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जैनधर्म और जैनदर्शन । CRAFTTTRETIREMEND MERICITICE
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केवल एक रूपान्तर है । इस तरह नाना ब्दिमें जैनधर्मका प्रचार किया था । पार्श्वमुनियोंके नाना प्रकार कल्पनाप्रसूत मत नाथके पूर्ववर्ती अन्य २२ तीर्थकरोंके सम्बफैल रहे थे, जिनकी असारता अब धीरे धीरे न्धमें अबतक कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं प्रकट होती जाती है।
मिला है। ___“यह अच्छीतरह प्रमाणित हो चुका है " तैर्थिक, निर्ग्रन्थ और नग्न नाम भी कि जैनधर्म बौद्धधर्मकी शाखा नहीं है। जैनोंके लिए व्यवहृत होता है । यह तीसरा महावीर स्वामी जैनधर्मके स्थापक नहीं है, नाम जैनोंके प्रधान और प्राचीनतम दिगम्बर उन्होंने केवल प्राचीन धर्मका प्रचार किया सम्प्रदायके कारण पड़ा है । मेगास्थनीज था। महावीर या वर्द्धमानस्वामी बुद्धदेवके इन्हें Gymnosphists या नग्न दर्शिनिकके समकालिक थे । बुद्धदेवने बुद्धत्व प्राप्त करके नामसे उल्लेख कर गया है। धर्मप्रचारकार्यमें व्रती होकर जिस समय “ग्रीसदेशमें एक ईलियाटिक नामका धर्मचक्रका प्रवर्तन किया था, उस समय -
सम्प्रदाय हो गया है । वह एक नित्य परिमहावीरस्वामी एक प्रसिद्ध धर्मशिक्षक थे।
। वर्तनरहित अद्वैत सत्तामात्र स्वीकार करके बौद्धोंके त्रिपिटक नामक ग्रन्थमें · नातपुत्त'
_ जगतके सारे परिवर्तनों, गतियों और क्रियानामक जिस निर्ग्रन्थ धर्मप्रचारकका उल्लेख
ओंकी संभावनाको अस्वीकार करता है । इस है, वह नातपुत्त ही महावीर स्वामी हैं ।
मतका प्रतिद्वन्द्वी एक हिराक्लीटियन सम्प्रउन्होंने ' ज्ञातुं' नामक क्षत्रियवंशमें जन्म -
दाय हुआ । वह विश्वतत्त्व ( द्रव्य ) की ग्रहण किया था, इसलिए वे ज्ञातृपुत्र (पाली
- नित्यता सम्पूर्णरूपसे अस्वीकार करता है । भाषामें आतपुत्त ) कहलाते थे । जैनमता
- उसके मतसे जगत् सर्वथा परिवर्तनशील नुसार महावीरस्वामी चौवीसवें या अन्तिम
है। जगत्स्रोत अवारित गतिसे बह रहा है। तीर्थकर थे । उनके लगभग २०० वर्ष पहले
. एक क्षण भरके लिए भी कोई वस्तु एक तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथस्वामी हो चुके थे।
। भावसे स्थितिशील होकर नहीं ठहर सकती। अभीतक इस विषयमें सन्देह था कि पार्श्व
- ईलियाटिक-सम्प्रदाय-प्रचारित उक्त नित्यवाद नाथ स्वामी ऐतिहासिक व्यक्ति थे या नहीं; और हिराकीटियनसम्प्रदायप्रचारित परिवर्तनपरन्तु डा० हर्मन जैकोबीने सिद्ध किया है
३ वाद पाश्चात्य दर्शनोंमें समय समय पर अनेपार्श्वनाथने ईस्वीसनसे पहले आठवीं शता
ता- करूपसे नाना समस्याओंके बीच होकर १ दिगम्बर सम्प्रदायके ग्रन्थोंमें महावीरस्वामीके प्रकट हए हैं। इन दो मतोंके समन्वयकीवंशका उल्लेख 'नाथ' नामसे मिलता है, जो निश्चय
मिलानेकी-अनेक वार चेष्टा भी हुई है। ही 'ज्ञात' के प्राकृतरूप ‘णात' का ही रूपान्तर है। -सम्पादक।
परन्तु वह फलवती कभी नहीं हुई। वर्त
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