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________________ MITRATIMALLLLLLLLLLLL ४७६ जैनहितैषी पद प्राप्त होता है, इन्द्र और चक्रीकी पदवी काम चल जाता है, परन्तु यह जाननेका तो संघके भक्तके लिए न कुछ है, संघकी जरूरत है कि दिगम्बर सम्प्रदायमें कहीं इस महिमाका वर्णन वाचस्पतिकी भी वाणी नहीं बातका भी जिकर है या नहीं कि इन्द्रने कर सकती, पवित्रताके कारण संघको 'तीथे' संघको नमस्कार किया है । यदि ऐसा न या तारनेवाला कहा है, संघको और तो क्या है क्या हो तो उक्त पाठपरिवर्तन करना भी निरस्वयं तर्थिंकरदेव नमस्कार करते हैं, संघ र्थक होगा। समस्त गुणोंकी खान है, भगवत् संघ अतिशय पूजनीय है, आदि विशेषण उक्त संघा २ कविवर बनारसीदासजी आध्यात्मिक धिकारमें ऐसे हैं जो दिगम्बरसम्पदायके पुर " पुरुष थे। उनकी रचनासे पता लगता है अनुयायांके लिए बिलकुल अपरिचित हैं। । कि वे बहुत ही निष्पक्ष विद्वान् थे। उनमें पर श्वेताम्बर सम्प्रदायमें संघका महत्त्व सच- इस प्रकारके साम्प्रदायिक मोहकी तो संभामुच ही बहुत अधिक वर्णन किया गया है वना ही नहीं हो सकती है कि वे किसी और इससे हमारी समझमें यह ग्रन्थ श्वेता श्वेताम्बर आचार्यको जानबूझकर दिगम्बर म्बरी ही अँच पड़ता है। ' बना दें। या तो उनको स्वयं ऐसा विश्वास निर्णयसागरप्रेसकी काव्यमालामें जो होगा कि यह दिगम्बर ग्रन्थ है, या जिस सूक्तिमुक्तावली छपी है और जो तीन प्राचीन प्रतिपरसे उन्होंने अनुवाद किया होगा, उसपुस्तकोंके आधारसे संशोधित हुई है, उसमें की ही किसी टीका टिप्पणीमें ग्रन्थके दिग२२ वें नम्बरके श्लोकका तसिरा चरण म्बर होनेका उल्लेख होगा । बम्बईके तेरहइस प्रकार है: - पंथी मन्दिरमें बासोदेके भंडारसे आई हुई " यस्मै तीर्थपतिर्नमस्यति सतां यस्माच्छुभं जायते” एक सूक्तिमुक्तावली है । इसके १३ पत्र हैं। अर्थात् “जिस संघको तीर्थकरदेव नम- प्रारंभका एक पत्र नहीं है। इसके अन्तमें स्कार करते हैं और जिससे सबका कल्याण लिखा है- " संवत् १६३० वर्षे चैत्र होता है ।" परन्तु दिगम्बर सम्प्रदायमें यह सुदि ८ बुद्धे दिने श्रीमूलसंघे बलात्कारगण बात मान्य नहीं है कि तीर्थंकरदेव संघको सरस्वतीगच्छे कुंदकुंदाचार्यान्वये अस्मिन नमस्कार करते हैं, इसलिए दिगम्बर अधि- मालवदेशे आचार्य पद्मनन्दिदेव तत्पट्टे आकारकी या दिगम्बरोंकी छपाई हुई पुस्तकोंमें चार्य श्रीयशकीर्तिदेव तत् सिष्य ब्रह्म आसे'तीर्थपति' की जगह कहीं 'देवपति' और सा इदं लिखितं । श्रेयस्तु कल्याणमस्तु । श्री। कहीं 'स्वर्गपति' पाठ मिलता है । यद्यपि छ ।" इससे मालूम होता है कि संवत् साधारण दृष्टिसे स्वर्गपति और देवपति पाठ १६३० में यशकीर्ति भट्टारकके शिष्य भी कुछ बुरे नहीं मालूम होते हैं और इनसे आससा ब्रह्मचारीने इसे लिखा था। इसमें Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522828
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 09 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size13 MB
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