए कहानक थी-उसकी बात सुनिए " तेज धूपमें आनेके कारण डाक्टर बाबू, मेरी ___ अमरेन्द्र बाबूका मोहन नामका एक नौकर - तबीअत खराब हो गई थी।" था । केवल मोहन ही उनका त्रिपुराका नौकर . हमने कहा-"हम यह समझे कि सन्न्यासीथा, बाकी सब कलकत्तेके थे । वह रूप और , को देखकर-तुम्हारी ऐसी दशा हो गई थी।" गुणमें रवीन्द्रनाथके 'कष्टो बेटा' के समान था। मोहनने कहा-"नहीं । डाक्टर बाबू, जरूर अमरेन्द्र बाबूके घरमें उसका खूब आदर था। आइएगा। नहीं तो माजी बहुत नाराज होंगी।" वह अपनी इच्छासे ही काम करता था । जहाँ जामें आता जाता-किसीको उसे बतानेकी जरू [४] रत न थी। सभी उसका मान करते थे, उसे खुश स्वामीजी चले गये। उनका चित्र तय्यार हो रखते थे और उससे प्रेम करते थे। पर न मालूम गया। चित्रमें उनकी उस ज्योतिका विकास क्यों हमें उससे पहले दिनसे ही घिन थी। न अवश्य ही नहीं हो सका; पर फिर भी चित्रमें मालूम क्यों उसे हम बहुत बड़ा पापी, निष्ठुर- उनके चेहरेपर यथेष्ट तेज मालूम पड़ता था। उस और विश्वासघातक समझते थे; पर अमरेन्द्र चित्रको देखकर सबने सुरेश्वरके शिल्पचातुर्य्यकी बाबू और उनकी स्त्रीका उस पर पूरा विश्वास प्रशंसा की। था। निस्सन्देह हमारी जानमें उसने कोई बुरा- उस दिन अमेरन्द्र बाबू उस समय तक घर काम नहीं किया था; किन्तु फिर भी हमें उस से नहीं लौटे थे। उनकी स्त्री हमसे अपने कल्पित Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522828
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 09 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size13 MB
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