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________________ ४३० mummmmmmm जैनहितैषी स्पेलो ग्रंथ आटलो स्वल्प होय एम अंतःकरण कबुल सर्वानेतान्यथोद्दिष्टान् भगवन्वक्तुमर्हसि । करतुं नथी, ते ग्रंथ वाराहीसंहिता करतां पण अति प्रश्नं शुश्रूषवः सर्वे वयमन्ये च साधवः ॥ २० ॥ विस्तारवालो होवो जोइए।" अर्थात्-'हे भगवन क्या आप कृपाकर इन ___ समझमें नहीं आता कि क्यों हीरालालजीने समस्त यथोद्दिष्ट विषयोंका वर्णन करेंगे ! हम ऐसा अधूरा, गलत और कल्पित अनुवाद प्रका- सब शिष्यगण तथा अन्य साधुजन उनके सुनशित करनेके लिए दिया और क्यों उसे भी- नेकी इच्छा रखते हैं।' इसके बाद ग्रंथमें दूसरे. मसी माणिकजीने ऐसी संदिग्धावस्थामें प्रका- अध्यायका प्रारंभ करते हुए, जो वाक्य दिये हैं शित किया । यदि सचमुच ही श्वेताम्बरसम्प्र- वे इस प्रकार हैं:दायमें ऐसी कोई भद्रबाहुसंहिता मौजूद है ततः प्रोवाच भगवान् दिग्वासा श्रमणोत्तमः । जिसका उपर्युक्त गुजराती अनुवाद सत्य समझा यथावस्थासुविन्यासद्वादशांगविशारदः ॥१॥ जाय तो मुझे इस कहनेमें भी कोई संकोच नहीं भवद्भिर्यदहं पृष्टो निमित्तं जिनभाषितं । समासव्यासतः सर्व तन्निबोध यथाविधि ॥२॥ है कि वह संहिता और भी आधिक आपत्तिके योग्य है। अर्थात् यह सुनकर यथावत् द्वादशांगके ग्रन्थ कब बना? और किसने . ज्ञाता उत्कृष्ट दिगम्बर साधु भगवान् भद्रबाहु बोले कि 'आप लोगोंने संक्षेप-विस्तारसे जो कुछ बनाया? जिनभाषित निमित्त मुझसे पूछा है उस संपूर्ण अब यहाँपर, विशेष रूपसे परीक्षाका प्रारंभ निमित्तको सुनिए ।' करते हुए, कुछ ऐसे प्रमाण पाठकोंके सम्मुख एक स्थानपर, इसी खंडके ३६ वें अध्यायमें उपस्थित किये जाते हैं जिनसे यह भले प्रकार प्रकार पुरुषलक्षणोंके बाद स्त्री-लक्षणोंका वर्णन करते स्पष्ट हो जाय कि यह ग्रंथ भद्रबाहु श्रुतकेवली वला- हुए यह भी लिखा है:का बनाया हुआ नहीं है और जब उनका बनाया कन्या च कीदृशी ग्राह्या कीदृशी च विवर्जिता । हुआ नहा है तो यह कब बना है आर इस कीदृशी कलजा चैव भगवन्वक्तुमर्हसि ॥ १३६ ॥ किसने बनाया है: भद्रबाहुरुवाचेति भो भव्याः संनिबोधत । १ इस ग्रंथके दूसरे खंडके पहले अध्या- कन्याया लक्षणं दिव्यं दोषकोशविवर्जितम् ॥१३०॥ यमें ग्रंथके बननेका जो सम्बंध प्रगट किया है अर्थात्-हे भगवन् , क्या आप कृपया यह उसमें लिखा है कि, एक समय राजगृह नगरके बतलाएँगे कि ग्राह्य कन्या कैसी होती है, विवर्जिता पांडुगिरि पर्वत पर अनेक शिष्य-प्रशिष्योंसे घिरे कैसी और कुलजा किस प्रकारकी होती है ? हुए द्वादशांगके वत्ता भद्रबाहु मुनि बैठे हुए थे। इस पर भद्रबाहु बोले कि हे भव्यपुरुषो तुम उन्हें प्रीतिपूर्वक नमस्कार करके शिष्योंने, दिव्य- कन्याका दोषजालसे रहित दिव्य लक्षण सुनो । ज्ञानके कथनकी आवश्यकता प्रगट करते हुए, इसके सिवाय इस खंडके बहुतसे श्लोकोंमें 'भद्रउनसे उस दिव्यज्ञान नामके निमित्त ज्ञानको बाहुवचो यथा-' भद्रबाहुने ऐसा कहा है-इन बतलानेकी प्रार्थना की और साथ ही,उन विषयोंकी शब्दोंके प्रयोगद्वारा, यह सूचित किया है कि नामावली देकर जिनको क्रमशःकथन करनेकी अमुक अमुक कथन भद्रबाहुके वचनानुसार लिखा प्रार्थना की गई, उन्होंने नम्रताके साथ अन्तमें गया है। उन श्लोकोंमेंसे दो श्लोक नमुनके तौर यह निवेदन किया: पर इस प्रकार हैं: Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522828
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 09 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size13 MB
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