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________________ ४७२ जनहितैषीfilimmitinuinni इस पर दिगम्बरत्वकी मुहर ( छाप ) लगा प्रचार देख कर उन्हें इसके कर्ताके विषयमें दी है । बस इन्हीं दो कारणोंसे यह ग्रन्थ विशेष जाननेकी इच्छा हुई हो और पूछदिगम्बर सम्प्रदायका समझा जाने लगा है। ताछ करने पर सोमप्रभाचार्यके दिगम्बर देखिए, कविवरजीकी वह महर यह है:--- होनेमें, उन्हें कोई विश्वसनीय-ऐतिहासिक जैनवंश-सर-हंस दिगम्बर, दृष्टिसे नहीं किन्तु सांप्रदायिक दृष्टिसे-बात मुनिपति अजितदेव अति आरज ॥ ज्ञात हुई हो और फिर उसके आधारसे ऐसा ताके पट्ट वादिमद-भंजन, स्वाभाविक लिखा गया हो । दूसरा यह कि, प्रकटे विजयसेन आचारज ॥ कविवरजी जब प्रथम श्वेताम्बर संप्रदायमें थे, ताके पट्ट भये सोमप्रभ, तिन ये ग्रन्थ कियो हित कारज । तब, उन्हें यह ग्रंथ बहुत प्रियकर लगा हो; जाके पढ़त सुनत अवधारत, और फिर संप्रदायके परिवर्तन करनेका कारण हैं सुपुरुष जे पुरुष अनारज । उपस्थित होनेपर, अपने समान इसका भी -बनारसीविलास पृ०६८। यह पद्य सूक्तिमुक्तावलीके अन्तिम-पद्य संप्रदाय बदल देने की इच्छासे, उन्होंने इसका का-जो ऊपर लिखा जा चुका है-भावानुवाद अच्छा अनुवाद बनाकर केवल चार अक्षरोंके मात्र है । इस लिए जो बात मूलमें है संमिश्रणसे इसमें, दूसरे संप्रदायमें प्रविष्ट उसीका भाव अनुवादमें आना चाहिए; परंतु होनेकी शक्तिका संचार कर दिया हो । कुछ इसमें उन्होंने अपनी तरफके चार अक्षर भी हो, परंतु यह ग्रन्थ उन्हें था बहुत प्रिय । मिला दिये हैं जिससे यह मूलका ठीक ठीक - इसके पाठसे उन्हें अनार्य भी आर्य होते संवाद न देकर एक पक्षका पक्षकार या वकील प्रतीत होते थे। अपने इस अनुरागके कारण बन गया है और सोमप्रभ तथा उनके गुरु ही वे इसे दिगम्बर-संप्रदायमें आदर दिला गये । और दादा गुरु-सवको दिगम्बर बतलाता है। अब हमें श्वेताम्बर साहित्यकी ओर दृष्टि परन्तु इसमें जो दिगम्बर शब्द है उसे कवि- डालना चाहिए और देखना चाहिए कि वह वरजीने अपनी ओरसे लिखा है। मूलमें यह इस ग्रन्थके विषयमें क्या प्रमाण दे सकता है। शब्द या इसका पर्यायवाचक-अथवा भावो- सोमप्रभाचार्य, श्वेताम्बरसंप्रदायकी मुख्य द्योतक भी-कोई शब्द नहीं है । इस शब्द- शाखा-जो तपागच्छके नामसे विख्यात को खास इच्छा-पूर्वक प्रयोग करनेमें उनका है-उसके एक प्रतिष्ठित और पट्टधर आचार्य क्या आशय था सो जानना कठिन है; परंतु थे। विक्रमकी १३ वीं शताब्दीके पूर्वार्द्ध पर्यन्त कल्पना करने पर दो अस्पष्ट कारण हमें ये विद्यमान थे । सुविख्यात जैनधर्मधारक प्रतिभात हुए । एक तो यह कि सूक्तिमुक्ता- महाराज कुमारपाल और जगद्विश्रुत आचार्य वलीका श्वेताम्बर संप्रदायमें भी विशेष रूपसे श्रीहेमचन्द्रजीके समयमें, गुर्जर-राजधानी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522828
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 09 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size13 MB
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