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________________ ARRIAGEHLILAHABHAILABILIBRARMER जैनधर्मके पालनेवाले वैश्य ही क्यों ? ४५३ लाखों ही ब्राह्मण जैनधर्मके उपासक हुए था कि मद्रास प्रान्तके एक लाखसे अधिक होंगे; परन्तु जैन होने पर उनकी ब्राह्मणवृत्ति जैन ईसाई बनाये जा चुके हैं और उनमें न रही होगी। उन्हें वैश्यवृत्ति ग्रहण करनी अधिकांश शद्र थे। पिछले कई सौ वर्षोंसे पड़ी होगी और वे कुछ समय तक ब्राह्मण नेनोंमें प्रभावशाली उपदेशकों और साधुओंका कहलाकर वैश्यों में ही लीन हो गये होंगे। अभाव हो रहा है, इस कारण नये जैन तो पद्मावतीपुरवारोंमें जो पांडे हैं वे ब्राह्मण कोई बनाये नहीं गये और पुरानोंको दूसरे बतलाये जाते हैं और कहा जाता है कि वे धर्मवालोंने मँड लिया। हमारी समझमें तो कहीं दक्षिणकी ओरसे बुलाये गये थे। कुछ अभी यही एक कारण आता है जिससे जैनसमय तक तो उन्होंने किसी तरह दानदक्षि- धर्मके माननेवालोंमें शद्रोंका प्रायः अभाव हो णासे अपना काम चलाया; परन्तु पीछे न रहा है। यह भी जान पड़ता है कि बहुतसे चला और उन्हें भी वैश्यवृत्ति ग्रहण करनी शद्र जैन धीरे धीरे अपनी शूद्रवृत्तिको छोड़कर पड़ी । लोग जानते हैं कि उनका बेटीव्यव- वैश्य बन गये हैं और इसविषयमें उन पर । हार पद्मावतीपुरवारोंके साथ अबसे लगभग वैश्य जैनोंकी बड़ी भारी संख्याका प्रभाव पड़ा १०० वर्ष पहले ही शुरू हुआ है। है। जैनोंमें एक दो जातियाँ ऐसी हैं भी जो ८ अब शूद्रोंको लीजिए कि इनका अभाव पहले शुद्र थी, पर अब वैश्यवृत्तिसे निर्वाह कैसे हो गया । इनके पढ़ाने लिखानेकी या करती हैं। दिगम्बरसम्प्रदायके अनुसार इनकी ज्ञानशक्तिको विकसित करनेकी ओर जैनसाध शद्रोंके यहाँ भोजन नहीं करते, शूद्र शायद ही कभी ध्यान दिया गया हो। मोक्षका अधिकारी नहीं, वह अधिकसे अधिक ये लोग सदा अज्ञानमें ही पड़े रहे । इस- लल्लक हो सकता है-मुनि नहीं हो सकता, लिए आज यदि एक जैन आचार्यने हजार उसे शायद पूजन करनेकी भी आज्ञा नहीं दो हजार शूद्रोंको जैन बनाया, तो कल एक है। संभव है कि इन संकुचित अधिकारोंका शैवाचार्यने आकर उन्हें शैव बना डाला। भी इस विषयमें प्रभाव पड़ा हो। दक्षिणमें कासारोंके हजारों घर ऐसे हैं जो आशा है कि इस प्रश्नपर जैनसमाजके पहले जैन थे, उनके बनाये हुए जैनमन्दिर तक विद्वानोंका चित्त आकर्षित होगा और वे मौजूद हैं, पर अब वे शैव हैं। कुछ समय अपने अपने विचार प्रकट करके इसका समापहले एक थियोसोफिस्टने प्रकाशित किया धान करेंगे। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522828
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 09 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size13 MB
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