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________________ ५१८ KATARIAGEBALABALLAHBAIAHELIBABARD जैनहितैषी आदि डालकर ये सहियाँ कराई हैं । अस्तु । बड़ा भारी हित या अहित होनेवाला नहीं है। पंच नियत करना या नहीं करना, यह दोनों सुलहकी पक्षमें सही देकर ही यदि सब लोग सम्प्रदायोंकी और खास करके वादी प्रतिवादि- बैठ रहेंगे तो यह काम आगे न बढ़ सकेगा; और योंकी इच्छा पर निर्भर था, उनसे कोई जबर्दस्ती विपक्षमें सही देनेवाले सज्जन यदि भीतरसे सुलएकता करनेको नहीं कहता था, एकताके हिमा- हके पक्षपाती होंगे तो उनसे कुछ सुलहके मिशयती भी दबाव डालकर नहीं किन्तु नम्र प्रार्थना नकी हानि नहीं हो सकेगी। उदाहरणके तौर पर और समझौतेके मार्गसे ही काम कर रहे थे, इसके इन्दौरके एक प्रतिष्ठित सेठजीने मेरे इस आन्दोसिवाय एकताकी हिमायत दिगम्बर-श्वेताम्बर लनके प्रति सहानुभूति प्रकट की थी; परन्तु दोनों पक्षके सेठ और बाबुओंकी ओरसे (न कि उन्हींके मुनीमजीसे सेठजीके नामकी सही लालाकिसी एक ही सम्प्रदायकी ओरसे) होती थी, जीने अपने निन्दात्मक पेम्फलेटमें करा ली है। तब यह समझमें नहीं आता कि एक लालाजीको मेरा विश्वास है कि एक दिन ये हमारे विरुद्ध सहीही इसमें अपने धर्मके ध्वंस होनेका भय देनेवाले सज्जन भी जगत्को 'शासनप्रेमी' बनाक्यों हुआ ? जब अभीतक श्वेताम्बरोंने ऐसी नेमें हमारे साथ हाथ मिलायँगे और परस्परके कोई कार्रवाई नहीं की है तब लालाजी जैसे वैरविरोधको भुला देंगे; बल्कि इससे भी धर्भोन्मत्तोंके लिखे हुए अण्डवण्ड लेख पर आगे बढ़कर मैं तो यह भावना भाता हूँ कि दिगम्बर समाजके सेठ सज्जनोंने सही देकर और अपने खर्चसे इस आन्दोलनको जारी रखनेके अपनी शामिलगीरी बतलाकर हमारी समझम ता अपराधके कारण मेरा गालियोंसे सत्कार करश्वेताम्बरोंके सन्मुख अपनी अनुदारता ही प्रकट नेवाले लालाजी और उनकी प्रेरणासे सही करकी है और मानों बतला दिया है कि हम नेवाले तमाम सज्जन एक दिन रागद्देषका नि:सुलहको नहीं कलहको पसन्द करते हैं । मैं - शेष क्षय करके वीतराग अवस्था प्राप्त करें। श्वेताम्बरसम्प्रदायके प्रसिद्ध प्रसिद्ध सेठोंसे । -अगुओंसे मिला हूँ और उन्होंने इस एकताके एक बात और लिखकर मैं इस लेखको समाप्त आन्दोलनके प्रति पूरी पूरी सहानुभूति प्रकट की करूँगा । लालाजीको, मेरी एकताकी चर्चाको है । इसी प्रकार मैं दिगम्बर सम्प्रदायके भी 'कूटनीति' कहकर और उसमें शामिल होनेवाले कई सुप्रसिद्ध अगुआ-सेठोंसे मिला हूँ और उन्होंने प्रसिद्ध दिगम्बर महाशयोंको धर्मशन्य, खाद्याभी इस आन्दोलनके प्रति प्रसन्नता प्रकट की है। खाद्यविचारहीन आदि विशेषण देकर भी सन्तोष इसलिए मुझे विश्वास है कि धीरे धीरे लोकमत नहीं हुआ, इसलिए उन्होंने लगे हाथ मुझपर तैयार हो जायगा और धर्म तथा देशकी नीवरूप भी पुष्पवृष्टि कर डाली है और इसे मैं सचमुच ही एकताका शुभागमन जैनसमाजमें अवश्य होगा। उनकी कृपावृष्टि ' समझता हूँ । यद्यपि जैसा कि लालाजीने हमारी अपील पर सही करने. लालाजी कहते हैं, मैं तीर्थरक्षामें पाप नहीं बतवाले सज्जनोंपर जिस तरह कटाक्ष किया है, लाता हूँ, (मैं तो तीर्थरक्षाका अच्छेसे अच्छा उनके पेम्फलेट पर सही करनेवालों पर वैसा और थोड़े खर्चवाला मार्ग बतलाता हूँ ) तो भी कटाक्ष करनेकी मेरी इच्छा नहीं है; परन्तु यह मुझे इस बातको स्वीकार करनेमें कोई संकोच मैं अवश्य कहूँगा कि पक्ष या विपक्षके लेखोंपर नहीं है कि मैं किसी मूर्तिकी पूजा नहीं करता दश पाँच सहियाँ अधिक या कम होनेसे कोई (और पूजनेवालोंको रोकना भी नहीं चाहता )। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522828
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 09 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size13 MB
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