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मोहरिते सच्चवयणस्स पलिमंथू ( ठाणंगसुत्त, ५२९)
'मुखरता सत्यवचननी विघातक छे'
अनुसन्धान प्राकृतभाषा अने जैनसाहित्य-विषयक सम्पादन, संशोधन, माहिती वगैरेनी पत्रिका
सम्पादक: विजयशीलचन्द्रसूरि
श्रीहेमचन्द्राचार्य
कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी
स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि
अहमदाबाद २०१०
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अनुसन्धान ५३ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषाङ्क भाग-१
आद्य सम्पादक: डॉ. हरिवल्लभ भायाणी
सम्पादकः विजयशीलचन्द्रसूरि
सम्पर्क:
C/o. अतुल एच. कापडिया A-9, जागृति फ्लेट्स, पालडी महावीर टावर पाछळ, अमदावाद-३८०००७ फोन : ०७९-२६५७४९८१
प्रकाशकः कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम
जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि,
अहमदाबाद प्राप्तिस्थानः (१) आ. श्रीविजयनेमिसूरि जैन स्वाध्याय मन्दिर
१२, भगतबाग, जैननगर, नवा शारदामन्दिर रोड, आणंदजी कल्याणजी पेढीनी बाजुमां,
अमदावाद-३८०००७ (२) सरस्वती पुस्तक भण्डार
११२, हाथीखाना, रतनपोल, अमदावाद-३८०००१
प्रतिः २५०
मूल्य: Rs. 100-00
मुद्रकः
क्रिश्ना ग्राफिक्स, किरीट हरजीभाई पटेल ९६६, नारणपुरा जूना गाम, अमदावाद-३८००१३ (फोनः ०७९-२७४९४३९३)
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निवेदन
संशोधन ए सतत चालनारी प्रक्रिया छे. तेनो वास्तविक आधार स्वाध्याय छे. जेम सारुं प्रवचन स्वाध्याय विना न संभवे, तेम साचुं संशोधन पण स्वाध्याय विना न थई शके. उपनिषद्नुं सूत्र “स्वाध्याय - प्रवचनाभ्यां न प्रमदितव्यम्" अथवा तो “स्वाध्यायान्मा प्रमदितव्यम् " ए स्वाध्यायनी अनिवार्यतानुं मार्मिक सूचन आपनारुं सूत्र छे. स्वाध्याय जेम सघन, तेम प्रवचन प्रतीतिजनक. ए ज रीते, स्वाध्याय जेटलो सुदृढ, एटलुं ज संशोधन सत्यनी निकट लई जनारुं बने.
स्वाध्यायना बे मोटा लाभः बोध विशद बने अने चित्त पोताना विषयमां एकाग्र थाय. कुशल संशोधक माटे जरूरी गुणोमां आ बे गुणो बहु ज महत्त्वना गणाय. आ उपरांत पण केटलाक गुणो एक सारा संशोधकमां होवा आवश्यक छे. ते आ
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समतोलता : संशोधकनुं चित्त समतोल होय. ते पक्षपाती होय तो फक्त सत्यनो होय; कोई व्यक्तिनो के तेनी मान्यतानो के पछी पोताना पूर्व-निर्धारित मतनो पक्षपाती ते न होय. 'अमुक कहे छे - माने छे माटे खोटुं', अने 'अमुक कहे छे माटे साचुं' आवो पक्षपात करवो संशोधकने न पालवे. ते 'पुरावा'ने बोलवा दे. ते ‘प्रमाणो’नुं ज सांभळे. डॉ. रमणलाल ना. महेता (विख्यात पुरातत्त्वविद) कायम कहेता के "अमे कोईनी मान्यताने के मन्तव्यने लक्ष्यमां न लईए. अमारे तो पथरा-ठीकरां जे बोले ते ज सांभळवानुं.'
"
निर्भयता : संशोधक निर्भय होय - होवो घटे. पोताने अनुकूळ होय तेवा लोकोनी वात पण, जो प्रमाण - पुरावानी दृष्टिए अवास्तविक होय तो, विवेकपूर्वक पण, ते लोकोने ‘तेमनी वात के मान्यता खोटी छे के सत्यथी दूर छे' तेटलुं कहेवानी तेनामां हिम्मत अथवा निर्भयता होवी जोईए. भय अने प्रलोभन - बन्ने एक सिक्कानी बे बाजु छे. निर्भय संशोधनकार आ बन्नेथी बचीने ज - चाले. पोताने प्रतिकूळ मत धरावता लोकोनी पण वात/मान्यता जो साची होय, प्रमाणपुरावा तेनुं समर्थन करतां होय, तो तेमनी वातने 'खरी' कही शकवा जेटली नैतिकता पण संशोधक पासे होवी जोईए.
अनाग्रह अने सत्याग्रह : संशोधक कदापि पूर्व-ग्रहोथी भरेलो के पीडातो
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न होवो जोईए. पोते बांधी दीधेली पूर्व-धारणाओ तेने एकतरफी-एकांगी बनावी मूके छे. आथी तेना चित्तमा एक प्रकारनो आग्रह बंधाई जाय छे, जे तेने सत्य धारणाथी वेगळो लई जाय छे. पछी ते योग्य-अयोग्य बधी युक्तिओने, वितण्डापूर्वक, पोते बांधेली धारणाने प्रमाणित-पुष्ट करवा माटे वापरवा मांडे छे. आमां सत्य जोखमातां सौथी मोटी हानि संशोधनने ज पहोंचे छे.
साचो संशोधक तो सत्याग्रही ज होय. सत्यनो आग्रह एनी दृष्टिमां बेठो होय. सत्यनो आग्रही खरो, परन्तु कदाग्रह के मत-ममत धरावनारो नहि. वस्तुतः तो संशोधक 'सत्याग्रही' होय ते करतां 'सत्याग्राही' होय ते वधु इच्छनीय लागे छे. सत्यना आग्रह करतां सत्यनुं ग्रहण-स्वीकार ए वधु सारी भूमिका छे.
सहिष्णुता अने उदारता : संशोधक कोई वाते तथ्य-प्रतिपादन करे, अने ते कोईने मंजूर न होय; पसंद न पडे; ते विरोध करे; अयोग्य के विवेकहीन वर्तन पण करे; तो संशोधक नबळो पड्या विना ज ते बधुं चूपचाप सहन करे. केमके तेना मनमां, सामी व्यक्तिनी जेम, आ के तेने माटे द्वेष के दोष तो नथी; तेने तो प्रमाणभूत जणायेल तथ्यनुं प्रमाणिक प्रतिपादन ज करवानुं होय छे, अने तेम करवामां तेना कामनी इतिश्री थई गई होय छे. पछी कोई द्वेष-दुर्भावादिथी प्रेराईने आक्षेपात्मक भाषामां यद्वा-तद्वा लखे वा कहे, तो तेनो इलाज एक ज होय : सहन करी लेवू ते. हा, सामानी वातमां ते तथ्य- खण्डन करती के तेने खोटुं ठरावती कोई दलील के मुद्दो होय तो तेनु, पूर्ववत् विवेकपूर्ण रीते निरसन जरूर करवू जोईए. पण संशोधक असहिष्णु तो न ज बने. असहिष्णुता तो झनून, ममत, कट्टरता, कदाग्रह, संकुचितता जेवी विविध दुर्बलताओनी जनेता छे. आ बधी नबळाईओथी साचो शोधक १२ गाऊ वेगळो होय.
उदारता बे प्रकारनी होय छे. एक तो अन्यना अथवा सामाना प्रतिपादनमां जणातां तथ्योने सद्भावपूर्वक स्वीकारवानी तत्परता. अने बीजी, पोताना प्रतिपादनमां थयेली भूल के क्षतिने कोई शोधी बतावे, तो तेने पण स्वीकारवानी तथा सुधारवानी तैयारी. त्यां क्षुल्लक अहंकार नडवो न जोईए. बीजाने तुच्छ के पोतानाथी हलका-हीन गणवानी वृत्ति न जागवी जोईए.
एक सारा गणाता संशोधकमां, आटलां वानां तो, ओछामां ओछु, होवां जोईए.
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'अनुसन्धान'नो प्रस्तुत अंक श्रीहेमचन्द्राचार्यनी पुण्यस्मृतिने समर्पित छे. सं. २०६६नुं वर्ष, तेमनी आचार्यपद - प्राप्तिनुं ९०० मुं वर्ष हतुं. ते निमित्ते आ विशेषाङ्क करवानो भाव जागेलो. सामग्रीनी विपुलताने कारणे आ अंक बे विभागमां प्रगट थशे ए अलग वात छे, परन्तु आ मिषे केटलुक मजानुं शोधकार्य थई शक्युं छे ते आनन्द आपी जाय तेवी बीना छे.
हेमचन्द्राचार्य अने संशोधन - बन्ने एकमेक साथे संकळायेल बाबतो छे एवं, तेमना जीवननी अनेक घटनाओ वांचतां अने तेमणे बनावेल त्रिषष्टिशलाकाचरित जेवा ग्रन्थो अवलोकतां, अनेकवार प्रतीत थाय छे. एक ज उदाहरण लईए : भारतमां थयेलुं सौथी प्रथम पुरातात्त्विक उत्खनन Excavation कयुं ? कोणे कर्तुं ?
आनो जवाब छे : सौ प्रथम उत्खनन राजा कुमारपाळे हेमचन्द्राचार्यना निर्देशथी कराव्यं विक्रमनी १३मी शताब्दीनी पहेली पचीशीमां. अने ए उत्खननकार्य थयुं भगवान महावीरना काळना वीतभयपत्तन नगरनी रणप्रदेश जेवी बंजर धरतीमां. सिन्धु देशनुं आ नगर उद्ध्वस्त थयेलुं. त्यां केवळ धूळ ज धूळ रही गयेली. त्यां क्यांक - कोईक टींबा नीचे - दटायेली, भगवान महावीरनी चन्दनकाष्ठ निर्मित प्रतिभानी शोध माटे ए उत्खनन थयेलुं. ते प्रतिमा जमीनमांथी शोधावी, कढावी, तेने पाटणमां लावी होवानो लेखित आधार हेमचन्द्राचार्यना त्रिषष्टि-ग्रन्थमां उपलब्ध थाय छे. ( पर्व १०, सर्ग १२, श्लोक ७८- ९५ ). आ उत्खननमां केवळ प्रतिमा ज नहि, पण ते प्रतिमानी पूजा माटे दानमां अपायेल ग्रामो वगेरेनुं 'दानपत्र' (ताम्रपत्र) पण मळवानो उल्लेख आचार्ये कर्यो छे.
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गुर्जरराष्ट्रना राजवी द्वारा सिन्धना रणमां उत्खनन थवानो आ पुरावो ए हेमाचार्य अने संशोधनविद्याना पारस्परिक तादात्म्यनी साख पूरे छे. स्व. डॉ. उमाकान्त प्रे. शाहे कहेलुं (अने क्यांक लखेलुं पण) के पुरातात्त्विक शोधखोळनुं
आ प्रथम उदाहरण गणाय.
गुर्जरधरित्रीना आदि पुरातत्त्वविद एवा श्रीहेमचन्द्राचार्य महाराजना पावन चरणोमां कोटि वन्दन !
- शी.
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अनुक्रमणिका
तत्त्वविचारप्रकरण (कर्ता : वाचनाचार्य जिनपालगणिः ॥) सं. हरिवल्लभ भायाणी १ उगतीयं (उक्तीय / औक्तिक) शब्द संस्कारः सं. मुनिकल्याणकीर्तिविजय १० अंचलगच्छीय-मुक्तिसागरमुनि-कृत थंभण-तीरथमाला स्तवन
सं. मुनि त्रैलोक्यमण्डनविजय ३८ सिद्धहेम-प्राकृत-शब्दानुशासनगत अपभ्रंश - दोहा - सवृत्ति
सं. साध्वी दीप्तिप्रज्ञाश्री ५० लावण्यसमयकृत : नेमिरङ्गरत्नाकर छन्द : आस्वाद अने पाठ/अर्थशुद्धि
डॉ. कान्तिभाई बी. शाह ६७ श्रीहेमचन्द्राचार्य-विरचित नमस्कारनी श्रीकनककुशलकृत वृत्ति विशे केटलीक नोंध मुनि त्रैलोक्यमण्डन विजय ७७ हेमचन्द्राचार्यनो देशी शब्दसङ्ग्रहः एक परिचय डॉ. शान्तिभाई आचार्य ८१ आचार्य हेमचन्द्रसूरि रचित स्तोत्र-सरिता डॉ. मीताबेन जे. व्यास १०२ मध्यकालीन गुजराती कथासाहित्याभ्यास-सन्दर्भ हेमचन्द्राचार्य-कृत 'काव्यानुशासनम्'
हसु याज्ञिक १०८ कलिकाल-सर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्रसूरि (संकलित) म. विनयसागर १२४ योगदृष्टिसमुच्चय - सटीकनुं ध्यानार्ह संशोधन-सम्पादन
मुनि त्रैलोक्यमण्डनविजय १५५ माहिती : नवां प्रकाशनो
१६३ हेम-समारोह तथा संस्कृत-पर्वनो हेवाल
१७२ अमदावादमां श्री हठीसिंह केसरीसिंहनी वाडी मध्ये संस्कृत-सभा
डॉ. निरंजन राज्यगुरु १७८
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तत्त्वविचारप्रकरण
(कर्ता : वाचनाचार्य जिनपालगणि: ॥
सं. हरिवल्लभ भायाणी
नमिउं जिण - पास - पयं विग्घहरं पणय-वंछियत्थ-पयं । वुच्छं तत्तवियारं संखेवेणं निसामेह ॥१॥
१
एहु संसारु असारु । खण - भंगुरु अणादि चउ - गइ अणोरु-पारु । इहि संसारि । अणादि जीवु । अणेग अणादि-कर्म-संजोगि असुभासुभि कर्म - परिणामि आवेढिया परिवेढिया । जीवु पुणु नरग - गति । पुणु तिर्यंच गति । पुणु मनुज - गति । पुणु देव - गति । ईणि परि परिभमंता जीव । जातिकुलादिक-गुण-संपूर्णु दुर्लभउ मानुषउ जनमु । सर्वहिं भव- मध्य महाप्रधानु। मनि चिंतार्थ-संपादक | कथमपि दैव - दुर्जोगि पावियइ । तत अति दुर्लभतरु परमेश्वर-सर्वज्ञो [ पत्र ३२०क]क्तु धर्मु । सु धर्मु किसउ भणियइ । दुर्गति पडतां प्राणिया जु धरइ, सु धर्म भणियइ । धर्मु कति विधु हु । दुविधु । यति-धर्म्मा । बीजउ श्रावकउ धर्मु । यति किसा भणियहि । व्रतिया । चारित्रिया । गुणसंपूर्ण । अढार - सहस - सीलांग - धारक । पंचमहाव्रत- पालक । ताहं तणउं धर्मु । केते भेदे । दसे भेदे । दस भेद किसा भणियनं ॥
खंती य मद्दवज्जव - मुत्ती - तव - संजमे य बोधव्वे | सच्चं सोयं आकिंचणं च बंभं च जइ - धम्मो ॥१॥
दसे भेदे यति-धर्मु भणिउं । बारहे भेदे श्रावक धर्मु भणीसइ । श्रवंतीति श्रावका व्रतिया - पासि धर्म - श्रवणु - पदानि अनवरत श्रवइं ति श्रावक भणियइं । तस-धर्मु [पत्र ३२० ख] - केते भेदे । बारहे भेदे । बारह भेद किसा भणियां ॥
पाणिवह - मुसावाए अदत्त - मेहुण - परिग्गहो चेव । दिसि-भोग-दंड-समई - देसे तह पोसह - विभागे ॥१॥
पांच अणुव्रत । तिन्नि गुणव्रता । च्यारि शिक्षाव्रत । पांच अणुव्रत किसा
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अनुसन्धान - ५३ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग - १
भणियहिं । बादरु जीवु निरापराधु न हणउं । न हणावउं । ति जीव किसा भणियहिं । ति पुण अनेक - विध हुयहिं । इह ते पंच-विधु अधिकारु । ए केंद्रिय । बे-इंद्रिय । क्रेंद्रिय । चउरिंद्रिय । पंचेंद्रिय ॥ जि एकेंद्रिय ति द्विविध। सूक्ष्म बादर । सूक्ष्म बादर पृथिव्यादिक । द्वींद्रियादिक संकल्प । निरापराध न हणउं । न हणा [पत्र ३२१ क] वउं । आरंभ जु सापराधु सु मोकलउ। एहु पहिलउं अणुव्रतु | पांच प्रकार बादरु झूठउं न बोलउं । कन्यागो-भूमि-विखइ । न्यासापहारु न करउं । कूडी साखि न दियउं । एहु बीजउं अणुव्रतु ॥ सचित्तु अचित्तु धनु धान्यु । द्विपदु । चतुष्पदु । कुपितु । चोरंकारकारिउं । राजा-निग्रह हेतु पराहउं न हरउं न हरावउं । एहु त्रीजउ अणुव्रतु ॥ चउथउं अणुव्रतु मैथुनासेवनु । सु देव - माणुस - तिर्यंच-संबंधियउं हुई । द्विविध त्रिविध भांगइ | देव-सउं एक विधु । त्रिविधु तिर्यंच - सउं । एकविधु द्विविधु मनुष्य-सउं । स्त्री पर - पुरुष - परिहारु करइ । पुरुष हुंता सदार - संतोसु । परदार-वर्जकु । एहु [पत्र ३२१ ख] चउथउं अणुव्रतु ॥ धनु धान्य खेत्रु रूप्यु । सोनउं । द्विपदु । चतुष्पदु । अपदु । कुपितु । एहु नव-विधु परिग्रहु । इच्छापरिमाणु कीजइ । एहु पांचमउं अणुव्रतु ॥ दस दिसि । च्यारि दिसि च्यारि विदिसि । एकु ऊर्ध्व । एक अधु । इह गमण - परिमाणु कीजइ । एउ पहिलउं गुणव्रतु ॥ उवभोग-परिभोग- व्रतु द्विविधु । भोजन- तु । कर्म-तु । जु भोजनवधु | भोक - वारउ पभुंजियइ | तंबोलु । विलेवणु । फूलु फलु । आहारु । तं भोगु । भुवन - वलय- वस्त्रादि- आभरण उपभोगु । कर्म - तु । पनरह कर्मादान इंगालादिक ॥ " पुट्ठो केणावि गुरू" इत्यादि गाथा २० ॥
I
२
ताह प्रमाणु निषेधु कीजइ । एउ बीजउं गुणवतु | अनर्थ दंडु [पत्र ३२२ क] चतुर्विधु | अपध्यानाचरितु । प्रमादाचरितु । हिंसा-प्रदानु । पापोपदेशु। एउ त्रीज गुणवतु ॥ सामायिक समइ भावि सावद्य-योग परिहरियहि ||
सम-भावो सामइयं सम-तिण-मणि - लिट्टु - सत्तु - मित्ताणं । वट्टइ सम-भावेणं सो पावइ सासयं ठाणं ॥१॥
एउ पहिलउं शिक्षाव्रतु ॥ देसावगासिउ किसउं भणियइ । पूर्व- गृहीत सर्व ही व्रत संक्षेपु कीजइ । एउ बीजउं शिक्षाव्रतु । आहार, देह-सक्कार, बंभ, वावारनिवृत्ति कीजइ । सुभउ भावु पोसियइ ||
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पोसेइ सुहे भावे खएइ असुहाइँ नत्थि संदेहो ।
छिन्नइ नर-तिरिय-गई भन्नइ इह पोसहो तेण ॥१॥ एउ त्रीजउं शिक्षाव्रतु ॥ [पत्र ३२२ ख] अतिथिसंविभागु । तिथि पर्व उच्छव जेहिं परिहरिया । ताहं सूधउं फासूवेसणउं दाणु दीजइ ।
तिथि-पर्वोत्सवाः सर्वे त्यक्ता येन महात्मना ।
अतिथिं तं विजानीयात् शेषमभ्याग]तं विदुः ॥१॥ एउ चउथउं शिक्षाव्रतु ॥ दसे भेदे यति-धर्म । बारहे भेदे श्रावकउं धर्म । द्विविध ही धर्म सम्यक्त्व-मूलु । संम्यक्त्व किसउ भणिइ ।
अरहं देवो गुरुणो सुसाहुणो जिण-मयं मह पमाणं । इच्चाइ सुहो भावो सम्मत्तं बिंति जग-गुरुणो ॥१॥
अरहंतु देवता किसउ भणियइ । चउतीस-अतिसय-संपूर्ण । अष्टादशदोष-विवर्जितु । अष्ट-महाप्रातिहार्यसंजुगुतु । सर्वजु ।
चउरो जम्मप्पभिई इक्कारस केवले समुप्पन्ने । [पत्र ३२३ क] नवदस य देव-जणिए चउतीसं अइसए वंदे ॥ अन्नाण-कोह-मय-माण-लोह-साया रई य अरई य । निद्दा-सोय-अलियवयण-चोरिया मच्छर-भया य ॥ पाणिवह-पेम कीडा-पसंग-हासा य जस्स ए दोसा । अट्ठारस वि पणट्ठा नमामि देवाहिदेवं तं ॥ किंकिल्लि-कुसुम-वुट्ठी दिव्वज्झुणि-चामरासणाइं च । भाम(व)लय-भेरि-छत्तं जयंतु जिण-पाडिहेराई ॥
अतीत-अनागत-वर्तमान-वेत्ता इसउ देवता आराधियइ वांदियइ । पूजियई । आगम-विधि ॥
तिन्नि निसीही तिन्नि य पयाहिणा तिन्न चेत्त(व)य-पणामा । तिविहा पूया य तहा अवत्थतिय-भावणं चेव ॥१॥ ति-दिसि-निरिक्षण विरई तिविहं भूमी-पमज्जणं चेव । वन्नाइ-तियं मुद्दा [पत्र ३२३ ख]-तियं [च] तिविहं च पणिहाणं ॥२॥
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अनुसन्धान-५३ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग-१
इय दह-तिय-संजुत्तं वंदणयं जो जिणाण तिक्कालं ।
कुणइ नरो उवउत्तो सो पावइ सासयं ठाणं ॥३॥ जघन्य मध्यम उत्कृष्ट चैत्य-वंदना कीजइ । -
नवकारेण जहन्ना दंडग-थुइ-जुयल मज्झिमा नेया ।
संपुन्ना उक्कोसा विहिणा खलु वंदणा तिविहा ॥१॥
शक्रु भणियइ सौधर्मेंद्रु । तिणि स्तवनु कीयउं एहु शक्र-स्तवु भणियइ । ईणि भावारिहंत । समवसरणोपविष्ट धर्मु कहइं । नवे संपदे त्रेत्रीसे आलावे ति वांदियइं । 'जेइया' इत्यादि द्रव्याहत थुणियइं । 'अरंहत-चेइयाणं' स्थापनाहँत नमंसियहिं । 'लोगस्सुज्जोयगरे' नामारहंत स्तवियहिं । 'पुक्खरवरदीवड्डे' नाणु आराधियइ । 'सिद्धा [पत्र ३२४ क]णं' सिद्ध स्तवियहिं । पाए जिन-मुद्रा संपाडियइ ॥
चत्तारि अंगुलाई पुरओ ऊणाइ जत्थ पच्छिमओ ।
पायाणं उस्सग्गो एसा पुण होइ जिण-मुद्दा ॥१॥ हाथे जोग-मुद्रा संपाडियइ ।
अन्नोनंतरि अंगुलि-कोसागारेहिं दोहिं हत्थेहिं ।
पिट्टोवरि कुप्पर-संठिएहिं तह जोग-मुद्द त्ति ॥१॥ 'जय वीयराय' मुक्ताशुक्ति-मुद्रा ॥
मुत्तासुत्ती-मुद्दा समा जहिं दोवि गब्भिया हत्था ।
ते पुण निलाड-देसे लग्गा अन्ने अलग्ग त्ति ॥१॥ वय-छक्कु पालइ । काय-छक्कु राखइ । अकल्पनीउ परिहरइ । कल्पनीय चारि ठाम । पिंडु । सिज्या वस्तु पात्रु पट्टि(डि)गाहइ ।
पिंडं सिज्जं च [पत्र ३२४ ख] वत्थं च चउत्थं पायमेव य ।
अकप्पियं न गिन्हिज्जा पडिगाहिज्ज कप्पियं ॥१॥ गृह-भाजन । कांसउं । त्रांबडं रूपउं । सोनउं । परिवर्ज़इ । मांची खाट तुलाई चाउरि मसूरउं न परिभोगवइ । जावज्जीव स्नान शोभा परिवज्जिइ । नव ब्रह्म
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डिसेम्बर २०१०
मुक्ति (गुप्ति) सहितु ब्रह्मचर्यु प्रतिपालइ । जु सदा धर्मपा (प) रायणु सत्वप्राणिया धर्मु कहइ । इसउ गुरु संसारु तारइ । जिण - मतु सद्दहियइ ॥
जीवाजीवा पुन्नं पावासवसंवरा य निज्जरणा । बंधो मुक्खो यता नव तत्ता हुंति नायव्वा ॥१॥
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ए नव तत्त भणियइ । नव-विधु जीवु । पुढवि - काउ किसउ भणियइ । खडी । धाहु । माटी । तूरी । अरणेटउ । पाहणु । ज (जु) काई खा [ पत्र ३२५ क]णि-माहि ऊपजइ, सु पुढवि - काउ भणियइ । आउ - काउ किसउ भणियइ । हिमु । करा । ऊ । पाणिउ सचीतु आउ - काउ भणियइ । तेउ - काउ किसउ भणियइ । आगि । वीजु । उल्का ॥ वाउ - काउ किसउ भणियइ । गुंजा - वातु । उत्कलिका-वातु । मंडली - वातु । वनस्पतिकाउ द्विविधु । साधारणु । प्रत्येकु । कंदजात्यादि अणंतकाई । फूलु । फलु । अनइ चउ आंगुलां ऊ पहरउ झाडु सउ एकेंद्रिउ भणियइ । बेंद्रिय पूंयरा । जलोय । ईली । सांख कउडा | सीप ए बेंद्रिय भणियइ । क्रेंद्रिय कीडी । कुंथुया । मकोडा । गोगीडा ए क्रेंद्रिय भणियइ ॥ चउरिंद्रिय माखी । वीछी । [ डां]सा | पतंग । कीड । भ्रमर चउरिंद्रिय भ [पत्र ३२५ ख ] यिई । पंचेंद्रिय माणुस । तिर्यंच । काग । बग । ढींक | ए पंचेंद्रिय भणियइ || अनइ एह जीव दस-प्राण | छपर्यापति । दस-संज्ञा कही काइउं हुयइ ॥
पंचिदिय तिविह-बलं ऊसासनीसास आउयं चेव । दस पाणा पन्नत्ता तेसि वि घाउ भवे हिंसा ॥१॥ आहार- सरीरिंदिय-पज्जत्ती आण - पाण- भास - मणे । चत्तारि-पंच छप्पिय एगिंदिय विगल - सन्नीणं ॥२॥ अनइ एह जीवह आठ कर्म हुयहिं । चउहु हेतु उपार्जइ । चउहु बंधु करइ । मिथ्यात्व-अविरति- -कषाय- दुष्टजोग ए चारि बंध - हेतु भणियई । किसा ति कर्म भणियइं । नाणा-वरणीउ पंच-विधु पट - सारीखउं । दर्शनावरणीउ नवे भेदे । पडिहार [पत्र ३२६ क] सारीखउं । वेयणिउ द्विविधु खड्ग - सारीखउं । मोहणीउ अट्ठावीस-विधु । मदिरा - सारीखउं । आयुषु बहु ( उ ) भेदे हडिसारीखउं । नामु बइतालीस - विधु । चित्रकर - सारीखउं । गोत्रु द्विविधु ।
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अनुसन्धान-५३ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग-१
कुलाल-सारीखउं । अंतराउ पंच-विधु भंडारी-सारीखउं ॥ त्रिसठि सलाकापुरुष हूया । ति किसा । चउवीस तीर्थकर देव । बारह चक्रवर्त्ति । नव वासुदेव। नव प्रतिवासुदेव । नव बलदेव ॥ चउदस गुणठाणा ॥
मिच्छे सासण मीसे अविरयदेसे पमत्त अपमत्ते । नियट्टि अनियट्टि सुहुमुवसमखीण सजोगिअजोगि गुणा ॥१॥ ए चउदह गुणठाणा जाणेवा ॥ चउदस जीवठाणा ॥ एगिदिय सुहुमियरा सन्नियर (पत्र ३२६ ख) पणिंदिया सबित्ति चऊ। पज्जत्तापज्जत्ता भेएणं चोद्दसग्गामा ॥१॥ चउदस अजीवठाणा ॥ धम्माधम्मागासा तिय-तिय-भेया तहेव अद्धा य ।
खंधा देस-पएसा परि(र)माण(णु),अजीव चउदसहा ॥१॥ चउदस मग्गण-ठाणा ॥
गइ-इंदिए य काए जोए वेए कसाय-नाणे य ।
संजम-दंसण-लेसा भव-सम्मे सन्नि-आहारे ॥१॥ चउदह रत्न हुयहि ॥
सेणावइ गाहावइ पुरोहि-गय-तुरय-वड्डई इत्थी ।
चक्कं छत्तं चम्म मणि कागिणि खग्ग-दंडो य ॥१॥ चतुर्विध देव । भुवनपति । व्यंतर । जोइसिय । वेमाणिय ॥ सात नरग-पृथ्वी। घर्माद्या । अधोलोकि ॥ ऊर्ध्वलोकि । बारह देवलोक । नव ग्रैवेक पांच पंचोत्तर विमान । सर्वार्थसिद्धि ॥ तिर्यकु लोकु । प [पत्र ३२७ क] नरह कर्मभूमि । जेहि धर्मु जाणियइ । त्रीस अकर्मभूमि धर्म-रहित ॥ दश आश्चर्य ।
उवसग्ग-गब्भहरणं इत्थी तित्थं अभव्विया परिसा । कन्हस्स अवरकंका अवयरणं चंद-सूराणं ॥१॥ हरिवंस-कुलुप्पत्ती चमरुप्पाउ य अट्ठसय सिद्धा ।
अस्संजयाण पूया दस वि अणंतेण कालेण ॥२॥ सतरहे भेदे संजम् पालियइ । बारहे भेदे तपु कीजइ । आठ प्रवचन माता
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उपयोगु दीजइ । रजोहरणु मुह[प]ती गोछउ पडिगहउ जि धरहि ति श्वेतपट भणियइं ॥
एयं तत्तवियारं रइयं सुय-सागराउ उद्धरिउं ।
थोवक्खरं महत्थं भव्वाण अणुग्गहठ्ठाए ॥१॥ इति तत्त्वविचारप्रकरणं समाप्तं ॥छ। संवत् १३ । ८४ वर्षे माघ सुदि ३ दिने श्रीवछालसास्थाने श्रीराजभूमि-देश-मध्ये श्रीजिनप्रबोधसूरिशिष्येण आनन्दमूर्तिमुनिना लिखितं ॥छ।छ।। [पत्र ३२७ ख].
-xनोंध :
स्व. डॉ. हरिवल्लभ भायाणीए आ 'तत्त्वविचार' कोईक ताडपत्र प्रति परथी स्वहस्ते ऊतारेल छे. अपभ्रंश, जूनी गुजराती ए तेमना प्रिय विषय हता ते तो प्रसिद्ध ज छे. १४ मा शतकनी गुजराती भाषामां रचायेली आ कृतिमां अपभ्रंशनो प्रभाव जोवा मळे छे. तेमणे आ लखी राख्युं होय अने तक मळे त्यारे तेना पर नोंध लखीने प्रगट करवा धार्यु होय एम मानी शकाय. पण कार्यबाहुल्य अने व्यस्तताने कारणे तेम न थई शक्युं होय. तेमना अवसान पछी आ लखाण चन्द्रकलाबेन द्वारा मारा हाथमां आवेलं, ते आजे यथावत् अहीं प्रगट थाय छे. गुजराती भाषाना आदि प्रणेता श्री हेमचन्द्राचार्यनी स्मृतिमां प्रकट थता अंकमां, ते भाषाना मूर्धन्य विद्वान द्वारा सम्पादित रचना प्रकाशित थाय छे ते केटलुं तो औचित्यपूर्ण लागे छे ! शब्दकोश उमेरवामां आव्यो छे.
'तत्त्वविचार'नो विषय जैन तत्त्व छे. तेना कर्ता, सम्पादके ज लख्यु छे ते प्रमाणे, 'जिनपाल गणि' नामे मुनि छे. तेमने 'वाचनाचार्य' तरीके ओळखाव्या छे. पोते उपाध्याय होवा जोईए अने शिष्यादिने वाचना आपता होवा जोईए. जे प्रति परथी आ ऊतारो थयो छे तेनी विगत भायाणी साहेबे आ प्रमाणे नोंधी छे :
"Size ८ x २ ३/४. पं. ८. अ. २९-३३. पत्र ३२०-३२७ ले.सं. १३८४."
आ जोतां समजाय छे के कोई ग्रन्थभण्डारनी बृहत्काय ताडपत्र प्रतिना
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जे ते पत्रोमां आ कृति सचवाई हशे अने तेनो आ ऊतारो हशे. 'तत्त्वविचार'नी पुष्पिकामां लेखक, नाम छे, कर्ता- नथी. तेथी एम लागे छे के ते आखीये प्रति जिनपालगणिनी रचनाओ धरावती हशे, अने तेमां प्रान्तभागे कर्ता तरीके तेमनुं नाम हशे, जेने आधारे अहीं कर्ता तरीके तेमने गणावेल हशे. वळी, १३८४ तो ले.सं. छे. तेथी आ रचना ते करतां पूर्वे ज रचाई होय तेम मानी शकाय. जाणकारो द्वारा मळती माहिती प्रमाणे वाचनाचार्य जिनपालगणि ते आ. जिनपतिसूरिना शिष्य हता. सं.१२२५मां तेमनी दीक्षा, अने सं. १३१०मां कालधर्म छे. युगप्रधानगुर्वावलीनी रचना तेमणे करी छे. आथी स्पष्ट छे के आ रचना १३८४ करतां घणी वहेली थई छे.
जिनपालगणि खरतरगच्छनी परम्परामां थया छे. आनुं लेखन 'वछालसास्थाने' थयुं छे. ते स्थान 'राजभूमि-देशमध्ये' आवेलुं होय तेम जणाय छे. 'राजभूमिदेश'नो अर्थ 'राजस्थान' थई ज शके. 'वछालसा' ए त्यांचें कोई ग्राम हशे. अस्तु. -
अणोरुपारु आवेढिया परिवेढिया बादरु विखइ न्यासापहारु कुपितु पराहउं फासूवेसणउं नवे संपदे
अपरिचित शब्दो अपार, जेनो अन्त नहि तेवो आवेष्टित-परिवेष्टित, घेरायेला स्थूल विषे थापण ओळववी कुप्य - तांबा वगेरे धातुना पदार्थो परायु-पारकुं(?) प्राशुक-एषणीय, निर्दोष अने कल्प्य तेवो आहार नव संपदा वडे, संपदा-विरामस्थान; सूत्र बोलतां ज्यां अटकवानुं आवे त्यां अटकवू ते विराम-संपदा
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आलावे वयछक्कु कायछक्कु पिंडु
सिज्या
तुलाई
चाउरि
मसूरउं
धाहु तूरी
अरणेटउ पाहणु ऊसु पूंयरा सांख कउडा सीप गोगीडा पर्यापति कुलाल रजोहरणु मुहुपती गोछठ पडिगहउ
आलापक, पाठना विभागविशेष छ व्रतो छ जीवनिकाय, छ प्रकारना जीव-समूह पिंड - आहार शय्या - वसति तळाई - गादलां चारपाई (?) ओशीकुं धातु के धावडी माटीनो प्रकार माटीनो प्रकार पाषाण
ओस - झाकळ पोरा - पूरा (पाणीमां पडता जीव) शंख कोडा छीप गींगोडा नामना जंतु पर्याप्ति - जीवनी शक्ति कुंभार रजोहरण-ओघो (जैन साधुनुं उपकरण) मुखवस्त्रिका (जैन साधुनुं उपकरण) गुच्छ (जैन साधु- उपकरण) पतद्ग्रह - पात्र (जैन साधुनुं उपकरण)
-x
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उगतीयं (उत्तीय / औक्तिक) शब्द संस्कारः
सं. मुनिकल्याणकीर्तिविजय
भूमिका*
___आ ग्रन्थमां ग्रन्थकारना काळमां प्रचलित देशीभाषाना, देश्यस्वरूपवाळा शब्दोनां संस्कृत-प्रतिरूपोर्नु संकलन करवामां आव्युं छे. समग्र भारतवर्षमां साहित्य माटेनी सार्वदेशिकी तथा सार्वकालिकी भाषा प्रधानपणे संस्कृत ज गणाय छे. भारतीय वाङ्मयनो आदि युगथी आज सुधीनो इतिहास तपासीए तो जणाय के तेमां संस्कृतभाषानी ज मुख्यता अने प्रतिष्ठा सर्वदा स्थिर रही छे. जो के, वच्चे वच्चे संस्कृतभाषाना निरन्तर प्रवाहनी साथे साथे ज, तेमांथी ज उत्पन्न थयेल अने तेना ज सहकारथी उज्जीवित एवी घणी प्राकृत भाषाओ प्रादुर्भाव पामी. जेमके - मागधी, शौरसेनी, पैशाची, महाराष्ट्री व. कालान्तरे आ प्राकृत भाषाओमांथी ज रूपान्तर पामी ते ते देशनी अपभ्रंश भाषाओ जन्मी, के जेने वैयाकरणोए देश्य-भाषा तरीके ओळखावी.
वर्तमान भारतना समग्र उत्तरापथनी जे जे प्रादेशिक भाषाओ आजे छे - हिन्दी, बंगाळी, मराठी, पंजाबी, सिन्धी, राजस्थानी (-गुजराती, मारवाडी, मालवी) - ते बधी आ अपभ्रंश अथवा देश्य-भाषामांथी ज विकास पामी आजे बोलाता नूतन स्वरूपने पामी छे. आ भाषाओमां मूळ तो सेंकडो संस्कृत शब्दो ज भिन्न भिन्न देश अने जातिना लोकोना परस्पर संपर्कने कारणे तथा उच्चारणभेद अने व्यवहारभेदना कारणे जुदा स्वरूपवाळा थई गया छे. तेमां पण विशेषे तो जे शब्दोमां संयुक्ताक्षरो वधारे होय तेवा शब्दोमां प्राकृत-अपभ्रष्ट फेरफारो अधिकपणे जोवा मळे छे. जेमके - संस्कृत- - संखय, सक्कय, संगड व.; प्राकृतनुं पागय, पाइय, पायड व०; सदृश- - सरिक्ख-सरिखंसरखं व.; उपाध्याय, - उवज्झाय-ओज्झाय-ओझा-झा/वझे व.
★ पुरातत्त्वाचार्य मुनि जिनविजय सम्पादित - राजस्थान पुरातन ग्रन्थमालामां प्रकाशित
साधुसुन्दरगणिविरचित 'उक्तिरत्नाकर'नी प्रस्तावनामांथी संकलित ।
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संस्कृत शब्दोना प्राकृत - अपभ्रष्ट रूपो बनाववानी / बनवानी प्रक्रिया प्राकृत-अपभ्रंश व्याकरणोमां सविस्तर वर्णववामां आवी छे. संस्कृत - प्राकृतभाषासाहित्यना विशिष्ट अभ्यासीओ तो आ व्याकरणोनो अभ्यास करीने उक्त प्रक्रियाने जाणी - समजी शके छे. परन्तु, जे लोकोने सामान्यथी ज देश्यभाषा अने संस्कृतभाषानुं साम्य/ वैषम्य जाणवुं होय, तथा जे देश्यशब्द लोकबोलीना कारणे मूळ संस्कृतरूप करता जुदो थई गयो होय तेनुं संस्कृत प्रतिरूप शुं होई शके ते जाणवुं होय, तेमने संक्षेपमां ज बोध कराववा माटे पूर्वकालीन विद्वानोए आ औक्तिकसंज्ञावाळा ग्रन्थोनी रचना करी छे.
११
आ ग्रन्थोमां अद्यावधि उपलब्ध प्राचीनतम ग्रन्थ छे बनारसना दामोदर पंडित विरचित उक्ति-व्यक्तिप्रकरण (सिंघी जैन ग्रन्थमालामां प्रकाशित). तेनी रचना विक्रमनी १२मी सदीना अन्तभागमां थई होय तेवुं संभवे छे. आ ग्रन्थमां, ते काळे बनारस - जनपदमां प्रचलित देश्यभाषानो व्याकरण दृष्टि संस्कृतभाषा साथे केवो सम्बन्ध छे - अने देश्यशब्दोने संस्कार करवाथी संस्कृतनुं शुद्धरूप कई रीते बने छे ते विस्तारपूर्वक वर्णववामां आव्युं छे. तत्कालीन लोकभाषानी लोकरूढ उक्तिओ अने शब्दप्रयोगो द्वारा संस्कृत व्याकरणनुं आधारभूत स्थूलज्ञान सहेलाईथी मेळवी शकाय छे, तेवुं दामोदर पण्डित आ ग्रन्थमां सविस्तर प्रतिपादन करे छे.
आ ग्रन्थ पछी पण आ ज विषयना अने आवी ज शैलीमां रचायेला घणा नाना-मोटा ग्रन्थो अनेक ज्ञानभण्डारोमां प्राप्त थाय छे. एमांथी अद्यावधि उक्तिरत्नाकर, उक्तीयक, औक्तिकपदानि, मुग्धावबोध - औक्तिक (कुलमण्डनसूरिविरचित) व. पुरातन रचनाओ प्रकाशित थयेल छे.
ते ज क्रममां आ उगतीय (उक्तीय) शब्दसंस्कार नामनो ग्रन्थ पण आजे अनुसन्धानना माध्यमथी प्रकाशित थई रह्यो छे. आ ग्रन्थमां प्रारम्भे (नव पत्रो सुधी) शब्दसंग्रह आपवामां आव्यो छे. ते पछी कृदन्तसाधित शब्दोमां कर्मणि भूतकृदन्त, कर्तरि वर्तमानकृदन्त, सम्बन्धक भूतकृदन्त, कर्मणि वर्तमानकृदन्त, हेत्वर्थ कृदन्त आ क्रमे संग्रह करवामां आव्यो छे. ते पछी इच्छादर्शक (सन्नन्त) कृदन्तो, आज्ञार्थक क्रियापदो, अकर्मक धातुओ, द्विकर्मक धातुओ, वीस उपसर्गो व नो संग्रह छे. अन्ते छए कारकोनुं भेद तथा उदाहरण
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अनुसन्धान-५३ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग-१
सहित संक्षेपमा वर्णन छे..
आ रचनामां मुख्यत्वे शब्दसंग्रह ज ध्यानार्ह तथा अभ्यासार्ह छे. कारण के, शब्दसंग्रहमां एवा केटलाये शब्दो छ जे उक्तिरत्नाकर के अन्य रचनाओमां प्राप्त थता नथी. वळी, केटलाय देश्यशब्दो अथवा समसंस्कृत शब्दोना संस्कृत प्रतिरूप आपतां रचनाकारे साथे साथे ते ज शब्दनो बीजो संस्कृत पर्याय शब्द पण मूकेल छे जे अन्य रचनाओमां भाग्ये ज जोवा मळे छे. आ रीते, आ ग्रन्थ केटलाय शब्दोनां मूळ अने कुळ शोधवामां उपयोगी बनी रहे छे, अने मध्यकालीन कृतिओना वाचको-अभ्यासकोने माटे पण आ ग्रन्थ घणो ज उपयोगी अने लघु शब्दकोशनी गरज सारे तेवो छे. प्रतिपरिचय -
उगतीयशब्दसंस्कारनी आ प्रतिनी झेरोक्ष कोपी मारा पू. गुरुभगवंतना संग्रहमांथी प्राप्त थई छे. मूळ प्रति प्रायः भावनगरनी ग्रन्थभण्डारनी होवानो सम्भव छे. प्रतिनां कुल पत्रो अग्यार (११) छे. प्रत्येक पत्रनुं माप १०.४" x ४.५" छे. प्रत्येक पत्रमा कुल १२ पंक्तिओ छे, छेल्ला पत्रमा ४ पंक्तिओ छे. अक्षरो सुवाच्य-मोटां छे. अशुद्धिओ पार विनानी छे. मोटा भागे शब्दो लखवामां अन्य रचनाओ तथा शब्दकोशोनो सहारो लेवो पड्यो छे, अथवा अनुमानथी शब्दो लख्या छे.
__ आ प्रतिना लेखक - जे प्रायः रचनाकार पण होय - ऋषि रूपा नामे कोई मुनिभगवंत छे अने तेमणे साधवी सवीरां नामे साध्वीजीना पठनार्थे आ रचना लखी छे, तेवू ग्रन्थ प्रान्ते आपेल पुष्पिकाथी जणाय छे. आ लेखक/ रचनाकार तथा लेखनकाळ विशे कोई माहिती मळती नथी. लेखनशैली तथा प्रतिनां कद-माप अने शब्दोनी पसंदगी जोतां आ प्रति सत्तरमा सैकामां लखाई होय तेवू अटकळी शकाय छे.
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श्रीउगतीयंशब्दसंस्कार ए ६० ॥ श्रीवीतरागाय नमः ॥ अर्हम् ॥
आज - अद्य
अन्यम - अन्यथा काल्हि - कले(ल्ये)
एकवार - एककृत्व[:] परम - परेद्यवि
बिवार - द्विकृत्व[:] अरीरम - अपरेछु
त्रिणिवार - त्रिणिकृत्य(त्रिकृत्वः) आजूनी - अद्यतनी
च्यारिवार - चतु[:] कृत्व[:] काल्हूनी - कल्यतनी
पंचवार - पञ्चकृत्व[:] परमूनी - परमदिवसीया
सुवार - शतकृत्व[:] हिवडानी - आधुनकी (आधुनिकी) एवं वार शतकृत्वस (?) साम्प्रतनी
(वारस्य संख्यायां कृत्वस्) हिवडां - आ(अ)धुना
एकपरि - एकधा सांप्रति - साम्प्रतम्
बिडं परि - द्विधा, द्वैधा, द्वैधं नही तु - नो वा / नो चेत् त्रिहुं परि - त्रिधा, त्रैधा, त्रैधं लगइ - प्रभृति, आरभ्य
चिहुं परि - चतुर्धा पाखइ - विना, ऋते
सइं परि - शतधा मुहिया - मुधा
घणी परि - बहुधा यम - यथा
किहां - क्व, कुतः(त्र), कस्मिन् स्थाने तिम - तथा
जिहां - यत्र, यस्मिन् स्थाने किम - [क]थं
तिहां - तत्र, तस्मिन् स्थाने इणि परि, इम - इत्थं
अनेथ - अन्यत(त्र) जईयं - यदा
सगलइ - सर्वत्र तहियं - तदा
तिमइ - तत्कालम् कहीइ - कदा
झटकइ - झट(टि)ति एकवार - एकदा
वहिलं - शीघ्रम् अनेकवार - अनेकदा
उतावलुं - त्वरितम् सदा - सर्वदा, निरन्तरम्
जुउ - प्रथुक् (पृथक्)
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अनुसन्धान-५३ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग-१
एकठउ - एकत्र ताहरुं - त्वदीयम् माहरूं - मदीयम् तम्हारुं - युष्मदीयम्, भवदीउं(यम्) अम्हारुं - अस्मदीयम् एहनुं - एतदीयम् किहां- - कुत्रत्यम् इहानुं - अत्रत्यम् तिहांनुं - तत्रत्यम् जां - यावत् तां - तावत् येतो - यावन्मात्र तेतलुं - तावन्मात्र ए[त]लउं - एतावन्मात्र एतलुं - इयत् केतलुं - की(कि)यत् जु - यदि तु - ततः जं - यत् तं - तत् जइ किमई - यदि, कथमपि चेत् इसिउं - इति, ईदृशम् हा - एवम् इम ज - एवमेव हिव - अथ हिवडां पूठि - अतः परम् हाथलस (हावलि ?) - प्रत्युत पूठई - अनु पाछई - पश्चात्
साम्हउं - अभिमुख, सन्मुख उपराठउं - पराङ्मुख जमणउ - दक्षिण डावु - वाम, सव्य पाधरु - ऋजु, सरल वांकु - कुट(टि)ल उपरि - उपरिष्टात् हेठि - अधः उपहरु - ऊर्ध्व आडउ - तिर्यग् तरछु - तिरछ (तिरश्चीन ?) आगलि - अग्रे, पुरस्तात् आगलु - अग्रेसर पाछलु - पश्चात् सरीखं - सदृक्, समान सरीखी - सदृशी, सदृष्या (शा) किसी - कीदृग्, कीदृशी, कीदृशा अनेसी - अन्यादृशी, अन्यादृग,
____ अन्यादृशा
तिसी - तादृक्, तादृशी, तादृशा जिसी - यादृग्, यादृशी, यादृशा तु-सरीखी - ता(त्वा)दृक्, त्वादृशी,
त्वादृशा मु-सरीखी – मादृक्, मादृशी, मादृशा अम्ह-सरीखी - अस्मादृक्, अस्मादृशी,
अस्मादृशा तुम्ह-सरीखी - युष्मादृक्, युष्मादृशी,
युष्मादृशा उरहउ - आर्वक् (अर्वाक्)
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डिसेम्बर २०१०
परहउ
सविहंगमा
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पराक्, परत:
ऊगुमूग
झलझाखसुं - झलब्भांष्यं
-
म (मु) हम (मु) हसीझणउं - मुख
तउइ
उइहण
विलखुं
समन्तात्, विष्वग्, द्रहद्रहवेला
-
समन्ततः
अवाग्(ङ्)मूकः
उ(ऊ)धांधलूं - ऊर्ध्वधूलकं
-
आपणुं पराउं - परकीय
-
सूगामणूं - सूकाजनकम् क्षेम-क्षति ह
इन
आत्मीय, स्वकीयम्
(चलद्ध्वाङ्क्षम्)
-
अनेरानुं - अन्यदीय, अन्यसत्क
देवनुं
देवसत्कि(त्क)
गुरुनुं – गुरुसत्क
जे पुण्य अजी अद्याऽपि
तथाऽपि
ऐषम
यदि एति
मुखेष(क्षणम्)
(उद्धूलिकम्)
पुरतः,
पुर पढू – प्रतिभू
-
पढूचुं - प्रतिभाव्यम्
परि
अर्वाचीनम्
सांझ सन्ध्या, सायम्
बहवररात्रि - मध्यमरात्रि
नसीथविहाणुं
घडी
पुहर
प्रहर, याम
सवार
सवेला
असूरं
असूरम्
चुघडी - चतुर्घटिकम्
आधु अर्ध
पूरु - पूर्ण
अधूरुं अर्धपूर्ण दुढउं – सार्ध
अढाई
-
-
सात
ऊपरीयामणुं - उत्कि(त्क)लिकाकुलम् आठ
कोडि- कौतुक
नव
दस
उल्यउं पइलूं – पराचीनम्
एकादस
-
अर्धतृतीय
अहूठउं - अर्धचतुर्थ
साढापंच
द्वि
-
विलक्ष
बइ
तण
च्यारि
पंच - पंचन्
छ
षट्
-
घटिका, नाडिका
जइ(य)द्रथवेला
त्रि
सार्धपञ्च, पञ्चन(पञ्चोन)
सप्तन्
विभाति प्रत्यूषम्
चत्वारि
अष्टन्
नवन् दशन्
१५
एकादशन्
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१६
[द्वादस ] द्वादशन्, त्रयोदशन्, चतुर्दशन्, पञ्चदशन्,
षोडशन्, सप्तदशन्
[अठारस] अष्टादशन् गुणीस - एकोनविंशति विंशति
वीस
एकोनत्रिंशत्
त्रीस – त्रिंशत्
एगुणचाली - एकोनचत्वारिंशत् च्यालीस - चत्वारिंशत्
पंचास
साठि
सत्तर
असी
ऊ नवतिः
सु-शति (शत)
ब द्वितीय
त्रीजु - तृतीय चुथु – चतुर्थ
पाचमु
पञ्चम
छठउ
षष्ट
सप्तम
-
-
-
-
1
-
पञ्चाशत्
षष्ठि
सप्ततिः
अशीतिः
सातमु
आठमु
नवमु
दशमु
इग्यारमु एकादशम इत्यादि
उरइ-परइ इतस्ततः
भावइतिहां (?)
अष्टम
अनुसन्धान - ५३ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग - १
किहांनु - कुतः, कस्मात्
कांइ किम्
वली पुनः
पणि
परम्
मुडमुड
नवम
दशम
-
यतस्ततः
-
मन्दं मन्दम्,
शनी शनी (शनै: शनैः)
गाढइं गाढम् लांबु प्रलम्ब, दीर्घ
टुंकु - तुच्छ, ह्रस्व
मोटउ महान्
जाडउ - स्थूल, उपचित, प्रत्यन (ल?)
दुबलु दुर्बल, कृश सोभागीउ – सौभाग्यवान्
रलियामणुं - रतिजनकम्
उदेगामणुं - उद्वेगजनकम्
अबाडू
प्रतिकूल
सवाडूउ
सानुकूल
डाउ
दक्ष
भोलु – मुग्ध
ऊचु – ऊचीस्थर (उच्चैस्तरम्)
नीच - नीचीस्थर (नीचैस्तरम्)
अधिक
अग्रेवाण
पछेवाण
चुकवटु
उछउ हीन
अरत-परत-बापसदृश
आकृत्या
प्रकृत्या [पि]तृसदृश
अग्रानीक
पश्चा[द]नीक
चतुःकपपट(चतुष्कपट्ट)
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डिसेम्बर २०१०
उरस अपघर्ष
रसोई - रसवती
सालणुं - साक (शालनक)
कर्बंउं (करंबउ ?) - कर्भक (करम्बक)
सली शलाका
दोरु
दर्वर कीलक
खीलु
उरु
अपवर्क (अर्वाक् ?)
-
—
-
-
रसोडीउं महानस
पछोकडउ पश्चादु(दो)कस् आंगणुं
बार द्वार
पावडी सोपान
-
चुक - चतुष्क
पटसाल पटशाला
-
अंगण
थाभु
स्तम्भ
कभी - कुम्भिका
भारुट
भारपट्ट
खूणुं – कू(को)णक उदम्बर देहली
अंबर
भउइरुं – भूमिगृह नीसरणी नि[:]श्रेणिका
-
पाटी पाटिका
पोथी
पुस्तिका टीपणुं टिप्पनक
चुगठि - चतु[:] काष्टिका
वींटणुं – वेष्टनक
पूठीदनुं (पूठी अठं?) पृष्ठिपत्रम् पानुं – पत्रम्
काणुं
माहि
किमाड छोह - सुधा
वेगलुं
दूरतर
दूक आसन (न्न),
भीतर
अभ्यन्तर
वाट
सेरी
-
बाहिरलुं
अंगत
—
छिद्रम्
मध्य, अन्तर
भीति, भय कपाट
-
—
—
-
वर्तमाना
रथ्या
-
-
-
परिग्रह
फलहउं आगली अर्गला
कुंची कुञ्चिका कठासनं - काष्ठासनम्
उढणउं
आच्छादनम्
बाहय्या (बाह्य ?)
अङ्गगत
वासइं उत्तरीय
पहिरण प्रधानवस्त्रम् पास्थ(थ)रणं
प्रस्तरणम्
आडण अङ्गमण्डण(न)
मूलिउं - मूलवेष्टन
पछेडी
पटी
साडी
शाटिका
-
-
समीपस्थ
मउड
राखडी
टीलुं
काठलुं - ग्रीवक
बहिरखु – बाहुरक्ष
मुग (कु) ट
रक्षा
तिलक, पुहि (पुण्ड्र ?)
१७
Page #24
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________________
१८
ऊर
[केयूर]
मूडी - मुद्रिका
कडदोरु
काडलुं
कांकण
-
ऊर
खासडउं
—
1
-
पूठि
हईउं
-
उपानह
पग पद, अंड्रि
अंगूठु - अङ्गुष्ट
आंगुली
लीह
रेखा
गोडउ जानु
ऊरु
जंघा बयसका(?) फूहडउं - पुरीष
मौत्र,
मूत्र
-
-
-
-
-
कटिदर्व(वर)क
कटकम्
कङ्कण, वलय
नूपुर
-
डूटि नाभि
पेटि
अङ्गुली
उदर, जठर
पृष्ठ
हृदय, वक्षस्
थण
स्तन, कुच
खंधु स्कन्ध, अंस
ग्रीवा
गाड गलुं कण्ठ
नख करज
हडबटी - चिबुक
प्रस्राव
कटि, श्रे (श्रोणी
उ(अ)पान, गुदा
ओष्ट, रदच्छद
अनुसन्धान - ५३ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग - १
मुख
दात
हो कुंच - कूर्च, श्मश्रु
वदन, आस्य
दशन
[जीभ] - जिह्वा, रसना, रसज्ञा
तालुं
ताल, काकुद
[नाक] नासिका, नासा
गाल- गल्ल, कपोल
आंखि
रूं
-
-
—
कान
निलाडि
माथुं
केस
-
-
--
-
-
-
वाहण
वहिला
पायक
हाथ
बाहु भुजा
चामडी
देह
तांगणी
रइवाडी
घोडु
हाथी
बलद
रथ
गाडउं
ललाट
मस्तक, शीर्ष
कुंतल
रोमन्
असवार
पूंतार
सागडी
कर्ण
-
-
अक्षि, नेत्र, लोचन
-
-
त्वचा
विग्रह, तनु
हस्त, कर
-
वृषभ, धौरेय
स(स्य)न्दन, आस्य (श्व)
तनुगमनका राजपाटिका
हय, अश्व, तुरंगम
गज
T
शकट, अनस्
गन्त्री
वैत्रवेत्री (वीतवेत्री)
पत्ति, पदाति
अश्ववार
आधोरण
शाकटिका यन्त्रसार्थ
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डिसेम्बर २०१०
रामति क्रीडा [बकोर] बर्कर
गोई गोसली - गोप्यशलाका
दडउ कन्दुक
पासु अक्ष, देवकन(देवन)
जु - यतः
हीडोलु - दोलन झीलणुं – जलकेलि
वटवालणुं - वर्त्मपात्रं (पालनम्) द्विघडं (घटकम्)
बहेडउं
घरट्ट
-
घरटउ
अरहिट
-
-
-
कू
[कूपः]
वावि वापी
खडोखली दीर्घिका
तलाव तटाक, सरस्
नइ समद्र अम्भोधि
द्र[ह] हूदः
-
अरघट्ट
-
1
तट
बूसट - चपेटा
चुहडी - चंचुप (पु) टिका
कावडि(जि) - कायमादनी (कायाटनी)
लिपसणुं - लपसावनं (लिप्स्यायनम्)
पटंतरुं
डोक
छीडणि
छेकडि छिद्रक
सीराम [णुं]
शीताशन
सुडि - संवृति (तपटी)
सीरख शीत[र]क्षा
तलाई
तूलिका
सन्धिकम् वेगडउ विकटशृङ्ग
-
—
-
जमाई नदी, नम्निका (निम्नगा)
उ(ऊ)सीसुं
सेलावटउं
-
उपशीर्ष
शिलाव (प) ट
खाडाइतुं – खंगाइतूं (खड्गवित्त) भथाइतुं भस्त्रवित्त बगाई - जंभाईका (जृम्भिका) गूहली गोमयफलिका (गोमुखा) कोसीधुं (टुं) - कोषसमृद्धि (द्ध?)
यामत्रय (जामातृ?) भाई भ्रातृ, बन्धु पिता – पितृ, जनक
माता
मातृ, जननी तनय, सुत
तनया, सुता
प्रत्यन्तर
डोलकर
छिद्राटनी
-
पुत्र
पुत्री
फुई - पितृष्वसा
गरढउ गतार्धवयम्
मासी - मातृष्वसा
वछीआइत
पीतसं
पितृव्य
वस्तुवंत (वित्त) उ(ऊ)सलसीधुं उश्र (उल्लसित) - माउलुं - मातुल
१९
भाणेज - भाज्ञे (गिने) य:
भत्रीजु - भ्रातृव्य
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________________
अनुसन्धान-५३ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग-१
जाईया - पुत्रवधू, स्नुषा
लवार - वाचाल, वावदूक सासू - सुश्रय (श्वधू)
ऊलषु - उदकोल्लञ्चन ससरु - श्वशुर
पलवटि- पलवर्तिपटी(परिवलितपटी) माय-बाप - मातरपितरौ दोटी - द्विपटी सगा - स्वजन
कोटीलु - कुट्टनक मित्र - वयस्य
निद्रालूउ - निद्रालक्ष फिरक - फर(स्फुरत्)चक्रिका माडही - बलात्कारेण[ण], हठात् प(पा)टूआली - पादप्रहारवती रूडउ - रुचिर, रम्य खाईकण - खादनक्षत्य(खादनपरः) । भलु - भव्य, सुन्दर उ(ऊ)घडदूघडु- उद्घट-दुर्घट भाणुं - भाजन, स्थाल बिवणुं - द्विगुणम्
कचोलुं - चक्षु(ष)क त्रिगुणुं – त्रिगुणम्
पीगाणुं - पीगानन(पिङ्गाणम्?) चुगणुं - चतुर्गुणम्
घडउ - घट, कुम्भ कादमालुं - कर्दमाकुल | गढउं - उदक, गूढ (?) बापडउ - वराक
करवु(उ) - कर्क (करक) वहुरउं - वि(व्य)वहृत
गागरि - गर्गरी पोठीउ - पृष्ठवाह
बेलु - बिवद्रा(?) अरणइं - अरति
कलसु - कलश सोहिलं - सुखावहम्
माटी - मृत्तिका, मृद् दोहिनु - दुःखावहम्
सोनुं - सुवर्ण, कनक, हेम[न्] सूआखें - सुकुमाल, मृदु रूपुं - रजत, रूप्य खरखरूं - कठिन, कठोर त्राबूं - ताम्र घाइसुं - सहसा
सीसुं - सीसक, वङ्ग कबड(कडब) - कडा(णा)बा तरूउं - त्रपु, नाग बलही - बलाहिका
कासुं - कांस्य आहार-जाहार - आगम-निर्गम, एहिरे- लोहडउं - लोह, अयस्
आगर - आकर महासाहणी - महासाधका
खाणि - खानि
-याहिरा
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________________
डिसेम्बर २०१०
लूण - लवण खार - क्षार संचल - सौवर्चल सीधव - सी(सैन्धव वानी - वणिका खडी - खटिका हीगलो - हिंगुल हरीयाल - हरिताल मूस - मूषा साडसु - सन्दंशक भाथडी - भस्त्रा, यवा धमणि - धमनिका काकरु - कर्कर धूलि - रजस् वेलू - वालि(लु)का भूई - भूमि, भू, धात्री पर्वत - नग, शिखर, भूधर ढूंक - शृङ्ग, शिखर कडण - कटक खेत्र - क्षेत्र वाडि - वति(वृति ?) क्यारू - केदार ईट - इष्टका ईटाल - लोष्टक इहटवाह - इष्टकापाक पाखाण - ग्रावाण, दृषद् राई - राजका (राजिका) छाणुं - छा(छ)गण, गोमय
कादम - कर्दम, पङ्क, जम्बाल स्थाली - उषा (?) बाधुं - ब(बु)ध्न वाहडी - आयघटी ढाकणी - स्थगनिका घडाकमंची - बलाद्विष्टाकारकः आरती - आरात्रिका वसइ - सर्वतोऽवसरः, सभा परखद - समया(सभा) गुख - गवाक्ष पोलि - प्रतोली सिंहधार - सिंहद्वारम् बलाणुं - बलानन आखामंडप - अक्षमण्डपः गंभारु - गर्भगृह देउली - देवकुलिका भमती - भ्रमावर्तिका धज - ध्वज, पताका धलुहर - धवलगृह घर - सद्म, ओकस् राजहर - राजगृह सुणहर - शून्यगृह पर्व(परव) - प्रपा चाचर - चत्वर गढ - दुर्ग, प्राकार कोसीस - कपिशीर्षक खाई - परिखा वाडउ - वाटक
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२२
अनुसन्धान-५३ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग-१
पाडउ - पाटक
बर[फ] - जूवटउं - द्यूतावर्त
अवसा, धूअरि - मिहिका भंडार - भाण्डागार
बिंद - विपृष्, जललव कोठार - कोष्ठागार
वाहउ - बाहुप्रवाह घोडाहडि - हयशाला, मन्दुरा नीक - सारणि
हस्त(हस्ति)शाला कलोल - ऊर्मि, तरङ्गा चुतलं, चुरी - चतुरिका
लहरि - लहिरी चतुकाशाला - चतुःशालम्
सेवाल - पनग हाट - हट्ट, आपण
कमल - अम्भोज, सरोज, पद्मिनी पौषधशाला - पौषधागार तुंतु - बिस करणवारीउं - करणशाला मिघबालाह (?) - जीमूत, मेघमाला, उवट्ट - उत्पथ
कादम्बनी मागी - अनुमार्ग
वृष्टि - वर्षण नगर - पुर, पत्तन
आकास - व्योमन्, अन्तरिक्ष नगरी - पुरी
दिशि - दिग्, ककुभ देश – विषय, मण्डल, राष्ट्र पूर्व - प्राची पालि - पल्लि, पछी (?) दक्षण - आराची (अवाची) रान - अरण्य, अटवी
पछिम - प्रतीची थल - स्थल
उरत - उदीची, कौबेरी उपरवाडउं - उत्पथद्वार
आग्नेयी खाड - गर्ता
नैर्ऋती मसाण - स्मशान
वायवी चुवटु - चतुघस्य(चतुष्पथ?)
ऐशानी पाज - पद्या
वाउ - पवन मालु - मालक
वीजणु - तालवृन्त पाणी - पानीय, वारि, अम्भस् आ[ग] - अग्नि, वह्नि, कृशानु हीम - प्रलीयां (?)
धूं (?) - धूमध्वज करा - करक, घनोपल
बाफ - बाष्प
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________________
डिसेम्बर २०१०
२३
फीण - फेन शज - शषा (?) झाल - ज्वाला राख - रक्षा इंधण - [इन्धन], समिध मसि - मषी, मलिनाम्बु काजल - कज्जल, अंजन अधूण - अर्घ्य
द्रिण (रिख) - वृक्ष, तरु इम आंबु - आम्र, सहकार |
लींब - निम्ब, पिचुमन्द आबिली - चिञ्चा पीपल - पिप्पल, अश्वत्थ वड - वट, न्यग्रोध कइर - करीर खेजड - शमी बाउल - बब्बूल रायण - राजादनी, प्रियाल वणखडउ - वनवृष्य थोहरि - स्नुही, महातरु कुंआरि - कुमारी गलो - गडूची बीलि - बिल्व बोलि(रि?) - बदरी केलि - कदली, रम्भा जाइ - जाती सेवतरी - शतपत्रिका कणयर - कणवीर
वे(वो)ल, वे(व)उल - बकुल वेउल - विचकिल चापुं - चम्पक ताड - ताल पाडल - पाटल वांस - वंश काठ - काष्ठ खइर - खदिर पीपलि - प्लक्ष आक - अर्क धत्तूरउ - धत्तूरक यवासु - यवाशक द्रो - दूर्वा पमाड - प्रपुन्नाट सेलडी - अक्ष (इक्षु) ज्वार - जुगन्धरी सालि - शालि चोख - तन्दुल जव - यव गोहू - गोधूम डमंडु (उडद?)- माष मग - मुद्ग चिणा - चि(च)णक तूअरि - तुबरी कुलथ - कुलत्थ काग - कङ्गु, कोद्रव चुला - चपलक चुठ(कोठ?) - कपित्थ
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________________
२४
चीभडउं - चिर्भटक
कोठी डां
कोष्ठभेदकः
सूखडी - सुखभक्षिका
धाणी
पुहक
बाकुल
वडां
मांडा
--
-
भात
धान
मण्डक
पूडा पपसो (पूपक) कुलीस - कुलिका सूआली - सुखादनी खोजां खाद्य लाडूउ मोदक दहीथरां – दधिस्थराः
वडी
पापड
बाहुल
घी
दूध
माखण
-
-
-
-
कूर दालि
खीच
खीचडी गोली
कणक
11
धान्या
पृथुक
बकुल
वटक
-
टिका
पर्पट
घृत, आज्य
दुग्ध, पयस् भ्रक्षण, नवनीत
-
-
वलफलका
भक्त
धान्य
अन्धस्य (?), ओदन
सूप
क्षिप्र
क्षिप्रचटिका
गुटिका
कणिका
समता (?)
अनुसन्धान - ५३ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग - १
आखे अक्षत
सातू सक्तु
गुल
गुड
साकर
खांड
मधु
दही
क्षीर
घोल
छासि
-
-
रायण
केलां
तक्र
चलू गण्डूष
सीधू - आसव
तंबोल
फोफल
वेलि
शर्करा, सितोपला
खण्ड
धूलि (?)
दधि
पयस्, परमान्न
कालशेय
ड(उ?)रुंगुछ
-
-
ताम्बूल
पूग
वल्ली
राजादन
कदलीफल नालिकेर
नालीयर
बीजोरुं - बीजपूरक, मातुलिङ्ग
द्राख द्राक्षा, मृद्वीका खाद्यारिका
खार
टोप - टोप्पपर
गुला (?)
—
खजूर - खर्जूर पीलू पिल (पीलु) सरसवेल सर्षपतैल
अलसेल (अलसिवेल)
काहरउ (काढउ) चूनु - चूर्ण
-
काथ
अतसीतैल
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डिसेम्बर २०१०
चंदूउ - चन्द्रोद्योत, उल्लोच परीच यवनिका, तिरस्करिणी
तंगोटी – तंगपटी
1
गूडर (?) गुप्ता पर्वक (?)
साथरा
सेजि शय्या
मांचु मञ्चक, पर्यङ्क
आछण
खाट खट्वा
धोयण
आरीसुं - आत्मदृश (आदर्श), दर्पण हलदर
चूडीउ
भद्रासन
चाकानी
आसन, विष्टर
आसण पेढी
माची मञ्चिका, आसन्दी
-
1
-
-
संस्तर
पीठका
अलतउ अलतक, यावक
दीवु – दीप; गृहमणि
दीवटि
चीनट
दिसा (दीपवर्तिका ?)
स्नेह
-
काकसुं - कङ्कतिक काकी ङ्क
वेणी वेणिका, विरी (?)
अंबोडउ धम्मिल्ल
सिइंथउ - सीमन्थ (न्त)
पली पलिता
चोटली
काकपक्ष
नूनसतुख नखिका
आदूं
आर्द्रक, शृङ्गबेर
अर्शोघ्न
तुंबड
हरडइ
सूठ
पपलि
सूरण
वइगण वृन्ताक
गाजर गृञ्जन
खाटूं
खारुं
गलिउं
-
-
-
मिरी मिरच
राई - राजिका, आसुरी
आनलि
धावन
हरिद्रा
पीता
1
नागर
अलाबु हरीतकी, अभया
-
-
पिप्पली, कृष्णा (?)
अम्ल
क्षार
गविल
मिष्ट, मधुर
मीठं तीखु - तिक्त
कडूउं कसायलुं
कषाय
वाटलुं - वर्तुल, वृत्त
चुरसुं - चतुरस्र सांकडउं
-
कटुक
-
सङ्कीर्ण मोकलुं – मोत्कल
पटल्हइ (पहुलउ?) - पृथुल, विशाल
आकरुं
उत्कट
नीचाऊंचुं - निम्नोन्नत
नीलफूल पनक
साख
कुडउ
ईयण
गाडर
शङ्ख
२५
कपर्दी
अ(इ)लिका
गड्ड
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२६
अनुसन्धान-५३ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग-१
पूरुं - पूतरक कीडी - कीटिका, पिपीलिका माकिउं - मत्कोटक जू - यूका माकण - मत्कुण घीमेल - धृतपिपीलिका कुंथू - कुन्थ माखी - मक्षिका डास - दंश मसा - मशक कोलीउ - कौलिक भमरु - भ्रमर, षट्पद वीछी - वृश्चिक साप - भुजङ्गम गोह - गोधा गिहरोली - गृहगोधा काकीडउ - कृकलास नुल - नकुल उंदर- मूषक डेडक - मण्डूक श्वान - श्वन् बिलाडी - मार्जार छाली- अजा बोकडु - छाग गाय - गो, धेनु भइस - महिषी उंट - उष्ट्र वाघ - व्याघ्र चीतउ - चित्रक, द्विपिन्
सीह - सिंह, मृगारि माछउ - मत्स्य [करहउ] - करभ साड - षण्ड गदर्भ - रासभ सूअर - शूकर ससु - शशक हरण - मृग सीयाल - शृगाल काछबु - कूर्म सेहलिउ - जाहक, गात्रसङ्कोची चिडउ - चाटकर काग - वायस बग - बक समली - शकुनिका भरव - भैरव देवि - दुर्गा चास - चाष पारेवु - कपोत, पारापत सूअडउ - शुक साहली - सारिका कूकडउ - कुक्कुट मोर - मयूर, कलापिन् तीतरि - तिनरा (तित्तिरः) हंस - मला (मराल) गरुड - वैनतेय पंखी - पक्षी, विहङ्ग पाख - पक्षता चाचा - चञ्च
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डिसेम्बर २०१०
कोइल
कोकिल
पशु, तिर्यग्
नरग
नरक, श्वभ्र
मनुक्ष
मानव
बालक शिशु, शाव
बालपण
शैशव
बाल
तरुण
युवान
-
1
-
वडउ
वृद्ध
खिचर – विहङ्गम
वडपण
वार्धक
सहय
सहृदय
बोलहर
वाक्मान् (वाग्मी ?)
गूगु - मूक बहिरु बधिर
दातार
कृपण मितम्पच
सुजाण
सुज्ञान
अजाण अज्ञान
डहेउं – विदुर वांदणहारु वन्दिर
कहिणारु आशुंसु रूडा बोलु - प्रियंवद
गहिलु ग्रथिल
-
-
-
-
दाता, दानशूर
आपवसू स्वतन्त्र, स्वाधीन
परतंत्र पराधीन
आपछंदउ आत्मच्छन्द महर्धिक लक्ष्मण
दाद्री - दुविध अणाथीउ अकिञ्चन धनिक, प्रभु
धणी
दास
कमारु
वहीतरु
-
सुहड सुभट
कायर
कातर
भीरु
विगृह
दयालू
सूग
1
-
-
-
मारणहार
मारविउं
धूर्त
क्रूर
मायावी मिस
-
-
-
भोजक्ष (भुजिष्य ?)
कर्मकर
भारवाहि(ह)क, भारवैवध
शूक
व्याकुल, विहस्त
दयालू, कृपालु
-
-
-
घातक
व्यापादन
शठ
नृशंस
चाडउ
चोर – चौर,
-
व्याजात् कर्णेप
व्यंसक
पाटच्चर
आलसू - तुन्दपरिमृज
उंजमालु दान वितरण
मागणहारुं - मार्गण, याचक
भीखारी भिक्षाचर
वणीमग
वनीपक
मागवुं – प्रार्थना
हुणहार भविष्य
लजालू
उद्यमवंत (वान्)
२७
अपत्रस्थ(त्रप?)
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________________
२८
रीसाल - ईर्ष्यालु
भूख - बुभुक्षु
भूख
क्षुधा
-
त्रि-पिपासु
त्रिस पिपासा
-
खाणहार
घस्मर
पेटहडी - कुक्षिम्भर सर्वभखी - सर्वान्नीन
लोभीउ – लिप्सु
नीलज
निर्लज्ज
अहंकारी अहंहिउ(अहंयु)
मातु मत्त मोटपेठउ
टाली
-
कुबड
छीमणु, वाम खोडउ
-
-
-
-
-
-
-
तुन्दिल
खल्वाट
कुब्ज
मादउ
रोग व्याधि
छीक
खास
खस
खाज
पोडा
कोढ
हेडकी
खञ्ज
मइलु
काणु काण, एकदृक्, कानतन (?) ढेढ
दांतलु
दातार (दन्तुर ?)
अंधलु
अन्ध, गताक्ष
-
मन्द, ग्लान
क्षुत
कास
कच्छू
वामन
कण्डू
पिग्(पिटक ?)
कुष्ट हिक्का
अनुसन्धान - ५३ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग - १
सोजा
हरसा
छादि
वैद्य
-
-
-
तलार
नावी
सोनार
छीपु
घाची
लोहार
उषध
पडीग्यु
निरालुउं
जो
लेहउ लेखक
आ
-
शोफ
हर्षा(अर्श: ?)
छर्दि
चिकित्सक
भेषज
-
-
-
=
प्रतिकथक (?)
निरालग
संवत्सरक
द्यूतकार
आरक्षक
नापित
स्वर्णकार
रजक
मलिन
अन्त्यज
भील पुलिन्द
चात्रिक (?)
लोहकार
सूत्रहार - सूत्रधार aणकार
-
कुविन्द
बाह्मण वाडव, द्विज, विप्र क्षत्री
क्षत्रिय
वाणीउ वणिक्, वणिज, [गांधी] गन्धिक
भंडारी - भाण्डागारिक
कोठारी - कोष्ठागारिक
महतु
अमात्य
पुरोहित - पुरोधस्
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________________
डिसेम्बर २०१०
राजा - राजन्, भूपाल, पार्थिव लोक - प्रजाजन वटेवाउ - अध्वनीन सइबलु - पाथेय पालु - पादचारण प्राहूणुं - प्राधूर्णक गामड - ग्राम्य नगरीनुं - नागर हासु - हास्य रीस - रोष ऊजम - उद्यम [] - भयभीत बीहामणुं - भयङ्कर परसेवु - प्रस्वेद आसौ - अश्रु लाज - व्रीडा निद्रा - प्रमीला आलस - तन्द्रा दयावणुं - दीन वइराग - वैराग्य वात - वार्ता नाम - नामन्, अभिधान तेडउं - आत्मा(आका)रण सम - शपथ ऊतर - उत्तर पूछ - पृच्छ, पृच्छा असोई - अपश्रुति साचुं - सत्य, तथ्यम् कूडउं - कूट, अलीकम्
पडवडउं - स्फुट-प्रकट नीठर - निष्ठुर लू - रूक्ष गालि - आक्रोश आसिस - आशिका(ए) उलंभु - उपालम्भ रोईq - रुदनम् संदेसु - वाचिक आण - आज्ञा गीत - गेय नाच - नृत्य, लाश(स्य) वाजां - वाजिंत्र(वादित्र) तूर - तूर्य मादल - मृदङ्ग भेर - भेरी ताल - ताला जालर - झल्लरी स्वर्ग - सुरालय देव - निर्जर सूर्य - सहस्रांशु तावडउं - आतप झाझूआ - मृगजल पारीयास - परिवेष चंद्र - विधु अहिनाण - अभिज्ञान चाद्रणुं - चन्द्रातप अज्वाली रात्रि - ज्योत्स्ना रात्रि पडवे - प्रति[पत्] बीज - द्वितीया
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अनुसन्धान-५३ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग-१
चुथी - चतुर्थी अमावास - अमावास्या पूनम - पूर्णिमा पाखी - पक्षिका चुमासं - चतुर्मासकम् पजूसण - पर्युषणापर्वन् अठाही - अष्टाहिका पाखषमण - पक्षा[न]शन
(पक्षक्षपन?) मासक्षमण - मासक्षम(प)न उपवास - अ(उ?)पोषित, चतुर्थ । आबिल - आचाम्ल निवी - निर्विकृतिक एकासणुं - एकभक्त परमढ - पुरिमार्ध पोरिसि - पौरुषी ब्यासणुं - द्विभक्त नुकारसी - नमस्कारसहितम् पचखाण - प्रत्याख्यान पडिकमणुं - प्रतिक्रमण पडिलेह[ण] - प्रतिलेखन काउसग - कायोत्सर्ग खामणुं - क्षामनक वादणुं - वन्दनकम् खमासमण - क्षमाश्रमण आलोयण - आलोचना सझाय - स्वाध्याय वषाण - व्याख्यान चलोटउ - चोलपट्ट
उघु - रजोहरण, धर्मध्वज महुपती - मुखपोत(ति)का वदना - वादनिका नसेज - निषेद्य पूछणुं - पादप्रोञ्छनक डंडासणुं - दण्डासनकम् पूजणी - प्रमार्जनिका कभली - कपरिका, काम्बली वसा (?) गोछउ - गोच्छक पात्रकेसरी - पात्रकेसरिका पडलं - पटलक रयत्राण - रजस्त्राण तृपणुं - तृपनकम् (तर्पणकम्) कडहटउं - कटाहटकम् मसीजणुं – मषीपात्रम्, मषीभाजनम् लेखण - लेखनी छुरी - छुरिका कापणी - कर्तरी वेहनकं - वेधनकं नरहिणी - नखहरणी डाडी - दण्डिका नउकार - नमस्कार नुकरवाली - नमस्कारमालिका अरिहंत - जिन, वीतराग, परमेष्ठिन् गणधर - गणभृत् आचार्य - आचार्यमिश्र उपाध्याय - पाठकमिश्र माहात्मा - महात्मन्
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नृगंथ - अनगार
मोक्ष - अपवर्ग, सिद्धि वणारीस - वाचकमिश्र
शास्त्र - श्रुत पड्यास - पण्डितमिश्र
पूज्य - भगवान् क्षलक - वग्नेय (विज्ञेय?) कलाण - माङ्गल्य, भद्र दीक्षा - प्रव्रज्या
॥ इति शब्दसंस्कार ॥१॥ छ ।
ए ६०॥ अहूँ ॥
उक्तः पञ्चधा कर्ता - १. कर्म, २. भावि, ३. कर्मकर्ता, ४. हेतुकर्ता (?) ५. नष्टकर्ता ॥ हुं (हुउं ?) भूतम्, जातम् उपाजिउं - उपार्जित, अर्जित पीधुं - पीतम्
छाडउं - त्यक्त सूधू - आध्रातम्
मेल्हिउ - मुक्त धमिउं - ध्यानं (ध्मातम् ?) लागु - लग्न, सक्त रहिउं - स्थितम्
गानुं - गर्जित, स्तनित जीतुं - जितम्
गोपवउं - गुप्त खयं - खणम् (क्षतम्)
लवु - प्रलपित स्मरिं - स्मृतम्
बोलुं - जल्पित तिरु - तीर्णम्
कहउ - कथित धाउं - ध्यातम्
जपु - जप्त कुरमाणुं - म्लान
चुब्यु - चुम्बित उघु - निद्राण
आचम्यउ - आचान्त ध्रायउ - ध्रात
चापु - आक्रान्त लोचु - लोचित
माडउं - प्रक्रान्त पूनुं - अर्चित, पूजित, महित
सङ्क्रान्त वाछिउं - वाञ्छित, इष्ट, अभीष्ट, ईहित प्रणिमुं - प्रणत मूछिउं - मूच्छित
वांद्यउ - वन्दित
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अनुसन्धान-५३ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग-१
नमस्करु - नमस्कृत ग्यउ - गत आq - आगत मालुं - मलित पढिउ - पठित, अधीत आचरं - आचीर्ण बाध्यउ - बद्ध, यन्त्रित, कीलित फलिउ - फलित फूलुं - पुष्पित खलहिउं - संवलित जीवं – जीवित, प्राणित दीर्छ - दृष्ट डसिउं - दष्ट मोधू - मोषित तूठु - तुष्ट हरखु - हर्षित(हृष्ट) रिष्ट - तुष्ट, प्रीत मूसु - मुष्ट घसिउं - घृष्ट कसुं - कषित घ्रसु - ग्रसित त्रिसु - तृषित निसु - निस्त(निरस्त ?) परसुं - स्पृष्ट अभ्यसउ - अभ्यस्त वसिउं - उषित ऊससउ - उच्छ्वसित हसु - हसित कीधु - कृत, विहित
दीधु - दत्त लीधुं - गृहीत, आ[द] त्त अंगीकर - अङ्गीकृत वीध्यु - विद्ध खाधु - भक्षित दाधु - दग्ध बाधु - बन्धन(बद्ध ?) लाधु - लब्ध मूउं - मृत भरुं - भृत, भरित जरु - जीर्ण झरु - क्षरित वासि - [वा]सित [खाधुं] - भुक्त आदिरु - आदृत धरु - धृत वरु - वृत आवलं - आवृत छावलं, ढाकु - आच्छादितम् सरु - सरित(सृत) प्रसरु - प्रसृत विस्तरउ - विस्तीर्ण उधरु(धरु?) - धृत संहरु - संहृत उदाहरु - उदाहृत उपनउ - उत्पन्न संपनु - सम्पन्न उसंगें - श्रान्त लागु - लग्न
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न्हाउ - स्नान(त), मज्जन(मज्जित) कापिउं - क्लृप्त पचु - पच्यत(पक्व ?)
तापुं - तप्त रचु - रचित
विगूउ - विगुप्त संचु - सञ्चित
सूतु - सुप्त लीपुं - लिप्त
जागु - जागृत लोपुं - लुप्त
उठिउं - उष्टितं(उत्थित) उहटिउ - निवृत
बइठु - उपविष्ट पाछु वलिउ - पछवीतू वलत(पश्चाद् पइठु - प्रविष्ट वलित ?)
नीठउं - निष्ठित पांगुरु - प्रावृत
रहिउ - स्थित राखु - रक्षित
सामहिउ - सज्जीभूत दीखु - दीष(क्षि?)त
सनहिउं - सन्नद्ध लाखु - विक्षिप्त
संग्रहउं - संगृहीत घालु - क्षिप्त
सासहिउ - संसोढ चालु - चलित
जमुं - [] (?) बलु - ज्वलित
रूधउं - रुद्ध कलु - कलित
पीसुं - पिष्ट नीकलु - नी(नि?)ष्कलित चोरु - चोरित नीसरु - निःसृत
चीतq - चिंतित गलिउं - गलित
रमउ - क्रीडित छलु - छलित
भ्रमुं - भ्रान्त ढलु - लुठित
दमु - दान्त पलु - पलित
वमिउ - वान्त सांभखें - श्रुत, आकर्णित उपसामु - उपसान्त रुलिउ - रुलित
छेदउं - छिन्न वलिउ - वलित
भेदउं - भिन्न कापु - कम्पित
प्रेरु - प्रेरित थापुं - स्थापित
वखाणुं - व्याख्यात व्यापु - व्यापित(व्याप्त)
पाउ - पायित
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अनुसन्धान-५३ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग-१
रहावं - स्थापित संभारु - स्मृत कराव्यु - कारित छंडाव्यु - त्याजित मेल्हावं – मोचित नमाडिउ - नामित मोकल्यु - प्रहित पढावु - अध्यापित देखाडिउ - दर्शित तूसव्युं - तोषित वासु - वासित आप्यु - अर्पित लेवराव्यु - ग्राहित ऊठाडिउ - उत्थापित बइसारिउं - उपवेशित काढिउ - निष्कासित जमाडिउ - भोजित भमाडिउ - भ्रामित सूआडिउ - शायित न्हवडाव्युं - स्नापित
सक्तउ - शक्नुवन् पामतु - प्रापन् रूधतु - रुन्धन् जोमतु - जंजान (?) भेदतु - भिन्दान जमतु - भुञ्जान मानत - मन्वान लेयतु - गृह्णन् लुणतु - लुन्वन् जाणतु - जानन् चोरतु - चोरयन् चिंततउ - चिन्तयन् परस्मैपदे संवृत् (शतृ?), आत्मनेपदे आनश्
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होईतु - भवत् देयत - ददत् धरतु - दधत् करतु - विदधत् जागतउ - जागृत (जाग्रत्) मइत् (?) - दे(दी?)व्यत् पोसतु - पोषन् (पुष्णन् ?) वरतु - वृण्वन्
होई - भूत्वा पीइ - पीत्वा रही - स्थित्वा बोली - उक्त्वा जोई - गत्वा देई - दत्त्वा छाडी - हित्वा, मुक्त्वा रमी - रत्वा रूधी - रुन्ध्वा फाडी - भित्त्वा जमी - भुक्त्वा नमी - नत्वा लेई - गृहीत्वा भाजी - भक्त्वा
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जाणी - ज्ञात्वा चीती - चिन्तयित्वा चोरी - चोरयित्वा करी - कृत्वा, विधाय उठी - उत्थाय ढाकी - पिधाय पइसी - प्रविश्य पामी - प्राप्य आवी - आगत्य सांभली - श्रुत्वा, आकर्ण्य उसरी - उत्सार्य आदरी - आदृत्य माडी - प्रारभ्य मोकली - प्रस्थाप्य तेडी - आकार्य वारी - निवार्य विहरी - विहृत्य पहिरी - परिधाय जोई - विलोक्य आपी - समर्प्य विमासी - विमृश्य वखाणी - व्याख्याय पाछु वली - व्याघुट्य
परसीजतुं - परिसिज्यमान खीजतुं - क्षीयमाण गायतुं - गीयमान खायतुं - खाद्यमान दीसतुं - दृश्यमान संभारीतु - श्रूयमाण बोल(ला)तुं - उच्यमान करावितु - कार्यमान उठाडीतु - उत्थाप्यमान रहावतु - स्थाप्यमान मोकलीतु - प्रेष्यमाण जमाडीतु - भोज्यमान आणीतु - आनीयमान उपाडीतु - उत्पाट्यमान
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करिवा - कर्ता (कर्तुम्) लेवा - ग्रहीतुम् देवा - दातुम् पीवा - पातुम् संभलिवा - श्रोतुम् जोवा - द्रष्टुम् जिमवा - भोक्तुम् बोलवा - वक्तुम् बइसवा - उपवेष्टुम् रहिवा - स्थातुम् जाइवा - गन्तुम् आणिवा - आनेतुम् कराविवा - कारयितुम्
कीजतो - कीर्य(क्रिय)माण दीयतुं - दीयमान पीजतुं - पीयमान लीजतुं - गृह्यमान
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अनुसन्धान-५३ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग-१
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लेवराइवा - ग्राहयितुम्
दिइं - देहि दवराविवा - दापयितुम्
आणि - आनय
जाणि - जानीहि लेणहार - जिग्रहिषु
वखाणि - व्याख्याहि करणहार - चिकीर्षु
बोलि - बिहु(ब्रवीहि) वरणहार - वुवूर्षु
ऊठि - उत्तिष्ठ मरणहार - मुमूर्षु
रहि - तिष्ठ सम(स्मरण ?)हार - सुस्मूर्षु मोकलि - प्रहि[णो]तु चरणहार - जिगी(गमि)षु जमि - भु[न]क्तु ऊ[ठ]णहार - उत्तिष्ठासु
जोइ - पश्य रहणहार - तिष्ठासु
॥ इति क्रियासक्षेपः ।। बइसणहार - उपविविक्षु [प]इसणहार - प्रविविक्षु
लाजइ, रहइ, हुइ, जागइ, वाधइ, खूटइ, जाणणहार - जगमुष(जिगमयिषु?) जीवइ, मरइ, सूवि, रमइ, भावइं, शोभई आपणहार - अपायसु(अर्पिपिषु ?) - एते धातवोऽकर्मकाः ॥ देखणहार - द्रष्टव्य(दिदृक्षु) सांभलिउणहार - शुश्रूषु
दोहि - दोग्धि बोलणहार - विवक्षु
मागइ - याचति(ते) पडणहार - पिपतिषु
रूधइ - रुणद्धि भणहार - बिभणिषु
पूछइ - पृच्छति वखाणहार - व्याचिख्यासु भीख[इ] - भिक्षते चालणहार - चिचलिषु
सीख[व]इ - अनुशास्ति दइणहार - दित्सु
पमाइ - नयति जाणहार - जिज्ञासु
छू(चू)टिवि - चिनोति
इत्यादयो द्विकर्मकाः कीरतातश्च करि - कुरा(रु)
(कीर्तिताश्च) । लइ - गृहाणि(ण)
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प्र-परा-ऽप-समन्वय-निर्दुरभि-व्यधि-सूदति-नि-प्रति-पर्यपयः । उप-आङिति विंशतिरेष सखे ! उपसर्गगणः कथितः कविना ॥
लज्जा-सत्ता-स्थिति-जागरणं वृद्धि-क्षय-भय-जीवित-मरणम् । शयन-क्रीडा-रुचि-दीप्त्यर्था
धातव एते कर्मविहीनाः ॥ तथा कर्ता षड्विधः - स्वतन्त्रकर्ता ।१।, हेतुकर्ता ।२।, कर्मकर्ता ।३।, उक्तकर्ता ।४।, अनुक्तकर्ता ५।, उपयुज्यमानकर्ता ।६।। तथा[हि] - गुरुः व्याख्यानं करोति, साधुः धर्मं करोति, लूयते केदारः स्वयमेव, उक्तानुक्तौ प्रसिद्धौ, नगरं दृश्यते ॥
त्रिविधं कर्म – प्राप्यं - निर्वयं - [विकार्यं] च । ग्रामं याति, कटं करोति, काष्ठं दहति । करणं द्विधा - दात्रेण लुनाति - बाह्यकरणम् ।
___ मनसा मेरुं याति - अभ्यन्तरकरणम् । सम्प्रदानं त्रिधा - प्रेरकं, अप्रेरकं, अनिराकृतं च । अपादानं द्विधा - चलं अचलं च ।
धावतोऽश्वात् पतति । वृक्षात् पर्णं पतितम् । अधिकरणं चतुर्धा - व्यापकम्, उपश्लेषकम्, सामीप्यकं, वै[ष]यिकम् । शरीरे ज्वरः, कटे आस्ते, नद्यां घोष, शस्तो वधान (शत्रौ अवधानम् ?)
इति उगतीयं शब्दसंस्कार समाप्तः । ऋषिरूपालिखितम् । साधवी सवीरांपठनार्थम् ॥
C/o. श्रीविजयनेमिसूरि स्वाध्यायमन्दिर १२, भगतबाग, शारदामन्दिर पासे,
पालडी, अमदावाद-७
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अनुसन्धान-५३ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग-१
अंचलगच्छीय-मुक्तिसागरमुनि-कृत थंभण-तीरथमाल स्तवन
सं. मुनि त्रैलोक्यमण्डनविजय
वि.सं. २००९मां पूज्य श्रीपुण्यविजयजी, श्रीरमणीकविजयजी, श्रीजयभद्रविजयजी व. साधुभगवन्तोओ खंभातनी यात्रा करी हती. तेनी यादगिरीमां तेओना स्नेही श्रीमोहनलाल भोजके खंभातनां जिनालयोने वर्णवती आ कृतिनुं हस्तप्रत परथी लिप्यन्तर करेलुं हतुं. आ लिप्यन्तर तेओना स्वजन श्रीलक्ष्मणभाई भोजक द्वारा श्रीरसीलाबहेन कडीआने मळ्युं हतुं. जे आटलां वर्षोथी तेओनी पासे ज सचवायेलुं हतुं.
प्रस्तुत हेमचन्द्राचार्य-विशेषांक माटे तेओओ आ लिप्यन्तर भूमिका अने जिनालयसूचि साथे मोकल्युं हतुं. आ लिप्यन्तर तो थोडंक अव्यवस्थित अने घणे ठेकाणे जल्दी उकले नहीं अवा जूना अक्षरोमां हतुं ज, पण भूमिका अने जिनालयसूचि पण क्षतिपूर्ण हता. तेथी ते सघळु फरीथी लखवानुं थयु. छतांय श्रीरसीलाबहेन कडीआओ आटलां वर्षो सुधी आ कृति साचवी राखी अने वृद्धावस्था तेमज नादुरस्त तबियत वच्चे पण यथामति सम्पादन करीने मोकली ते तेओनो विद्याप्रेम सूचवे छे. आ कृति आपणा सुधी पहोंची ते बदल आपणे तेओना खरेखर आभारी छीओ.
कृतिना कर्ताओ पोते अंचलगच्छीय अने पुण्यसागरसूरिना शिष्य होवानो निर्देश कर्यो छे, पण पोतानुं नाम स्पष्टतः जणाव्युं नथी. छतां घणी ढाळोना अन्ते प्रयोजायेलो 'मुक्ति' शब्द सहेतुक मूकायो होय अम लागे छे. अने तेथी कर्ता, नाम 'मुक्तिसागर' होय अम कल्पी शकाय. 'अंचलगच्छ दिग्दर्शन'मां बे पुण्यसागरसूरि थया होवानो उल्लेख मळे छ : ओक १७-१८ सदीमां अने बीजा १९मी सदीमां. कर्ता आमांथी कया पुण्यसागरसूरिना शिष्य छे ते संशोधन मागे छे. अंचलगच्छीय पुण्यसागरसूरि-शिष्य मुक्तिसागरमुनिनी अन्य एक कृति 'सूतक-चोपाई' (-रचना सं. १९०६, अनु. ३२ - पृ. २३) मळे छे. ते आ ज मुक्तिसागर होई शके. आ कृति अनुसंधान ३२ अने
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अनुसंधान ५१-सूचिमां पुण्यसागरसूरिना नामे नोंधाई छे. पण वास्तवमां तेओना शिष्य मुक्तिसागरनी छे.
कृतिना अन्ते अपायेलो समय आम छे : 'संवत सतर ओगण पचलोतरा वरसे, काती सुद छठे मलाया'. आना परथी त्रण वर्ष तारवी शकाय : वि.सं. १७०५, १७४९ अने १९०५. आम आ रचनानुं खरेखर कयुं वर्ष ते नक्की करवं मुश्केल छे. पण जो ‘सतर' शब्दने वधारानो गणीओ, अने खरेखर वधारानो ज गणवो जोईओ ओम नीचेना कारणसर लागे छे, तो कृतिनी रचना वि.सं. १९०५ मां थई होवानुं नक्की थाय छे. अने कर्ता १९मी सदीमां विद्यमान पुण्यसागरसूरिना शिष्य होवानो निश्चय थाय छे.
हवे कया कारणसर 'सतर' शब्दने वधारानो गण्यो ते वात : खंभातनां जिनालयोने ज वर्णवती श्रीमतिसागरनी चैत्यपरिपाटी-रचना सं. १७०१ करतां प्रस्तुति कृतिनुं वर्णन घणुं भिन्न छे. तेथी कृति अनाथी नजीकना समयनी न होय. वळी, कृतिमा उल्लेखायेल प्रजापतिवाडाना महाभद्रस्वामीनुं जिनालय १९मी सदीना रेवाचंद पानाचंदना कागळ (अनु.-८, पृष्ठ ७०, सं. - उपा भुवनचन्द्रजी) अने सं. १९४७ना जयतिहुअणस्तोत्रना ग्रन्थनी प्रस्तावनामां नोंधायेलुं छे. ते पहेलांनी के ते पछीनी कृतिओमां आ जिनालयनो उल्लेख नथी. जे सूचवे छे के आ कृति सं. १९०० आसपास ज रचाई होय. श्रीमोहनभाई पण आने सं. १९०५नी ज गणावे छे.
कृतिमां खंभातना कुल २३ विस्तारोनां ८४ जिनालयोनी नोंध छे. जिनालय तेमां स्थपायेला मूळनायकना नामथी ओळखाय अवो सामान्य रिवाज छे. तदनुसार ज कृतिमां जिनालयोनां नाम अपायां छे. लिप्यन्तरमा ढाळ- ६, ७ अने ८नी ओक ओक पंक्ति नथी मळती. बनी शके के मूळप्रतमां ज कदाच आ पंक्तिओ न होय. ओ ज रीते बधे ठेकाणे जिनालयोनां नाम अपायां छे, पण ढाळ-३मां मानकुंवरबाईनी पोळमां त्रण जिनालयोनो उल्लेखमात्र छे, नाम नथी. तेथी सम्भव छे के आ जिनालयोनां नाम वर्णवती अक कडी कदाच छूटी गई होय.
खंभातनां जिनालयोने वर्णवती प्राचीन कृतिओमांथी अत्यारे उपलब्ध
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अनुसन्धान-५३ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग-१
थती कृतिओ कुल ५ छे : डुंगर श्रावकनी (१६मी सदी), ऋषभदासनी त्रम्बावती-तीर्थमाल (सं. १६७३) (अनु.-८, पृ. ६२, सं. - उपा. भुवनचन्द्रजी), मतिसागरनी चैत्यपरिपाटी (सं. १७०१), पद्मविजयजीनी चैत्यपरिपाटी (सं. १८१७) अने रेवाचंद पानाचंदनुं कागळ (१९मी सदी लगभग). आ साथे तेमां ओकनो उमेरो थाय छे.
१९मी सदीना अरसामां खंभातनां जिनालयोनी परिस्थितिनुं चित्र वधु स्पष्ट थाय ते माटे, साथे आपेली जिनालयसूचिमां रेवाचंद पानाचंदना कागळ साथे प्रस्तुत कृतिनी तुलना पण करवामां आवी छे. कागळनी 'रे.पा.' ओवी संज्ञा राखी छे.
सम्पादनमा रहेली क्षतिओ प्रत्ये ध्यान दोरवा विद्वानोने नम्र विनन्ति.
थंभण-तीरथमालमां प्राप्त थती जिनालयसूचि
आलीपाडो (२) १. सुपार्श्वनाथ २. शान्तिनाथ मांडवीपोळ (४) १. विमलनाथ २. आदिनाथ ३. मुनिसुव्रतस्वामी ४.
कुंथुनाथ (रे.पा.मां १ नाम वधारे छे - महावीरस्वामी
मेडी उपर) कडाकोटडी (२) १. प्रद्मप्रभु २. सुमतिनाथ (रे.पा.मां १ नाम वधारे छे
मुनिसुव्रतस्वामी) प्रजापतिवाडो (२) १. महाभद्रस्वामी २. शीतलनाथ (रे.पा.मां 'कुंभारवाडा'
तरीके आ विस्तारने ओळखाव्यो छे.) । जिराउलीपोळ (११) १. अरनाथ २. मनमोहन पार्श्वनाथ ३. वासुपूज्यस्वामी
४. अभिनन्दनस्वामी ५. महावीरस्वामी (रे.पा.मां आने भोयरामां बताव्या छे.) ६. जीरावला पार्श्वनाथ ७. नेमिनाथ ८. अमीझरा पार्श्वनाथ ९. शान्तिनाथ १०.चन्द्रप्रभस्वामी ११. नमिनाथ (रे.पा.मां आने भोयरामां बताव्या छे.)
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मानकुंवरबाईनी पोळ (३) (नाम नथी आप्यां. रे. पा. मां ३ नाम आ आप्यां छे : १. सम्भवनाथ २. शान्तिनाथ ( भोंयरामां) ३. अभिनन्दनस्वामी)
? (१)
दंतारवाडो (२)
सागोटापोळ (५)
चोलावाडो (१)
घीवटी (१) भोयरापाडो (७)
माणेकचोक (६)
४१
१. विजयचिन्तामणि पार्श्वनाथ (रे.पा. मां आ विस्तारने 'कीका जिवराजनी पोळ' तरीके ओळखाव्यो छे.) १. कुन्थुनाथ २. शान्तिनाथ ( रे. पा. मां शान्तिनाथनां बे जिनालय जणाव्यां छे. ज्यारे आ कृतिमां सागोटापाडामां नों धायेलुं शान्तिनाथ - जिनालय रे. पा. मां नथी. बनी शके के दंतारवाडो अने सागोटापाडो पासे-पासे होय. अने तेथी ओक ज जिनालयने ओके दंतारवाडामां अने बीजाओ सागोटापाडामां गणाव्यं होय.)
१. आदिनाथ २. अमीझरा पार्श्वनाथ ३. चिन्तामणि पार्श्वनाथ ४. स्थंभन पार्श्वनाथ (रे.पा. मां आने भोंयरामां बताया छे.) ५. शान्तिनाथ ( रे. पा. मां आ नाम नथी. जुओ दंतारवाडानी विगत) (रे.पा. मां आ विस्तारने 'सागोटापाडा' तरीके ओळखाव्यो छे.)
१. सुमतिनाथ - चउमुखजी (रे.पा. मां अहीं मेरुपर्वतनी स्थापना होवानुं पण जणाव्युं छे.)
१. महावीरस्वामी - गौतमस्वामी
१. शान्तिनाथ २. मल्लिनाथ ३. चन्द्रप्रभस्वामी ४. शान्तिनाथ ५. शामळा पार्श्वनाथ (रे.पा. मां आनुं नाम ‘असल्ल भावड पार्श्वनाथ' पण आप्युं छे.) ६. शान्तिनाथ (आ नाम रे.पा.मां नथी. जुओ माणेकचोकनी विगत ) नेमिनाथ.
७.
१. आदिनाथ २. मनमोहन पार्श्वनाथ (रे.पा. मां आ नाम नथी. पण 'सोमचिन्तामणि पार्श्वनाथ
-
आदा संघवीनुं
देहरुं' ओम लखेलुं मळे छे.) ३. आदिनाथ (भोंयरामां) ४. चिन्तामणि पार्श्वनाथ ५. धर्मनाथ ६. महावीरस्वामी
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४२
अनुसन्धान-५३ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग-१ (रे.पा.मां आ नाम नथी.) (रे.पा.मां अक नाम वधारे छे : शान्तिनाथ. त्यां आ विस्तारने 'लाडवाडो' कह्यो छे. आ विस्तार अने भोयरापाडो ओकदम पासे छे, तेथी बनी शके के आ कृतिमां भोयरापाडामां उल्लिखित शान्तिनाथ जिनालय ओ ज रे.पा.मां उल्लेखायेलुं लाडवाडा
शान्तिनाथ जिनालय होय.) बंभणवाडो (२) १. चन्द्रप्रभस्वामी २. अभिनन्दनस्वामी अलंग (१) १. आदिनाथ मणियारवाडो (१) १. चन्द्रप्रभस्वामी (जुओ चोक्सीपोळनी विगत) चोक्सीपोळ (११) १. विमलनाथ-चौमुखजी २. मोहर पार्श्वनाथ ३. शीतल
नाथ ४. चन्द्रप्रभस्वामी ५. चिन्तामणि पार्श्वनाथ ६. सुविधिनाथ ७. शीतलनाथ (६ अने ७ क्रमांकनां नाम रे.पा.मां नथी, पण तेमां मणियारवाडामां आ बे नाम वधु नोंधायेला छे,जे सूचवे छे के मणियारवाडाना आ बे देरासरोने ज आ कृतिमां चोक्सीनी पोळमां नोंधवामां आव्यां छे.) ८. शान्तिनाथ ९.महावीर स्वामी-गौतमस्वामी १०. सुखसागर पार्श्वनाथ ११. जगवल्लभ पार्श्वनाथ (छेल्लां त्रण नाम रे.पा.मां 'महालक्ष्मीनी पोळ' नामना विस्तारमां
गणावायां छे.) नालियरपोळ (१) १. वासुपूज्यस्वामी संघवीनी पोळ (२) १. सोमचिन्तामणि पार्श्वनाथ २. विमलनाथ बोरपीपळो (४) १. नवपल्लव पार्श्वनाथ २. गोडी पार्श्वनाथ (भोयरामां)
३. मुनिसुव्रतस्वामी ४. सम्भवनाथ खारवाडो (१२) १. मुनिसुव्रतस्वामी - २४ तीर्थंकर २. मोहर पार्श्वनाथ
३. सहस्रफणा पार्श्वनाथ ४. आदिनाथ ५. स्थंभन पार्श्वनाथ ६. सीमन्धरस्वामी ७. अजितनाथ ८. शान्तिनाथ ९. कंसारी पार्श्वनाथ १०. अनन्तनाथ ११. महावीरस्वामी
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(समवसरण - चौमुख रे.पा.) १२. मुनिसुव्रतस्वामी शकरपुर (२) १. सीमन्धरस्वामी २. चिन्तामणि पार्श्वनाथ राजगढ* (१) १. गोडी पार्श्वनाथ (रे.पा.मां नथी.)
थंभणतीरथमालमां उल्लेखायेल कुल जिनालय- ७८ + ६ भोयरा = ८४ रे.पा.मां उल्लेखायेल कुल जिनालय- ७९ + ६ भोयरा = ८५ (उपर दर्शावेल फेरफारो उपरान्त - १. घीयानी पोळ - मनमोहन पार्श्वनाथ, २. कडाकोटडी - मुनिसुव्रतस्वामी ३. मांडवीनी पोळ - महावीरस्वामी - आ ३ उमेरतां अने १. माणेकचोक - महावीरस्वामी २. राजगढ - गोडी पार्श्वनाथ - आ २ बाद करतां) रे.पा.मां आ उपरान्त १६ घरदेरासरनी पण विगत छे.
श्री शंखेश्वर-पार्श्वनाथाय नमः ॥
संवत २००९मां खंभातनी यात्रा प्रवर्तक महाराज श्रीकान्तिविजयजीशिष्य चतुरविजयजी-शिष्य पूज्य पुण्यविजयजी महाराज तथा शान्तमूर्ति श्रीहंसविजयजी-शिष्य पन्यास श्रीसंपतविजयजी-शिष्य रमणीकविजयजी तथा मनि जयभद्रविजयजी यात्रा करी ते यादगिरी माटे खंभातनां प्राचीन स्तवनो ने चैत्यपरिपाटीनी ढालो, गुजरात-पाटणना वागोळपाडाना गिरधरभाई हेमचन्दना हस्तलखीत प्राचीन पुस्तक साचवनार अमृतलाल पासेथी मेळवी तेमज पूज्य पुण्यविजयजी महाराज आत्मार्थे गुजरात-पाटणना हस्तलखीत पुस्तकोना भण्डार सुधार्या ते यादगिरी माटे गुजरात-पाटणना वागोळपाडाना जिनगुणगायक (भोजक) मोहन लखेल छे ।
श्रीस्थंभतीर्थ-तीर्थमाल स्तवन संवत १९०५ ओगणीस पचलोतरे काती सुदी ६ अंचलगच्छना पुण्यसागरना शिष्यनी रचेली छे ।
- श्री मोहनलाल भोजक
★ अत्यारे 'राळज' तरीके ओळखातुं गाम ज आ राजगढ होई शके.
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अनुसन्धान - ५३ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग - १
थंभण - तीरथमाल स्तवन
दूहा
श्रीसारदा वरदायनी, प्रणमु श्रीगुरुपाय ।
स्तवना करु बहु युगतीसुं, मुज मुख वसजो माय ॥१॥ चोवीसे जिन प्रणमीओ, पांमे पंचम ज्ञान । उत्तम तीर्थ गावतां, लहीओ अधिक मान ||२||
ढाल - १ अभिनन्दन जिनराजीया ओ देशी
श्रीजिनराज सोहामणा, गुण भरीया रे । तरीया भवोदधिपार, सकल गुण भरीया रे | आवो देव जुहारवा । गु० । परमातम सुखकार । स० ॥१॥ आलीपाडे वांदीओ | गु० । कीजे जन्म पवित्र । स० । सुपास' जिनेश्वर सातमा । गु० । बीजा शान्ति कृपाल । स० ॥२॥ मांडवीपोळमां निरखतां । गु० । चार प्रभुप्रासाद । स० । विमळ' जिणेसर शोभता । गु० । बीजो आदीश्वर प्रासाद । स० ॥३॥ मुनिसुव्रतजिन साहिबा । गु० । सत्तरमा कुंथुनाथ' स० । अ चारे शिवपद सेहरा । गु० । दीपे जैम कैलास | स० ||४|| हवे आगळ प्रभु वंदीओ । गु० । कडाकोटडी बे प्रासाद । स० । छठ्ठा पद्मप्रभु' देखतां । गु० । पांचमा सुमति' दयाल । स० ॥५॥ चरण तुमारा फरसतां । गु० । सकल टले जंजाल । स० । मुक्तिना सुखने पामसे । गु० । वली लहेस्ये मंगलमाल । स० ॥६॥ ढाल - २ हवे जाउ मही वेचवा रे लाल ओ देशी
श्री जिनराजने वंदतां रे लाल आतम करी उजमाल,
मारा वालाजी रे ध्यान धरो भगवन्तनुं रे लाल । प्रजापतिवाडे पेखतां रे लाल देहरां दोय निहाल । मा० ॥ १ ॥ दशमा श्री शीतलनाथजी रे लाल साचो शिवपुर साथ । मा० । महाभद्र अढारमा रे लाल वीसीमांहेला जिनराज | मा० ॥२॥
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हवे वली जिनराजने रे लाल चालि सेवो महाराज । मा० । अकादश प्रासाद छे रे लाल जिराउलीपोळ कहेवाय । मा० ॥३॥ अढारमा' जिन सोहामणा रे लाल वली मनमोहन पास । मा० । त्रिभुवनपती जिन बारमोरे रे लाल जे त्रोडे भवपास । मा० ॥४॥ अभीनन्दन चोथा नमुं रे लाल वीरे५ कर्या कर्म अन्त । मा० । जीराउला प्रभु पार्श्वने रे लाल वांदी लहो शिवसन्त । मा० ॥५॥ बावीसमा प्रभु नेमजी रे लाल अमीझरानी करु सेव । मा० । सोलमा श्रीशान्तिनाथजी रे लाल आठमा चन्द्रप्रभु० देव । मा० ॥६॥ आवो देव जुहारवा रे लाल नमिप्रभु११ णकरंड(?) । मा० । अकादश देहरातणा रे लाल गुण गाये मुक्ति उछरंग । मा० ॥७।।
ढाल-३ चालो सखी प्रभुमंदिर जईओ ओ देशी चालो सखी प्रभु पुजन जईओ, प्रभु मुख देखी पावन थईओ,
गुण केता प्रभुना कहीओ । चा० ॥१॥ मानकुंवरबाईनी पोळ ज मांहे, त्रण प्रासाद छे ते मांहे,
गुणी गुण गाओ उछांहे । चा० ॥२॥ विजयचिन्तामणि श्रीपास', प्रभु पुरे वंछित आस,
मोह जाओ दुरे नास । चा० ॥३॥ हवे दंतारवाडामां जाणुं, सत्तरमा प्रभु वखाणुं,
संतीसेवी लहो पद नाण । चा० ॥४॥ सागोटापोल ज माहे, पांच प्रासाद छे ताहे,
गुण गाउ राग ज माहे । चा० ॥५।। आदीसर' निरखो प्राणी, अमीझरो दे शिवराणी,
चिन्तामणिः प्रभु गुणखाणी । चा० ॥६॥ थंभण प्रभु पारसनाथ, शान्तिनाथ शिवसाथ,
परमपद लहे नाथ । चा० ॥७॥ ढाल-४ त्रिभुवनपति जिन वंदीओ ओ देशी चोलावाडे वांदीओ, विसरामी रे । पांचमा सुमतिनाथ', नमु शिर नामी रे ।
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अनुसन्धान-५३ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग-१
चोमुख जिन प्रणमी करी । वि० । घीवटीमां देहरो निहाल । न० ॥१॥ महावीरस्वामी' चोवीसमा । वि० । कर्मसुभट हणनार । न० । गौतम सरिखा गणधरु । वि० । नमी पामुं भव पार । न० ॥२॥ भोयरापाडे देहरां सात छे । वि० । सोलमा शान्तिनाथ' । न० । मल्लिनाथरे ओगणीसमा । वि० । चन्द्रप्रभु३ शान्तिनाथ । न० ॥३॥ शांमला पारस' जोयतां । वि० । शान्तिनाथ नेमिजिणंद । न० । माणेकचोकमां देहरां । वि० । तुमे वांदो मनरंग । न० ॥४|| मरुदेवीनन्दन' मनोहरु । वि० । मनमोहन प्रभु पास । न० । युगलाधर्म निवारणो । वि० । ऋषभजीरे पुरे आश । न० ॥५॥ वली भुयरामांहे जुवो । वि० । श्रीचिन्तामणि पास । न० । धरमनाथें जिन वीरजी । वि० । हवे बंभणवाडो जोय । न० ॥६॥ छ(?) देहरां मांहे अछे । वि० । चन्द्रप्रभु' अभिनन्दन देव । न० । अलंगमां देरु ओक छ । वि० । ऋषभनी करो संत सेव । न० ॥७॥ मणियारवाडे आगळ जुओ । वि० । चन्द्रप्रभु' महाराज । न० । मुक्तिना पदनी याचना । वि० । याचे छे महाराज ॥ न० ॥८॥
ढाल-५ अविनाशीनी सेजडीओ रंग लाग्यो छे ओ देशी चोक्सीपोले चालो प्रितम विमल' प्रभुने जुहारो जी रे । चोमुख देखी अति आणंदुं प्रभु जोई चित्त धारु । गुणीजन वंदो जी रे वंदी लहो आणंद ॥१॥ मोहर पास प्रभु जगधणी ने दशमा शीतलनाथ जी रे । आठमा चन्द्रप्रभु उजववा ने वली चिन्तामणि' नाथ । गु० ॥२॥ नवमा सुवधी जिणेसर सामी श्रेयांस नमु सिर नामी जी रे । शान्तिनाथ प्रभु सोलमा ने वीर प्रभु अन्तरयामी । गु० ॥३॥ गौतमस्वामी गुण वीसरामी सुखसागर'० शिवगामी जी रे । जगवल्लभ११ जगनायक स्वामी सकल जंतु वीसरामी । गु० ॥४॥ नालियरपोळमां वंदो प्राणी जिनघर ओक सुख प्राणी जी रे । वासुपूज्य' जिन वासव पूजे, जगमां उत्तम नाणी । गु० ॥५॥
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संघवीनी पोळे संचरजो प्रितम सर्वे गुणना दरीया जी रे । सोमचिन्तामणि विमलनाथ मुक्ति परम सुख वरीया । गु० ॥६॥
ढाल-६ मुखने मरकलडे ओ देशी बोरपीपले हवे गुण खाणी जी, जिनवर जयकारी । तुमे चालो उत्तम प्राणी जी, जिनवर जयकारी । तिहां नवपल्लव पास जी । जि० । पुरे मनवंछीत आस जी । जि० ॥१॥ भुयरामां गोडीजी चंदो जी। जि० । वीसमा जिन देखी आणंदो जी । जि० । शंभवनाथ त्रीजा सामी जी। जि० । हवे खारवाडे अंतर पामी जी । जि० ॥२॥
...... ।
तिहां चोवीसे जिनचंदा जी । जि० । सेव्याथी लहो सुखकंदा जी। जि० ॥३॥ मूलनायक सुव्रत जाणो जी । जि० । पुजे सुरलोकनो राणो जी । जि० । छखंड त्रणखंडना भुप जी । जि० । ते सेवे प्रभुने अनुप जी । जि० ॥४॥ सरवे कारज तेहनां सरसे जी । जि० । वली मुक्ति कमला वरसे जी । जि० । यात्रा करी लाभ ते लेसे जी । जि० । गुणवन्त प्रभुने नमसे जी । जि० ॥५॥
ढाल-७ मुने संभवजिनसुं प्रित ओ देशी मोहर पास महाराज चरणे लागु रे ।। सहसफणा जिनराज ओ वर मागु रे ॥१॥ आदीश्वर भगवान नमी गुण गाउ रे । थंभण पारसनाथ युक्ते जोउ रे ॥२॥ श्रीमंधर जिनराज अन्तरयामी रे । अजितनाथ शिवसाथ नमु शिर नामी रे ॥३॥ शोलमा शान्ति दयाल मुजने मलीया रे । कंसारी पारसनाथ प्रभु अटकलीया रे ॥४॥ अनन्त१० जिणेसर देव शचीपति सेवे रे । चोवीसमा जिन वीर११ मुक्तिसुख देवे रे ॥५॥ मुनिसुव्रत१२ महाराज कर्म निकंदे रे । शकरपुरमां दोय जिनधर आणंदे रे ॥६॥
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अनुसन्धान - ५३ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग - १
श्रीमंधर भगवान वान वधारे रे । चिन्तामणि' पारसनाथ काज सुधारे रे ॥७॥ राजगढां गोडी देव' यात्रा करजो रे । अ थंभणतीरथमाल युगते सुणजो रे ||८||
T
अनोपम मंगलमाल लेस्ये प्राणी रे ॥ ९ ॥
ढाल -८ बिंदलीनी देशी
चोवीसे जिनराया, कांइ अधिके तेज सोहाया रे,
सुगुणनर ! यात्रा करजो सारी । मुज मंदीर आवो, कांइ हृदयकमल दिपावो रे । सु०॥१॥ धन धन जिनगुण गाया, मे तो लाभ अनन्त उपाया रे । सु० । गुणवन्त प्रभुना गुण गासे, तस समकीत निरमल थासे रे । सु० ॥२॥ चोवीसे जिननी माता, तस प्रणमी लहु सुख शाता हो । सु० । अ रत्नगर्भा जिनमाता, अहवुं इन्द्रे कह्युं विख्याता हो । सु० ||३|| छपन्न दिसिकुमरी आवे, निज करणी करी घर जावे रे । सु० । चोसठ इन्द्र ते आवे, प्रभु मेरु शृंगे लावे रे | ० ||४|| करी ओच्छव प्रभु गुण गावे, प्रभुने नमी सुख पावे रे । सु० ।
॥५॥
ढाल - ९ तुठो तुठो मुज वामाको नन्दन तुठो ओ देशी
गाया गाया रे परमातम जिनगुण गाया, आतमरामी शिवगती गामी, वांमी मीथात्व कलेस ।
राग द्वेष दोय वैरी मरोडी, ओ सुगुरु उपदेश रे । पर० ॥१॥ खंभात शहेरनी यात्रा सारी, भावे करो नरनारी ।
सुद्ध देव सुगुरुनी सेवा, सुद्ध धरम सुखकारी रे । पर० ॥२॥ ओ तीरथमाला भणसे गणसे, तस घर कोडी कल्याण ।
रूद्धि वृद्धि सुखसम्पदा दिनदिन, लहेशे परमपद नांण रे । पर० ॥३॥
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श्रीअचलगच्छे दिनदिन दीपे, पुण्यसागर सूरीराया । तेह गुरुना सुपसाय लहीने, थंभण तीरथ गाया रे । पर० ॥४॥ संवत सतर(?) ओगणपचलोतरा वरसे, काती सुद छठे मलाया । उज्वलपक्षे श्रीबुधवारे, ओ अभ्यास बनाया रे । पर० ॥५॥ चोवीह संघतणा दिल हरख्या, सांभली तीरथमाला । श्रवणे सुणी सुख सम्पदा लेसे, मुक्ति झाकझमाला रे । पर० ॥६॥
कळश इम तीर्थस्वामी तीर्थस्वामी गाईया में हर्षे करी, गुणलाभ जाणी हिये आणी प्रभुनामनी स्तवना करी । नरनारी गास्ये अधिक उल्लासे भावभक्ति मन थिर करी, जिननाम भावे सुणो नाम मंगलीक जय वरी ॥१॥
॥ इति थंभणतीरथमाल ॥
टाइटल १
श्रीगिरनार तीर्थमां पर्वत उपर श्रीनेमिनाथ भगवानना मुख्य जिनालयना रंगमण्डपमां भगवाननी सामेनी भींत उपर एक गोखमां विराजमान आ पुरातन गुरुमूर्ति छे, जे त्यां "हेमचन्द्राचार्य" तरीके ओळखाय छे. आ मूर्ति जूना पहाडी-पत्थरमांथी घडाई होय अने ते पर ऊडझूड लेप करायो होय तेवू लागे. टाइटल ४
हेमचन्द्राचार्यना गोखनी बाजुना ज गोखमां विराजित आ प्रतिमा 'कुमारपाळ राजा'नी छे एम त्यां प्रसिद्धि छे. आ प्रतिमा पण पहाडी पत्थरनी ज घडेली छे अने लेपथी विकृत थयेल छे.
बन्ने शिल्पो घणां पुराणां होवानी सम्भावना छे.
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अनुसन्धान-५३ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग-१
सिद्धहेम-प्राकृत-शब्दानुशासनगत अपभ्रंश - दोहा - सवृत्ति
सं. साध्वी दीप्तिप्रज्ञाश्री कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्यनी सूरिपद-नवमशताब्दीवर्षे प्रगट थनार अनुसंधानना 'श्रीहेमचन्द्राचार्य-विशेषाङ्क' माटे पू. आचार्य श्रीविजयशीलचन्द्रसूरि म. पासेथी मने २ पानांनी प्रत प्राप्त थई. जे प्राये १८मी सदीनी छे अने अपूर्ण छे.
___ आ प्रतमां कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य विरचित सिद्धहेमशब्दानुशासनना अष्टमाध्यायरूप प्राकृत-व्याकरणना चोथा पादमां आवता अपभ्रंशभाषासम्बन्धि सूत्रोमां (४.३३०-४.४४६) आपेला उदाहरण-दोहानी टीका छे.
__ प्रतनां पानामां लखाण त्रिपाठी छे. वच्चे मूळ उदाहरण-दोहा छे अने उपर-नीचे तेनी टीका छे. ४-३३० थी ४-३६७ सुधीना सूत्रना मूळ उदाहरणदोहा छे, अने ४-३३० थी ४-३७० सूत्रना प्रथम उदाहरण-दोहा सुधीनी टीका छे. लखतां लखतां अधूरी रहेली आ प्रत छे.
आ प्रतमां वृत्तिना प्रमाणमां मूळ उदाहरण-दोहामां अशुद्धिनुं प्रमाण थोडं वधु छे. जेने संमार्जित करवानो यथाशक्य प्रयत्न कर्यो छे.
जैन आत्मानन्द सभा-भावनगरथी प्रकाशित अने पू. वज्रसेनविजयजी म.सा. द्वारा सम्पादित प्राकृत-व्याकरणना पुस्तकमां अपभ्रंश-दोधकवृत्ति छपायेली छे. तेनाथी आ वृत्ति थोडी अलग छे.
आ प्रतमां बधे अनुनासिकना स्थाने अनुस्वार लखेल छे. जिव तिव ना स्थाने जिम्व तिम्व लखेल छे. मुद्रित पुस्तकमां मूळ दोहा तथा दोधकवृत्तिमां जे भिन्नता छे ते टिप्पणमां नोंधी छे. अपूर्ण प्रति होवाथी स्वाभाविक रीते ज तेना कर्ता के लेखक विषे
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डिसेम्बर २०१०
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तेमज लेखनकाळ विषे स्पष्ट जाणकारी न मळे. छतां अनुमानथी ते १८मा सैकामां लखाई हशे तेवू जाणकारो द्वारा जाणी शकायुं छे. ॥ ६॥
नम[:] श्रीजिनाय ॥
ढोल्ला सामला धण चंपावण्णी ।
णाइ सुवण्णरेह कसवट्टी( 2 )इ दिण्णी ॥ गाथा १॥ ॥६ ॥
श्री शंखेश्वर-पार्श्वनाथाय नमः ॥ ढोल्ला० । ढोल्ला नायकः । सामलः(ला) श्यामलः । धण प्रिया । चंपावण्णी चम्पकवर्णी । णाइ इवार्थे । सुवण्णरेहा(ह) सुवर्णरेखा । कषवट्टइ कषपट्टके । दिण्णी दिन्नाऽस्ति ॥१॥
ढोल्ला मई तुह(९) वारिया मां(मा) कुरु दीहा माणु । निद्दए गमिही रत्तडी दडवड होइ विहाणु ॥२॥
ढो० । हे नायिके १ । मया त्वं वारिता । दीहा दीर्घम् । माणु(णु) मानम् दर्पम् । मा कुरु । निद्रायाः (निद्रया) रात्रि०(त्रिः) गमिष्यति । दडवड शीघ्रं । विहाणुं(णु) प्रभातम् । होइ भविष्यति ॥२॥
बिट्टीए मई भणिअ तुहं(हुं) मा कुरु वंकी दिहि । पुत्ति सकण्णी भिल्लि जिम्व मारइ हिअइ पइट्ठि ॥३॥
बिट्टी० । हे पुत्रिके ! मई मया । तुहं(हुं) त्वम् । भणिअ भणिता। वंकी वक्रा(क्राम्) । दिट्ठी दृष्टिं । मा कुरु । पुत्ति हे पुत्रिके ! । हियइ हृदये। पइट्ठि प्रविष्टा सति(ती) । दृष्टे:(ष्टिः) मारइ मारयति । त्रिम (जिम्व) यथा । सकणी(ण्णी) सकर्णा संपुषा । भिल्ली(ल्लि) भिल्ली भालडी ॥३॥
२. करु - प्रा.व्या.
१. नायक - दो. वृ. ३. भल्लि - दो. वृ. । प्रा.व्या.
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अनुसन्धान-५३ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग-१
एइ ति घोडा एह थलि एइ ति निसिआ खग्गु (खग्ग)। एत्थ मुणीसिम जाणीअइं(इ) जो नवि चा(वा)लइ वग्ग ॥४॥
एइ० । एते ते । घोडा घोटका[:] । एह एषा । थभि(लि) स्थली। एइ ति एते ते । निसिआ निसिताः तीक्ष्णाः । खग्ग खड्गाः । एत्थ अत्र । मुणिमि(सि)म मनुष्यत्वम् । जाणी[अ]इ ज्ञायते । जो यः । वग्गं वली (वल्गाम्) । नवी(वि) नैव । वालइ वालयति ॥४॥
दहसु(मुह(हु) भुवणभयंकुरु तोसिअसंकरु णि( नि )ग्गउ रहवर(रि) चडिअओ" (चडिओ)। चउम्मु(मुह(हु) छम्मुह(हु) झाएवि एक्कहिं लाइवि णो(णा)वइ दइवें घडिओ ॥५॥
दह० । भ(भु)वणभयंकुरु [भुवनभयङ्करः] । तोसिअ-संकरु तोषितशंकरः । रहवरि रथवरे । चडिओ आरूढः सन् । दसमुह(हु) दशमुखो रावणः । निग्गओ(उ) निर्गतः । णा[व]इ इवार्थे । चउमुहं(हु) चतुर्मुखम् । छम्मुहं(हु) षण्मुखम् । एक्कहिं एकस्मिन् स्थाने । लाइवि लात्वा । दई(इ)वें दैवेन कर्मणा । घडिओ घटितः ॥५॥
अगलिअ-नेह-निविट्टाहं जोअणु-लक्खु वि जाउ । वरिससएण वि जो मिलइं(इ) सहि सोक्खहिं(हं) सो ठाउ ॥६॥
अग० । अंगलिंअ (अगलिअ) नेह-निविट्टाहं अगलितस्नेहनिवृत्तानां नराणां सस्नेहानां पुरुषाणाम् । जोअणु-लक्खु वि योजनलक्षमपि । जाउ जा(?) यात्वा । वरिससएण वि वर्षशतेनाऽपि । जो यः पुमान् । मिलइ मिलति । सहि हे सखि ! । सोक्खहं सौख्यानाम् । सो सः पुमान् । ठाउ स्थानम् भवति ॥६॥
अंगि(ग )हिं अंगु न मिलिउ हलि अहरें अहरु न पत्तु । पिअ जोअंतिहे मुहकमलु एम्वइ सुरउ समत्तु ॥७॥
अं० । हलि हे सखि हेले । अंगहि अङ्गैः । अंगु अङ्गम् । न मिलिउ ४. भयंकरु प्रा.व्या., दो.वृ. ५. चडिअउ - प्रा.व्या., दो.वृ. ६. घडिअउ प्रा.व्या., दो.वृ.
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डिसेम्बर २०१०
५३
न मिलितम् । अहरें अधरेण सह । अहरु अधरः । न पत्तु न प्राप्तः । पिय प्रियस्य । मुहकमलं मुखकमलम् । जोअंति[हे] द्योतयतो विलोकयतः । एम्वइ एवमेव एतावता । सुरउ सुरतं । समत्तु समाप्तम् ॥७॥
जे महु दिण्णा दीहँडा दइए पवसंतेण । ताण सुणंणंतिए (गणंतिए) अंगुलिओ जज्जरिआउ नहेण ॥८॥
जे० । पवसंतेण प्रवसता प्रवासं कुर्वता । दइए दयितेन । जे ये । महु मम । दीहडा दिवसाः । दिण्णा दत्ताः । ताण तान् दिवसान् । गणंतिए गणयन्त्या[:] । मम अंगुलियाउ (अंगुलिओ) अङ्गलयोः (ल्यः) । नहेण नखेण । जज्जरिआउ जजरिताः जर्जरीभूताः ॥८॥
सायरु उप्परि तणु धरइं(इ) तलि घल्लइ रयणाइ(इं) । सामि सुनिच्छु (सुभिच्चु ) वि परिहरइं(इ) सम्माणेइ खलाई ॥९॥
सा० । सायरु सागरः । उप्परि उपरि । तणु तृणानि । धरइ धरति । तलि तले अधः । रयणाइं रत्नानि । घल्लइ घेप्पइ क्षिपति । तथा सामी(मि) स्वामी । सुभिच्चु सुभृत्यानपि परिहरति । खलाई खलान् । सम्माणेइ सन्मा[न] यति ॥९॥ गुणहिं न संपय कित्ति पर फल लिहिआ भु(भुं)जंति । केसरि न ल[ ह]इ बोड्डिअ वि गय लक्खेहिं घि(घे )प्पंति ॥१०॥
गुणि (ण)० । गुणि(ण)हिं गुणैः । न संपय न संपद्भवति । पर कीत्ति कीतिरेव लोकैः । फल फलानि । लिहिआ लिखितानि ललाटपट्ट-लिखितानि । भु( )जंति भुज्यन्ते । यतः केसरी सिंहः । बोड्डिअवि कपर्दिका-मात्रमपि । न लहइ न लभते । गय गजा[:] । लक्खेहिं लक्षैः । घेप्पंति गृह्यन्ते ॥१०॥
वच्छहे गृण्हइ फलइ(इं) जणु कडु पल्लव वज्जेइ । तो वि महहुम सुअणु जिम्व ते उच्छंगि धरेइ ॥११॥
जं० । जणु लोकः । वच्छहे वृक्षान् । फलइ(इं) फलानि । लिहि गिण्हइ गृह्णाति । परम् कडु पल्लुप (पल्लव) कटुकपत्राणि । जनो वज्जेइ ७. दिअहडा - प्रा.व्या., दो.व. ८. दइएं - प्रा.व्या., दो.वृ. ९. अंगुलिउ - प्रा.व्या., दो.वृ.
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अनुसन्धान-५३ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग-१
वर्जयति । तो वि तथापि । म[ह] ढुम महाद्रुमः । ते तानि कटुकपत्राणि । उच्छंगि उच्छृङ्गे। धरेइ धरति । जिम (जिम्व) यथा । सुअणु स्वजनः ॥११॥
दुरुड्डाणे पडिउ खलु अप्पणु जणु मारेइ । जिह गिरि-सिंगहुं पडिअ सिल अन्नवि चूरू करेइ ॥१२॥
दुरु० । दुरुड्डीणं(ड्डाणे) दुराड्डी(ड्डा)नेन । पडिउं(उ) पतितः सन् । खलः । अप्पणुं(णु) आत्मानम् । जणुं(णु) जनम् । मारेइ मारयति । जिह यथा। गिरिसिंगहु(हुं) गिरिशृङ्गेभ्य[:] । पं(प)डिअ पतिता सती । सिला शिला । अन्नवि अन्यानपि । चूरु चूर्णम् । करेइ करोति ॥१३ (१२)॥
जो गुण गोवई(इ) अप्पणा पयडा क[र]इ परस्सु । तसु हउं कलियुगि दुल्लहहो बलि किज्जब उं) सुअणस्सु ॥१३॥
___ जो० । जो यः पुमान् । अप्पणा आत्मीयान् । गुणान् । गोवइ गोप्यति प्रच्छन्नीकरोति । परस्सु परस्य । पयडा प्रकटान् गुणान् करोति । कलियुगि कलियुगे । दुल्लहहो दु[र्ल]र्भ(भ)स्य । तसु तस्य नरस्य । बलि पूजाम् । किज्जउं करोमि । सुअणु(ण)[स्सु] स्वजनस्य (सुजनस्य ?) ॥१२(१३)॥ तणहं भ( त )इज्जी भंगि नवि ते( तें) अवडियडि वसंति । अथ(ह) जणु लग्गिवि उत्तरइ अह सह सइ(इं) मज्जंति ॥१४॥
___ तणहं० । तणहं तृणानाम् । तइज्जी तृतीयो । भंगि भङ्गी प्रकारः । नवि नास्ति । अविडयदि (अवडियडि) अवटतटे कूपतटे । वसंति तिष्ठन्ति । तें तानि तृणानि । अह अथवा । जणु जनः । लग्गिवि लगित्वा । उत्तरइ उत्तरयति । अह । सह सार्द्धम् । सयं(इं) स्वयम् । मज्जन्ति ॥१४॥
दइवु घडावइ वण( णि) तरुही हुं) सउणिहं पक्कफलाई । सोवरि सुक्ख पइट्ठ णवि कण्णहिं खलवयणाई ॥१५॥
द० । दइवु दैवः । सउणिहं शकुनिनाम् । तरुहं(हुं) तरूणाम् वृक्षाणाम् । पक्कफलाई पक्वफलानि । वणि वने । घटा(डा)वइ घटापयति अर्पयति । सोवरि नवरम् । सुक्खं । पइट्ठ णवि प्रविष्टानाम् नराणाम् । कण्णहिं
१०. अन्नुवि - प्रा.व्या., दो.वृ.
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कर्णयोः । खलवयणाई खलवचनानि न सौख्यम् ॥१५॥
धवलु विसूरइ सामीअहो गरुआ भरु प(पे)क्खेवि । हउं किं न जुत्तउ दुहुं दिसिहि खंडई दोण्ण(ण्णि) करेइ (वि) ॥१६॥
धव० । धवलु वृषभः । गरुआ गुरुकम् । भरु भारम् । पेक्खेवि प्रेक्ष्य। स्वा(सा)मिअहो निजं(ज) स्वामिनः निजधनिकस्य । विसूरइ सोचति निन्दति । हउं अहम् । किं न जुत्तओ(उ) किं न युक्तः किं न नियोजितः । दुहं द्वयो[:] । दिसिहि दिशो[:]पार्श्वयोः । खंडइ(इं) खंडे । दोण्णि द्वे । करि(रे)वि कृत्वा ॥१६॥ | गिरिहे सिलायलु तरुहे फल( लु) घेप्पइ नीसाम्वन्नु । घर(रु) मेलेप्पिणु माणुसहं तो वि न रुच्चइ रण्णु ॥१७॥
गिरि० । गिरिहे पर्वतान्(त्) । सिलायलु शिलातलम् । तरुहे वृक्षान्(त्) । फलु फलम् । घेप्पइ गृह्यते । नीसाम्बनु(न्नु) निःसामान्यम् । तो वि तथापि । घरुं(रु) गृहम् । मेलेप्पिणु मुक्त्वा । माणुसहं मनुष्येभ्यः । रj(ण्णु) अरण्यम् । न रुच्चइ न रोचते ॥१७॥
तरुहुं वि वक्कलु फल( लु) मुणि वि परिहणु असणु लहंति । सामिहुँ एत्तिओ(उ) अग्गलउं आयरु भिच्चु(च्च) गि(गृ)हंति ॥१८॥
___ तर(रु)हुं० । तरुहुँ वृक्षेभ्योऽपि । वक्कलुं(लु) वक्क(ल्क)लम् । प(फ)लु फलम् । मुनि वि मुनयोऽपि ऋषीश्वरा अपि । परिहणु परिधानम् । असणुं(णु) असनम् । लहंति लभन्ति(न्ते) । सामिहुं स्वामिभ्यः । एत्तिउ एतद् । अग्गलउं अधिकतरम् । आयरु आदरम् यथा स्यात् । भिच्चु(च्च) भृत्याः । गृहति गृह्णन्ति ॥१८॥
__ अह विरलप्पहाउ जि क[लि]हि धम्मु ॥१९॥
अह अथ । विरलप्पहाउ तुच्छप्रभावः । जि एव । कलिहि कलियुगे। धम्मु धर्मः ॥१९॥
दई(इ)ए० पूर्ववत् ॥२०॥
दइए० पूर्ववत् ॥२०॥ ११. पिक्खेवि - प्रा.व्या., दो.वृ.
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अनुसन्धान-५३ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग-१
अग्गिए( एं) उण्हओ(उ) होइ जगु वाएं सीअलु तेम्व । जो पुणु अग्गि( ग्गि) सीअला तसु उण्हत्तण उ) केम्व ॥२१॥
अग्गि० । अग्निना । उण्हउं(उ) उष्णम् । होइ भवति । जगु जगत् । वाए(एं) वायुना । सीअलुं(लु) शीतलं भवति । तेम्व तथा । जो यः । पुणु पुनः । अग्गि(ग्गि) अग्निना । सीअलुं(ला) शीतलं(लः) भवति । तसु तस्य । उण्हत्तणउ उष्णत्वम् । केम्व कथं भवति ॥२१॥ विप्पिआ(अ)यारओ(उ) जइवि पिओ(उ) तोवि तं आणिहि अज्जु । अग्गिणि(ण) दड्ढा(ड्ढउ) जइवि घरु तो तें अग्गि कज्जु ॥२२॥
विप्पि० । विप्पिअयारउ विप्रियकारकः । य(ज)इवि यद्यपि । पिउ प्रियः । तोवि तथाऽपि । तं प्रियम् । आणिहि आनीहि । अज्ज अद्य । अग्गिण अग्निना । दड्ढउ दग्धं । जइवि यद्यपि । घरु गृहं । तो तथाऽपि । तें तेन । अग्गि(रिंग) अग्निना । कज्जु कार्यम् ॥२२॥
एइ ति घोडा० इत्यादि पूर्ववत् ॥२३॥ एइ ति० पूर्ववत् ॥२३॥ जिम्व [जिम्व] वंकिम लोअणहं णिरु साम्व( म )लि सिक्खेइ । तिम्व तिम्व वम्महु निअयसरु१२(र) खरपत्थरि तिक्खेइ ॥२४॥
जिम्व० । यथा यथा । वंकिम वक्रिमां(माणम्) वक्रत्वम् । लोअणहिं(ह) लोचनयोः द्विवचनस्य बहुवचनम् । णिरु निश्चितम् । सामली श्यामली स्त्री । सिक्खेइ शिक्षति । तिम्व तिम्व तथा तथा । वम्महु मन्मथः । खर पत्थरे(रि) कठोरप्रस्तरे । निअयसर निजकसरान् । त(ति)क्खेइ तीक्ष्णयति ॥२४॥
संगर-सएहिं जु वणि( ण्णि)अइ देक्खु अम्हारा कंतु । अइमु(म)त्तहं चत्तंकुसहं गय कुंभयं(इं) दारन्तु ॥२५॥
संग० । संगरसएहिं सङ्ग्रामशतैः । जु यः । वणि(ण्णि)अइ वर्ण्यते । देखु(क्खु) पश्य । अम्हारु(रा) अस्मा(म)दीयः । कंतु कान्तः भर्ता । अइमु(म)त्तहं अतिमत्तानाम् । चत्तंकुसहं त्यक्ताकु(ङ्क)शानाम् । गय गजानाम् । कुंभइ(इं) कुंभस्थलानि । दारतुं (दारंतु) दारयन् ॥२५॥ १२. सरु - प्रा.व्या.
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तरुणिउहो (तरुणिहो)[ तरुणहो] मुणिओ(उ) मइ(इं) करहु म अप्पहो घाओ(उ) ॥२६॥
तरु० । तरुणिहो तरुणहो हे तरुण्य[:] हे तरुणा[:] ! मुणिउ ज्ञात्वा । मइं मया । मां । अप्पहो आत्मनः । घाउ घातम् । करहु कुरुत । म मा ।।२६।।
गुणि( ण )हिं न संपय१३ कित्ति पर० पूर्ववत् ॥२७॥
गुणहिं न संपय० पूर्ववत् ॥२७॥ भाईरहि जिम्व भारइ मग्गेहिं त(ति )हिं वि पयट्टइ ॥२८॥
भाईरि(र)हिं(हि) भागीरथी गंगा । जिम्व यथा । भारइ भारती भरतस्य ई(इ)यम् भारती । तिहिं वि त्रिष्वेव । मग्गेहिं मार्गेषु । पयट्टइ प्रवर्तते ॥२८॥
अंगुली(लि)[उ] जज्जरिआउ नहेण पूर्ववत् ॥२९॥
अंगु० पूर्ववत् ॥२९॥ सुंदरसव्वंगाओ विलासिणिओ पेच्छंताण ॥३०॥
सुंद० । सुंदरसव्वंगाउ(ओ) सुन्दरं प्रधानं सर्वं अङ्गं यासां ताः सुन्दरसर्वागाः(ङ्गाः) । विलासिणिओ विलासिन्यः स्त्रियः । पेछं(च्छं)ताण पश्यताम् पुरुषाणाम् ॥३०॥ निअ-मुह-करि( र )हि हिं) वि मुद्धकर अन्धारइ पडिपेक्खइ । ससिमंडल चंदिमए पुण( णु) कांइ न दूरे देक्खइ ॥३१॥
निअ० । निअ-गुह-करि(र)हिं वि निजमुखकिरणैरपि । मुद्धकर मुग्धकर(?) । काचित् स्त्री । अंधारइ अन्धकारे । पडिपेख(क्ख)इ प्रतिप्रेक्षते । ससिमंडल चंदिमए पूर्णशशाङ्कमण्डलं चन्द्रिकया कान्त्याम्(न्त्या) । दूरे दूरस्थे पदार्थे । पुणु पुनः । कांइं किम् । न देक्खइ न पश्यति, अपि तु पश्यत्येव ॥३१॥ जहिं मरगयकंतिए संवलिअं ॥३३ (३२)॥
जहिं यथा । मरगयकि(क)तिए मरगतरत्नकान्त्या । संवलियं मिश्रितम्
॥३२॥
१३. संपइ - प्रा. व्या.
१४. सव्वंगाउ - प्रा.व्या., दो. वृ.
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अनुसन्धान-५३ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग-१ तुच्छमज्झहे तुच्छजंपिरहे तुच्छच्छ ] रोमावलिहे तुच्छराय तुच्छयरहासहे पियवयj( णु) अलहन्तिअहे तुच्छकाय-वम्मह-निवासहे । अन्नु जु तुच्छउं तहे धणहे तं अक्खणहं न जाइ कटरि थण(णं )तू( त )रु मुद्धडहे जे(जें) पुणु विच्चि णमाइ ॥३३॥
तुच्छ० । तुच्छमज्झहे तुच्छमध्याः । तुच्छज(ज)पिरहे तुच्छकथयित्र्याः स्वल्पभाषिण्याः । तुच्छच्छरोमावलिहे अच्छा(तुच्छ)अच्छा रोमावलिः यस्याः । तुच्छराय हे तुच्छराग ! दूतीकस्या नायि(य)कस्यामन्त्रणं, स्वल्पो रागो स्नेहो, यस्य नायि(य)कस्य स[:]-हे तुच्छराग ! तुच्छयरहासहे तुच्छतर-स्वल्पतरहास्यायाः । पियवयणु प्रियवचनम् । अलहंति[अ] ए(हि) अलभन्त्याः (अलभमानायाः) । तुच्छकाय-वम्मह-निना(वा)सहे तुच्छशरीर-मन्मथनिवासहे(सायाः) । तहे तस्याः । धणहे नायिकस्याः (नायिकायाः) । अन्नु अन्यत् । जु यत् । कटि(ट)रि आश्चर्ये उइसुतं(?) देशान्तरीयः । मुद्धडहे मुग्धायाः । थण(णं)त्त(त)रु स्तनान्तरम् अस्ति अतिपीनत्वात् अतितुच्छउं इति भावः । जें येन कारणेन । मणु मनश्चितं(त्तं) । वच्चि मार्गे अंतराले स्तनयोः । न माइ न माति ॥३२(३३)॥ फोंडेति ( फोडेंति ) जे हियडु (डउं) अप्पणु(ण)उं ताहं पराइ कवण घृण । रक्खेज्जहु लोअहो अप्पणउं ( अप्पणो) बालहे जाया विसम थण ॥३४॥
फोडें । जे यौ स्तनौ । अप्पणउं आत्मीयम् । हियडउं हृदयम् । फों(फो)डेंति स्फोटयन्ति । तायं(हं) तयोः स्तनयो[:] । पराइ परकीया । कवण किम् । घृण दया भवति । अपि तु न लोअहो भो लोकाः । अप्पणो आत्मानं । रक्खेज्जहु रक्षयतः(त) । बालहे बालायाः । विसमथण विषमस्तनौ । जाया जातौ ॥३४॥ भल्ला हुआ जु मारिआ बहिणि महारा कंतु । लज्जेज्जं नु वयंसिअहु जइ भग्गा घरु एंतु ॥३५॥
भल्ला० । बहिनि(णि) हे भगिनी(नि) । महारा अस्मदीयः । कंतु कान्तः पतिः । जु यत् । मारिआ मारिता । तद् भल्ला भव्यम् । हुआ जातं १५. घण - प्रा.व्या., दो. वृ.
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भूतम् । यदि भग्गा भग्नः सन् । घरु गृहम् । एतु आगमिष्यत् । तदा वयंसिअहु वयस्याभ्यो । लज्जेजंतु अलज्जिष्यत् ॥३५॥ वायसु उड्डावें(वं )तिअए पिउ दिट्ठउ सहसत्ति । अद्धावलया महिहिं( हि) गय अद्धा फुट्ट तडत्ति ॥३६॥
वाय० । वायसु वायसं काकम् । उड्डावंतिअए उड्डापयन्त्याः (न्त्या) । कयाचित् स्त्रिया सहसा(सत्ति) सहसैव । पिउ प्रियः पति । दिट्ठउ दृष्टः इति हेतोः । अर्द्धा अर्द्धम् । वलया वलयम् । महिहि मह्याम् पृथिव्याम् । गय गतं पतितम् । कथम् अद्धा ? फुट्ट तडि(ड)त्ति अद्धा अर्द्ध फुट्ट(ट्ट) स्फुटम् । तडि(ड)त्ति तडत् इति यथा स्यात् तथा एतावता अर्द्ध त्रुटित्वा भूमौ पतितम् ॥३६॥ कमलइ(इं) मेल्लिवि अलिउलई करिगंडाई महंति । असुलहमेच्छण जाहं भलि ते णवि दूरि(रु) गणेति ॥३७॥
कम० । अलिउलई अलिकुलानि । कम[ल]इं कमलानि । मेल्लिवि मुक्त्वा । करिगंडाइं करीणां गजानां गल्ल(ण्ड)स्थलामि(नि) । महंति काङ्क्षति । असुलहं दुर्लभवस्तुम् । मेच्छण इषितुम् । जाहं येषाम् पुरुषाणाम् । भलि कदाग्रह म(स)मस्ति । दुरु दूरम् । न गणेति न गणयन्ति ॥३७॥
अन्नु जु तुच्छउं तहे धणहे० ॥३८॥
तहे तस्या[:] । धणहे स्त्रियायाः । अन्नु अन्यत् । जु यत् । तुच्छउं तुच्छकम् ॥३८॥ भग्गउं देखि वि निअय-बलु बलुं( लु) पसरि[अ]उं परस्सु । ओ( उ)मिल्लइ ससि-रेह जिम करि करि( र )वालु पियस्सु ॥
॥३८(३९)॥ भग्ग० । पियस्सु प्रियस्य । करि करे हस्ते करवरात् । करवालु खड्गं । उमिल्लइ शोभते । श(स)सि[रेह] जिम्व शशिरेखावत् । देखिवि दृष्टा(ष्ट्वा) । निअयबलु निजकबलं निजशै(सै)न्यम् । भग्गउ भग्ग(ग्न)कम् ।
१६. मेल्लवि - प्रा.व्या., दो. वृ.
१७. देक्खिवि - प्रा.व्या., दो. वृ.
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अनुसन्धान-५३ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग-१
पुनः किं कृत्वा देखिवि दृष्टा(ष्ट्वा) । परस्सु परस्य सैन्यम् । शत्रोः बलु शै(सै)न्यम् । परसिउं (पसरिअउं) प्रसृतकं विस्तरितकम् ॥३९॥
जहा( हां) होतओ(उ) आगदो । तहा( हां) होतओ(उ) आगदो । कहा( हां) होतओ(उ) आगदो ॥३९ (४०)॥
___ जय(हां)० । जहा(हां) यस्मात् । होतउं(उ) आगदो आगतः । तहा(हां) तस्मात् । होतउं(उ) भवन् सन् आगतः । कहा(हां) कस्मात् होतउं(उ) भवन् सन् आगतः ॥४०॥
जं(ज)इ तहो तुट्टो( तुट्टउ) नेहडा मई सहुँ नथि(वि) तिलि( ल )तार । तं किहे वकहिं (वंकेहिं) लोअणेहिं जोइज्ज उं) सवि(य)वार ॥
॥४०(४१)॥ जइ० । जा(ज)इ यदि । तहो तस्य पुरुषस्य । तुट्टउ त्रुटितः । नेहडा स्नेहः । मई मया । सहु(हुं) सार्द्धं । नवि नापि । तिलतार हे तिलतार हे स्नेहक तीतिक(?) । तं तदा । किहे कस्मात् । तं [वं]कि(के)हिं लोअणेहिं वक्राभ्यां लोचनाभ्याम् । सयवार शतवारम् । जोइज्जउं विलोक्यते ॥४१॥ जइ( हिं) कपिज्जइं(इ) सरेण सरु छिज्जइ खग्गेण खग्गु । तहि (हिं) तेहइ भड-घडनिवहिं(हि) कंतु पयासइ स( म )ग्गु ॥४१(४२)॥
___जहिं० । यस्मिन् । कपिज्जइ कल्पते । सरेण बाणेन । सरं(रु) बाणं(णः) । खग्गेण खड्गेण(न) । खग्गं(ग्गु) खड्गं(खङ्गः) । छिज्जइ छिद्यते। तहिं तस्मिन् सङ्ग्रामे । तेहइ तादृशस्थाने । भड सुभटानाम् । घडनिवहि(हि) वृक्षमूलसमूहे । कंतु कान्तः । मग्गु मार्गम् । पयासइ प्रकाशयति ॥४२॥
एक्कहिं अख( क्खि )हिं सावणुं( णु) अन्नहिं भद्दवओ(उ)। माहउ महिअलि(ल)-सत्थरि गंडत्थले सरओ(उ) ॥४२(४३)॥
एक्क० । एक्कहिं एकस्मिन् । अख(क्खि)हिं लोचनेहिम्(नैः) । सावणु श्रावणमासः । अन(न्न)हिं अन्यस्मिन् लोचने । भद्दवउ भाद्रपदः । १८. सरिण - प्रा.व्या., दो.वृ. १९. खग्गिण - प्रा.व्या., दो.वृ. २०. कर्त्यते - दो.वृ.
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महियलि(अल)सत्थरि महितल श्रस्तरे । माहओ (उ) माघ (घ) वः वैशाखः । गंडत्थले गल्ल(गण्ड) स्थले । सरउ शरत्कालः ॥४३॥
अंगिहिं गिम्हु( म्ह) सुहच्छी तिलवणे (णि) मग्गसिरु । त मुद्ध मुहपंकइं (इ) आवासिउ सिसिरि (रु) ॥४३ (४४)॥
अंगि० । अंगिहिं अङ्गे शरीरे । गिह्म (म्ह) ग्रिष्म: । मु(सु) हच्छी मु(सु)खास्ये मु(सु) स्वस्थांयिनि ( ? ) । तिलवणि तिलवणे (ने) । मग्गसिरु मार्गशीर्षः। तस्याः मुद्धहे मुग्धाया[:] स्त्रियाः । मुहपंकइ मुखपङ्कजे । आवासिउ आवासितः निवासितः । सिस (सि) रु शिशि [र] कालः ॥४४॥
हियडा फुट्ट ( ट्टि) तडि (ड) त्ति करि कालखे ( क्खे) वें काई । देख(क्ख) उं हय-विहि-कहि( हं) ठवइ पइं विणु दुक्खसयाई ॥ 11 88(84)11
हिए (य) ० । हियडा हे हृदय । करि कृत्वा । तडि (ड) त्ति तडत्शब्दम् । फुट्टि स्फुटम् । कालखे (क्खे) वें कालक्षेपेन । काई किमस्ति । हयविहि हतविधिः । पद्मं त्वया । विणु विना । दुख (क्ख) सयाई दुःखशतानि । व(ठ)वइ स्थापयति इति । देखु (देखउं) पश्यामि ॥४५॥
कंतु महारु ? हलि सहिए निच्छएं रूसइ जासु ।
२२ अत्थेहिं सत्थेहिं हत्थेहिं वि ठाउवि फेडइ तासु ॥४५(४६)॥
६१
कंतु । हलि हे हलि । सहिए हे सि ( स ) खिके । निच(च्छ) ए निश्चयेन। जासु यस्य पुरुषस्य । महारु अस्मदीयः । कंतु कान्तः । रूस रूष्यति । तासु तस्य । अथे (त्थे ) हिं अर्थै[ : ] द्रव्यैः । सत्थै (त्थे ) हिं शस्त्रैः । हत्थै(त्थे) हिं हस्तैः । नाविउ ( ठाउवि ) स्थातमपि । फेडइ स्फोटयति ॥४६॥
जीवी (वि) उकासु न वल्लहउ ( उं) धणु पुणु कासु न इट्ठ३ । दोणि वि अवसर २४ - निवडिआई तिण-सम गणइ विस (सि ) ॥
॥ ४६(४७)॥
२२. अत्थिहिं सत्थिहं हत्थिहिं - प्रा. व्या., दो.वृ.
२१. महारउ
प्रा.व्या., दो.वृ. २३. इट्टु - प्रा.व्या., दो.वृ.
२४. अवसरि निवडिअइ अपभ्रंश व्या., सति- सप्तमी.
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अनुसन्धान - ५३ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग - १
क० (जीवि०) । कासु कस्यचित् पुरुषस्य । जीवि (वि) उं (उ) जीवति (जीवितम्) जीवितव्यम् । न वल्लहउं वल्लभं न भवति अपि तु भवत्येव । पुणु पु[न:] । कासु कस्य पुरुषस्य । धणु धनम् । न इट्ठ इष्टं नास्ति, अपि तु इष्टमेव । विस(सि)ट्टुजन उत्तमजनः । दोणि विद्वेऽपि(द्वे अपि) । अवसरनिवडिआई अवसरनिपतिते प्रस्तावे आगते सति । तिणसमे (म) तृणसमे । गण गणयति ॥४७॥
६२
ओ (उ) । तहे केरउ । कहे केरओ(उ) ॥४७(४८)॥
हे० । यस्याः । केरओ ( उ ) सम्बन्धी । तहे तस्याः । केरउ सम्बन्धी । कहे कस्याः । केरउ सम्बन्धी ॥४८॥
प्रगणि चिट्ठदि नाहु ध्रं ( धुं) त्रं रंणि करदि न भ्रंति । पक्खे तं बोल्लिअइ जु निव्व ॥ ४८ ( ४९ ) ॥
-
प्र (प्रं) ग० । प्रगणि प्राङ्गणे गृहाङ्गणे । ध्रं ( धुं) य: । नाहु नाथ । चिट्ठइ तिष्ठति । त्रं सः नाथ: । रणि रणे सङ्ग्रामे । करदि करोति । युद्धादि । न भं (भ्रं ) ति भ्रान्तिर्नाऽस्ति ।
तं तइं (तद्) । बोल्लिअइ कथ्यते जल्पते । जु यद् । निव्वहइ निर्वाह्यते ॥४९॥
इमु कुलु तुह तणउं ।
इमु कुलु क्खु ॥४९(५० )॥
इमु० । इमु इदम् । कुलु कुलम् । तुह तव । तणउ ( उं) सम्बन्धी । इमु इदम् । कुलु कुलम् । देक्खु पश्य ॥५०॥
एह कुमारी एहो नरु एही ( हु ) मणोरहु (ह) ठाउ २५ । एहउं वढ चिंतंताहं पच्छइ होइ विहाणु ॥५० (५१) ॥
एह० । एषा । कुमारि(री) कन्या । एहो एषः । नरु नरः पुरुषः ।
एहु एतद् । मणोरु(र)ह मनोरथानाम् । ठाउ स्थानम् । एहउ (उं) ईदृशम् । वढ
२५. ठाणु. प्रा.व्या., दो.वृ.
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डिसेम्बर २०१०
६३
मूढाणां मूर्खाणाम् । चितंताहं चिन्तयि(य)ताम् । विहाणु प्रभातम् । पच्छइ पश्चात् । होइ भविष्यति ॥५१॥
एइ ति घोडा एह थलि इत्यादि पूर्ववत् ॥५१(५२)॥ एइ ति पूर्ववत् ॥५२॥
एइ पेच्छ ॥५२(५३)॥
एइ एतान् । पेच्छ पश्य ॥५३।। जइ पुच्छह वड्डा[इं] घरां(र) तो वड्डा घर उइं (ओइ)। विहिभि(लि)अ जुणु( जण) अब्भुद्धरण कंतु कुटी(डी)रइ जोइं(इ)
॥५३(५४)॥ जदि(इ०) । जइ यदि । भो पथिकाः वडाइं वृद्धानि । घर गृहाणि । पुच्छह पृच्छथ । तो तदा । बड्डा वृद्धानि । घर गृहाणि । उइं (ओइ) अमूनि । विहलित(अ)जण विह्वलित-पीडितजनः । अब्भुद्धरण अभ्युद्धरण । कंतु कान्तः । कुटी(डी)रइ कुटीरके । जोइ पश्य ॥५४॥
आयइं हंलोअहो (लोअहो) लोअणइं जाईसर[इं] न भंति । अप्पिए दिढे मउलिअहिं पिए दिट्ठए विहसन्ति ॥५४(५५)॥
आ० । आयइं इमे । लोअहो भो लोकाः । लोअणइ लोचनै[:] । जाईसरइ(इं) या(जा)तिस्मरे स्तः । न भंति भ्रान्तिर्नाऽस्ति । अप्पिए अप्रिये अनभीष्टे । दिट्ठइ दृष्टे सति । मउली(लि)[अ]हिं म(मु)कुलीभवतः । पिए प्रिये । अभीष्ट दृष्टे सति । विहसंति विकसन्तः(त्तः) । सर्वत्र द्विवचनस्य बहुवचनम् ॥५५॥
सोसउ म सोसओ(उ)च्चिअ उयही वडवानलस्स कं तेण । जं जलइ जले जलणो आएण वि किं न पज्जत्तं ॥५५ (५६)॥
सो० । सोसओ(उ) शुष्यतु । म सोसओ(उ) मा शुष्यतु । चि(च्चि)अ एवावार्थ (एवार्थ) । उद(य)ही उदधी(धिः) समुद्रः । तेण समुद्रशोषणेन वडवानलस्य समुद्र(द्रा)ग्निः (ग्नेः) । कं किमस्ति । जं यद् यस्मात् कारणात् । जले पानीये । जलनो(णो) ज्वलनः वैश्वानरः । जलइ ज्वलति । आएण वि अनेनाऽपि वडवानलेन । किं न पज्जत्तं किं न प्राप्तम् । अपि तु सर्वमेव ॥५६॥
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अनुसन्धान-५३ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग-१ आयहो दढ(ड्व) कलेवरहो जं वाहिउ तं सारु । जो (जइ) उट्ठब्भइ तो कुहइ अह डज्झइ तो छारु ॥५६ (५७)॥
आ० । आयहो अस्य । दढ(ड्ड) दग्ध निन्द्य । कलेवरहो कलेवरस्य देहस्य । जं यत् । वाहिउ वाहितम् । तं तदेव । सारु सारम् कार्थ(य)करम् । जइ यदि । उब्भउइ (उट्ठब्भइ) आछाद्यते । मृतानन्तरम् यदि सिचयेनाऽऽछाद्यते । तो तदा । कुहइ कुहणाति (कुन्थ्नाति) । अह अथवा । ज(ड)ज्झइ दह्यते । तो तदा । काया छारु भस्मसात् भवति ॥५७।।
साहु वि लोउ तडप्फडइ वड्डत्तणहो तणेण । वडु(ड्ड)प्पणु २६परि पाव(विअ)इ हत्थेहि(त्थे) मु(मो )क्कलडेन
॥५७ (५८)॥ साहु वि सर्वोऽपि । लोउ लोकः । वड्डत्तणहो वृद्धत्वस्य । तणेण भवनार्थे । एतावता वृद्धत्वार्थे । तडप्फडइ उत्स(त्सु)कीभवति । पर(रि) परम् । वड्डप्पणुं(णु) वृद्धत्वम् । हत्थें हस्तेन । मोक्कलडेन मुत्कलेन । पाविअइ प्राप्यते ॥५८॥
सत्तु( व्वु )वि ॥५९(६०)॥ स० । सर्वोऽपि ॥६०॥ जइ न सु आवइ [ दुइ घरु काई अहो-मुह तुज्झु । वयणु जइ खण्डइ तउ सहिए सो पिउ होइ न मज्झु ॥६१॥]
ज० । जइ यदि । सु नर । न आवई(इ) नाऽऽयाति । दूइ दूरम् । घरु गृहम् । तदा कांइ (काई) कस्मात् । अहोमुहु अधोमुखम् । तुज्झु तव । सहिहे(ए) सखिके । तउ तव । जइ यदि । वयणु वचनम् । खंडइ खण्डयति अन्यथा करोति । तदा सो नरः । पिउ प्रिय । मज्झु मम । न होइ न भवति ॥६०॥
२६. परपाविअइ - दो.वृ. २७. जु. - प्रा.व्या., दो.वृ.
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[काई न दूरे देकखइ ॥६१॥]
का० । काइं किम् । दूरे पदार्थे । न देखइं (देक्खइ) न पश्यति ॥६ ॥
[फोडिन्ति जे हियडर्ड अप्पणउं ताहं पराई कवण घण । रक्खेज्जहु तरुणहो अप्पणा बालहे जाया विसम थण ॥६२॥]
रक्खे० । तरुणहो तरुणा[:] । अप्पणा आत्मानम् । रक्खेज्जहु रक्षयन्तु । बालहे बालायाः । विष(स)मथण विषमस्तनौ । जाया यातौ उत्पन्नौ । जे यौ स्तनौ । अप्पणु आत्मसम्बन्धि हियडुं ॥६२।।
[सुपुरिस कंगुहे अणुहरहिं भण कज्जे कवणेण । जिम्व जिम्व वड्डत्तणु लहहिं तिम्व तिम्व नवहिं सिरेण ॥६३॥]
सु० । हे सखि तं भणइ (भण) कथय । कवणेन(ण) केन । कज्जं(ज्जें) कार्यम् न (कार्येण) । [सुपुरिस] स(सु)पुरूसा(षाः) सत्पुरुषा[:] । कंगुहे कडधान्यस्य । अणुहरहिं अनुहरन्ते शा(सा)दृश्यं भजन्ते । तदा त्वं शृणु । जिम्व जिम्व यथा यथा । वड्डत्तणुं(णु) वृद्धत्वम् । लहहिं लभन्ते । तिम्व तिम्व तथा तथा । शिरेण शीर्षेण । नवहिं नमन्ति ॥६३।।
[जइ ससणेही तो मुइअ अह जीवइ निन्नेह । बेहि वि पयारेहि गइअ धण किं गज्जहि खल मेह ॥६४॥]
जइ० । जइ यदि । ससिनेही (ससणेही) सस्नेही । [तो] तदा । मुइआ(अ) मृत । अह अथवा । निन्नेहा(ह) निस्नेहा । जीवइ जीवति इति । बेहिं द्वाभ्याम् । पयारेहिं प्रकाराभ्याम् । धण प्रिया । गइअ गतिका गतिः (गता) । अतः किं खलः(ल) हे दुर्जन ! । मेह हे मेघ ! त्वं । गज्जहिं गजति ॥६३(६४)।
[भमरु म रुणझुणि रण्णडइ सा दिसि जोइ म रोइ । सा मालइ देसन्तरिअ जसु तुहुँ मरहि विओइ ॥६५॥]
भमर(रु)० । भमर(रु) हे भ्रमर । रण्णडइ अरण्ये वने । म रुणिझुणी २८. लोअहो - प्रा.व्या., दो.वृ. २९. बिहिं - प्रा.व्या., दो.वृ.
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अनुसन्धान-५३ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग-१
(रुणझुणि) मा रुणो धूनि (ध्वनि) स्व(?) पुनः सा दिसि सा दिक् । म जोइ मा विलोकय त्वम् । पुनः म रोयइं (रोइ) रुदनं मा कुरु । यतः सा मालई(इ) सा मालती । दें(दे)संतरिअ देशान्तरिताऽस्ति । जसु यस्याः । विउ(ओ)इ वियोगे । तुहं(हुं) त्वम् । मरइ मरति ॥६५॥
[तुम्हे तुम्हइं जाणह ।
तुम्हे तुम्हइं पेच्छइ ॥६६॥] तु० । तुझे (तुम्हे) यूयं जानीतः(त) ।
तुह्मइ (तुम्हइं) युष्मान् पश्यतु ॥ [पई मुक्काहं ३°विवरतरु फिट्टइ पत्तत्तणं न पत्ताणं ।
तुह पुणु छाया जइ होज्ज कहवि ता तेहिं पत्तेहिं ॥६७॥]
[प]इ (इं)० । पयं (पइं) त्वया । मुक्काहं मुक्तानाम् । विवरतरु वि विहंगाः तैर्वर विवर एवंविधो वृक्षः तस्य संबोधनम् हे३१ विवरतरोः(रो)। पत्ताण(णं) पत्राणाम् । पत्तत्तण(णं) पत्रत्वम् । न फिट्टइ न याति । पुणु पुनः । जइ यदि । कहवि कथमपि । तुह तव । च्छाया (छाया) शोभा । होज्ज अभविष्यत् । ता तावत् । तेहिं पत्तेहि(हिं) तैः पत्रैः ॥६७॥
३२महु० । महु०
C/o. देवीकमल जैन स्वाध्याय मन्दिर
ओपेरा, विकासगृह रोड,
अमदावाद-७
३०. वि वरतरु-प्रा. व्या. ३१. हे विवरतरो अथवा हे वरतरो-दो. वृ.
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लावण्यसमयकृत
नेमिरङ्गरत्नाकर छन्द : आस्वाद अने पाठ / अर्थशुद्धि
डॉ. कान्तिभाई बी. शाह
लावण्यसमय विक्रमना सोळमा शतकमां थई गयेला एक गणनापात्र जैन साधुकवि छे. एमणे ज रचेली महत्त्वनी कृति 'विमलप्रबन्ध'नी प्रशस्तिमां कविओ पोताना वंशादिनो परिचय आप्यो छे. ते अनुसार एमनो जन्म सं. १५२१ (ई. १४६५)मां अमदावादमां थयो हतो. पिता श्रीधर अने माता झमकलदेवीना चार पुत्रो पैकीना ए सौथी नाना पुत्र. संसारी नाम लघुराज.
आ लघुराजे सं. १५२९ (ई. १४७३) मां नव वर्षनी बाळवये पाटण मुकामे तपगच्छना सोमसुन्दरसूरिनी परम्परामां लक्ष्मीसागरसूरि पासे दीक्षा लीधी अने साधु लावण्यसमय बन्या. समयरत्न एमना विद्यागुरु हता.
सोळमे वर्षे सरस्वतीदेवीनी कृपाथी एमनामां कवित्वशक्तिनी स्फुरणा थई, जेना परिणामरूपे एमणे रास, चोपाई, छन्द, संवाद, एकवीसो, हमचडी, स्तवन,सज्झाय, विवाहलो जेवी विविध स्वरूपोवाळी दीर्घ- लघु रचनाओ क छे. 'खिमऋषि, बलिभद्र, यशोभद्रसूरिरास' ए एमनी सं. १५८९ मां रचायेली छेल्लुं रच्यावर्ष धरावती कृति छे. आ रीते कवि लावण्यसमयनो जीवनकाळ सं. १५२१ थी १५८९ (ई. १४६५ थी १५३३) सुधीनो निश्चित थई शक्यो छे.
'विमलप्रबन्ध' ए जेम ऐतिहासिक व्यक्तिविशेषनी जीवनघटनाओने निरूपती एमनी महत्त्वनी प्रबन्धरचना छे, ए रीते 'नेमिरङ्गरत्नाकर छन्द' ए एमनी सौथी महत्त्वनी सं. १५४६ (ई. १४९०) मां रचायेली छन्दस्वरूपी रचना छे. जैनेतर कवि श्रीधर व्यासे सं. १४५४ (ई. १३९८) मां नोंधपात्र 'रणमल्लछन्द' जेवी कृति आप्या पछीनी लगभग एक शतकना गाळे मळती आ छन्द-रचना काव्यतत्त्वनी दृष्टिए नोंधपात्र होईने मध्यकालीन गुजराती साहित्यमां अनुं ऐतिहासिक महत्त्व पण छे.
आ कृतिमां कविए जैनोना २२मा तीर्थंकर नेमिनाथना जन्मथी मांडीने केवळपदप्राप्ति सुधीना जीवनप्रसंगोने निरूप्या छे. नेमिनाथना लग्नप्रसंगने
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अनुसन्धान-५३ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग-१
केन्द्रमा राखीने पूर्वापर घटनाओ, एमां निरूपण थयुं छे. कृष्णना अन्तःपुरनी राणीओनुं नेमि साथेनुं वसन्तखेलन, एमनी हसीमजाक, लग्न माटेनी एमनी विनवणी, नेमिए दर्शावेली दाम्पत्यजीवननी मुसीबतो, छेवटे लग्न माटेनी मूक संमति, नेमिनुं जानप्रस्थान, मांडवे पशुपंखीनो भोजनार्थे थतो वध, पशुचित्कार सांभळी नेमिनो निर्वेद, लीला तोरणेथी एमर्नु पाछा फरी जवू, राजुलनी विरहव्यथा, गिरनार पर नेमिनी दीक्षा अने केवलपदप्राप्ति, एमनी उपदेशवाणी, अन्ते प्रतिबोधित राजुलनो संयमस्वीकार - आ बधा प्रसंगोने कविए कलात्मक रीते आलेख्या छे.
__ अन्त्यानुप्रास, चरणान्तप्रास, आन्तरप्रास, शब्दानुप्रास, वर्णसगाई, झडझमक, यमकप्रयोग, रवानुकारी शब्दावलि - आ बधाथी ऊभुं थतुं नादसंगीत अने रमणीय लयछटा कृतिना बहिरङ्गने सौन्दर्यमण्डित करे छे तेमज कृतिना छन्दोगानने सहायक बने छे. दुहा, रोळा, हरिगीत, आर्या, चरणाकुल, पद्मावती, पद्धडी जेवा मुख्यत्वे मात्रामेळ छन्दोमां आ कृति रचाई छे. छन्दोगान ए आ कृतिनुं माणवा जेवू तत्त्व छे, जे कृतिने अपायेली 'छन्द' संज्ञाने सार्थक करे छे. ज्यां छन्द के वर्णन, एकम बदलाय छे त्यां अन्तिम चरणना शब्दोने पछीनी पंक्तिना आरम्भे पुनरावर्तित करीने लगभग ३० थी वधु स्थानोमां कविए करेला ऊथलाना प्रयोगो ए आ कृतिनी विशेषता छे. जेमके कडीना अन्तिम शब्दो 'जीता वयणे चंद' ए पछीनी कडीना आरम्भमां 'जीता जीता वयणि चंदला' एम ऊथला रूपे आवे छे.
समग्र काव्य बे अधिकारमा विभक्त छे. प्रथम अधिकारमा १० अने बीजामां १६२ एम कुल २५२ कडीनुं आ काव्य छे.
- कृतिनो आरम्भ कवि सरस्वतीवन्दनाथी अने काव्यप्रबन्ध अर्थे सुमतिनी कृपायाचनाथी करे छे.
'सारद सार दया कर देवी, तुझ पयकमल विमल वंदेवी,
मागू सुमति, सदा तइं देवी, दुरमति दूर थिकी नंदेवी. (१/१) कृतिना बहिरङ्गने कवि केवू शणगारे छे एनो अणसार आपणने पहेला अधिकारनी पहेली कडीथी ज मळी रहे छे. अहीं अन्त्यानुप्रास-चरणान्तप्रास छे. देवी, वंदेवी, देवी, नंदेवी - ए प्रत्येक शब्दमां 'देवी' उच्चारणनो
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एकसरखो वर्णक्रम जोवा मळे छे. वळी, प्रथम अने त्रीजा चरणना भिन्न भिन्न अर्थमां प्रयुक्त 'देवी' शब्दमां यमक प्रयोग छे. उपरांत 'स'कार अने 'द'कारनां. उच्चारणो द्वारा वर्णसगाई, तेमज ‘पयकमल' – “विमल' जेवा शब्दानुप्रास एक विशिष्ट लयसंगीत सर्जी रहे छे.
'हिवइ हउं बोलउं मेल्ही माया,तूं कवियणजण केरी माया, बहु गुणमणि तुझ अंगि समाया, अवगुण अवर अनंत गमाया.
(१/२) आ बीजा कडीमां पण उपर निर्देशेलु काव्यसौन्दर्य माणी शकाशे. लगभग आखी कृतिने कविए आम प्रासानुप्रासथी सजावी छे.
पांचमी कडीमां कवि 'नव नव छंदिइं कवित कहउं' एम कहीने कृतिमां छन्दवैविध्य माटेनी पोतानी संकल्पबद्धता व्यक्त करे छे.
प्रसन्न थयेली सरस्वती पासेथी अविरल वाणीनी भेट स्वीकारीने कवि नेमिचरित्रनो आरम्भ करे छे.
२१ थी २५ कडीमां नेमिना जन्मोत्सवने कविए वर्णव्यो छे. देवो अने मानववृन्दो उत्सव मांडे छे, स्त्रीओ धवल-मङ्गल गीतो गाय छे, शेरीए शेरीए वाजिंत्रनाद थाय छे, तेमज बन्दीजनो, भाट-चारणो नेमिजन्मने वधाववा नगरने मार्गे प्रयाण करे छे.
२६ थी ४० कडीमां प्रथम बाळनेमिनां वस्त्रालङ्कारोने वर्णवी कवि नेमिना अङ्गबळनुं विस्तारथी वर्णन करे छे. कृष्णनी आयुधशाळामां पहोंचीने नेमि मोटी शिला उपाडे छे, गदाने फंगोळे छे, शङ्ख फूंके छे, धनुष्यने उपाडी स्थानचलित करे छे. नेमिना बळप्रयोगना पडेला प्रत्याघातोना वर्णनमां कविए रवानुकारी क्रियापदोवाळां चित्रो सा छे अने हास्यनी छांट उमेरी छे.
'तिणि अवसरि धरणी धडहडई, दह दिसि गयणंगण गडगडए, गज अध-गज जातां आथडइए, गिरिसिरि सिखर खडहडए.
(१/३३) रोसि भरी नारी तडफडए, विण त्रेवडि ऊत्रेवडि पडए, महीयलि नाद सुणी एवडए, चंद-सूर बेहु लडथडए.' (१/३४)
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कविए अहीं हाथीओने एकबीजानी अरधा गज जेटला नजीक पहोंची आथडी पडता, गिरिशिखरोने खडी पडता, स्त्रीओनां मस्तक परनी ऊतरडोने वण-त्रेवडे पडी जती अने चन्द्र-सूरजने लडथडी जता आलेख्यां छे. नेमिना बळप्रयोगने हास्यथी रसित करीने कविए केवो चित्रित कर्यो छे ! अमांये वळी, 'गज अध-गज' के 'विण त्रेवडि ऊत्रेवडि पडए' जेवा पंक्तिखण्डोमां यमकप्रयोग तो खरो ज.
कृष्ण ज्यारे नेमिना हाथने वाळवा गया त्यारे नेमिए हाथ उपर कृष्णने बेसाडीने झुलावी दीधा. कृष्णने थयुं के आवा बळया नेमि स्त्रीविहोणा शा माटे ? नेमिने परणावीने एमनां मातापिताने प्रसन्न करवाना विचारथी कृष्णे अन्तःपुरनी राणीओने नेमिने पटाववा मोकली. विविध दृष्टान्तो द्वारा, नर्ममर्मयुक्त वाणी उच्चारीने, हसीमजाक करीने राणीओ नेमिने लग्न माटे पटावे छे. जुओ
'तुझि जाणउ झाझी जेठाणी, अम्ह घरि नारि हुसिइ देराणी, पाय पडतां अति दुःख आवइ, किसिउं तेणि परिणतुं न भावइ ?'
(१/५१) [= परणीने आवनारी नारीए देराणी बनीने घणी जेठाणीओने चरणे नमवानुं श्रमकारक थशे माटे तमने शुं परणवू नथी गमतुं ?]
प्रत्युत्तरमां नेमि दाम्पत्यजीवननी मुसीबतो अने पत्नी द्वारा पतिने थती परेशानी, विस्तारथी वर्णन करे छे, एमां घरसंसारनी कटु वास्तविकतानुं चित्र प्रतिबिम्बित थयुं छे. पत्नीनी रोजिंदी मागणीओ अने असन्तोषने कवि आ रीते व्यक्त करे छे -
'किम खासिउ लूखउं, सहू को भूखिउं, नहीं सालणउं सराख, धरि तेल ते नीठउं, मिरी न मीठउं, वानां जोईइ लाख.' (१/६४) 'हुं सदा अणूरी, एक न पूरी तइं पुहचाडी आस, इम ऊठइ हूंकी रे रे सुखी, तुझ-सिउं सिउ घरवास ?' (१/६८)
कृष्णनी राणीओनो वळतो उत्तर ए छे के जेम अकुलीन स्त्रीओ होय छे तेम सीता सरखी कुलीन स्त्रीओ पण होय छे, जे पतिसुखे सुखी ने
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पतिदुःखे दुःखी थनारी, दानी, शीलवती अने इकोतेर पेढी तारनारी होय छे. नेमिनाथे हा के ना कहेवाने बदले मौन रहेतां भाभीओए नेमिनी लग्न माटेनी मूक संमति मानी लीधी.
बीजा अधिकारनो आरम्भ पण कवि सरस्वतीदेवीनी कृपायाचनाथी करे छे अने देवीओ अगाउ आपेला वाणीना वरदाननुं पालन करवा वीनवे छे. ११ थी २३ कडी उग्रसेन राजानी पुत्री राजुल - राजिमतीना सौन्दर्यवर्णनने आवरे छे. आ वर्णनने कविए उपमा, रूपक तेमज विशेषतः व्यतिरेकोथी अलङ्कृत कर्तुं छे.
'जीता जीता वयणि चंदला, त्राठा गया गयणि नाठा, दिवस ऊगता माठा लाजिं मरई' (२/१६)
'वेणई वासग जित्त जव, जइ पइअलि पइठा,
जीतां रातां कमल करि, जइ जल मांहि नाठा.' (२/२०)
७१
नेमिनाथनुं राजुल साथे सगपण कराय छे. लग्ननी पूर्व तैयारीओना वर्णनमां ते समयना लग्नोत्सवो केवी रीते ऊजवाता एनुं प्रतिबिम्ब जोवा मळे छे. मण्डपनी रचना, भोजननी विविध वानगीओ, जमण अने पीरसण व नां वीगतभर्यां चित्रणो अहीं अपायां छे
'मोटा मोदक मूंकीइ मधुरा अमृत समान,
खरहर खाजां चूरीयइ बहुत परि पकवान ' (२/४० )
ए ज रीते नेमिनाथना वरघोडाना वर्णनमां वरराजानो शृङ्गार, जानैयाओनो उत्साह, गान-वादन-नर्तन - खेलननो आनन्दकिल्लोल व नां चित्रणो रसपूर्ण रीते थयां छे :
'खेलंति खेला खंति, ते ताल नवि चूकंति,
वाजित्र वर वाजंति, घण ढोल ढमढमकंति. ' (२/६४)
६८-६९मी कडीमां राजुलना नववधूना शणगारनुं वर्णन छे. 'पहिरइ सिरि सिणगार सार, आरोपिउ रिदय उदार हार, झबक झाझी झालि गालि, मयमत्ता मयगल जित्त चालि. '
(२/६८)
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अनुसन्धान-५३ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग-१
'खिणि फरकिउं दक्षिण अंग ताम' - जमणुं अङ्ग फरकवाना उल्लेख द्वारा कविए कशाक विपरीतनी आगाही आपी छे. एमां पण तत्कालीन मान्यताओनुं प्रतिबिम्ब जोई शकाशे.
लग्नोत्सुक नेमिना जीवनमां महत्त्वना वळांकबिन्दु समी घटना बनी छे भोजन माटे थता पशुपंखीवधनी. वध समयनी पशुपंखीनी मरणचीसो नेमिना हृदयने पीगळावी नाखे छे. पशुपंखीओना तरफडाट चित्र हृदयद्रावक बन्यु
'न-न चालइ चाला, पडिआ गाला, ससा सुंहाला धूजि मरइ'
(२/७३) 'न-न फावइ फाला, हरिणा काला, नयणि घणाला नीर झरइ'
(२/७४) नेमिनाथ लीला तोरणेथी पाछा फरी गया. संयम लइ गिरनार गया.
८१ थी ११० कडीओमां राजुलनी विरहव्यथा, सखीओ साथेनो संवाद, नेमिने उपालम्भ व.नुं कलात्मक आलेखन थयुं छे. विरहव्यथाना वर्णनमां कविए करेला यमकप्रयोगो नोंधपात्र छ : 'खिणि भीतरि खिणि वली आंगणइए, प्रिय विण सूनी
__वलीआं गणइए.' (२/८५) 'करुण सरई थानकि कोरडए, जण जाणए नारद को रडइए.'
(२/८६) 'क्षणि ऊठी जाइ ऊतारइं, हार-दोर-कंकण ऊतारइ' (२/८७)
साथे आ उपमाचित्र पण केवं नोखं ज ऊपसी आव्युं छे : 'अलगी नांखइ सोवनत्रोटी, जिम जवरोटी कागइ बोटी.'
(२/९४) (-जेम कागडाए बोटेली जवनी रोटली फेंकी देवामां आवे तेम राजुल सुवर्ण-आभूषण अळगुं नाखी दे छे.)
विरहव्यथित राजुल आम बधो शणघार उतारी नाखे छे, आभूषणो
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तोडीफोडी नाखे छे, केशगुम्फन छोडी नाखे छे, भोजन अने कुसुमशय्या त्यजे छे. सखीओ आ बधुं पुनः धारण करवा, स्वीकारवा वीनवे छे ने सामे राजुल 'अंह अंह' नो नकार- प्रत्युत्तर वाळे छे.
७३
'नवउ ति नवसर हार, सा गलि धरूं कि ?' 'अंह अंह' 'कुसुमसेज सुकुमाल सोइ पत्थरुं कि ?' 'अंह अंह' (२/९८ ) सखीनी वात नकारवानो राजुलनो लहेको - लढण अहीं केवुं लयात्मक रूप पामे छे !
राजुल प्रियतम नेमिने उपालम्भ आपतां कहे छे
'रिधिरमणि - सुख मेल्ही देव ! डूंगरि सिउं दीठउं ?' (२/१०६) 'अट्ठ भवंतरि नेहलु नेमि ! न छेहु दाखियउ,
भव नवमइ त नाहला ! ए ऊपजतु कां राखिउ ? ' (२ / १०८ ) छेवटे परिवर्तन पछीनो राजुलनो उद्गार
' हत्थिई हत्थ न मेलिङ, प्रिय ! सोइ हत्थ मत्थइ करु.' (२ / १११ ) राजुल सपरिवार गिरनार गई अने समवसरणमां देशना आपता नेमिने जोई आनन्दविभोर बनी, प्रणाम करी नेमिनाथनी उपदेशवाणी सांभळवा लागी. आ उपदेशवचनोमां जीवहिंसा करनार जीवो पापकर्मों द्वारा केवी घोर नरकयातना अने परमाधामीओनी भयङ्कर शिक्षा पामे छे एनुं तेमज जिनाज्ञापालन करनार एनां केवां सुफळ प्राप्त करे छे एनुं वर्णन थयुं छे.
राजुले प्रतिबोधित थई संयम स्वीकार्यो. नेमिनाथ साधु-साध्वी श्रावकादिना मोटा समुदायने प्रतिबोध पमाडी परमपदने पाम्या.
काव्यान्ते कवि गुरुपरम्परा, कृतिरचनासमय अने स्वकर्तानाम दर्शावी काव्यनी समाप्ति करे छे.
संपादन : केटलीक पाठ / अर्थशुद्धि * :
काव्यसौन्दर्य ओपती आ कृतिनुं सम्पादन संशोधन-सम्पादनक्षेत्रे लब्धप्रतिष्ठ विद्वान डॉ. शिवलाल जेसलपुराए ई. १९६५मां कर्तुं हतुं. ला.द.भा.सं. विद्यामन्दिर द्वारा ए प्रकाशित थयुं छे. सम्पादके आ सम्पादन माटे श्रीहेमचन्द्राचार्य
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अनुसन्धान-५३ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग-१ जैन ज्ञानमन्दिर - पाटणमांथी प्राप्त थयेली त्रण हस्तप्रतोने उपयोगमां लीधी छे. आ त्रणेय प्रतो पुष्पिका अने लेखनसंवत विनानी छे. जोके सम्पादक भाषास्वरूपने आधारे A अने C प्रत सं. १६०० पहेलां अने B प्रत ए पछी लखायेली होवानुं अनुमाने छे. सं. १६००ना लेखनवर्ष अने पुष्पिकावाळी एक वधु प्रत सम्पादकने ला.द.भा.सं.विद्यामन्दिरमांथी ज उपलब्ध थई हती, परन्तु ओना अक्षरो अवाच्य अने पाठो भ्रष्ट होईने उपयोगमा लेवाई नहोती.
सम्पादके 'उपोद्घात'मां कवि लावण्यसमयना जीवन-कवननो परिचय आप्यो छे, जेमां कर्ताए रचेली नानीमोटी सर्व कृतिओनी संक्षिप्त नोंधो समाविष्ट छे. 'नेमिरङ्गरत्नाकर छन्द'नी विस्तृत समालोचना करतो अभ्यासलेख रजू करायो छे. उपरान्त आ कृतिनी जूनी गुजराती भाषाना स्वरूप अने व्याकरणनी पण आवश्यक नोंध सम्पादके लीधी छे.कडीवार पाठान्तरो अने कृतिने छेडे सार्थ शब्दकोश आपवामां आव्यां छे. आम अत्यन्त श्रमपूर्वक तैयार थयेखें आ सम्पादन छे.
हस्तप्रत उपरथी कृतिनी तैयार थयेली वाचनामां क्यांक पाठनिर्धारणनी तेमज केटलाक शब्दोना अर्थनिर्णयनी अशुद्धि जोवा मळी छे तेनी अहीं नोंध लई यथाशक्य पाठ/अर्थशुद्धि करवानो प्रयास कर्यो छे, जे पाछळनुं प्रयोजन केवळ कृतिनी वधु नजीक रही शकवानुं छे.
कृष्णनी राणीओ कृष्णना पितराई भाई नेमिकुमारने लग्न करवा फोसलावे-पटावे छे एनुं वर्णन करती पंक्ति आ प्रमाणे छे'गुल गलीउ नइ साकर भेली, इणि परि अतिघण उठां मेली'
(१/५१) [= गोळ गळ्यो ने एमां वळी साकर भेळवी होय, ए प्रकारे घणां दृष्टान्तो/कहेवतो मेळवीने....]
__ हस्तप्रतमांथी आ पंक्तिमांनो 'उठां' (दृष्टान्तो) शब्द सम्पादक पकडी शक्या नथी. एटले 'उठां' शब्दमांनो 'उ' वर्ण डाबी बाजुनी शब्द साथे, अने 'ठां' अक्षर जमणी बाजुना शब्द साथे जोडीने पाठ आ प्रमाणे को छे : '.... इणि परि अतिघणउ ठांमेली.' खोटा पाठनिर्धारणने लईने 'ठांमेली' जेवो
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भळतो ज शब्द अही सम्पादके ऊभो को छे अने शब्दकोशमां अर्थ आप्यो छे ठांमेली = ठरेली, घडायेली, पाकी. आम पाठनिर्णयनी अशुद्धिमां मूळ कृतिमांनो कर्ताने अभिप्रेत पाठ 'उठां' रगदोळाई गयो छे.
'चडचड चारउली चतुरा प्रीसइ' (२/३८) ए पंक्तिखण्डनी आगळपाछळनी पंक्तिओमां खारेक, खुरमां, खडी साकर, वरसोलां, फळमेवा, गोळपापडी व. खाद्य वानगीओ पीरसाती होवानी वात छे. एटले 'चारउली' [ =चारोळी ] पाठ संगत गणाय. वळी B अने C प्रत 'चारुली' पाठ आपे ज छे (सम्पादके नोंधेलुं पाठान्तर). परन्तु सम्पादके अहीं शब्दभङ्ग करीने 'चार उली' पाठ आप्यो छे अने 'चार ओळ (आवलि )मां - पंगतमां चतुरा पीरसे छे' अवो अर्थ एमणे को छे. मारी दृष्टिए आ 'चार उली' पाठ/अर्थनिर्णय ताणी-खेंचीने करायो होय ऐवी छाप ऊभी थाय छे.
कृष्णनी राणीओ नेमिने लग्न माटे आग्रह करे छे ते सन्दर्भे A अने B प्रतनी एक पंक्ति आम हती'ठाकुर ! बोल कहु ठरवानु, नेमि ! न कीजई नीठर वानु.'
(१/६८) आमांथी 'ठाकुर ! बोल कहु ठरवानु' एटलो AB प्रतनो पाठ छोडीने सम्पादके C प्रतनो 'ठाकुर ! बोल कहइ वरवानु' पाठ वाचनामां स्वीकार्यो छे. पण मारी दृष्टिए A प्रतनो पाठ छोडवा- कोई कारण नहोतुं. ऊलटा, A प्रतना पाठथी तो आ पंक्तिमां ठरवानुं / नीठरवानुं ओम एकसरखो वर्णानुक्रम भिन्न अर्थसन्दर्भे बेवडातां यमक प्रयोगनी चमत्कृति सधाई होत, ते पाठ छोडवाने कारणे चाली गई छे. वळी A प्रतनो पाठ सन्दर्भमां पण बराबर बेसे ज छे. (= हे ठाकुर ! ठरवानी - स्थिर थवानी वात कहो. हे नेमि ! निष्ठुर वानां न करो.)
नेमिनाथ मांडवेथी पाछा वळी जतां राजुल पोतानी विरहदशा व्यक्त करतां कहे छे - 'की गाइ वली संभारइ मेहनइ मोरा, प्रिय विण प्राण हरइ गाढेरा.'
(२/९४)
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अहीं सम्पादके करेलुं ‘की गाइ' पदविभाजन जरूरी नहोतुं. 'कीगाई' (= केकारव करीने) शब्द पाठ अने अर्थ दृष्टिए वधु उचित जणाय छे. शब्दकोशमां सम्पादके आपेला केटलाक शब्दार्थो जे - ते स्थानसन्दर्भे अशुद्ध जणाय छे. जेमके कर्ताए 'शांणा आगलि सुंडल मांडइ' (१/७६) एवी एक कहेवतने उपयोगमां लीधी छे. त्यां सम्पादके 'शांणा' नो अर्थ 'छाणां' कर्यो छे. नजीकना उच्चारसाम्यने लईने केवळ अनुमानथी आ अर्थ अपायो लागे छे. हकीकते, 'शांणा' एटले कोठीमांथी अनाज काढवानुं छिद्र. त्यां सुंडलो धरी राखतां छिद्रमांथी अनाज ठलवातुं जाय.
७६
'दीख्या' (२ / ११२) नो अर्थ 'देखाया' अपायो छे. साचो अर्थ छे 'दीक्षित थया'. गिरनार उपर गयेला नेमिनाथना सन्दर्भे आ क्रियारूप आवे छे. 'नरवरविंदा' (१/२२) नो अर्थ ' श्रेष्ठ राजाओ' अपायो छे. आ अर्थ माटे सम्पादके वर+नरइन्द्र नरइंदो > नरविंदो एवी व्युत्पत्तिनो आश्रय लीधो छे. पण ‘नरवरविंदा' एटले 'राजाओनुं वृंद' ए अर्थ होवानी शक्यता विशेष जणाय छे. आ उपरान्त केटलाक शब्दोनी अर्थशुद्धि नीचे प्रमाणे छे :
अणूरी (१/६८) = दासी, पत्नी अशुद्ध; अधूरी, असन्तुष्ट शुद्ध. ऊजाणी (१/७२) = कूदीकूदीने अशुद्ध; धसमसीने, दोडीने शुद्ध. घाठी (१/७२) = नुकसान पामी अशुद्ध; छेतराई शुद्ध. वेडि (२/१७) = तकरारमां अशुद्ध; वनमां, रानमां शुद्ध. तोडीइ (२/३३) चमके अशुद्ध; नाखवामां आवे शुद्ध. खुरमां (२/३७) रोटला अशुद्ध; एक फळमेवो, खजूर शुद्ध. द्रूय (२/१५९) = वृक्ष अशुद्ध; ध्रुवनो तारो शुद्ध.
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आ लेखमां सम्पादननी केटलीक पाठ / अर्थशुद्धि माटे 'मध्यकालीन गुजराती शब्दकोश' (सं. जयंत कोठारी) नी तेमज प्रस्तुत सम्पादनग्रन्थनी, डॉ. हरिवल्लभ भायाणीनी अंग नकल (जे हवे श्री नेमिनन्दन शताब्दी ट्रस्टना ग्रन्थालयमां भेट अपायेल छे) मां करायेली निशानीओनी सहाय मळी छे तेनी साभार नोंध लडं छं.
C/o. ७, कृष्णा पार्क, खानपुर, अमदावाद - १
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श्रीहेमचन्दाचार्य-विरचित नमस्कारनी श्रीकनककुशलकृत वृत्ति विशे केटलीक नोंध
___ मुनि त्रैलोक्यमण्डन विजय कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य भगवन्ते त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्रना प्रारम्भे मङ्गल तरीके आर्हन्त्य, सर्व अरिहन्त, अने भरतक्षेत्रनी वर्तमान चोवीसीना तीर्थंकरोनी स्तुतिरूप २६ श्लोको रच्या छे. आ श्लोको पोतानी रम्यता अने भाववाहिताने लीधे सुप्रसिद्ध छे अने तपागच्छीय सामाचारी प्रमाणे पाक्षिक प्रतिक्रमणमां तो तेनो फरजियात पाठ करवामां आवे छे. आ श्लोको पर श्रीविजयसेनसूरिना शिष्य श्रीकनककुशल गणि) वि.सं. १६५४मां वृत्ति रची छे, जे सरळ भाषामां अन्वय, समासविग्रह व. दर्शावती होवाथी संस्कृतना प्रारम्भिक अभ्यासमां व्यापकपणे उपयोगमा लेवाय छे.
हमणां पूज्यपाद गुरुभगवन्त आ. श्रीविजयशीलचन्द्रसूरिजी म. पासेथी प्रसादीरूपे आ वृत्तिनी हस्तलिखित प्रत प्राप्त थई. प्रत वृत्तिकारना स्वहस्ते लखायेल प्रथमादर्श होवाथी स्वाभाविक रीते मुद्रित वाचना साथे मेळवी जोवानुं मन थयु. मुद्रित वाचना माटे तपास करतां जिनशासन आराधना ट्रस्टे छापेखें पुस्तक मळ्यु. जेमां शीलदूतम् अने गुर्वावलीनी साथे प्रस्तुत टीकानी आगमप्रभाकर श्रीपुण्यविजयजी म. द्वारा सम्पादित अने जैन आत्मानन्द सभाभावनगरथी वि.सं. १९९८ मां प्रकाशित वाचनानुं पुनर्मुद्रण करवामां आव्युं हतुं. आ वाचना साथे हस्तलिखित प्रतने मेळवी जोतां जे ध्यानार्ह वातो जणाई ते नीचे नोंg छु : + पाक्षिक प्रतिक्रमणमा जे ३३ श्लोकोनो पाठ करवामां आवे छे, ते पहेला
श्लोक- पहेलुं पद 'सकलार्हत्' होवाथी सकलार्हत्स्तोत्र तरीके ओळखाय छे. आ स्तोत्रमा उपर जणावेला २६ श्लोकमांथी पहेला २५ श्लोको १ थी २५ क्रमांके अने २६मो श्लोक २७मा क्रमांके बोलाय छे. कनककुशल गणिनी टीका फक्त आ २६ श्लोक पर ज छे, ३३ श्लोक पर नहीं. माटे अत्यारे प्रचलित सकलार्हत्स्तोत्रनी टीका तरीके अने न गणी शकाय.
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मुद्रित प्रतमां जोके ओने सकलार्हत्स्तोत्रवृत्ति तरीके ओळखवामां आवी छे, पण स्वयं टीकाकार अने 'नमस्कार' नी वृत्ति तरीके ओळखावे छे. प्रथमादर्शनी पुष्पिका - " इति कलिकालसर्वज्ञबिरुदधारक श्रीहेमचन्द्रसूरि-विरचित नमस्कारवृत्तिर्विरचिता । प्रथमपाठिसंस्मरणायेति मङ्गलम् ॥ छापेली वाचनानी पुष्पिकामां पण “चतुर्विंशतिजिननमस्काराणां वृत्ति' ओवो उल्लेख छे. हजी थोडा समय पहेलां सुधी उपरोक्त २६ श्लोको ज सकलार्हत्स्तोत्र तरीके गणाता हता, अने पाक्षिक प्रतिक्रमणमां अटला श्लोकोनो ज पाठ थतो हतो अवुं मने गुरुभगवन्त पासेथी जाणवा पण मळ्युं छे.
+ अत्यारे बोलाता सकलार्हत्स्तोत्रमां अने टीकाकारे लीधेला पाठमा केटलीक जग्याओ तफावत छे :
श्लोक
बोलतो पाठ
७८
३
५
७
-
ऋषभस्वामिनम्
श्री सम्भव०
०त्तेजिताङ्घ्रि
वः श्रियम्
०महिताङ्घ्रये
० स्पर्द्धिकरुणा०
टीका-पाठ
वृषभस्वामिनम्
श्रीशम्भव ०
०त्तेजितांहि०
वः शिवम् (त्रिषष्टिमां पण)
०महितांहूये
०स्पर्द्धा, करुणा० (त्रिषष्टिमां पण)
-
८
९
१६
२०
०नाथस्तु भग० ० नाथः स भग० (त्रिषष्टिमां पण) + अत्यारे सामान्य रीते 'महेन्द्रमहितांह्रि' (श्लोक ९) जेवा समासोनो विग्रह आ रीते करवामां आवे छे - 'महेन्द्रैर्महितौ महेन्द्रमहितौ, महेन्द्रमहितौ अंही यस्य स महेन्द्रमहितांहि : ' मतलब के पहेला तत्पुरुष समास करी पछी बहुव्रीहि समास करवामां आवे छे. छापेली वाचनामां पण अवो ज समासविग्रह छे. ज्यारे प्रथमादर्शमां आवा तमाम स्थाने 'महेन्द्रैर्महितौ अंही यस्य स' ओवो त्रिपद- बहुव्रीहि ज दर्शाववामां आव्यो छे. वृत्तिलाघव कदाच आनुं कारण होइ शके. आवां बीजां स्थानो- ०दर्शसङ्क्रान्तजगत् (श्लोक ४), ०शाणाग्रोत्तेजितांहिनखावलिः (श्लोक ७), ०ज्योत्स्नानिर्मली
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कृतदिङ्मुखः (श्लोक १८), निद्राप्रत्यूषसमयोपमम् (श्लोक २२). + अन्य बे स्थाने पण अलग रीते समास विग्रह देखाडायो छे - १.
निष्परिग्रहम् (श्लोक ३)-मु.-निर्गतः परिग्रहादिति, ह.-निर्गतः परिग्रहो यस्मात् स....२. निर्मलीकार० (श्लोक २३)-मु.-अनिर्मलं निर्मलं करोतीति निर्मलीकारः, ह. - अनिर्मलस्य निर्मलस्य कारो निर्मलीकारः. मुद्रित वाचनामां केटलांक शुद्धि करवा योग्य स्थानो पण छे - श्लोक-टीका मुद्रित
हस्तलिखित भवरोगे आर्त्ताः भवरोगेणाऽऽर्ताः निःश्रेयसः निःश्रेयसम्
जलस्य नैर्मल्यं ०जलानां नैर्मल्यम् स्पर्द्धति
स्पर्द्धते कृपया मन्थरे कृपाया मन्थरे (= सूचके) केटलाक पाठान्तरश्लोक-टीका मुद्रित
हस्तलिखित पवित्रीकुर्वतः पवित्रं कुर्वतः किं कर्मतापन्नम् कं कर्मतापन्नम् किम्भूतं वृषभ० किलक्षणं वृषभ० केवलज्ञानदर्पणः केवलदर्पणः सारणिसदृशाः सारणिसदृश्यः वर्जयित्वा अत्र वर्जयित्वा अन्ये अत्र
तद्वद् तस्यै अस्तु, बोधिशब्दः तस्मै, अस्तु स्त्रीलिङ्गः ०कामार्थश्चतुर्वर्गः ०कामार्थाश्चतुर्वर्गः समोक्षकाः समोक्षकः उपमा यस्य तत् उपमा यत्र तत्
arm so 5 w orar
तदिव
å
r
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अनुसन्धान-५३ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग-१
सङ्गमकाख्यो देवः सङ्गमाख्यो देवः उपसर्गम्
भगवदुपसर्गम् अक्षुब्धं भगवन्तम् अक्षुब्धं च भगवन्तम् + मुद्रित वाचनामां प्रथमादर्शनी अपेक्षाओ केटलुक उमेरण पण थयुं छे -
जेमके श्लोक १६ - अथवा करुणाख्यः तृतीयो रसः, श्लोक २२मां मुनिसुव्रत पदनी व्युत्पत्ति, श्लोक २६ व.मां श्रीनो अर्थ लक्ष्मीनी जग्याओ अष्टप्रातिहार्यलक्ष्मी व.
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हेमचन्द्राचार्यनो देशी शब्दसङ्ग्रहः एक परिचय
डॉ. शान्तिभाई आचार्य
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अहीं गुजरातना सुवर्णकाळ अवो सोलंकीयुगमां पोतानी बहुमुखी प्रतिभाथी राजकीय, सामाजिक अने धार्मिक क्षेत्रोने प्रभावित करीने गुजरातनी अस्मिताना द्रष्टा कलिकालसर्वज्ञनुं बिरुद प्राप्त करनार हेमचन्द्राचार्य रचित अने पण्डित बेचरदासजी सम्पादित देशीशब्दसग्रह पुस्तकनो परिचय कराववानो उपक्रम छे. महान जैनाचार्य हेमचन्द्रसूरिथी गुजरातनो विद्वद्वर्ग भाग्येज अज्ञात होय, एम छतां तेमना सङ्ग्रहनी वात करवानी होई, भूमिकारूपे तेमना जीवननी झांखीरूप वात करीने पुस्तकनी वातमां जवानुं योग्य गण्युं छे.
हेमचन्द्राचार्य : जीवनझांखी
हेमचन्द्राचार्यनां जीवनचरित्रो संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी, गुजराती वगेरे अनेक भारतीय भाषाओमां लखायां छे, उपरान्त जर्मनीना विद्वान डॉ. ब्युलरे जर्मनभाषामां पण आचार्यश्रीनुं जीवन चरित्र आलेख्युं छे. तेमनां विविध जीवनचरित्रो परथी जणाय छे के तेमनो जन्म सौराष्ट्रना धंधूका नामना गाममां संवत ११४५ (ई.स. १०८९) ना कार्तकमासनी पूनमे थयो हतो. प्रभाचन्द्रना मूळ संस्कृतभाषामां रचायेला प्रभावकचरितग्रन्थमांनी हकीकत मुजब धंधूकामां चाच अने पाहिनीदेवी नामनुं श्रावकदम्पती रहेतुं हतुं. तेओना मळता विविध उल्लेखो ओम मानवानो प्रेरे छे के श्राविका पाहिनीदेवीमां खूब ज धार्मिक श्रद्धा, भक्तिभाव अने मानवता जेवा सद्गुणो प्रबळ हता. आथी पाहिनीदेवी, साधु देवचन्द्रसूरिनी वन्दना करवा वारंवार जतां. एक दिवस, पाहिनीदेवीओ अ गुरुदेवने अलौकिक तेजोमय मणि भेट धर्यो होवानुं पोताने स्वप्नदर्शन थयानी वात, नित्यनी वन्दना करीने, गुरुजीने करी. गुरुने स्वप्ननी आ वात, कोई महान सत्यनी आगाही रूप जणाई. आथी तेमणे पाहिनीदेवीने जणाव्यं के भविष्यमां ते गुजरातने पोताना तेजथी उजाळे तेवा महान तेजोमय मणिनी धर्मशासनने भेट आपशे अने थोडा वखतमां आ भावि भेट पाहिनीदेवीनी कुखे चंगदेव नामे जन्मी घरमा आनन्द छवाई गयो.
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अनुसन्धान-५३ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग-१
समय व्यतीत थतो जाय छे तेमां अक दिवस आशरे पांच-छ वरसना थयेला पुत्र चंगने लईने पाहिनीदेवी गुरुवन्दना करवा देवचन्द्रसूरि पासे उपाश्रयमां आवी. दरमियानमां बाळक चंग तेनी पासेथी क्यारे जतो रह्यो तेनी तेने खबर न रही. चंगदेवने शोधवा माता आमतेम जुओ छे तो, तेणे चंगदेवने आचार्य देवचन्द्रसूरिजीना आसन पर बेठेलो जोयो ! आ जोईने माताना हृदयमां शा भावो थया हशे ते आपणे जाणता नथी, परन्तु आ दृश्य जोईने देवचन्द्रसूरिजीओ तेने पूर्वना स्वप्ननी वातनी याद अपावीने धर्मासन पर बेठेला आ तेजमूर्ति बाळक तरफ आंगळी चींधीने पाहिनीने जणाव्यु के तेनो आ बाळक योगी थवा सर्जायेलो छे. चंगदेवने धर्मशासनने अर्पण करी देवा गुरुदेवे पाहिनीने समजावी. पाहिनीनो जीव धर्मपरायण हतो तेनी साथोसाथ तेनामां बाह्य धर्मलक्षणो करतां साचा धर्मनी ऊंडी सूझ हशे तेम जणाय छे. धर्ममां दृढ श्रद्धा धरावनारी माता पाहिनीओ, अडग मन करी,धर्मशासनना रक्षण-संवर्धन अर्थे देवचन्द्रसूरिजीना चरणोमां मूकी दीधो ! चंगदेवने साथे लईने गुरु महाराज, आजनुं खम्भात जे ते वखते समृद्ध स्तम्भतीर्थ नगरी नामे ओळखातुं अत्यंत जाहोजलालीवाळु नगर हतुं त्यां विहार करी गया. त्यां आवीने देवचन्द्रसूरिजीओ आ बाळकने दण्डनायक उदयनने सोंप्यो.
__ आ तरफ व्यापार-सफरमांथी घरे पाछा आवीने पिता चाचे पत्नी पासेथी चंगदेवनी वात जाणी. तरत ज स्तम्भतीर्थ दण्डनायक उदयन पासे जई पोताना बाळकनी मागणी करी. उदयने, आ बाळक ओक युगदृष्टा ओवो महान पुरुष थवा सर्जायेलो छे ते विषेनी अनेक दलीलो द्वारा पिता चाचने समजावतां, आखरे तेनो स्वीकार करीने पुत्र चंगदेवने धर्मशासन अर्थे गुरु देवचन्द्रसूरिने सोंपी दीधो. गुजरातनी ऊभी थयेली अस्मितानी पाछळ आवा त्यागनी अनेक जाणीती-अजाणी आख्यायिकाओ पडेली छे ! चंगदेवमांथी सोमचन्द्र :
___चंगदेव, गुरु देवचन्द्रसूरि पासे खम्भातमां रह्यो. पछीथी तेनी दीक्षानो उत्सव उजवायो. तेनी दीक्षा क्यां थई छे ते बाबतमां मतैक्य नथी. एक मत अनुसार दीक्षा महोत्सव मारवाडना नागोरमां उजवायो हतो.
बीजी बाजु, प्रभाचन्द्रनो प्रभावक चरित ग्रन्थ, आ महोत्सव उदयन
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मन्त्रीए स्तम्भतीर्थमां राख्यो हतो तेम जणावीने नोंधे छे के गुरु महाराजे चंगदेवने दीक्षा आपीने तेनुं नाम 'सोमचन्द्र आप्युं हतुं. पछीथी ते पोतानी २१ वर्षनी उमरे आचार्यपद प्राप्त करे छे त्यां सुधीना आशरे १६ वर्षना गाळानी तेमना जीवनविषयक कोइज माहिती मळती नथी. ओवो सम्भव नकारी न शकाय के आवी माहिती, हजी अप्रगट ओवी असंख्य हस्तलिखित पोथीओ ग्रन्थभण्डारोमां प्रकाशननी राह जोती पडी रही छे तेमां क्यांक दटायेली होय ! बीजूं, तेमना अनेक प्रकाशित ग्रन्थो छे तेमां पण आवी माहिती छुटी छवाई वेरायेली पण पडी होय ! खोज छे अभ्यासी अने खांखतिया धूळधोयानी, परन्तु हवे पं. सुखलालजी, मुनि जिनविजयजी, पण्डित बेचरदासजी, पण्डित मालवणियाजी अने डॉ. भायाणीना मार्ग पर चालनारने क्यां शोधवा ? केम शोधवा ? आवा धूळधोयाओना अभावे भावि गुजरातना संस्कार अने भाषा-साहित्यजगत पर घेरो प्रभाव मूकी जनारा एक महामानवना जीवनना घणाभागना अधिकृत वृत्तान्तथी आपणे अनभिज्ञ रह्या छीओ.
आचार्य पद मेळवतां पूर्वे आ महामानव थवा सर्जायेला सोमचन्द्रे केवी रीते प्रवृत्ति करी हशे ? तेमनी दैनिक प्रवृत्ति केवी हशे ? शा शा विषयोनो अभ्यास कइकइ पद्धतिओ को हशे ? तेमना सहपाठीओ कोणकोण अने केवाकेवा हशे ? तेमनी जिज्ञासावृत्तिने कयाकया मुनिमहाराजो अने सूरीश्वरोजे कइकइ रीते उद्दीप्त करीने केवीकेवी रीते तृप्त करी हशे ? आ बधी बाबतो विषे आ गाळानी कशी ज अधिकृत माहिती आपणने मळती नथी. आथी अम मन वाळवू रहे छे के तेमणे व्याकरण, शब्दकोश, काव्य, तत्त्वज्ञान, इतिहास वगेरे अनेक विषयोना हेमचन्द्राचार्य तरीके ग्रन्थो लख्या तेनी पूर्वतैयारीमां आ वर्षोमां सखत परिश्रम कर्यो हशे ! आना परिपाकरूपे गुरुदेव देवचन्द्रसूरिओ सोमचन्द्रने आचार्यपद पर स्थापवा निश्चय कर्यो होय तेम बने. सोमचन्द्रने आचार्यपद :
सोमचन्द्रने गुरुदेव आचार्यपदे स्थापे छे ते वि.सं. ११६६ (ई.स. १११०)ना वैशाखमासनी सुद त्रीज अटले के अखात्रीजनो दिवस हतो. आ दिवसे देवचन्द्रसूरिओ, मङ्गलवाद्योना रेलाता सूरोनी वच्चे सोमचन्द्रने कानमां सूरिमन्त्र संभळावीने, मध्याह्न समये पोतानी कन्था ओढाडीने पोता- आचार्यपद
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अनुसन्धान-५३ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग-१
सोंपी दीधुं. २१ वर्षनी उमरना सोमचन्द्र हवे आचार्य हेमचन्द्रसूरि बन्या. आ महोत्सवमां आटली नानी उमरमां आचार्यपदने शोभावता पोताना पुत्रने मातापाहिनी आंखमां हर्षाश्रु साथे अने पोते पोतानी आंखना रतनने धर्मशासनने सोंपवाना वर्षो पहेलानां पोताना निर्णयना आत्मसन्तोष साथे, मौक्तिक शा बिन्दुओना थरमांथी धुंधळो धुंधळो जोइ रही हती. माताना मुखेथी शब्दो सर्या, 'आचार्य सूरिजी, आ श्राविकाने आप आपना जैन शासनमा समावी लो ! अने हेमचन्द्राचार्ये पाहिनीने साध्वीओना वर्गमां महत्तरापदे स्थाप्यां.
___ स्तम्भतीर्थमां रह्या रह्या हेमचन्द्राचार्ये अणहिलपुर पाटणनी कीर्तिगाथा सांभळी हती. पाटणमां ओ काळे सोलंकीकुळनो प्रतापी राजवी सिद्धराज जयसिंह राज्यकर्ता हतो. आ राजवीना समयमां पाटण राजकीय, आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक वगेरे प्रवृत्तिओथी धमधमतुं हतुं अने तेनी सौरभ चोमेर फेलायेली हती. पाटणनो आ सुवर्णयुग चालतो हतो. आवा समयमां हेमचन्द्राचार्य ज्यारे विहार करता आवीने रह्या हशे त्यारे तेमने स्तम्भतीर्थमां सांभळेली पाटणनी यशोगाथा पाटणने अनुभवे जोईने स्वल्प जणाइ हशे. आचार्य हेमचन्द्र पाटणमां क्यारे आवीने स्थिर थया तेनी कोई अधिकृत तारीख नोंधायेली मळती नथी. आ माटे विविध सन्दर्भो पर आधार राखीने ओ तवारीखने अटकळे ज स्थापवी पडे छे, तेओना पाटण आववा माटेना अने त्यां वस्या होवाना विविध सन्दर्भो जोवा मळे छे, तेमांना केटलाक नीचे मुजब छे. १. स्तम्भतीर्थ हता त्यारे पाटणनी कीर्तिगाथा सांभळीने तेनाथी आकर्षाईने
आचार्य आवीने स्थिर थया होय. २. पाटणनी राजसभामां विद्वानोना शास्त्रार्थ थता ते जाणीने आवा विद्याजगतमां
बेसवानी तेमने अभिलाषा थई होय. ३. डॉ. ब्युलरना जणाव्या मुजब प्रभावक चरित्रना ओक आडकतरा उल्लेखथी
कुमुदचन्द्र अने पाटणना जैनाचार्य देवसूरिना शास्त्रार्थ प्रसङ्गे आचार्यश्रीनी
हाजरी सूचित थवी. ४. साहित्यप्रिय राजवी सिद्धराजे आचार्यनी विद्वत्तानी कीर्ति सांभळीने तेमने
राजसभाओमा आववा निमंत्र्या होय.
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गमेते कारणथी राजा सिद्धराज अने आचार्य हेमचन्द्रनो मेळाप थयो होय, परन्तु अटलुं निश्चितपणे कही शकाय के गुजरातनी अस्मिताना सन्दर्भ आ मेळाप अत्यन्त लाभप्रद नीवड्यो.
मेळापना फळरूपे हेमचन्द्राचार्यनी प्रसादीरूप मळेलु ‘सिद्धहेमचन्द्र शब्दानुशासन'नामनुं व्याकरण आचार्यनी ओक महान कृति छे. पछीथी तो आचार्ये गुजरातने गौरव अपावनारा अनेक ग्रन्थोनी रचना करी. आमांना केटलाक महत्त्वना ग्रन्थो नीचे मुजब छे. १. व्याश्रय (संस्कृतभाषामां)
आ ग्रन्थ सोलंकीकालना राजवीओनी कीर्तिगाथा जेवो छे. तेमां वीस सर्गोनी रचना छे. सोलंकीवंशनी सत्तानो पायो नाखनार राजवी मूळराज सोलंकीथी मांडीने, जेमना शासनकाळना पोते साक्षी रह्या छे तेवा महाप्रतापी सिद्धराज अने कुमारपाळ ए बन्ने सुधीनो राज्यकाळ, कीर्तिगाथा साथे व्याकरणने गुंथीने आवी विशिष्ट रीते वर्णव्यो छे. व्याश्रयना जैतिहासिक मूल्यनी बाबतमा मतैक्य नथी, ते नोंधq जोइओ.
२. कुमारपालचरित (व्याश्रय, प्राकृतभाषामां)
आ व्याश्रय, प्राकृतभाषामां आठ सर्गो वाळु छे. तेमां राजा कुमारपाळना जीवनना विकासने वणी लेती कथा आपवामां आवी छे. सिद्धहम छेल्ला अध्याय प्राकृतव्याकरणनां उदाहरणोने आ कीर्तिगाथामां वणी लेवायां छे. ३. योगशास्त्र
आमां सामान्यजनने उपयोगी थई शके तेवी शैलीमां योगशास्त्रने समजाव्युं छे. राजा कुमारपाल माटे खास लखेला आ पुस्तकमां मानवमनने अभ्यासविषय बनाव्यो छे. १. अभिधानचिन्तामणिनाममाला
संस्कृत भाषाना 'अमरकोश' प्रकारनो आ शब्दकोश छे. आमां ओक अर्थना अनेक शब्दो आपवामां आव्या छे.
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२. अनेकार्थसङ्ग्रह
आ सङ्ग्रहमां ओक शब्दना अनेक अर्थो आप्या होई, तेने अनेकार्थसङ्ग्रह नाम अपायुं छे. ३. देशीनाममाला
आमां लोकव्यवहारमा प्रचलित अनेक शब्दोनो सङ्ग्रह थयेलो छे. ४. निघण्टुकोष
आमां वैदकने लगता शब्दोनो सङ्ग्रह छे. त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र
आ ग्रन्थमां शीर्षक बतावे छे तेम कुल त्रेसठ महामानवोनां जीवनचरित्रो अपायां छे. अहीं आपेला महामानवोमां तीर्थंकरो, वासुदेवो, प्रतिवासुदेवो वगेरेनो समावेश थाय छे. आमां अनेक आख्यानो अपायां छे. उपरांत तेमां कुमारपाळ विषेनी केटलीक विगत मळती होवाथी तेनुं आंशिक रीते ऐतिहासिक मूल्य होवा, पण गणावी शकाय. हेमचन्द्राचार्यनी कवित्वशक्ति पण आ ग्रन्थमां जोवा मळे छे.
अहीं तेमना मुख्य मुख्य ग्रन्थोनी नामावलि ज आपी छे, केमके हेमचन्द्राचार्यना जीवनचरित्रनुं निरूपण करवानो आ लेखनो हेतु नथी. आचार्यना रचेला श्लोकोनी संख्या विषे भारे अतिशयोक्तिओ थयेली छे ते प्रत्ये मुनिश्री जिनविजयजी अने मुनिश्री पुण्यविजयजी महाराजे ध्यान (जुओ, हेमचन्द्राचार्य,त्रीजी आवृत्ति १९८२, पृ. १५०-१५१, श्री धूमकेतु- सम्पादन) दोरेलुं छे.
अमारा हेमचन्द्राचार्यना खूब ज सीमित अक्षर परिचयथी अम लागे छे के तेमना समस्त साहित्यनु संस्कृत-प्राकृतना ऊंडा अभ्यासी अने निष्ठावान तथा साम्प्रदायिकताथी पर ओवा विद्वान द्वारा परामर्शन कराव्या बाद, ओ महामानवने आजना सन्दर्भमां मूलवता प्रकाशननी ताती जरूर छे.
__आचार्यश्रीना जीवननी, आ लेखना सन्दर्भमां जरूरी छे तेटला पुरती झांखी कर्या बाद, हवे तेमना, युनिवर्सिटी ग्रन्थनिर्माण बोर्ड, अमदावाद, १९७४, द्वारा प्रकाशित, अने पण्डित बेचरदास जीवराज दोशी सम्पादित देशीशब्दसङ्ग्रहनो परिचय करीओ.
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डिसेम्बर २०१० देशीशब्दसङ्ग्रह :
विद्वान सम्पादकश्री प्रस्तावनामां प्रथम तो पुस्तकना शीर्षकनी प्रामाणिकता अंगे शङ्का उठावीने नाम अंगेनी दलील करता जणावे छे के,
१. आ ग्रन्थनी गाथा ७८३ ग्रन्थ, नाम 'देशीशब्दसङ्ग्रह' होवानं जणावे छे. आ पुस्तकना पृष्ठ ४३६ पर आ गाथानी चर्चा करतां, पण्डितजी जणावे छे के 'सिद्धहेम शब्दानुशासन' नामे आ ग्रन्थ 'मुनिश्री हेमचन्द्राचार्ये, राजा सिद्धराज सोलंकीनी प्रेरणाथी लख्यो छे. (जुओ, 'पूरक टिप्पणो' पृ. ३) व्याकरणग्रन्थना आ नामना आरम्भना सिद्धहेम शब्दमां पूर्वार्ध सिद्ध-शब्द सोलंकी राजा सिद्धराज माटे अने पछीनो 'हेम' शब्द लेखके पोताना नाम (हेमचन्द्राचार्य)नी ढूंकी संज्ञारूप वापर्यो छे. लेखक आ वात आठमा अध्यायना अन्ते आपेला पुष्पिका श्लोकमां स्पष्टपणे जणावे छे.
पण्डितजीओ संस्कृत-प्राकृत-अपभ्रंशना अनेक प्रकाशनो आप्यां छे तेमां हेमचन्द्रना आ 'देशीशब्दसङ्ग्रह'नुं कार्य शिरमोर समान गणावी शकाय तेवू छे. पण्डितजी आ सम्पादनकार्य करवामां जे शारीरिक-मानसिक श्रम उठावता हता ते जोइने आ लेखके तेमना चरणोमां माथु नमाव्युं हतुं. ओ वखते ओक आंख तो लगभग गयेली हती, आथी बाकीनी ओक आंखना सहारे ज थयेलुं आ कार्य छे ! सिद्धहेमनी रचनामां सत्ता अने विद्वत्ताना सुमेळ वडे लोकहित सधायुं छे तेम आ कार्यमां पण बन्युं छे. गुजरात युनिवर्सिटीना तत्कालीन कुलपति स्व. ईश्वरभाई पटेलनी लोकहितनी खेवना अने दीर्घ दृष्टिले विद्वत्तानो सुमेळ साध्यो न होत तो गुजरात आ महामूली भेटथी वंचित रह्यं होत.
____ हवे आपणे पण्डितजीओ करेला आ कष्टसाध्य कार्यनी थोडी विगतमां उतरीओ. कृतिनुं नाम :
आचार्य हेमचन्द्राचार्यनी आ कृतिना, रयणावली, देशीसद्दसडगहो (देशी शब्दसङ्ग्रह) अने देशीनाममाला अवां त्रण नामो मळे छे. नाम पर प्रकाश पाडती ग्रन्थनी ७८३मी गाथा नीचे मुजब (पृ. ४३६) छे :
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इति रत्नावलिनामा देशीशब्दानां सङ्ग्रहः एषः ।
व्याकरणलेशशेषः रचितः श्रीहेमचन्द्रमुनिपतिना ॥
आ गाथा स्पष्टपणे जणावे छे तेम व्याकरणशेष आ देश्य शब्दोनो रयणावली नामे पण ओळखातो आ सङ्ग्रह श्री हेमचन्द्रमुनिपतिले रच्यो छे. आ गाथाथी जणाय छे के शब्दोना सङ्ग्रहकारे ग्रन्थनुं पूरुं नाम 'रत्नावलिदेशीशब्दसङ्ग्रह' राख्युं छे. आ सङ्ग्रहनो विशेष करीने 'देशीनाममाला' नाम स्वीकारीने अभ्यासो थाय छे तेमां, संस्कृतमां माला पदान्तवाळा अनेक प्रसिद्ध कोशो रचाया छे तेनी असर तळे आम थयुं होवा, कल्पी शकाय. सम्पादके अहीं सङ्ग्रहकारे उपर आपेला दीर्घनामने टुंकावीने 'देशीशब्दसङ्ग्रह' नाम आ सङ्ग्रह माटे राख्युं छे.
ग्रन्थनी मूळ गाथाओ ७८३ छे अने उदाहरणगाथाओ ६२२ छे. आना सम्पादनकार्यमा सम्पादके जे बे पोथीओनो उपयोग को छे तेमांनी ओक, पाटणनी पोथी वि.सं. १६६६ ना वर्षमां लखायेली छे अने बीजी पूनानी पोथी वि.सं. १६५८ना वर्षमां राजनगरमां लखायेली छे. कृतिना सङ्ग्रहकार :
___ उपर नोंधेली ७८३मी गाथामां कृतिना रचयिता 'श्रीहेमचन्द्रमुनिपति' छे तेम स्पष्ट उल्लेख छे. आ उल्लेखथी आ सङ्ग्रहना रचनार के कर्ता 'हेमचन्द्राचार्य' छे ते निर्विवाद छे. आम होवा छतां ग्रन्थना सम्पादक पण्डितजी आ सिवायरॉ, ग्रन्थ- बीजुं नाम होवानो निर्देश आपतुं प्रमाण रजू करीने ग्रन्थकर्ता अन्य कोई होवानो सम्भव ऊभो करे छे.
___आ अंगे पण्डितजी नोंधे छे (प्रस्तावना, पृ. ९) के सङ्ग्रहनी ७८३मी गाथामां 'रइओ सिरिहेमचन्द्रमुणिवइणा' पाठ छे ते मुनिपतिओ रचना करी छे तेम दर्शावे छे, परन्तु बीजी पूना वाळी हस्तप्रतमां आ माटे पाठ मळे छे ते 'सिरिहेमचंदमुणिवयणा'. वयणा शब्दथी मुनिना 'वचनथी' अवो अर्थ आपे छे. आथी अम अर्थ करवाने कारण मळे छे के हेमचन्द्रमुनिनी आज्ञाथी अन्य कोइअ आ ग्रन्थनी रचना करी होय ! पण्डितजी आ वातने पुष्ट करे तेवू प्रमाण पण आ ग्रन्थमाथी शोधीने रजू करे छे. आ माटे ग्रन्थनी ६१२मी
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गाथानी बीजी पंक्तिमांना 'भ्रमरे रसाउ-रोलंबा' पदने टांकीने पण्डितजी जणावे छे के मुनि हेमचन्द्र रोलम्ब शब्दनो भमरो अर्थ आपीने 'रोलंब' ने देश्य शब्द तरीके नोंधे छे. पछी आनी वृत्तिमां सङ्ग्रहकार नोंधे छे के 'रोलम्बशब्दं संस्कृतेऽपि केचिद् गतानुगतिकतया प्रयुञ्जते' अर्थात् गतानुगतिक प्रवाहने अनुसरी, केटलाक कोशकारो रोलम्ब शब्दने संस्कृत भाषामां पण प्रयोजे छे. आनो अर्थ ओ थाय के अहीं आवा शब्दसङ्ग्रहकर्ताओ गतानुगतिकपणे चालनारा छे. आ उल्लेखना सन्दर्भमां ज्यारे जे ग्रन्थनी रचना अने टीका पोते ज करेली छे तेवा अभिधानचिन्तामणि नामना ग्रन्थमां रोलम्ब शब्दने संस्कृत शब्द तरीके स्वीकार (काण्ड ३, श्लोक २७०) करेलो छे अने 'अली रोलम्बो द्विरेफः' ओम भ्रमरना पर्यायरूपे उल्लेख को छे तेना प्रमाण आपीने पण्डितजी जणावे छे के आनाथी तो सङ्ग्रहकार पोतेज गतानुगतिक ठरे छे ! तेमणे प्रश्न कर्यो छे के आचार्य पोते ज पोता पर गतानुगतिकतानो आक्षेप करे खरा ? अर्थात् पोते न करे ते तेमने अभिप्रेत छे. जो आम होय तो आ ग्रन्थ आचार्यना कहेवाथी अन्य कोइओ रच्यो होवानो सम्भव ऊभो थाय छे अने पूनावाळी हस्तप्रतना ‘मुनिना वचनथी' रचाइ होवाना निर्देशने टेको मळे छे. पण्डितजी आ बाबतमां संशोधन कराय अने सत्वरे आनो निर्णय थाय तेम इच्छे छे. पण्डितजीनी आ इच्छापूर्ण थाय ओवी ईश्वरने अमारी प्रार्थना छे. सङ्ग्रहकार विषेनी पण्डितजीनी टिप्पणी :
आ ग्रन्थना रचयिताने भावांजलि आपतां पण्डितजी जणावे छे के ग्रन्थ रचनार गमे ते होय, पण ते संस्कृत, प्राकृत अने देशी प्राकृत भाषाओनो असाधारण अभ्यासी छे. तेणे अनेक देशीसङ्ग्रहो तपास्या छे अने जुदाजुदा सङ्ग्रहोना सङ्ग्रहकारोना विविध मतोनी चकासणी कर्या पछीथी आ सङ्ग्रहमां तेओना मत टांक्या छे. आनी पुष्टि माटे सम्पादक पण्डितजीओ सूचवेली ७१८ अने ७२३ क्रमांकनी गाथाओ जोइओ.
गाथा ७१८नी वृत्तिमां, गाथामांना सराहअ शब्दनी चर्चा करतां सङ्ग्रहकार हेमचन्द्राचार्य नोंधे छे के आ शब्दनो 'सर्प' अर्थ छे तेनो समानार्थी शब्द पयलाय जणावीने अभिमानचिह्न नामनो सङ्ग्रहकार आ बन्ने शब्दो पर्यायवाची होवा- लखे छे. आम होवा छतां पाठोदूखल नामना सङ्ग्रहकार तेनी गाथामां
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अनुसन्धान-५३ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग-१ वपरायेला पयलाय शब्दनो अर्थ 'कामदेवना बाणो वडे हणायेली' अवो करे छे ते बराबर नथी, केमके प्राचीन देशीसङ्ग्रहोमां पयलाय शब्द 'सर्प' अर्थने सूचित करतो वपरायो छे. आनी पुष्टि माटे सङ्ग्रहकारे अभिमानचिह्न नामना सङ्ग्रहकारे पण आ शब्द 'सर्प'ना अर्थमां वापर्यो छे ते दर्शावती उदाहरणगाथा (५७४) पण आपी छे.
आवं ज बने छे समुच्छणी शब्दना अर्थनी बाबतमां. ओक सङ्ग्रहकार वहुआरिय शब्द जे 'वहु' अर्थनो सूचक छे तेनो समानार्थी समुच्छणी शब्दने गणावे छे तेमां व अने ब वर्ण-वाचना भूल होवानुं मानी आचार्यश्री नोंधे छे के ते शब्द 'बहुआरिय' छे अने तेनो अर्थ 'सावरणी' छे. आम ‘सावरणी'ने बदले नोंधायेलो 'वहु' अर्थ बराबर नहीं होवानुं हेमचन्द्राचार्ये स्पष्ट करी बताव्यु छे. तेओ- 'सावरणी' अर्थनी पुष्टि माटे बीजा अनेक देशीसङ्ग्रहकारोनां उदाहरणो पण टांके छे.
___ आवी वाचनानी भूलो करनाराओने लिपिभ्रष्ट कहीने हेमचन्द्राचार्ये उमेरे छे के देशीशब्दसङ्ग्रहोमां आq आq तो घjबधुं छे, परन्तु आम बीजाना दोष काढवा ते उचित नहीं होवा छतां, अभ्यासीओने अर्थ मेळववामां मुश्केली न पडे ते माटे तेमणे आ लख्युं छे. आ ग्रन्थमा तेमणे अनेक मतो नोंध्या छे तेमांथी जे मत योग्य जणातो होय तेने स्वीकारवामां संकोच अनुभव्यो नथी. तेमणे खुल्ला मनथी ओम पण जणाव्युं छे के आवा विवादग्रस्त शब्दोना विषयमां देशीशब्दोना ज्ञाता पण्डितोनो निर्णय आखरी प्रमाणरूप गणाय. सङ्ग्रह अंगे सम्पादकनी चर्चा :
आ सङ्ग्रह अंगे सम्पादक पण्डितजी जणावे छे के आखोय ग्रन्थ बराबर अनुक्रमथी गोठवायेलो छे. आचार्य हेमचन्द्रजीना आ ग्रन्थ पूर्वे, व्यवस्थित क्रम साथे रचायेलो आवो कोई ग्रन्थ हतो नहीं. अभ्यासीओने शब्द शोधवामां मुश्केली न पडे तेनो ख्याल राखीने आचार्यश्रीओ आ ग्रन्थ रच्यो छे. आमां शब्दो आपवानी साथोसाथ ओ शब्दोना व्यवहार वपराशने समजावती उदाहरणगाथाओ आपी होवाथी शब्दनो आवो प्रयोग अर्थनी स्पष्टतामां उपयोगी बने छे. अकार्थी अने अनेकार्थी शब्दो आमां अपाया छे. मूळग्रन्थनी गाथाओ प्राकृतभाषामा छे अने तेना परनी वृत्ति आचार्यश्रीओ पोते ज रचीने संस्कृतभाषामां
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आपी छे. ग्रन्थ रचायाना काळमां शब्दना उच्चारण अने अर्थनो निर्णय करवा माटे आजे उपलब्ध छे ते तुलनात्मक पद्धति अस्तित्वमां न हती. आ माटे बहुधा पूर्वपरम्परानो आधार लेवामां आवतो हतो. सम्पादक पण्डितजी नोंधे छे के सङ्ग्रहकारे चुक्कड अने बोक्कड अवा बे शब्दो ‘बोकडा' माटे नोंध्या छे तेने सरखाववा माटे नव्यभाषा गुजरातीमां प्रचलित 'बोकडो' शब्दनी तुलनानी सवलत होत तो सङ्ग्रहकारे चुक्कड शब्द न आप्यो होत. आ सङ्ग्रहमां ब अने व बंनेने बदले च लखायानां घणां दृष्टान्तो छे ते तरफ पण्डितजी आ ग्रन्थना अभ्यासीओनुं ध्यान दोरे छे.१ ।
बीजुं, पण्डितजी जणावे छे तेम मूळ गाथाओमां धातुओनो सङ्ग्रह नथी कर्यो ते ठीक ज थयुं छे, परन्तु वृत्तिमां धातुओनो सङ्ग्रह कर्यो छे त्यां पण तेम नहीं करतां, धातुओने - व्याकरणमा आप्या होवाथी अहीं तेनुं पुनरावर्तन कर्यु नथी तेवू लखी दईने ग्रन्थY कद घटाडी शकायुं होत.
सङ्ग्रहकारे संस्कृतशब्दोने मळता आवता होय तेवा घणाबधा शब्दोने देश्यशब्दो तरीके नोंध्या छे. उ.त. सङ्ग्रहकार आचार्यश्री जणावे छेके 'परिरम्भ' अर्थनो 'अवॉड' धातु, पूर्वसूरिओओ व्याकरणमां नहीं नोंघेल होवाथी पोते पण तेनुं अनुसरण करीने धातुने व्याकरणमां नोंघेल नथी..
सम्पादक पण्डितजी जणावे छे के जो आ रीते ज पूर्वसूरिओने अनुसरवा, होय तो पछी आवो अनुक्रमयुक्त देशीसङ्ग्रह शा माटे बनाव्यो? पूर्वसूरिओमांथी कोईओ आवो सङ्ग्रह क्या बनाव्यो छे ? देश्य शब्दो घणा प्राचीनकाळथी पारम्परिक रीते उतरी आवता शब्दो छे. आजे आवा शब्दोमां मूळधातु अने प्रत्ययने घणुंखरूं शोधी शकाता होता नथी ते खरं, पण जो तुलना करीने आवा शब्दोनां मूळनी आगाही करी शकाती होय तो करवी जोइओ तेम सम्पादकश्री पण्डितजी- कहेवू छे. उदाहरण आपतां ते कहे छेके ६७५ मी गाथामां 'राहु'ना पर्यायरूपे आपेलो विहुंडुअ शब्द संस्कृत शब्द विधुन्तुद साथे अर्थनी बाबतमां बराबर समानतावाळो छे. ध्वनिरूपे बदली गयेलो आ शब्द संस्कृत शब्दना मूळनो छे. आ प्रकारना घणा शब्दो आ १. वास्तवमां ब नो व ने तेनो च थवो ए लेखनदोष समजीने बुक्कड पाठ ज मान्य राखवो जोईए. सं.
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सङ्ग्रहमां नोंधाया छे. पण्डितजी माने छे के कदाच पूर्वपरम्पराना कारणे आवा शब्दो नोंधाया होय तो पण तेवा शब्दोथी नकामुं ग्रन्थकद वधे छे. देशीशब्दसङ्ग्रह :
आ शब्दसङ्ग्रह आचार्य हेमचन्द्र रचित सिद्धहेम व्याकरणनो ओक भाग छे. आ व्याकरणना आठ अध्याय छे तेमां प्रथम अकथी सात अध्यायो मुख्यत्वे संस्कृतभाषाने वर्णवे छे. छेल्ला आठमा अध्यायमां पांच प्राकृतभाषाओनां व्याकरणने समजावेल छे. आठमा अध्यायना चार पादोमांथी त्रण पूरा पादो अने चोथा पादना २५९ सूत्रो प्राकृतभाषाना व्याकरणने वर्णववामां रोकायेला छे. चोथा पादना आ पछीना सूत्रोमांथी सूत्र २६० थी २८६ सुधीना २७ सूत्रो शौरसेनी भाषानुं व्याकरण, २८७ थी ३०२ सुधीनां १६ सूत्रोमां मागधीभाषानु, ३०३ थी ३२८ सुधीनां २६ सूत्रोमां पैशाची अने चूलिकापैशाचीनुं तथा सूत्र ३२९ थी ४४८ सुधीनां ११९ सूत्रोमां अपभ्रंशभाषानुं व्याकरण वर्णवेल छे. आम, आ ग्रन्थमां अपभ्रंश भाषाना व्याकरणवर्णननां सूत्रोमां अन्य प्राकृतभाषाओना वर्णननी सरखामणीओ सौथी वधारे सूत्रो अपायां छे. आ देशीशब्दसङ्ग्रहना शब्दोने आ अपभ्रंश भाषा साथे विशेष पणे सम्बन्ध छे. आ प्रकारना शब्दो प्राचीन परम्पराथी देशी, देश्य अने देशज शब्दो तरीके ओळखाता आव्या छे.
भारतीय प्राचीन व्याकरणपरम्परामां भाषाना साहित्यिक स्वरूपने वर्णवातुं हतुं. समाजमां शिष्ट गणातो वर्ग जे भाषास्वरूपमां वाक्-व्यवहार करतो होय ते भाषानां वर्णनो, व्याकरणो अपातां हतां अने ते भाषाना सन्दर्भमां व्याकरणो रचातां हतां. बीजी रीते कहीओ तो भाषानी संरचना दर्शाववाना बदले भाषाना शिष्टमान्य स्वरूपनी जाळवणी पर भार मूकातो हतो. आ पछीथी समाजमां शिष्टवर्गनुं वर्चस्व होय छे तेने लीधे तेनी भाषानुं पण वर्चस्व स्थपातुं चाल्युं अने तेवा साहित्यस्वरूप सिवायनां भाषास्वरूपो भ्रष्ट गणावा लाग्यां. भाषाविज्ञाननी दृष्टिले भाषाना विविधरूपे बोलातां स्वरूपोमां कोईपण स्वरूप भ्रष्ट नथी, हा, ते जुदुं जरूर होइ शके छे.
सम्पादक पण्डितजीओ आ वात स्पष्टरूपे समजावी छे. तेओ जणावे छे के अपभ्रंश शब्दनो अर्थ 'भ्रष्ट' थाय छे ते खरं, परन्तु भाषाना सन्दर्भमां तेनो अर्थ मात्र जुदां उच्चारणोवाळू स्वरूप समजवानो छे. आवां जुदा जुदां
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उच्चारणोमां अमुक शुद्ध अने बीजां अशुद्ध ओ मान्यता भूल भरेली छे. आनुं दृष्टान्त आपीने जणावे छे के केटलाक लोको 'गयो हतो' ओम बोले, केटलाक 'गयो तो' अने बीजा केटलाक 'ग्यो तो' बोले, ते सहु गुजराती बोलनारा ज छे. आमां ओक उच्चारण-शुद्ध अने बीजुं भ्रष्ट तेवू नथी. तेमां जुदापणुं जरूर छे. तेओ उमेरे छे के 'सिद्धहेम'ना अध्यायमां आपेला आ अपभ्रंश भाषाना व्याकरणथी अगियारमा-बारमा-सैकानी लोकमां प्रचलित भाषा पर प्रकाश पाडे छे. वळी ओ भाषानुं स्वरूप योग्य रीते समजाय ते माटे आचार्यश्रीओ पद्यमां अनेक उदाहरणगाथाओ आपी छे. आ उदाहरणोमां मूळ विषे जाणकारी प्राप्त थती नथी, परन्तु आ पद्योमांनां केटलांक परम्पराथी चाल्या आवतां अने केटलांक लोकसाहित्यमा प्रचलित होय तेवू बनी शके. उपरान्त सङ्ग्राहकना पोते रचेला पण केटलांक होय तेवा सम्भवने नकारी शकाय नहीं.
हेमचन्द्राचार्यना आ व्याकरण पूर्वे रचायेलां बीजां अनेक व्याकरणो, गमे ते कारणोसर देश्य शब्दोनी व्युत्पत्ति दर्शावतां नथी.
हेमचन्द्राचार्य पण आ परम्पराने अनुसर्या होवार्नु पण्डितजी जणावे छे. सङ्ग्रहकार आचार्यश्री अनादिकाळथी चाली आवती भाषाने देशी प्राकृतभाषा तरीके ओळखावीने उमेरे छे के आ देशी प्राकृतभाषाना शब्दोना मूळधातुअंश अने प्रत्ययअंशने सहेलाईथी ओळखी शकाता होता नथी. आ वातने समजाववा माटे सम्पादक पण्डितजी, पोताना नानपणमां सणोसरामां सांभळेला दुदण, हिलोला अने घोहो ओ त्रण शब्दो दृष्टान्तरूपे नोंधे छे. आमांना प्रथम शब्दनो अर्थ 'ऋतुवगरनां वादळां थयेलो, न गमे तेवो दिवस', बीजानो 'आनन्द के मजा' अर्थ अने त्रीजानो 'हजी पूरुं न देखाय तेवं झांलुं सवार' आवा आ त्रणेना अर्थो छे. पछी पण्डितजीओ आ त्रणे शब्दोनां मूळ अनुक्रमे दुर्दिन, हल्लोल अने गोस शब्दोमां जोयां. अहीं कहेवा दो के हालारमां अमे आजे पण 'हिलोळा' शब्द आ अर्थमां वापरीओ छीओ. सम्पादक जणावे छे के आ सङ्ग्रहना शब्दो पण आ प्रकारना अतिशय जूना होइ, विरूप बनी गया छे. आवा बधा शब्दो देशी शब्दो कहेवाया..
सम्पादकश्रीना जणाववा मुजब संस्कृत अने प्राकृत साहित्यनी जेम
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देशीप्राकृत साहित्य पण प्रतिष्ठित हतुं. एक जैन आचार्ये पोताना भाष्यमां पादलिप्तसूरि लिखित तरङ्गवती नामना आख्यायिका ग्रन्थनो उल्लेख को छे ते ग्रन्थ देशीप्राकृतमां रचायेलो होवानुं कहेवाय छे. आ सिवाय बीजुं देशीप्राकृत साहित्य पण हशे तेवू अनुमान अने देशीशब्दसङ्ग्रहोना उल्लेखो मळे छे ते परथी बांधी शकाय. उ.त. आचार्य हेमचन्द्र पोताना सङ्ग्रहनी वृत्तिमां जुदाजुदा सङ्ग्रहकारोना केटलाक नीचे मुजबनां नामो आपे छे :
१. द्रोण, २. अवन्तीसुन्दरी, ३. अभिमानचिह्न, ४. शीलाङ्क, ५. धन पाळ, ६. सातवाहन, ७. गोपाल, ८. देवराज (गोकुलप्रकरणनो कर्ता), ९. पाठोदूखल.
आटला बधा देशी शब्दसङ्ग्रहो थया होय तेमांथी सूचन मळे छे के ओक काळे देशी प्राकृत साहित्यनो प्रचार, देशमां सारा प्रमाणमां हशे. पण्डितजी नोंधे छ के (१) द्रोण अने (४) शीलाङ्क नामना जैनाचार्यो थइ गया छे, परन्तु तेओ अहीं निर्देशेल देश्य शब्दसमूहोना रचयिता हशे के केम ते अंगे कशं ज निश्चितपणे कही शकाय तेम नथी. तेवू ज (२) अवन्तीसुन्दरीनो उल्लेख ११मा सैकामां थयेल कवि धनपाळनी नानी बहेन सुन्दरीने सूचित करे छे के केम ते विषे कही शकाय नहीं. (५) धनपाळ तिलकमञ्जरी आख्यायिकानो रचयिता छे तेनो निर्देश होवानुं जणाय छे. ग्रन्थनी रचना विषे :
प्राचीन ग्रन्थकर्ताओ ग्रन्थना आरम्भरूप मङ्गलाचरणमां इष्टदेव- स्मरण करीने ग्रन्थना विषय वस्तुनो निर्देश करता हता, ते परिपाटी स्वीकारीने आचार्य हेमचन्द्र पण चाल्या छे. तेओए आ ग्रन्थ, विषयवस्तु देशी शब्दोनो सङ्ग्रह छे ते शरुआतमां मूळ बीजी गाथामां स्पष्ट कर्यु छे. आ विषय वस्तुने अर्थात् देशी शब्दो आपेला छे तेने समजवा माटे आ ग्रन्थ छे. बीजी रीते कहेतां, आ ग्रन्थ आपेला शब्दोने समजवा साधन छे.
प्राकृत व्याकरणोमां प्राकृतभाषाना तत्सम, तद्भव अने देश्य सेवा त्रण प्रकारो पाडवामां आवे छे. तत्सम अटले संस्कृतना जेवा (अहीं तत् अटले संस्कृतभाषा समजवानी छे.) संस्कृत द्वारा व्युत्पन्न थई शक्या होय ते तद्भव अने जे शब्दोनो प्रकृति अर्थात् मूळ अमुक अंश अने प्रत्ययनो भेद करी
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शकातो न होय ते देश्य शब्दो छे. सम्पादक, वीर, नीर, संसार वगेरे शब्दो पहेला प्रकारना, घट-घड, पठ-पढ वगेरे बीजा प्रकारना अने ओरल्ली (लांबो मधुर स्वर), इल्ली (सिंह) वगेरेने त्रीजा प्रकारना शब्दोनां दृष्टान्तो तरीके नोंधे छे.
विविध शास्त्रोमां वस्तुना स्वरूपनो निर्णय करवा माटे वर्ण्य वस्तुनुं लक्षण बांधवामां आवतुं होय छे. आनाथी विषयवस्तुने समजवामां सुविधा थती होय छे. आचार्यश्रीओ आ परिपाटी स्वीकारीने पोताना आ ग्रन्थना स्वरूप निर्णय जणावतां कर्तुं छे के प्राकृतभाषाना अक विशेष भागरूपे आदिकाळथी चाली आवती भाषा ते देश्य के देशी प्राकृत. आम देश्य प्राकृत ओ प्राकृतभाषानो ज ओक विशेष प्रकार छे.
हेमचन्द्राचार्ये आ सङ्ग्रहमां देशी शब्दोनी व्यवस्थित क्रमवाळी गोठवणी आपी छे. आ पूर्वेना देश्य शब्दसङ्ग्रहना कोइ पण ग्रन्थमां आवी क्रमवाळी शब्द गोठवणी मळती नथी. आ व्यवस्थाथी अभ्यासीओने शब्द शोधवामां सुविधा थाय छे. बीजुं आवा शब्दोना व्यवहार समजाववा माटे व्यापक रीते उदाहरणगाथाओ आपवामां आवी होवाथी, जे ते शब्दना प्रयोग विशे स्पष्टता थाय छे. लेखनपद्धति :
प्राकृतभाषामां लेखन रचना अंगेना केटलाक मुद्दाओ नीचे मुजब छे : १. ऋ, ऋ, लु, लु, मे, औ ना लिपिचिह्नवाळा स्वरोनो वपराश नथी. २. तालव्य श अने मूर्धन्य ष ना बदले मात्र दन्त्य स वपराय छे. ३. आदिस्थानमा कोइपण शब्दमां य वपरातो नथी होतो.
आ सङ्ग्रहमा आचार्ये आ लेखनपद्धति स्वीकारी छे अने ते मुजब नीचे प्रमाणेना आठ वर्ग पाडीने वस्तु संकलना करी छे. वर्गक्रम मूळगाथाक्रम( अने) तेमां समाता स्वर-व्यञ्जनो ५-१७४
आदिमां स्वरवाळा शब्दो बीजो १७५-२८६ आदिमां क वाळा शब्दो बीजो २८७-३४८ आदिमां च वाळा शब्दो
प्रथम
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३४९-३९९
आदिमां ट वाळा शब्दो पांचमो ४००-४६२
आदिमां त वाळा शब्दो छठ्ठो ४६३-६१०
आदिमां प वाळा शब्दो ६११-७०६
आदिमां र,ल,व वाळा शब्दो आठमो ७०७-७८२ आदिमां स अने ह वाळा शब्दो
वळी, गाथा ३मां आचार्यश्रीओ जणाव्युं छेके सिद्धहेमव्याकरणमां सिद्ध नथी कर्या तेवा अने संस्कृत कोशोमां प्रसिद्ध न होय तेवा शब्दो आ सङ्ग्रहमां स्वीकारेल छे. आ उपरान्त संस्कृत कोशोमां न होय, परन्तु गौणी, लक्षणा वगेरे शक्ति द्वारा, अर्थदृष्टिले साधी शकाय तेवा शब्दो आ सङ्ग्रहमां नथी तेनुं सहेज सूचन मळे छे.
___ आ आठ वर्गोमां सङ्ग्रहकारे कक्कावारी मुजब अनुक्रमे शब्दोनी गोठवणी करी छे. उ.त. प्राकृतमां अ थी ओ सुधीना आठ स्वरोनो वपराश छे तेथी स्वरोना प्रथम वर्गमां आ क्रमे शब्दो आप्या छे. तेवी ज रीते बधा वर्गो विषे कक्कावारी प्रमाणेनो क्रम आप्यो छे. आवा क्रममां पण शब्दोमां स्वरनी संख्यानी दृष्टिले पेटाक्रमनी गोठवणी करी छे. देश्य प्राकृतमां ओक स्वरवाळा शब्दो व्यवहारमां नहीं होवाथी, आमां बे स्वरथी मांडीने छ स्वरवाळा शब्दोनो क्रम आप्यो छे. अर्थना दृष्टिकोणथी जोतां, प्रथम अकार्थी शब्दोनो व्यवहार समजाववा माटे जे ते शब्दनो जेमां उपयोग थयो होय तेवी उदाहरणगाथा आपी छे. अनेकार्थी शब्दोनी आवी गाथाओ आपवाथी वधारे गूंचवण थवानी तेम मानीने ते बाबतमां उदाहरणगाथाओ आपवामां आवी नथी तेवू सङ्ग्रहकारनुं कहेतुं छे. आवा शब्दोनी बाबतमां प्रवर्तता विविध मतोना आचार्यश्रीओ अनेक उल्लेखो कर्या छे अने ग्राह्य लागे तेवा मतोनो आदर पण कर्यो छे. ग्रन्थना सम्पादक अने सम्पादन :
__ आ ग्रन्थना सम्पादक स्व. बेचरदास जीवराज दोशी, परन्तु आ नाम करतां विद्याजगतमां पण्डित बेचरदास के मात्र पण्डितजी नाम विशेष जाणीतुं छे, आ ग्रन्थ प्रसिद्ध थयो ई.स. १८७४मां. तेमणे पोतानी सही 'बेचरदास' ओटली करीने ता. १६-२-७५ना रोज आ लखनारने भेट मोकली आप्यो हतो
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तेनुं ऋण चुकववानी ३५ वर्ष बाद आ लेख द्वारा तक ऊभी थई. आवी तक ऊभी करवामां माध्यम बननारा पू.जैनाचार्य श्री विजयशीलचन्द्रसूरिजीनो आभार मानीने स्व. पण्डितजी विषे आ सन्दर्भे नोंध रजू करुं छु.
ई.स. १९७० पछीना त्रण-चार वर्षोमां आ पुस्तकनुं लेखन कार्य अने पछीथी प्रूफरिडिंग चालतुं हतुं ते समग्र समयगाळानो आ लेखक साक्षी छे. ८० वर्ष वटाव्या पछी पण्डितजीओ जे धगश अने त्वराथी काम उपाडीने पूरुं कर्यु तेमां आ कार्य करवानी तेमनी प्रबळ इच्छाए भाग भजव्यो छे. लगभग ओक आंखथी प्रुफ तपासता पण्डितजी नवजात शिशुने वहालथी जाळवती मातानी जेम साचवीने तेमांना झीणाझीणा अक्षरोने साव आंख नजीक लावीने निहाळता ते दृश्य आ लेखकनी सामे, आ लखती वखते उपसी आवे छे !
पण्डितजीनो जन्म माता ओतमबाईना मौखिक हवाला मुजब वि.सं. १९४६ना पोष वद अमासनी राते, (ई.स. गणीओ तो १८९०मां) वळा (आजना वल्लभीपुर)मां. नानपणमां ज पितानुं छत्र गुमाव्यु होई, माता ओतमबाई खूब ज मुश्केलीओ वेठीने तेमनो उछेर को हतो. मातानी मुश्केलीमा तरुणवयना बेचरदास मशालीदाळ थाळीमां लइ वेचीने अने धोकडामांथी ऊडी गयेला रु नां पमडां वीणी वीणीने तेमांथी दस-वीस पैसा मेळवीने माने मददरूप थता. बाळक बेचरदासे वळानी शाळामां छ गुजरातीनो अभ्यास पूरो को त्यां सुधीमां गाम वळा अने मोसाळना गाम सणोसरा, ओ बे गामनी बहार क्यांय गया न हता. तेओ १२-१३ वर्षनी उंमरे मांडळ गामनी धर्मविजयजी महाराजनी पाठशाळामां संस्कृत भणवा गया त्यां सुधी तेमणे रेलगाडी जोयेली न हती. आथी, त्यां सुधी गाडीमांना डब्बाओ विशेनो ख्याल तेमना मनमां घासतेलना डब्बाओनो आवतो ! पाठशाळामां ज्यारे 'चन्द्रमा' उच्चारण करवानुं आवे त्यां पण्डितजी 'संदरमा' उच्चारण वारंवार करता ते माटे तेमने 'घरभेगा करी देवानो' ठपको सांभळवो पडेलो.
आगमोना वांचन अने समजणे बेचरदासमां जब्बर परिवर्तन आण्यु. रातना बे वागे उठीने छानाछाना आगमो-वांचतां, बेचरदास घणीवार रडी पडता. आगमोमांनां भगवान महावीरनां वचनोओ ओवो सद्भाव जन्माव्यो के तेना अध्ययन विना जीवन निरर्थक जेवू लागवा मांड्युं. तेमने अम पण जणावा
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लाग्युं के श्रावकोमां आनी समज अपाय तो तेओना वर्तनमां पण शुद्धता आवे. आ विचारे बेचरदासना मन पर अवो कबजो जमाव्यो के पोते भूखे मरीने पण आ आगमोना अनुवादो करवा ! परिणामे गुजरातने भगवान महावीरनां वचनो माणवानी भेट मळी.
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आ पछीथी बेचरदासजी गूजरात विद्यापीठमां सन्मतितर्कनुं काम पण्डित सुखलालजी करी रह्या हता तेमनी साथे जोडाया. ( आ गाळामां विद्यापीठना जीवनव्यवहारनी थोडी विगत पण्डितजी तथा अजवाळीबानी रुबरु मुलाकात द्वारा आ लेखके नोंधी छे). विद्यापीठमां आठेक वर्ष थया हशे त्यां दांडीकूच आवी. आ समयगाळामां पण्डितजी राष्ट्रीयताना रंगे रंगाया. हस्तलिखित 'नवजीवन' चलाव्युं. थोडा समयमां पकडातां 'विसापुर 'नी जेलमां धकेलाया. त्यां नवेक महिना बाद छूट्या. ब्रिटीश हकुमत हेठळना प्रदेशमां प्रवेशवानी मनाई हती. क्यां जवुं ? आ पांचेक वर्षना गाळानुं स्मरण करतां, पण्डितजी गळगळा थई जता. खूब रझळपाट आ गाळाओ कराव्यो हतो. रझळपाट पछी अमदावाद पाछा आव्या. विद्यापीठ तो छोड्युं हतुं. हवे शुं करवुं ? ओवामां मुम्बई युनिवर्सिटीनुं ठक्कर वसनजी माधवजी व्याख्यान माटेनुं निमन्त्रण मळता पण्डितजी जणावे छे तेम ईश्वरी मदद आवी मळी ! आ समयना पण्डितजीना उद्गारो भारे मर्मस्पर्शी छे. तेओ लखे छे, 'क्यां वऴामां जीनमां पूमडां वीणतो हुं अने क्यां युनिवर्सिटीना हॉलमां गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति विषे व्याख्यान आपतो हुं ? घणीवार ओम लागे छे के आ बे हुं ओक नथी, पण घणा ज जुदाजुदा छे. तेम छतांय से बने हुं मां हुं पोते सळंग परोवायेलो छु, अनुं भान थाय छे त्यारे ने आनन्द थाय छे, धन्यता लागे छे अने ओक प्रकारनो सन्तोष थाय छे.' (प्रबुद्धजीवन, १-१-५५, पृ. २०३).
आ पछीथी अमदावादनी विविध शैक्षणिक संस्थाओमां काम कर्या बाद निवृत्त जीवनकाळमां तेओओ ८१ वर्षनी उंमरे देश्यशब्दसङ्ग्रहनुं कार्य उपाडीने, पूरुं कर्तुं हतुं.
पण्डितजी ११-१०-८२ना रोज ९२ वर्षनी उंमरे स्वर्गवास पाम्या हता. आ सम्पादननी विशेषता :
आ पूर्वे देशीशब्दसङ्ग्रहनी, बे मुम्बइथी प्रसिद्ध थयेली अने अक
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कोलकत्ताथी प्रकाशित ओम त्रण आवृत्तिओ बहार पडी चूकी छे. आमां कोलकतानी आवृत्तिमां उपयोगी पाठान्तरो लेवाया होवानुं जणाय छे, परन्तु मुम्बइनी बन्ने आवृत्तिओ तो आवो विचार कर्या विना ज पाठान्तरोथी भरपूर थयेली छे. आ सम्पादनमां उपयोगी पाठान्तरो ज लेवायां छे. आनी पुष्टिमां उदाहरण आपतां, पण्डितजी जणावे छे के आ त्रणे आवृत्तिमां गाथा ४९३ मां 'बालमयकाण्डम्' पाठ छपायो छे. आनो उदाहरणगाथाथी 'दडाने गूंथे छे' तेवो अर्थ बेसे छे. परन्तु 'काण्डम्'नो दडो अर्थ क्यांये थतो होवानुं जाण्यु नथी. पछीथी झीणवटथी आ अंगे तपास चलावतां, मुम्बइनी पूनावाळी आवृत्तिमां 'काण्डुकम्' पाठ जोवामां आव्यो. आनुं समर्थन करतो 'कण्डुक'पाठ पाटणवाळी आवृत्तिमां मळी आवतां, सम्पादके अहीं 'दडा'ना अर्थनो 'कन्दुक' पाठ स्वीकार्यो छे. सम्पादकनो आ उल्लेख पाछळ अटलो ज हेतु रहेलो छेके आ कार्य अत्यन्त कठिन अने धीरज मांगी लेतुं होवाथी आवां सम्पादनोमां झीणवट भरी चोकसाई अत्यन्त जरूरी बनी रहे छे.
____ आ सम्पादननी बीजी केटलीक विशेषताओमां, गुजरातीभाषामां अनुवाद अपायो छे ते पहेली विशेषता. आ सम्पादनमां पहेली ज वार उदाहरणगाथाओ गुजरातीमां अनूदित थइने प्रसिद्ध थयेली छे. आनी बीजी विशेषता ओ छे के अहीं जे तुलनात्मक टिप्पणो अपायां छे ते पण पहेलवहेलां ज प्रकाशित थाय छे. आ उपरान्त ग्रन्थनी पाछळ सम्पादनमा व्युत्पत्तिनी नोंधो आपवामां आवी छे. आ नोंधोमां आपेला घणा शब्दो विविध कोशोमां नोंधायेला मळी आवे छे. आ जोतां देश्य शब्दोनो घणो मोटो भाग व्युत्पन्न शब्दो जेवो जणाय छे. सम्पादक पण्डितजीने लागे छे के विद्वानोओ आ अंगे विचार करवो घटे.
आनी साथोसाथ अहीं उपयोगमां लीधेला ग्रन्थोनां नामो अने तेवां पुस्तकोना संकेतो आपवामां आव्यां छे. ग्रन्थना अभ्यासनी उपयोगिता :
अहीं सङ्ग्रहित थयेला देशीशब्दो विविध भाषाओना जूना वपराशना शब्दोनी जाण करावशे, जेनाथी शब्दभंडोळमांना केटलाक शब्दोना अर्थ समजवामां मदद मळशे.
मूळगाथाओ अने वृत्तिमां आवता केटलाक उल्लेखो केटलाक भौगोलिक
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अनुसन्धान-५३ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग-१
स्थानोने निश्चित करवामां मददरूप थई शके. आनुं उदाहरण आपतां पण्डितजी जणावे छे के गाथा २१०, ५४२ अने ७७२ वडे सातवाहनमां बीजां नामो अनुक्रमे कुंतल, पूस अने हाल होवानुं जाणवा मळे छे. सम्पादनमां आ प्रकारनां बीजां अनेक उदाहरणो अपायां छे.
आम, आवो अभ्यास सामाजिक क्षेत्रनी माहितीमां पण केटलो बधो उपयोगी नीवडी शके तेनां अनेक दृष्टान्तो पण्डितजीए आप्यां छे. आमांना केटलांक जोइओ : वहुमास - नवी परणेली स्त्रीनो रतिक्रीडापरायण पति जे मासमां
घरनी बहार न जाय ते महिनो. ओलुंकी - जेमां संतावानुं होय छे तेवी एक रमत. उड्डियाहरण - ऊंचो कूदको मारीने छरीनी धार पर राखवामां आवेला
फूलने पगनी आंगळियोथी जेमां उपाडी लेवामां आवे तेवू
ओक नृत्य. केटलाक रिवाजो
गाथा १४५ थी स्त्रीना शरीरने सूतरना दोरा वडे मापीने ते दोराने दिशाओमां फेंकी देवामां आवे छे अवो उल्लेख छे. कोइक स्थाने आवो कोइ आचार प्रचलित होवानो निर्देश सूचित थतो होय तेम सम्पादक माने छे...
धम्मअ गाथा ४६२मां चण्डीदेवीने जेनुं बलिदान आपवामां आवे छे ते पुरुष अवा अर्थमां आ शब्द वपरायो छे. हिंचिअ के हिंविअ - ओक पग ऊंचो करीने बाळक जे क्रियामां कूदे
छे ते क्रिया. सम्पादक जणावे छे के वर्तमानमां आ क्रिया
लंगडी नामे ओळखाय छे. इक्षुकदन्तपवनक्षण - गाथा ३२मांना आ शब्दथी महामहिनानी पूनममां
दिवसे शेरडीने दातण करता होय तेम लोको चूसे छे तेवा
रिवाजनुं सूचन मळे छे. आ रीते आ सङ्ग्रहमां अनेक आवा शब्दो मळे छे जे द्वारा उत्सवो, रिवाजो, सामाजिक प्रथाओ, विविध रमतो वगेरेनी जाणकारी प्राप्त थई शके.
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अहीं तो मात्र आ बाबत तरफ ध्यान दोरवा पुरतां आटलां दृष्टान्तो आप्यां छे.
छेवटे, तेमणे रचेला मुख्य मुख्य ग्रन्थोना नामाभिधान साथेनो तेमने अंजलिरूप श्लोक छे (धूमकेतु, १९८२, पृ. १६६) तेनी 'बद्धं येन न केन केन विधिना मोहः कृतो दूरतः' आ छेल्ली पंक्ति नोंधीने, आ महामानवने अंजलिरूप आ लेख पूरो करुं छु.
C/o. १, B, कामधेनु एपार्टमेन्ट,
___ सुदामा शेरी, जामनगर-८
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अनुसन्धान-५३ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग-१
आचार्य हेमचन्दसूरि रचित स्तोत्र-सरिता
डॉ. मीताबेन जे. व्यास
भारतीय साहित्यमां ऊर्मिकाव्यनी समृद्ध परम्परा प्राप्त थाय छे. ऊर्मिकाव्य लघु छतां आत्मसंवेदनापूर्ण, संगीतमय, ऊर्मि आवेगथी सभर होय छे. जेमां मानवभावनो स्वयम्भू आविष्कार आत्मनिवेदन शैलीमां जोवा मळे छे. वैदिक साहित्यमां अक-अकथी सुन्दर स्तोत्र मळे छे. यजुर्वेदनी रुद्राध्याय स्तुति तेना दृष्टान्त स्वरूपे छे. जे भावस्पन्दनथी भरपूर, सहज, सरल शैलीमां अभिव्यक्त थयुं छे. स्तु धातु संस्कृत व्याकरणमां आवे छे जेनो अर्थ थाय छे स्तुति करवी, प्रार्थना करवी. आ 'स्तु' धातुने जुदाजुदा प्रत्ययो लागी स्तोत्र, स्तुति, स्तवन आदि शब्दो बने छे. स्तोत्र काव्यना मुख्य विभागमां (१) शैव स्तोत्र (२) शाक्त स्तोत्र (३) वैष्णव स्तोत्र (४) अन्य देवी-देवता स्तोत्र (५) जैन स्तोत्र (६) बौद्ध स्तोत्रनो समावेश थाय छे.
स्तोत्रकाव्यमां ईश्वरचं गुणगान करीने कवि पोताना हृदयनी वेदना तथा आकांक्षा श्रद्धापूर्वक व्यक्त करे छे; जेने प्रार्थना कहेवाय छे. प्रार्थना दरेक धर्ममां होय छे. परन्तु भारतीय संस्कृतिमां अक विशेषता जोवा मळे छे के तेमां निजलीनता अने कोमळता व्यक्त करता भक्तने भगवानना उदार हृदयनो परिचय थाय छे. स्तोत्रकाव्यने भारतीय संस्कृतिमां उपासनानुं श्रेष्ठ साधन मानवामां आव्यु छे. तेमां रहेली गेयता, ललितता, भावार्द्रता, संगीतमयताने कारणे कान्तासम्मित उपदेशनी अनुभूति करावे छे. स्तोत्रकाव्यमां कठोरचित्त मनुष्यने परिप्लावित करवानी प्रशंसनीय शक्ति रहेली छे.
आचार्य हेमचन्द्रसूरिनुं प्रदान गुजरातना साहित्य जगत माटे अणमोल, अविस्मरणीय छे. आचार्यश्रीओ व्याकरण, अलङ्कार, छन्द, कोश, महाकाव्य आदि क्षेत्रमा नोंधनीय कृतिओ आपी छे. आमां स्तोत्रनुं क्षेत्र पण अलिप्त रह्यु नथी. स्तोत्र साहित्यमां तेओओ कुल ६ कृति रची छे. जेमां –
(१) सकलार्हत् स्तोत्र (बृहच्चैत्यवन्दनस्तोत्र)
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(२) विंशतिप्रकाश
(३) महादेव स्तोत्र
(४) श्री अर्हन्नामसहस्र - समुच्चय (सिद्धसहस्रनामस्तोत्र)
(५) अन्ययोग-व्यवच्छेद द्वात्रिंशिका
(६) अयोग-व्यवच्छेद द्वात्रिंशिका.
नो समावेश थाय छे. आ दरेक स्तोत्रनो ट्रंक परिचय आ मुजब छे. ( १ ) सकलार्हत् स्तोत्र :
आ स्तोत्रनुं नाम तेना प्रथम श्लोकना प्रथम पद सकलार्हत् परथी राखवामां आव्युं छे. तेनुं अन्य नाम बृहच्चैत्यवन्दन प्राप्त थाय छे. अहीं कुल ३३ पद्योनो' समावेश थयो छे. जेने 'त्रिषष्ठिशलाकापुरुषचरित्र'ना आरम्भमां स्थान मळ्युं छे. आ ओक माङ्गलिक स्तोत्र छे. जैनोना प्रतिक्रमणना आरम्भमां आ स्तोत्रनो पाठ करवामां आवे छे.
(वीतरागस्तोत्र)
स्तोत्रना प्रारम्भमां आवेली बे गाथामां अर्हंतपणाने नमस्कार करवामां आव्यां छे; कारण के अर्हतत्वथी ज अरिहंत ओळखाय छे. त्यार बादनी गाथाओमां चोवीस तीर्थंकर प्रभुने क्रमशः वर्णवाया छे. जेमां तीर्थंकर परमात्मानी विशेषताओ, अतिशयताओ, विलक्षणताओनो उल्लेख करवामां आव्यो छे. प्रत्येक गाथामां प्रत्येक परमात्मानी भिन्न-भिन्न आयामथी स्तुति करवामां आवी छे. आ स्तोत्र पर त्रण टीकाओ रचाई छे. आ स्तोत्रनो गूर्जरगिरामां पद्यानुवाद -गद्यानुवाद- विवेचन पुष्कळ प्रमाणमां प्राप्त थाय छे. ( २ ) वीतरागस्तोत्र :
आ संस्कृत साहित्यनुं उत्तम भक्तिस्तोत्र छे. आचार्य श्रीना भक्तहृदयनी उत्कटता अहीं प्रगट थाय छे. आ स्तोत्र वीस भागमां वहेंचायेल होवाथी “विंशतिप्रकाश” तरीके ओळखाय छे. आ स्तोत्रमां कुल २० स्तवो, दरेकमां अधिकांश ८-८ श्लोक छे कुल १८६ पद्यनो समावेश थयो छे. आ स्तोत्रमां विषय- वैविध्य पुष्कळ छे. जेमां
१. खरेखर २६ पद्यो छे. सं.
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(१) प्रस्तावनास्तव (२) सहजातिशयवर्णनस्तव (३) कर्मक्षयजातिशय वर्णन स्तव (४) सुकृतातिशय वर्णनस्तव (५) प्रतिहार्य स्तव (६) विपक्षनिरास स्तव (७) जगत्कर्तृत्वनिरास स्तव ( ८ ) अकान्तनिरास स्तव (९) कलिप्रशम स्तव (१०) अद्भुत स्तव (११) अचिन्त्य महिमा स्तव (१२) वैराग्य स्तव (१३) विरोध स्तव (१४) योगसिद्ध स्तव (१५) भक्तिस्तव (१६) आत्म स्तव (१७) शरणगमन स्तव (१८) कठोरोक्ति स्तव (१९) आज्ञास्तव (२०) आशी: स्तवनो समावेश थाय छे.
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तीर्थंकरप्रभुना विविध गुणोने केन्द्रमां राखी अहीं वर्णन करवामां आव्युं छे. दुष्कृत निन्दा, सुकृत अनुमोदना, शरणागति भावनी केळवणी अहीं प्रगट थाय छे. 'आज्ञा से ज महान" आवो घोष अहीं ध्वनित थाय छे. स्तोत्रना अन्तमां कहेवामां आव्युं छे के आ पाठ करीने चालुक्य नरेश कुमारपाल पोताना मनोरथ पूर्ण करे. आचार्य श्री कुमारपाल माटे आ स्तोत्रनी रचना करी छे. आ स्तोत्रनो उल्लेख "मोहराज - पराजय' नामना नाटकमां "वीस दिव्यगुलिका "ना नामथी प्रगट थाय छे.
स्तोत्रकाव्यनी विशाळ श्रेणीमां वीतरागस्तोत्रनुं स्थान विशिष्ट छे. भक्तिने लीधे अत्यन्त मधुर काव्य बनी रह्युं छे. तो साथोसाथ काव्यकलानी दृष्टिभे श्रेष्ठ छे. आमां भक्तिनी साथसाथ जैनदर्शननी उत्तमताने प्रतिपादित करवामां आवी छे. काम-राग, स्नेह - रागनुं निवारण सुकर छे परन्तु अत्यन्त पापी दृष्टिराग'नुं उच्छेदन तो पण्डितो - साधु-सन्तो माटे दुष्कर छे.
कामराग-स्नेहरागावीषत्करनिवारणौ ।
दृष्टिरागस्तु पापीयान् दुरुच्छेदः सतामपि ॥
वीतराग स्तोत्रमां भक्तिनी साथसाथ धर्मसहिष्णुता, परधर्मसन्मान भावना जोवा मळे छे. आ स्तोत्रमां रहेल रस, आनन्दथी हृदयने तल्लीन करवानी सहज प्रवृत्ति जोवा मळे छे. जेनाथी आ स्तोत्रनुं स्थान साहित्यमां विशिष्ट छे. (३) महादेवस्तोत्र :
आ स्तोत्रनुं अन्य नाम महादेवबत्रीसी के महादेवद्वात्रिंशिका छे. नाम मुजब आमां ३२ पद्यो अने छेल्ले ३३मुं पद्य उपसंहाररूपे आर्या छन्दमां छे. हाल
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प्राप्त थतुं स्तोत्र ४४ श्लोकोनुं छे जे दर्शावे छे के समय जता अहीं प्रक्षेप थया
हशे.
आ स्तोत्रमा महादेवनां लक्षण अने ओ लक्षणोथी लक्षित अवा देवाधिदेव महादेव आ दुनियामां कोण होई शके ? अनुं सविस्तार वर्णन आप्यु छे. अभयप्रद, प्रशान्त, रागद्वेषमुक्त, जितेन्द्रिय, निर्मोही, लोभमदमुक्त, कामविजेता, महाज्ञानी, महायोगी, महामौनी जेवा अनेक विशेषणोनो प्रयोग करीने हेमचन्द्राचार्ये जैन मतानुसार वीतराग देव- स्वरुप दर्शाव्युं छे. आवां लक्षणो जेमां चरितार्थ नथी ओवा अन्य कोइ देव न होइ शके, ओवो पण ओनो ध्वनि छे.
भवबीजाङ्करजनना रागाद्याः क्षयमुपागता यस्य ।
ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्मै ॥ ___ अर्थात् जेना भवरूपी बीजना अङ्करो उत्पन्न करनारा रागादि दोष शमी गया होय तेवा ज कोइ देव होय पछी ते ब्रह्मा, विष्णु, महेश के जिन होय तेने नमस्कार छे. आवी अनोखी स्तुति द्वारा आचार्यश्री स्वसिद्धान्त अनुसार वीतरागदेवस्वरूप दर्शावीने वास्तविक शिवतत्त्वने व्यक्त करे छे.
वैदिक धर्मना त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु, महेशनो विचार जैनधर्म स्वीकारे छे. परन्तु तेनी भावनामा परिवर्तन छे. जगत्सर्जक ब्रह्मा, पालक विष्णु अने संहारक शङ्कर. जगतनी उत्पत्ति, स्थिति अने संहारने न माननार जैन दृष्टि आ त्रण स्वरूपने अक अर्हत के जिनेश्वररूपी मूर्तिना दर्शनरूपे निहाळे छे.
एकमूर्तिस्त्रयो भागा ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः । त एव च पुनरुक्ता ज्ञानचारित्रदर्शनात् ॥ ज्ञानं विष्णुः सदा प्रोक्तं ब्रह्मा चारित्रमुच्यते ।
सम्यक्त्वं तु शिवः प्रोक्तमहन्मूर्तिस्त्रयात्मिका ॥ (४) श्री अर्हन्नामसहस्त्र-समुच्चय :
स्तोत्रना अनेक प्रकारोमां अेक प्रकार छे नामावलि स्तोत्र. आचार्यश्री रचित आ स्तोत्रकाव्य पण आ ज प्रकार, छे. आ स्तोत्रमा अन्य कांइ खास वर्णन प्राप्त थतुं नथी. परन्तु परमतत्त्वना नामना पुनः उच्चारण जोवा मळे छे.
अर्हन्नामसहस्र स्तोत्रनुं बीजं नाम "सिद्धसहस्रनामस्तोत्र'',
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अनुसन्धान-५३ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग-१
"जिनसहस्रनामस्तोत्र" प्राप्त थाय छे. अहीं सो-सो नामर्नु अेक शतक अवा दश शतकमां विभाजित आ स्तोत्रमां भगवान जिननां १००८ नाम आपवामां आव्यां छे. आ स्तोत्र ओक प्रभावक स्तोत्र छे. जेना अन्तमां फलश्रुति लखतां कह्यु छे के आ नामोनुं श्रवण, मनन, पठन के जाप अत्यन्त फलदायी छे. (५) अन्ययोगव्यवच्छेद द्वात्रिंशिका :
आ बत्रीसीमां आचार्यश्रीनी कुशळ कलम द्वारा महावीरप्रभुनी विशद स्तुति करवामां आवी छे. प्रारम्भना त्रण श्लोकमां भगवानना ४ अतिशय (१) ज्ञानातिशय (२) अपायापगमातिशय (३) वचनातिशय (४) पूजातिशय दर्शावीने सीधा ज अन्य दर्शन पर प्रहार करीने तेनी आलोचना करी छे. ४ थी ९ श्लोकमां वैशेषिक दर्शन, १०मा श्लोकमां न्याय दर्शन, ११-१२ श्लोकमां पूर्वमीमांसादर्शन, १३-१४ श्लोकमां वेदान्तदर्शन, १५मा श्लोकमां सांख्यदर्शन, १६-१९ श्लोकमां बौद्धदर्शन, २०मा श्लोकमां चार्वाकदर्शननी खूबीपूर्वक चर्चा करीने निरसन करवामां आव्युं छे.
___ श्लोक २१ थी ३० सुधी जैनदर्शननी प्रतिष्ठा करवामां आवी छे. अन्तमां जैनदर्शननी व्यापकता दर्शावता आचार्यश्री कहे छे के जे रीते बीजा दर्शनोना सिद्धान्त अकबीजाना पक्ष के प्रतिपक्ष बनावाना कारणे ईर्ष्याथी भरेला छे, ओवी रीते अर्हन् मुनिनो आ सिद्धान्त नथी. कारण के अहीं निरूपेलां नयवाद, प्रमाणवाद, सप्तनय, अनेकान्तवाद, सप्तभङ्गी, सकलादेश अने विकलादेश आदि यथार्थ वस्तु छे अनाथी दृष्टि सात्त्विक, तात्त्विक अने मौलिक बनी शके छे. श्लोक ३१-३२मां भगवान महावीरनी स्तुति करी उपसंहार आपवामां आव्यो छे.
डॉ. आनन्दशंकर ध्रुव कहे छे के आ स्तोत्रमा चिन्तन तथा भक्तिनो ओटलो सुन्दर समन्वय थयो छे के आ स्तोत्र दर्शन तथा काव्यकला बन्ने दृष्टिले उत्कृष्ट कही शकाय तेवू छे. (६) अयोगव्यवच्छेद द्वात्रिंशिका :
आ द्वात्रिंशिका स्तोत्रनुं स्वरूप आगळना स्तोत्रनी समान ज छे परन्तु तफावत छे बन्नेनी रजूआतमां. आगळना स्तोत्रमा परमतखण्डन छे ज्यारे अहीं
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स्वमतमण्डन रजू थयुं छे. आरम्भमां भगवान महावीरनी स्तुति करी सरलसरस शब्दोमां जैनधर्मनुं स्वरूपवर्णन रजू करवामां आवे छे. संसारमां आववानुं कारण छे आस्रव अने मोक्षनुं कारण छे संवर. जैन सिद्धान्तनो आ सार अहीं वर्णित छे. अन्य पद्योमां आ ज वातनो विस्तार प्राप्त थाय छे. अनेकान्त मानवाने कारणे कोइपण विरोध आवतो नथी.
द्वात्रिंशिका ओटले बत्रीस श्लोकोनो समूह. आ बन्ने बत्रीसीमां आचार्यनी भाषा-शैली उच्च कवित्व गुणो युक्त छे. दार्शनिकतानी साथोसाथ भक्तहृदयनी लागणीनो तीव्र स्वर प्रगट थयो छे. अन्य दर्शन शाखाओना सिद्धान्तोनुं आलोचनात्मक अवलोकन करीने भक्तिनो सुभग समन्वय सुन्दर रीते अभिव्यक्त कर्यो छे. आ स्तवनो जेटलां दार्शनिक छे तेटलां ज साहित्यिक बनी रह्यां छे.
सार : आ स्तोत्र-सरितामां प्लावित बनीने आचार्य हेमचन्द्रसूरिनुं कवि हृदय वेदना, व्यथा, आकांक्षा श्रद्धापूर्वक प्रगट करे छे. प्रार्थना दरेक धर्मओक अभिन्न अंग छे परन्तु अहीं आपणे जोइ शकीओ छीओ के स्तोत्रकार निजलीनता अने कोमळता व्यक्त करीने पोताना उदार हृदयोनो परिचय आपे छे. जेमां कोइ धार्मिक संकीर्णता देखाती नथी. अन्तरनो उमळको, आत्मनिवेदन अने मानसिक शान्ति अहीं प्रगट थती देखाय छे. स्तोत्रमा चाहे वीतराग होय के महादेव होय तेमां समन्वयात्मक दृष्टिकोण जोवा मळे छे. जेटली श्रद्धाथी तेओ महावीरने नमस्कार करे छे ओटली ज श्रद्धा अन्य देवो तरफ दर्शावे छे. आथी ज कही शकाय के आचार्यश्री जेटला दार्शनिक, आलंकारिक, वैयाकरणी छे तेटला ज कोमल हृदयना आर्द्र भक्तकवि छे.
C/o. अध्यक्ष, संस्कृतविभाग शामळदास आर्ट्स कॉलेज,
भावनगर-१
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अनुसन्धान-५३ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग-१ मध्यकालीन गुजराती कथासाहित्याभ्यास-सन्दर्भ
हेमचन्दाचार्य-कृत 'काव्यानुशासनम्'
हसु याज्ञिक
मध्यकालीन गुजराती साहित्यना कोई पण कथाश्रयी प्रकार ने तेनां स्वरूपोना उद्भव-विकासने, विशेषतः तो दशमी सदीना अना प्रवर्तनने वस्तुलक्षी दृष्टिले जाणवानो अकमात्र दृष्टिपूर्ण लिखित दस्तावेजीरूप मूळ सन्दर्भग्रन्थ हेमचन्द्राचार्यकृत 'काव्यानुशासनम्' छे. संस्कृत मीमांसानो आ ग्रन्थ छे, ओम धारीने मध्यकालीन गुजरातीना लिखित प्रवाहनां रास, आख्यान, पद्यवार्ता, फागु, बारमासी, प्रबन्ध-पवाडा तथा कण्ठप्रवाहनां लोक-महाकाव्य, अर्धसाहित्यिक महाकाव्य - SemiLiteratury Epicना मूळ, विकास, महत्त्वनां लक्षणो वगेरेनो अभ्यास करवामां, प्रस्तुत सन्दर्भग्रन्थनी आंख उघाडनारां तथ्यो प्रगट करती बाबतो तरफ मध्यकालीन गुजराती साहित्यना अभ्यासीओ- बहु ज ओछु ध्यान गयु. अनुं परिणाम ओ आव्यु के आख्यानने छेक चौदमा-पंदरमा शतकमां जन्मेलुं गुजराती- ज आगq नवं स्वरूप मानवामां आव्युं, अने आख्याननो पिता भालण छे, एवं ज स्थापीने चालवामां आव्यु. ख्यात ओवी पौराणिक कथाने देशी गेय ढाळमां रजू करवानी पद्धति तो बार-तेर सदीना रासमां सुनिश्चित थई गई हती अने कडवकनुं माळ पण प्रचारमा आवी गयुं हतुं तथा प्रबन्धमध्ये परबोधनार्थ आवती नलादिनी कथाने ओक कृतिना रूपमां बांधीने गान, पठन अने स्वल्प अभिनयना आधारे अेक ग्रन्थिक द्वारा सर्जाती-रजू थती कृति ते 'आख्यान' ओम अपभ्रंशकाळे ज संसिद्ध थई चूक्यु हतुं. आख्यानना स्वरूप-घडतरना विकासमां भालण- अर्पण अमूल्य छे, ओ विशे कोई प्रश्न नथी ज, परन्तु 'आख्यान' अपभ्रंशनो ज सीधो वारसो धरावतुं स्वरूप, ते आ काळे ज जन्म्युं ने संसिद्ध थयु, ओम धारी लईने चालवू, ते तथ्य- अज्ञान गणाय. मध्यकाळनां रास, फागु, 'प्रबन्ध' जातिप्रकार Literary Gnre ऐतिहासिक घटनामूलक घटकअंगो, अन्तरअङ्ग विषयवस्तु-बहिअङ्ग निरूपण-माळखुं के अनु निर्वहण, अनी रजूआतनुं स्वरूप, हस्तप्रतरूपे मळतो
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मूळ आधाररूप कृतिपाठ अने तेनी रजूआत Performance माटेना पाठ (text) वच्चेनो केटलोक भेद : आ सन्दर्भे हजु आजे पण अभ्यासीओमां ज कोइ स्पष्टता नथी. कण्ठप्रवाहनां लोकमहाकाव्योनी सुदीर्घ परम्परा अपभ्रंशोत्तरकाळनी मध्य, उत्तर, पश्चिमक्षेत्रनी विविध नवी नवी जन्मेली आर्यभाषाओमां हती, जे 'आल्हा', 'ढोलागान', 'बगडावत - कथा' (अनुं भीलीरूप गुजरांनो अरेलो), 'पाबूजीकथा' (अनुं भीलरूप राठोरवारता), रामकथाकृष्णकथा-पाण्डवकथा - नाथकथा वगेरेना अनेक स्थानिक जाति - बोलीगत रूपान्तरो दशमी सदीथी चौदमी सदी सुधीना ४०० वर्षना सुदीर्घ गाळामां प्रवर्तता हता ने जेनां नहोतां तो लिखित प्रवाहमां कृतिरूप बंधायां के नहोतां तो लिखित प्रवाहमां महाकाव्य दाखल कोइ वृत्तिनी रचनानां उद्यम - साहस ! आथी, नवी जन्मेली आर्य भाषाओ New Indo-Aryan Languages मां लोककाव्य हतां ज नहीं, आवुं ज धारी - मानी - स्वीकारी लेवामां आव्युं. आनुं मूळ कारण ओ के, आ बधुं ज स्पष्ट रूपमां जाणवानी लिखित दस्तावेजी सामग्रीने, अ संस्कृतमां ज मीमांसानां रूपमां लखायेली होवाने कारणे, ओ बधी ज परम्पराओ संस्कृत भाषानी मानी लेवामां आवी. संस्कृतना अभ्यासीओए जे अभ्यास कर्या ते सहज छे के संस्कृतनी ज परम्पराने जाणता होय, मध्यकालीन लिखित परम्परा के लोकसाहित्य तरीके वर्गीकृत थई गयेली कण्ठपरम्पराने जाणता न होय. मल्टी डायमेन्शनल, मल्टी डिसिप्लिनरी अप्रोच ने कम्पेरेटिव स्टडीनुं महत्त्व प्रमाण्या पछी पण, आपणा अभ्यासमां केन्द्रमां तो मात्र सम्बन्धित लिखित ने प्रशिष्ट मनातुं साहित्य ज रह्युं ! ओ पण एकांगी'साहित्य' ओटले शब्दाश्रयी कला. अ कलाने आपणा पूर्वना मीमांसकोअ क्यारेय आवी मर्यादित मानी नथी, ओना दृश्य-श्रव्यरूपने, रजुआतना माध्यमने पण दृष्टिमां राख्यां छे अने 'साहित्य' कलाना शब्दाश्रयना अंगने मूळ ने मुख्य मानवा छतां, ओनी कृतिनी रजुआतमां संगीत, नाटक, नृत्यनो संयोजित विनियोग थाय छे, ते दृष्टिमां राखे छे. 'संगीत' अ पर्याय ज 'म्युझिक' (to muse, आनन्द आपवो) नी अपेक्षाओ विशेष सूक्ष्म ने सूचक छे. न केवळ स्वर, न ओना संयोजननुं स्वरूप, परंतु 'नृत्येन, गीतेन, वाद्येन सहितम्' अ आ पर्यायने बांधे छे. नाटकमां, रसतत्त्व, अनुं मनोवैज्ञानिक पासुं, 'औचित्य’ अना व्यवहार सामग्रीना विनियोग, उपयुक्तताने, 'गुण' ओना समग्र समन्वित
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अनुसन्धान-५३ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग-१
कलाना रूपने, 'दोष' अनां भयस्थानने-क्यां जवं, क्यां न जवं, thus far and no further ना सीमाडाने. Line of demarkation –चोक्कस रीते ने रूपे बांधे छे. कलास्वरूपनी समग्रता – totality, बहुआयामी – Multidimentional - स्वरूपने दृष्टिमां राखीने चाले छे. आम, पूर्वनी कलामीमांसा विकसित ने पूर्ण रही छे.
भरतादि पछी समयान्तरे विविध ग्रन्थो रचाया अमां सर्जनमूळ, कृतिनां घटकअंगो अने भावन-मूल्यांकननी प्रक्रिया, अनुं स्पष्ट रूप प्राचीन ग्रीक अने भारतीय आर्य परम्परामां बंधायां. विविध काळना ग्रन्थोमां कलानो, अनी विकसती विभावनाना बन्धाता-विकसता जता रूपमा आलेख मूर्त थयो छे. ज्यां
केटलुक नवं के विशेषित आव्युं ओने आपणे नवोन्मेष के दृष्टिपूर्ण अभिनव सिद्धान्त प्रस्तुतीकरण-स्थापन तरीके स्वीकार्यु अने जे मीमांसकोओ सूत्रात्मक रूपमां पूर्व संचित सिद्धान्तनुं निरूपण कर्यु तेमनो 'समन्वय-कार'मा समावेश को. आ दृष्टिले मम्मट अने हेमचन्द्रने समन्वयकार तरीके विशेषतः ओळख्याओळखाव्या. पूर्वसंचितनुं नवनीत सूत्रबद्ध करवू, ओ समन्वयकार- मुख्य कार्य मनातुं आव्युं छे, त्यारे विशेष ध्यान से बाबत पर खेंचावं जोईओ, के आ वर्गना मीमांसको अने तेमना ग्रन्थो मात्र सारसंक्षेप के दोहन नथी ज. अमां एमनी पोतीकी दृष्टि, सूझ ने केटलीक आगळ जोवा न मळती होय तेवी स्थापना पण होय छे. कथानुं दृष्टान्त आपीने स्पष्टता करीओ तो 'हंसावती'नी कथाना असाइतथी आरम्भीने ते शिवदास सुधी ने तेथी पण आगळ जे कथाकृतिओ रचाइ, हंस-वत्स पर जैन स्रोतमां अनेक रासरूप रचनाओ थइ के पछी माधवानल, मारुढोला, सदेवंत-सावलिंगा, नळकथा, सगाळशाकथा ने बीजी ओवी अनेक कथाओ पर समय-समये जे अनेक कृतिओ रचाई तेमां अनेकनी ओक कथा, अना ओ ज स्वरूपमां नथी आवी. भाषा अने सामाजिक परिस्थितिमा जे परिवर्तनो आव्यां, अटलां ज नवी कृतिमां छे अq नथी. आ उपरान्त पण ओ कथाओ पाछळ रहेला रचनाहेतु, समकालीन कण्ठपरम्परानां उमेरण-संवर्धन-रूपान्तर अने खास तो अना निरूपकनुं दृष्टिबिन्दु, प्रचलित ओवी कथामांथी पण नवी ज ओवी कृतिरूप रचना करे छे. अने कर्तानी सर्जकता, कल्पकता, दृष्टिबिन्दु - point of view ने केटलुक नवं ज अर्थदर्शन
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जूनी कृतिने नवं ज सर्जक रूप आपे छे. प्रत्येक रचना आ दृष्टिले मात्र Old wine in new bottle नथी, ‘वाइन'ने 'विन्टाझ' (आथो) पण जुदां होय छे. आq ज मीमांसानां सूत्रात्मक अने समन्वित मनातां रूपमां छे. बधुं साररूपे सूत्रबद्ध करवामां मम्मटाचार्यनी पोतानी आगवी दृष्टि छे, हेमचन्द्राचार्यनी पण अम आगवी दृष्टि छे. समन्वयकार मात्र सारदोहन, संक्षेप आपतो नथी; पोतानां ज्ञानपरिशीलन, स्वाध्याये अने जे केटलुक नवं लाध्युं छे, ते अना केन्द्रमां छे. हेतु मात्र जे चर्वित छे तेने सूत्रबद्ध करवानो ज नथी, जे केटलुक स्वीकार्य छे, जे केटलुक अस्वीकार्य छे ने केटलुक अकदम नवं ने जू, छे, ते अना केन्द्रमां छे. दृष्टान्तथी कहीओ तो काव्य-प्रयोजनमां मम्मटने यशसे, अर्थकृते, व्यवहारविदे, शिवेतरक्षये दृष्टिमां आवे छे, 'आनन्द' उपरान्त, ज्यारे हेमचन्द्राचार्यने 'अर्थकृते, व्यवहारविदे, शिवेतरक्षये' स्वीकार्य नथी. ओमना मते काव्यनां आनन्द, यश अने प्रीतिपूर्ण उपदेश मुख्य छे. आ तो स्पष्टता माटेनुं ओकमात्र दृष्टान्त छे. आ रीते ज रस, भाव, दोष, गुण, अलङ्कारमा पण मीमांसक तरीकेनी अेक पोतीकी मुद्रा छे. अने विशेष छे ते जे जे साहित्यप्रकारो, जातिओ, स्वरूपो वगेरेमां भरत, कुन्तक, अभिनवगुप्त, आनन्दवर्धन, मम्मट, महिम भट्ट, धनञ्जय द्वारा जे कंइ कहेवायु-चर्चायुं अनुं पश्चिम भारतना मारु-गुर्जर क्षेत्रमा दशमी सदीमां जे रजूआतमां प्रतीत थतुं विशेष रूप छे, तेनुं ज केटलुक नवं जे अन्यनी मीमांसामां नथी ते छे. ओ तो जाणीतुं ज छे के माळवाना गुजरात माटेना हीनभाव-वचनमांथी जन्मेलो 'तोलाङ्गलो, वधूमुखविक्षमाणो, भ्रष्टमुखो' होवानो गुजरात-गुजरातीता पर तिरस्कारनो भाव छे तेनो ज जवाब हेमचन्द्राचार्यनी अनुशासन-त्रयी छे. आम छतां केवळ विद्याने ज वरेला आ शीलवान मीमांसके भोज वगेरेनो छोछ नथी राख्यो. अमनां पण उद्धरणो अमणे चर्त्यां छे.
___ 'काव्यानुशासनम्' अने स्वोपज्ञटीका 'विवेक' हेमचन्द्राचार्यना मुख्य मीमांसाग्रन्थो छे. 'काव्यानुशासनम्'ना कुल ८ अध्यायमां, २०८ सूत्रोमां १. काव्यलक्षण, २. रस, ३. दोष, ४. गुण, ५. अलङ्कार (शब्द), ६. अर्थालङ्कार, ७. नाट्य अने ८. प्रबन्धात्मक काव्यभेदनी स्थापना-चर्चा तेओओ करी. ओ पछी विशेष चर्चा १. अलङ्कारचूडामणि अने २. काव्यानुशासन परनी 'विवेक' नामनी टीकामां करी. अहीं कथासन्दर्भ, खास करीने मध्यकालीन लिखित
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अनुसन्धान-५३ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग-१ परम्परानी गुजराती कथाओ अने कण्ठपरम्परानी लोककथाना अभ्यासनी दृष्टिले महत्त्वनो अध्याय - ८ छे, तेथी, तेनी विगत क्या-केटलो-केवो प्रकाश पाडे छे ते उत्तरार्धमां जोइओ. विशेष सूझ ने दृष्टिपूर्ण, केटलीक दृष्टिले तो अभूतपूर्व अq 'प्रबन्ध-काव्य'नुं वर्गीकरण छे. अने आलेखना रूपमां आरम्भे जोइओ :
प्रबन्धात्मक काव्य
(१) प्रेक्ष्य
(२) श्राव्य
गेय
पाठ्य महाकाव्य आख्यायिका कथा
चम्पू
डोम्बिक नाटक वगेरे
१. उपाख्यान भाण
२. आख्यान वगेरे
३. निदर्शनकथाथी
बृहत्कथा सुधीना
कुल ११ प्रकार अहीं कथाविषयक समग्रदर्शी विभावना अने वर्गीकरणनी दृष्टिले लगभग छेवटनुं अने सर्वने स्वीकार्य बने अर्बु सूत्रबद्ध अर्बु कार्य हेमचन्द्राचार्य द्वारा सिद्ध थयुं छे. कथाना प्रकारोनी चर्चा अग्निपुराण, अमरकोश, अलङ्कारसङ्ग्रह, काव्यालङ्कार वगेरेमां मळे छे. भामह, विश्वनाथ, आनन्दवर्धन, दण्डी वगेरेओ पायानी चर्चा पण करी छे, परन्तु तेमां क्यांय हेमचन्द्राचार्यना वर्गीकरणमां छे तेवू, युरोपीय-ईरानी-भारतीय ओ त्रणे आर्यपरम्परानी प्राचीन-कथाओगें, अना प्रकार अने वस्तुगत भेद तथा रजूआत जेवां बधां ज मुख्य अङ्गो हस्तामलकवत् बनतां नथी. कथा अने आख्यायिकाना स्थूल भेदमां ज क्यांक चर्चा अटवाई जती होय अq पण लागे छे. अहीं 'प्रबन्धात्मक काव्य'ओ जातिसंज्ञा ज, कथाना गेय, अभिनेय अने नृत्य ओवा त्रणेने उचित वर्गमां स्थापे
अहीं अध्याय-८ना आरम्भे ज काव्यने 'प्रेक्ष्य' अने 'श्राव्य' ओम बे
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प्रकारोमां वहेंचे छे. अहीं 'प्रबन्ध'नो अर्थ 'जे कृतिमां कोई अक मुख्य कथा आदि, मध्य अने अन्तथी, गद्यमां वा पद्यमां, क्वचित उभयमां पण आलेखवामां आवी छे ते? ओम अध्याहृत छे, परन्तु पायामां छे. आ दृष्टिले रास, आख्यान, पद्यवार्ता-कथानो पण ज्यां आश्रय छे तेवा ऋतुकाव्यो (फागु-बारमासी) वगेरेनो पण समावेश थाय छे. गणपति कायस्थे माधव अने कामकन्दलानी प्रेमकथा २,५०० दुहाओमां लखी तेने, आ अर्थमां ज 'माधवानल-कामकन्दलादोग्धकप्रबन्ध' ओवा कृतिनामे ओळखावी. पूर्वेना अने पछीना जैनस्रोतना रचयिताओओ गेय, ढाळनी देशीओमां जे जे कथाओनां आदि-मध्य-अन्त बांध्यां तेने 'रास' संज्ञा आपी, पौराणिक कथाओनां पूर्ण ने स्वतन्त्र कथानको भालण-नाकर-प्रेमानन्द वगेरेओ गेयढाळमां बांधीने आप्यां तेने 'आख्यान' संज्ञा आपी, जे अपभ्रंशकाळे पण अस्तित्व धरावती हती. जेमणे मुख्यत्वे मनोरञ्जक प्रकारनी कथाओ विशेषतः दुहा-चोपाईनो ज उपयोग करीने आपी तेमणे आवी रचनाओने 'अमुकना दुहा' के 'अमुकनी चोपाइ' अवा नामे ओळखावी. छे तो आ बधां ज रास, आख्यान, पद्यवार्ता 'प्रबन्ध' ओटले के जेमां कोई ओक मुख्य कथा आदि-मध्य-अन्तथी कोई अक कृतिना रूपमां बांधवामां आवी छे, तेना ज प्रकारो. प्रबन्धना ज आ स्वरूपगत भेद धरावता प्रकारो जुदा पड्या ते तेमां प्रयोजायेला छन्दबन्धने कारणे. जेमां मात्रामेळना ज छन्दोमां केटलाक उमेरण करीने गेय ढाळमां वपराता हता अवा 'ढाळ' के 'देशी'ओमां जे जे कथाश्रयी प्रबन्धो लखाया, गान साथे रजू थया, तेने जैन स्रोतमां 'रास'नी अने जैनेतर स्रोतमां 'आख्यान'नी रचना तरीके ओळख मळी. रह्यो त्रीजो मोटो वर्ग कथाओनो, जे दुहा-चोपाइना सळंगबन्धमां रजू थती हती ने अना कर्ताओओ पोते तो 'दुहा' के 'चोपाइ' ओवी संज्ञा आपेली, छेक शामळ सुधी पण केटलाके 'अमुकनुं आख्यान' ओम पण कह्यु, तेने आधुनिक अभ्यासीओओ 'पद्यवार्ता' ओवी स्वरूप-संज्ञाओ ओळखावी. आम करवामां ‘पद्यवार्ता'ने 'रास' अने 'आख्यान'थी जुदा पाडती ओळख-संज्ञाने, ‘स्वरूप' Literary Form तरीके लईओ, स्वीकारीओ तो अमां कशुं खोटुं के अयथार्थ नथी, केमके, पद्यवार्ताने पण 'रास' अने 'आख्यान'थी जुदां पाडतां केटलांक लक्षणो तो परम्परामां सिद्ध थयां ज छे. परन्तु, अहीं, मध्यकाळना अभ्यासीओओ, लक्षमां राखवानी जरूर ओ हती के आ त्रणे स्वरूपो छे तो 'प्रबन्धकाव्य'ना भिन्न
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भिन्न प्रकारो अने वर्गो. 'प्रबन्ध' आम, हेमचन्द्राचार्ये जे रीते मूकी आप्युं छे ओ रीते तो ओक मुख्य वर्ग छे, जाति-प्रकार छे.
आ ध्यानमां न रह्युं ने कान्हडदे - प्रबन्ध पर ज ध्यान रह्युं अने अपभ्रंशकाळमां तथा पछी कुमारपाळ वगेरे औतिहासिक पात्रोविषयक कथाश्रयी रचनाओ 'प्रबन्ध' नामे / शीर्षके ओळखाई तेथी जे कथानां पात्र अने घटनाओ ऐतिहासिक मनातां होय ओमनी कथाओने जुदी पाडवा 'प्रबन्ध' ने पण रास, आख्यान, पद्यवार्ता जेवुं भिन्न ने स्वतन्त्र स्वरूप मानीने चालवामां आव्युं, चलावी लेवामां आव्युं. ओ भिन्न स्वरूप जरूर छे. रास अने आख्यानथी औतिहासिक मनातां पात्र - घटनानो आधार लेती कथाओ जुदी पडे ज. परन्तु अने माटे 'प्रबन्ध' जेवो जाति माटेनो निश्चित थयेलो पर्याय अपनावतां सेळभेळ थाय. वळी, ‘रणमल-छन्द' ने ओवी आ कुळनी बीजी 'पवाडा' नी रचनाओनुं शुं ? अ पण प्रबन्ध ? 'पवाडा' ना मूळमां 'प्रवाद' छे, 'प्रबन्ध' नहीं. पवाडा दक्षिणमांथी, महाराष्ट्रमांथी आवेल प्रकार अने संज्ञा छे. महाराष्ट्री अपभ्रंश सा अनो सीधो अनुबन्ध छे. मराठा / आक्रमणो अने शासनना गाळामां, दक्षिण गुजरातमां आदिवासी बनीने वसी गयेली महाराष्ट्री - खानदेशनी बोली बोलनार द्वारा तथा मराठीमां कोई विजेताने बिरदावता 'जीतगेला' टुक धरावती रचनाओ 'पवाडा' तरीके गवाती होवाने कारणे गुजरातमां पण आ पर्याय प्रयोजातो थयो . दक्षिण गुजरातनी आदिवासी परम्परामां सीतानो पवाडो छे. सीताजीनो समावेश पौराणिक पात्रमां थाय, औतिहासिक युगना आरम्भ पहेलाना समयगाळामां, इतिहासमां नहीं. छतां ओ रामकथानी कण्ठपरम्परानी आदिवासी रचनामां ज सीतानो पवाडो ओवो प्रयोग थयो छे. जातिना वीरनी बिरदावली गावी, अनी जीतने गानथी वधाववी से बृहत् सेवा आर्यकुळनी जातिनो प्रचलित, परम्परागत प्रकार छे, जेनो कुळमूळगत जातिप्रकार रीते सम्बन्ध 'आख्यायिका' साथे छे, 'कथा' साथे नहीं. परन्तु 'प्रबन्ध' मां से बन्ने छे - प्रबन्धनी जे मूळभूत जातिप्रकारनी ओळख छे त्यां. जेने छन्द, अष्टक, पवाडो वगेरेथी ओळखावी छे ते रचनाओना ज कुळमां बिरदावली, प्रशस्ति Ballad, Heroic poetry नो समावेश थाय छे अने अमांथी ज काळक्रमे Folk - epic, Semi - Literary epic अने प्रशिष्ट मनातां Classical epic विकस्यां छे. हेमचन्द्राचार्ये अध्याय ८/
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सूत्र २००मां पहेलो ज समावेश साहजिक क्रमे महाकाव्यनो करी सूत्र २०१
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(८/६)मां महाकाव्य- लक्षण बांधतां जणाव्युं छे के महाकाव्य मुख्यत्वे संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश तथा ग्राम्य भाषामां रचाय छे. अहीं नोंधपात्र छे ते 'ग्राम्यभाषा' अटले के मारु-गूर्जरमां बोलाती लोकबोली. ई. ८५०मां गुजराती जन्मी चूकेली अने 'कुवलयमाला' मां आ प्रदेशमां वसता लोकोमा अमे, तमे, भलु, बोलातुं लिखित दस्तावेजी रूपमां मळे छे. ओनो अर्थ ओ के हेमचन्द्राचार्य अने सिद्धराजनी व्यवहारभाषा तो बोलाती गुजराती ज हती, मारु-गूर्जर हती. अमां साहित्य पण रचवानी परम्परा न हती अथी संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंशमां रचायु. परन्तु हेमचन्द्राचार्य ज्यारे महाकाव्य अंगे सूत्र २०१मां ‘पद्यं प्रायः संस्कृतप्राकृतापभ्रंशग्राम्यभाषानिबद्धं' ओम लखे छे तेनो अर्थ ओ के ते समये जे मारु-गूर्जर Old Western Rajastani हती अमां पण 'वृत्तसर्गाश्वाससन्ध्यवस्कन्दबन्धं सत्सन्धि शब्दार्थवैचित्र्योपेतं' अवां महाकाव्यो रचातां हतां. अहीं ज स्पष्ट थशे के आचार्यश्रीओ मात्र लिखित अने प्रशिष्ट मनाती महाकाव्यनी परम्पराने ज दृष्टिमां राखीने सूत्रबद्ध नथी कयुं, बोलाती बोली वा भाषानी तत्कालीन प्रवाह-परम्पराने पण दृष्टिमां राखी छे. अहीं जेने Folkepic के बारोटी परम्परानुं Semi-literary epic कहीओ छीओ, Heroic Narrative तरीके उल्लेखीओ छीओ तेनो ज निर्देश ने सूत्र-व्याख्यामा समावेश छे. आचार्यश्रीने अमना समयनी जीवती लोकपरम्परानो प्रत्यक्ष परिचय अने अनुं पण साहित्यिक मूल्य स्वीकृत न होत तो ओमणे पण बीजांनी जेम, आवी लोक-परम्पराना साहित्यने मीमांसाग्रन्थमां समाविष्ट कर्यु न होत ! आ कारणे तथा अपभ्रंश-व्याकरण निमित्ते दृष्टान्तमां लोक-कण्ठपरम्पराना दुहाओ मूक्या छे. (आथी ज आ लखनारे अना गुजरातीमां लखायेला सर्वप्रथम Folkloristics, लोकविद्याविज्ञानमां, लोकविद् folkloristमां हेमचन्द्राचार्यने गुजरातना आदि लोकविद्याविद् तरीके दर्शाव्या छे.) लोकपरम्परानां विविध लोकमहाकाव्यो, जेनो आरम्भमां निर्देश को छे, तेमां 'सर्ग' माटे 'साक'नो प्रयोग थाय छे. आ शब्द वैदिक-काळनो छे. 'रुद्राष्टाध्यायी'ना त्रीजा अध्यायना पहेला ज मन्त्रमा 'शतम् सेना अजयत् साकम् इन्द्रः' सो सो योद्धाओ धरावती सेना पर विजय प्राप्त करवो ते इन्द्रनुं पराक्रम छे. आने आधारे ज जातिने उगारनार विजेता वीर माटे 'ओके हजारा' प्रयोग आजे पण थाय छे. अने आवा वीरनी 'साक' अटले के पराक्रमगाथाने 'निहालदे सुलतान' जेवा लोकमहाकाव्यमां
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'साका' तरीके ओळखावी छे. सर्ग, लम्बक, लम्भक, साक, तरङ्ग - वगेरे मध्यम कदनी तथा मोटी कथाओना खण्डो के विभाग माटे चर्चाय छे. आम, 'कान्हडदेप्रबन्ध'ने अन्य आधारे वीरगाथा माटे 'प्रबन्ध' के पछी 'पवाडो' वापरीओ छीओ, ते आ दृष्टिले संशोधनपूर्ण पुख्त चर्चा-विचारणा-निराकरण मागे छे ने तेमां हेमचन्द्राचार्यना आठमा अध्यायने दृष्टिमां राखवो उपयोगी बनशे. नाटक, रूपक वगेरेनी पण चर्चामां अनेक प्रकारो ओवा छे, जेमां ते काळनी गुजरातनी प्रशिष्ट ने लोक बन्ने रङ्गमंचीय कलाओने अनां मूळ साथे जाणवानी महत्त्वनी सामग्री छे.
__ अध्याय : ८नुं ओक नवं, दृष्टिपूर्ण अने संशोधनमां खूब ज अनिवार्य रूपमा उपयोगी कार्य छे ते १. उपाख्यान अने २. आख्यान पछीना कुल नव (९) कथाप्रकारो ३. निदर्शन ४. प्रवल्हिका ५. मन्थल्लिका, ६. मणिकुल्या छे. पछीना ९ सकलकथा १० उपकथा अने ११ बृहत्कथा पण कथानकना कद वगेरेनी दृष्टिले तथा स्वरूपनी दृष्टिले महत्त्वनां छे.
_ 'आख्यान' सन्दर्भ सूत्र २०३ अनुषङ्गे लख्युं छे : 'प्रबन्धमध्ये परबोधनार्थं नलाधुपाख्यानमिवोपाख्यानमभिनयन् पठन् गायन् यदेको ग्रन्थिक : कथयति तद् गोविन्दवदाख्यानम्'. प्रबन्ध-ओटले के गद्य के पद्यमां बन्धायेली कथानी कृति. ओटले के महाभारत वगेरे. अमां अन्यने बोध आपवा माटे जे कथा कहेवाती होय तेने कोइ ओक ग्रन्थिक स्वतन्त्र कृतिना रूपमां बांधे अने अभिनय, पठन, गान साथे / माटे ग्रन्थमां बान्धे - आवी कथा ते आख्यान. भालणथी आरंभी प्रेमानन्द सुधीना आख्यानकारोनी रचनाओमां जे छे ते आ सूत्रमा छे. अनो अर्थ ओ छे के दशमी-अगीआरमी सदीमां 'आख्यान' छे. आवी कृतिना पदबन्धमां गेय देशी ढाळ क्यारे वपरातो थयो, अना कडवकना अंगे कया कया तबक्के विकस्या : आ बाबत विशेष संशोधन मागे छे, परन्तु गुजरातीना जन्मना समये अपभ्रंशमां तेमज आचार्यश्रीनो ज बोली माटेनो पर्याय प्रयोजीने कहीओ तो ग्राम्यभाषामां 'आख्यान' हतुं. अनो ज विकास पछीना तबक्के थयो.
कथानी आन्तर-सामग्री Content of the tale अने तेनुं कृतिमां बंधाता रूपनी-अटले के Form-दृष्टिले निदर्शन, प्रवल्हिका, मन्थल्लिका,
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मणिकुल्या अहीं पहेली ज वखत चर्चाया जणाय छे. अगाउ क्यांय आ विशे केटलुक लखायुं होय ते आ लखनारना ध्यानमां न होय तेवू बने. परन्तु कथाने, आ रीते अना कथागत रूपने अने अना प्रयोजित रूपने आधारे वर्गीकृत करवानुं कार्य हेमचन्द्राचार्य पहेलां थयुं लागतुं नथी. 'काव्यानुशासनम्' अने 'विवेक'मां केटलांक दृष्टान्तो छे. पछीनी गुजराती कथानी कृतिओमां आ प्रकारनी कथाओ विशेष लखाई छे. कथा- आ वर्गीकरण, अनु कथानकजन्य आन्तर-स्वरूप अने कथा-कथाने जोडती भूमिकाकथानी पद्धति : अहीं सूत्रबद्ध बनी छे. मध्यकालीन कथाओ उपरान्त लोककथा Falktale माटे पण आ प्रकारो अभ्यासोपयोगी छे.
नीति के व्यवहारज्ञान माटे ज्यारे पशु, पक्षी के अन्य निम्नपात्रनुं कथावृत्तान्त प्रयोजाय त्यारे अने निदर्शन कहेवाय. अना दृष्टान्तमां पंचतन्त्र अने कुट्टनीमत दर्शाव्या छे. अहीं Animal Story प्राणीकथा, Fable अने Parable बन्नेनो समावेश छे. 'फेबल'मां नीतिउपदेश माटे जे दृष्टान्तरूप कथा कहेवाय ते Animal Story छे. अमां पात्रस्थाने पशु, पक्षी वगेरे छे. आवी ज नीतिकथारूपे, दृष्टान्तरूप कथामां प्राणीने बदले मानव ज पात्ररूपे होय तो अने 'पेरेबल' कहेवाय. ईसपनी कथाओ ‘फेबल' छे, टोल्स्तोये लखेली बोधकथा 'पेरेबल' छे. माणसने जोइ जोइने अन्ते केटली जमीन जोइमे, अनी कथा टोल्स्तोय आपे छे. सांजनो सूरज ढळे त्यां सुधीमां जेटली भूमि पर दोडी वळे ओटलीनो मालिक : आ माटे लोलुप मोहवश अटलुं दोडे छे के अन्ते सूरज ढळे छे त्यारे ओ पण थाकातिरेके ढळी पडे छे ने बे गज जमीन-कबर माटेनी ! स्पष्टतः अहीं बोधकथा छे. नीति के बोध माटे दृष्टान्तरूपे कहेवाती कथा ते निदर्शनकथा, दृष्टान्तकथा.
अहीं कोइने प्रश्न अ थाय के कुटणीओ कहेली कथाने आ वर्गनी केम कहेवामां आवी ? नीतिदृष्टि), मानव छतां पशुवत् होवाने कारणे ? मूळ कृति जाणता न होय तो आवो प्रश्न थाय. 'कुट्टनिमतम्'मां ओक युवान वाराङ्गना कुटणीनी पासे आवी कहे छे : 'मारी पासे कोई नवो, युवान, समृद्ध पुरुष ओक वखत आवे छे. कोई कायमी मने पाळनारो, पोषनारो, चाहनारो नथी. आवो ग्राहक केम पामवो ?' आ मतलबनी पृच्छानो जवाब आपता
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अनुभववृद्ध कुट्टणी, प्रयोजित मनोविज्ञान Applied Psychologyनो उपयोग करीने कहे छे : 'बधा आवे छे ओक वखत नावीन्य माटे ! वाराङ्गनागृहे आवनारने गृह, पत्नी, गाम बधानी उपरवट जई आवq पडे छे. दरेक वखते कंइ माणस आवां विघ्नोनी उपरवट थइने न आवे !' युवान वाराङ्गना पूछे छे : 'उपाय शो ?' कुट्टणी कहे छे : 'आवनारने, मात्र नावीन्यथी अकवार साहस करीने आवनारने लागवू जोइओ के अने मन-हृदयथी उत्कटतम रूपे चाहनार, प्रेम करनार तो मात्र तुं ज छे. जो अनी तुं प्रतीति करावी शके तो ज तारो प्रेमी बधा सामेनो कायमी विरोध करीने पण तारी साथे रहे.' आम कही काशीराज अने वाराङ्गनानी कथा कहे छे. प्रेम मात्र करवानी, देखाडवानी वात नथी. सामाने खातरी थाय अq करवानी आवडतनी वात छे. अहीं जोई शकाशे के केन्द्रमां अेक विचार छे, सिद्धान्त छे, एने पुष्ट करवा माटे कहेवाती कथा छे तेथी ते निदर्शन-कथा छे. आम सूत्रबद्ध ओवा वार्ताप्रकारने समजवा माटे, पुष्ट करवा माटे जे कथा- दृष्टान्त अपायुं होय, ते कथाने पूरा सन्दर्भ साथे जाणता होइओ त्यारे ज मूळ वात पकडाय छे. आम, दृष्टान्तकथा, निदर्शनकथा भारतीय प्राचीन-मध्यकालीन साहित्यनो व्यापक प्रकार छे, जे तेना ‘हेतु'नी दृष्टिले वर्गीकृत छे. कोई वात, वाद, दृष्टान्तने पुष्ट करवा माटे जे कथा प्रयोजाय ते निदर्शन-कथा. आ बराबर दृष्टिमां होय तो ज 'प्रवल्हिका'र्नु सूत्र पकडाय. ओ विशे कहे छे :
'प्रधानमधिकृत्य यत्र द्वयोर्विवादः' कोई अकने राखीने थतो बे वच्चेनो विवाद ते प्रवल्हिका.
अहीं 'प्रधानम् अधिकृत्य'नो अर्थ क्यारेक भूल-थाप खवडावे. ओ ज रीते 'विवाद' पण. 'प्रधानम्' अटले मुख्य ने मध्यस्थी ओवी कोई व्यक्ति नहीं, परन्तु 'प्रधानम्' अवो कोई विषय, कोई वाद, कोई सिद्धान्त, कोई मान्यता. अने 'विवाद' ओटले मात्र वातचीत के दलील नहीं, परन्तु पोताना मत, विचार, वाद, दलील वगेरेने पुष्ट करतुं निदर्शन. पक्ष ने प्रतिपक्ष बन्ने पोतपोताना मतने पुष्ट करती दृष्टान्तकथा कहे, निदर्शन-कथा कहे. अेक पक्ष ओक कथा कही अक वात स्थापे ते तोडवा बीजो पक्ष बीजी कथा मांडे, जे अना पक्षने दृढ करे ने सामेना पक्षनी दलील- खण्डन करे. आम, आ
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प्रकार निदर्शन- शृङ्खला - संयोजननो छे. जे कंइ कहेवाय, स्थपाय के रदियो अपाय, तेने निदर्शन द्वारा पुष्ट करवुं पडे.
आना दृष्टान्तरूपे अर्धप्राकृतमां लखायेली चेटक दर्शावी छे. ओ कथा प्रकाशमां नथी, परन्तु जैन अने जैनेतर बन्ने स्रोतमां 'प्रारब्ध वधे के पुरुषार्थ' नी कथा मळे छे. विशेष लाक्षणिक उदाहरण शामळनी 'उद्यमकर्मसंवाद' छे. ओमां ओक पात्र कहे छे प्रारब्ध ज मुख्य छे, प्रतिपक्ष कहे छे पुरुषार्थ. अ बन्ने प्रारब्ध अने पुरुषार्थने पुष्ट करतां दृष्टान्तो आपे छे. आम, केवळ वाद, वात, मान्यतानी अभिव्यक्ति नहीं, परन्तु तेने पुष्ट करती दृष्टान्तकथा ने अनी शृङ्खला अहीं रचाय छे. 'चित्रकारदुहिता' मां के वेताळ-पचीशी' मां जे प्रश्नगर्भकथाओ ओक भूमिकाकथाने आधारे संकळाती जाय ने कथानक विकसतुं जाय, ओवी भात - पेटर्न - छे. अहीं दलील छे, अने पुष्ट करतां नानां नानां कथानको वार्तानुं कथानक घडे छे. आम आ प्रकार प्रवलिकानो पेटा संलग्न अकम निदर्शन - कथानो छे.
'मन्थल्लिका' कथा प्रकार हास्य- मजाकनो छे. ओमां उपहास पाछळ तिरस्कार, ऊतारी पाडवानी भावना पण होय; तो क्वचित अमुक जाति-वर्गनी खासियतने निमित्त बनावीने हसाववानो पण होय. आवी कथामां पुरोहित, अमात्य, तापस वगेरे स्थानथी उच्च वर्गनां गणातां पात्रोनो उपहास करवानो होय. प्रेतमहाराष्ट्र भाषामां ओटले के पैशाचीमां लखायेली क्षुद्रकथा, गोरोचना, अनङ्गवती वगेरेने दृष्टान्तरूपे हेमचन्द्राचार्य दर्शावे छे. तेमां प्रथम बे प्रकाशमां आवी जणाती नथी. भरटकबत्रीशी अने विनोदकथानां कथानकोने आ प्रकारमा मूकी शकाय. वैदिक, बौद्ध अने जैन से त्रणे भारतीय आर्यधर्मनी जुदी पडती शाखाओनां साहित्यमां सामा पक्षने उद्देशीने आवी कथाओ कहेवाती थयेली.
'मणिकुल्या' नुं लक्षण हस्तामलकवत् करतुं हेमचन्द्रीय सूत्र छे : 'यस्यां पूर्ववस्तु न लक्ष्यते पश्चात् तु प्रकाश्यते' ओटले के ओमां पूर्वे जे घटना घटी गइ होय तेनुं कोई ज वीगत साथे वर्णन - निरूपण थतुं नथी, परन्तु ते पछी कोई चतुराईथी अनुमान - सम्भावनादिना आधारे अ घटना केवी रीते घटी हशे, तेना पर प्रकाश पाडे छे. हेमचन्द्राचार्य ओना दृष्टान्त तरीके 'मत्स्यहसिता' दर्शावे छे. सम्भवतः माछलीना हास्य पाछळना रहस्य विशेनी
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कथानो अहीं निर्देश थयो जणाय छे. भाणामां पिरसायेली मृत माछलानी वानगीनो राणीओ 'परपुरुषनो तो हुं स्पर्श पण करती नथी' अवां कारणे अस्वीकार करतां मरेली माछली हसी पडी ! राजाने थयुं माछली कंइ हसे ? ते पण मरेली ? आनुं कारण शुं ? आम अहीं मात्र परिणाम छे, तेवुं बनवानुं कारण नथी. ओना पर प्रकाश मन्त्री पाडे छे. राजाओ आग्रहपूर्वक मन्त्रीने हास्यनुं कारण पूछतां अन्ते मन्त्रीने कहेवुं पड्युं के जे राणी परपुरुषोने भोगववा स्त्रीना वेशमां पोताना यारने रणवासमां सतत साथे राखे छे, ते मरेला माछलाने पण स्पर्श नथी करती अवुं कहे छे तेथी मरेलो माछलो हस्यो ! आ कथा 'कथासरित्सागर' तथा अन्यत्र जाणीती छे.
'मणिकुल्या' नो अर्थ छे कुलडीमां छुपावेलो मणि. साचा मणिने माटीना पात्रमां गमे तेटलो ढांकीढूंबीछुपावीने राखो तो पण सामान्य अवां छिद्र के सूक्ष्म अवी तिराडमांथी पण रत्ननुं किरण बहार तो आवे ज अने अने आधारे चतुर व्यक्ति कुलडीमां मणि छुपाव्यो छे, ते जाणी ज जाय. अर्थात् कोई पण व्यक्ति गमे तेटलो छानोछूपो गुनो करे, परन्तु अ गुनानुं परिणाम जोइने, सूक्ष्म निरीक्षण अने तर्कने आधारे चतुर व्यक्ति से घटना केवी रीते बनी हशे, ते उकेली शके. आधुनिक डिटेक्टीव कथा अनुं उदाहरण छे. चोरी के खून थयां होय त्यारे अ कोणे कर्यु, क्यारे कर्यु, ओ 'पूर्ववस्तु न लक्ष्यते' परन्तु चतुर डिटेक्टीव जे कंइ बन्युं छे तेनुं निरीक्षण करीने ते कार्य कोणे कर्यु, केवी रीते कर्तुं, ते पकडी पाडे - 'पश्चात् तु प्रकाश्यते'. आवी कथानुं उत्तम दृष्टान्त 'वसुदेव - हिण्डी'मां आवती चारुदत्तनी कथामां छे. नदीकिनारे फरवा गयेला चारुदत्त अने तेनां मित्रो भीनी रेतीमां पडेलां मोटां पगलां जुओ छे, ने थोडे जतां पदचिह्न जणातां नथी. परन्तु आगळ जतां कोइ वृक्ष नीचे एज पगलां जुभे छे, वृक्षनी सपुष्प डाळ तूटेली छे, ओक नानी अने बीजी मोटी ओम बे व्यक्ति छे ते स्पष्ट थाय छे. आम पूर्वे जे कंइ बनी गयुं छे ते जाणमां नथी. परन्तु पदचिह्नो अने बीजां निरीक्षणोने आधारे कोई आकाशचारी नदीमां स्नान करती सुन्दरीने पोताना खभा पर बेसाडी लई गयो छे, ते जाणमां आवे छे.
धर्म, अर्थ, काम के मोक्ष जेवा पुरुषार्थने सिद्ध करवा माटे वैचित्र्ययुक्त
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वृत्तान्तनुं वर्णन होय तेने परिकथा कही शूद्रककथा दृष्टान्तरूपे दर्शावी छे. आमां प्रेम, साहस, शौर्यनी अनेक कथाओनो समावेश थाय छे. नरवाहनदत्त, वसुदेव, धम्मिल, अगडदत्त वगेरेनी कथाओनो आ प्रकारमां समावेश थई शके. वीरगाथा, साहसशौर्यगाथा, प्रेमकथा वगेरे आ प्रकारमां आवे. 'फोकटेईल' माटे विश्वमान्य सेवा स्टिथ थोम्प्सने पण लोककथाना प्रकारमां मिथ, लिजन्ड अने फेरीटेईल मुख्य गणाव्या छे.
मध्यम अने मोटा कदनी कथाओनुं विभागीकरण के वर्गीकरण खण्डकथा, सकलकथा, उपकथा अने बृहत्कथामां थाय छे. आमां खण्ड अने उप तथा सकल अने बृहत् बहु नजीकना प्रकारो छे. ओमना वच्चेनी भेदरेखा अत्यन्त सूक्ष्म के आछी - पातळी छे. परन्तु हेमचन्द्राचार्य आ भेद सचोट रीते, लाघवथी स्पष्ट करी आपे छे. जे कथामां पूर्वप्रचलित अने प्रसिद्ध ओवा कथानकना आदि, मध्य के अन्तना कोई अंशने ज रजू करवामां आवे ते खण्डकथा कहेवाय. अनुं दृष्टान्त इन्दुमतीनी कथा. परन्तु विविध कथानकोने सांकळीने सम्पूर्ण कथानक सिद्ध थाय ते सकलकथा. अनुं दृष्टान्त समरादित्यकथा. कोई प्रसिद्ध कथाना कोई ओक पात्रने केन्द्रमां राखी कथानुं स्वतन्त्ररूपमां आलेखन थाय ते उपकथा. अनुं दृष्टान्त चित्रलेखा. अने कोई मोटी कथाने विविध लम्भकमां विभक्त करी अमां मुख्य पात्रनी अनेक घटनाओ साथे अन्य व्यक्तिओनी घटनाओ पण सांकळी लेवामां आवे ते बृहत्कथा. आनुं दृष्टान्त नरवाहनदत्तनी कथा.
'कथा' सन्दर्भे हेमचन्द्राचार्यना 'काव्यानुशासनम्'ना आठमा अध्यायनी सामग्रीनुं अहीं केटलीक वीगत साथे दर्शन कर्यु, चर्चा करी, अथी स्पष्ट थशे ज के गुजराती मध्यकालीन साहित्यना तेमज अनां ज केटलाक अंगो- अंशो कण्ठ परम्पराना साहित्यमां पण ऊतरी आज सुधी जळवायां तेनां दशमीअगीआरमी सदीनां मूळने पण वस्तुनिष्ठ लिखित दस्तावेजी रूपनी सामग्री छे. गुजरातनी साहित्य, संगीत, नृत्य, नाटक जेवी कोइ पण कलासंस्कृतिनां उद्भव-विकासने जाणवा माटे आ स्रोत ज प्रमाणभूत कही शकाय. गुजरातनी कला-संस्कृतिनां मूळ तो प्राचीनतम छे ज. १८ थी २२ लाख वर्ष पूर्वे पण गुजरात प्रदेशमां मानववसवाट हतो ओना पुरातत्त्वीय पुरावा मळ्या छे. ओटली
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अनुसन्धान-५३ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग-१ जूनी निग्रोइट जातिनी अश्मीभूत मानव खोपडी मळी छे. पछीना तबक्कानी केटलीक विगतो वेद, पुराण अने जैन स्रोतना प्राकृत भाषाना ग्रन्थोने आधारे तारवी शकीओ छीओ. परन्तु अमां अनुमान, निगमननो आधार अनिवार्य होवाथी कोई चोक्कस वीगतने 'तथ्य'ना रूपमां तारवयूँ प्रमाणमां मुश्केल छे. परन्तु ऐतिहासिक युगमा प्रवेशी) छीओ, खास तो ओछामां ओछं गुजरातीनुं भाषा-बोली तरीके- मूळ बंधातुं आव्युं ओ नवमी सदीना उत्तरार्धथी तो गुजरातनी कला-संस्कृतिने जाणवानुं शक्य छे. आठथी दश सुधीनो गाळो ज ओवो छे के ते समयमां मूळ आर्य जातिनी ज होय ओवी तथा आर्येतर जातिओनी होय अवी अनेक टोळीओ गुजरातमां आवी, स्थायी वसवाट करवा लागी. नवी बोली 'गुजराती' अमांथी जन्मी. ओ साथे ज ते ते जातिओना स्थायी वसवाट साथे ज गुजरातीतानुं ओक विशिष्ट रूप, अनी संस्कृति बंधायां. आ गाळो ते गुजरातनी संस्कृतिना पारणानो ! ओ जाणवानुं ज प्राचीनतम श्रद्धेय लिखित दस्तावेजी प्रमाण ते हेमचन्द्राचार्यना सिद्धहेमशब्दानुशासन, काव्यानुशासन, छन्दोनुशासन, त्रिषष्टिशलाकापुरुष अने तेवा अन्य ग्रन्थो, टीकाओ वगेरे. गुजरात माटे आ महत्त्वना छे अनुं कारण ओ छे के हेमचन्द्राचार्य पासे जेम भारतीय आर्य परम्पराना साहित्यना ज्ञान-परिशीलननो पायो छे, ते साथे ज, आ कलिकालसर्वज्ञ साधु-आचार्य पासे गुजरातनी ज पोतीकी परम्परानी प्रत्यक्षरूपनी पूर्ण तटस्थ छतां लगावपूर्ण जाणकारी छे. त्रिषष्टिशलाकापुरुषोना चरितालेखनने दृष्टिमां राखतां ज स्पष्ट थशे के जे अन्यमां नथी ते गुजरातीता, अनी संस्कार-परम्परा हेमचन्द्राचार्यमां छे. अन्य बधा ज स्रोतो, अना ग्रन्थो, साहित्यरूपे, धर्मग्रन्थरूपे मूल्यवान छे अमां शङ्काने कारण नथी ज, परन्तु त्यां सामग्री केन्द्रमा छे ते तळ गुजरातनी नथी, अन्य क्षेत्रोनी छे, ज्यारे अहीं छे ते पूरी गुजराती परम्परा छे. लग्नने अना विधि-पेटाविधि बधे ज भारतभरमां समान छे ज, तेम छतां गुजराती-लग्नमां पस भरवो, पीठी चोळवी, वरघोडो काढवो, जाननुं प्रस्थान, लग्ननी चोरी वगेरे आजे छे तेनुं ज दस्तावेजीकरण हेमचन्द्राचार्य-निरूपित प्रसङ्गमां छे. विधि ज नहीं, आनन्दोत्सवनां नृत्य, गोरअणवरनी मजाकनां फटाणां, अवां गीतोनी सामग्री- Content - ओ बधुं ज अमां दस्तावेजी रूपमां छे. धबकतुं छे. आजनी परम्परानुं प्रवर्तन त्यां छे. गुजरातनी मूळ संस्कृतिनुं आ रूप ते दशमी-अगीआरमी-बारमी सदीनु. अ
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पछी गुजरातीतामां ने भारतीयतामां अरब्बी-पर्शियन भळे छे. सल्तनतकाळ, मुगलकाळ, मराठाकाळमां अमां घणुं बधुं नवं आवे छे, जूनुं लुप्त थाय छे. उत्तरार्धना त्रीजा सांस्कृतिक काळमां पो गीझ, अंग्रेजी वगेरे प्रभाव पडता जाय छे. भाषा/बोलीमां ज नहीं, साहित्यमां, अन्य कलाओमां, परम्परा अने जीवनअभिगम अने दृष्टिमां परिवर्तन आवे छे. केटलुक अनिच्छनीय पण प्रवेशे छे - जे नथी आपणी भारतीयताने के नथी गुजरातीताने संगत ! आ सांस्कृतिक सन्दर्भे पण नवा गुजरातीयुगना प्रभावक, अरुणगुजरातना भारतीयस्तरना प्रथम पण्डित हेमचन्द्राचार्य अने ओमनुं साहित्य. गुजरातनी संस्कृतिनुं मुख्य प्रवेशद्वार हेमचन्द्रीय साहित्य छे.
१, पद्मावती बंग्लोझ, भाविनस्कूल-महालक्ष्मीधाम सामे, थलतेज, अमदावाद-३८००५९ दूरभाष : ०७९-२६८५३६२४
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अनुसन्धान- ५३ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग - १
कलिकाल - सर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्रसूरि (संकलित )
म. विनयसागर
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भारत और जैन शासन के ज्योतिर्धर आचार्यों में और कलिकाल में भी सर्वज्ञ के तुल्य श्री हेमचन्द्रसूरि के नाम से कौन अनभिज्ञ है ? ये आप्तकोटि के मौलिक साहित्यकारोंमें हुए हैं । विविध भाषाओं के जानकार, सम्पूर्ण साहित्य के मर्मज्ञ, विविध विषयों के रचनाकार, १२वीं शताब्दी उद्भट विद्वान और गुजरात के संस्कृति - संस्कार - भाषा की अस्मिता / गौरव को स्थायित्वअमरता प्रदान करनेवाले थे । उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर लिखने के पूर्व उनके सम्बन्ध में विद्वानों ने जो अभिमत प्रकट किए हैं, वह प्रस्तुत कर रहा हूँ :
सुमस्त्रिसन्ध्यं प्रभुहेमसूरेरनन्यतुल्यामुपदेशशक्तिं । अतीन्द्रियज्ञानविवर्जितोऽपि यः क्षोणिभर्तुर्व्यधित प्रबोधम् । सत्त्वानुकम्पा न महीभुजां स्यादित्येष क्लृप्तो वितथः प्रवादः । जिनेन्द्रधर्मं प्रतिपद्य येन श्लाघ्यः स केषां न कुमारपाल: ? सोमप्रभाचार्य-कुमारपालप्रतिबोध
इत्थं श्रीजिनशासनाभ्रतरणेः श्रीहेमचन्द्रप्रभोरज्ञानान्धतम:प्रवाहहरणं मात्रादृशां मादृशाम् ॥ विद्यापङ्कजिनीविकासविदितं राज्ञोऽतिवृद्ध्यै स्फुरवृत्तं विश्वविबोधनाय भवताद् दुःकर्मभेदाय च ॥ प्रभावकचरित - हेमसूरिप्रबन्ध
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'आज गुजरात की प्रजा दुर्व्यसनों से बची हुई है, उसमें संस्कारिता, समन्वय धर्म, विद्यारुचि, सहिष्णुता, उदारमतदर्शिता आदि गुण दृष्टिगत होते हैं, साथ ही भारतवर्ष के इतर प्रदेशों की अपेक्षा गुजरात की प्रजा में धार्मिक झनून आदि दोष अत्यल्प प्रमाण में दृष्टिगत होते हैं तथा समस्त गुजरात की प्रजा को वाणी/बोली प्राप्त हुई है, वह सब भगवान श्री हेमचन्द्र और उनके
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जीवन में तन्मयीभूत सर्वदर्शन - समदर्शिता को ही आभारी है । "
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' आचार्य हेमचन्द्र के कारण ही गुजरात श्वेताम्बरियों का गढ़ बना तथा वहाँ १२-१३वीं शताब्दी में जैन साहित्य की विपुल समृद्धि हुई । वि.सं.. १२१६ में कुमारपाल पूर्णतया जैन बना । "
विन्टरनित्ज - हिस्ट्री ऑफ इण्डियन लिटरेचर भाग २ पृ. ४८२-८३, ५११
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मुनि पुण्यविजय : श्रीहेमचन्द्राचार्य, प्रस्तावना, पृ. १२
श्री कन्हैयालाल मा. मुंशी ने इनकी प्रतिभा को सम्मान देते हुए उचित ही कहा है – “इस बाल साधु ने सिद्धराज जयसिंह के ज्वलन्त युग के आन्दोलनों को झेला । कुमारपाल के मित्र और प्रेरक पद प्राप्त किया । गुजरात के साहित्य का नवयुग स्थापित किया । इन्होंने जो साहित्यिक प्रणालिकाएँ स्थापित कीं, जो ऐतिहासिक दृष्टि व्यवस्थित / विकसित की, एकता की बुद्धि निर्मित कर जो गुजराती अस्मिता की नींव डाली, उस पर आज अगाध आशा के अधिकारी ऐसा एक और अवियोज्य गुजरात का मन्दिर बना है ।" (श्री के.एम. मुन्शी प्रसिद्ध इतिहासकार, भारतीय विद्या भवन के संस्थापक, भारत सरकार के उद्योगमन्त्री)
धूमकेतु : श्रीहेमचन्द्राचार्य, पृ. १५८ का अनुवाद ।
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" संस्कृत साहित्य और विक्रमादित्य के इतिहास में जो स्थान कालिदास का और श्री हर्ष के दरबार में बाणभट्ट का है, प्रायः वही स्थान ईसा की बारहवीं शताब्दी में चौलुक्य वंशोद्भव सुप्रसिद्ध गुर्जर नरेन्द्र शिरोमणि सिद्धराज जयसिंह के दरबार में हेमचन्द्र का है ।"
पं. शिवदत्त : नागरी प्रचारिणी पत्रिका का भाग ६, सं. ४ “किन्तु, जैसे शिवाजी रामदास के बिना, विक्रम कवि कुलगुरु कालिदास के बिना और भोज धनपाल के बिना शून्य लगते हैं वैसे ही सिद्धराज और कुमारपाल साधु हेमचन्द्राचार्य के बिना शून्य लगते हैं । जिस समय में मालवा के पण्डितो ने भीम के दरबार की सरस्वतीपरीक्षा की, उसी समय से ही यह अनिवार्य था कि गुजरात की पराक्रम लक्ष्मी, संस्कार लक्ष्मी
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अनुसन्धान- ५३ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग - १
के बिना जंगली लोगों की बहादुरी जैसे अर्थहीन लगती है । इसे स्वयं का संस्कार-धन सँभालने का रहा । "
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समन्वय,
“सिद्धराज जयसिंह को हेमचन्द्राचार्य नहीं मिले होते तो जयसिंह की पराक्रम गाथा आज वाल्मीकि के बिना ही रामकथा जैसी होती और गुजरातियों को स्वयं की महत्ता देखकर प्रसन्न होने का तथा महान होने का आज जो स्वप्न आता है, वह स्वप्न कदाचित् नहीं आता । हेमचन्द्राचार्य के बिना गुजराती भाषा के जन्म की कल्पना नहीं की जा सकती, इनके बिना वर्षों तक गुजरात को जाग्रत रखनेवाली संस्कारिता की कल्पना नहीं की जा सकती और इनके बिना गुजराती प्रजा के आज के विशिष्ट लक्षणों विवेक, अहिंसा, प्रेम, शुद्ध सदाचार और प्रामाणिक व्यवहार प्रणालिका की कल्पना नहीं की जा सकती । हेमचन्द्राचार्य मानव के रूप में महान थे, साधु के रूप में अधिक महान थे, किन्तु संस्कारद्रष्टा की रीति से ये सबसे अधिक महान थे । इन्होंने जो संस्कार जीवन में प्रवाहित किए, इन्होंने जो भाषा प्रदान की, लोगों को जिस प्रकार बोलना / बोलने की कला प्रदान की, इन्होंने जो साहित्य दिया, वह सब आज भी गुजरात की नसों में प्रवाहित है, इसीलिये ये महान गुजराती के रूप में इतिहास में प्रसिद्धि पाने योग्य पुरुष हैं ।"
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' x x x जिसको गुजरात की संस्कारिता में रस हो, उसे इस महान गुजराती से प्रेरणा प्राप्त करनी चाहिये ।"
- धूमकेतु : श्री हेमचन्द्राचार्य, पृ. ७-८ ( गुजराती से हिन्दी )
" गुजरात के इतिहास का स्वर्णयुग, सिद्धराज जयसिंह और राजर्षि कुमारपाल का राज्यकाल है । इस युग में गुजरात की राजनैतिक दृष्टि से उन्नति हुई, किन्तु इससे भी बढ़कर उन्नति संस्कार - निर्माण की दृष्टि से हुई । इसमें जैन अमात्य, महामात्य और दण्डनायकों को जो देन है, उसके मूल में महान जैनाचार्य विराजमान हैं । x x x वि.सं. ८०२ में अणहिलपुर पाटण की स्थापना से लेकर इस नगर में उत्तरोत्तर जैनाचार्यों और महामात्यों का सम्बन्ध बढ़ता ही गया था और उसी के फलस्वरूप राजा कुमारपाल के समय में जैनाचार्यों के प्रभाव की पराकाष्ठा का दिग्दर्शन आचार्य हेमचन्द्र में हुआ । x x x वे अपनी साहित्यिक साधना के आधार पर कलिकाल
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सर्वज्ञ के रूप में तथा कुमारपाल के समय में जैन शासन के महाप्रभावक पुरुष के रूप में इतिहास में प्रकाशमान हुए ।" - दलसुख मालवणिया : गणधरवाद की प्रस्तावना, पृ. ४७-४८
हेमचन्द्र के "काव्यानुशासन'ने उन्हे उच्चकोटि के काव्यशास्त्रकारों की श्रेणी में प्रतिष्ठित किया है। उन्होंने यदि पूर्वाचार्यों से बहुत कुछ लिया, तो परवर्ती विचारकों को चिन्तन के लिएविपुल सामग्री भी प्रदान की । - प्रभुदयाल अग्निहोत्री : संचालक-मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रन्थ
__अकादमी : प्रस्तावना-आचार्य हेमचन्द्र कलिकालसर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्र, जिन्हें पश्चिमी विद्वान आदरपूर्वक ज्ञान का सागर Ocean of Knowledge कहते हैं, संस्कृत जगत् में विशिष्ट स्थान रखते हैं । संस्कृत, प्राकृत एवं अपभ्रंश साहित्य के मूर्धन्य प्रणेता आचार्य हेमचन्द्र का व्यक्तित्व जितना गौरवपूर्ण है उतना ही प्रेरक भी है । कलिकालसर्वज्ञ उपाधि से उनके विशाल एवं व्यापक व्यक्तित्व के विषय में अनुमान लगाया जा सकता है । न केवल अध्यात्म एवं धर्म के क्षेत्र में अपितु साहित्य एवं भाषा-विज्ञान के क्षेत्र में भी उनकी प्रतिभा का प्रकाश समान रूप से विस्तीर्ण हुआ । इनमें एक साथ ही वैयाकरण, आलङ्कारिक, धर्मोपदेशक और महान् युगकवि का अन्यतम समन्वय हुआ है । आचार्य हेमचन्द्र का व्यक्तित्व सार्वकालिक,सार्वदेशिक एवं विश्वजनीन रहा है, किन्तु दुर्भाग्यवश अभी तक उनके व्यक्तित्व को सम्प्रदाय-विशेष तक ही सीमित रखा गया । सम्प्रदायरूपी मेघों से आच्छन्न होने के कारण इन आचार्य सूर्य का आलोक सम्प्रदायेतर जनसाधारण तक पहुच न सका । स्वयं जैन सम्प्रदाय में भी साधारण बौद्धिक स्तर के लोग आचार्य हेमचन्द्र के विषय में अनभिज्ञ हैं । किन्तु आचार्य हेमचन्द्र का कार्य तो सम्प्रदायातीत और सर्वजनहिताय रहा है और, इस दृष्टि से वे अन्य सामान्य जन, आचार्यों एवं कवियों से कहीं बहुत अधिक सम्मान एवं श्रद्धा के अधिकारी हैं ।
संस्कृत साहित्य और विक्रमादित्य के इतिहास में जो स्थान कालिदास का और श्री हर्ष के दरबार में जो स्थान बाणभट्ट का है, प्रायः वही स्थान १२वीं शताब्दी में चौलुक्य वंशोद्भव सुप्रसिद्ध गुर्जर नरेन्द्र शिरोमणि सिद्धराज
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जयसिंह के इतिहास में श्री हेमचन्द्राचार्य का है ।
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प्रो. पारीख इन्हें Intellectual Giant कहा है । वे सचमुच लक्षण साहित्य तथा तर्क अर्थात् व्याकरण, साहित्य तथा दर्शन के साधारण आचार्य थे । वे सुवर्णाभ कान्ति के तेजस्वी एवं आकर्षक व्यक्तित्व को धारण करने वाले महापुरुष थे । वे तपोनिष्ठ थे, शास्त्रवेत्ता थे तथा कवि थे । व्यसनों को छुड़ाने में वे प्रभावकारी सुधारक भी थे । उन्होंने जयसिंह और कुमारपाल की सहायता से मद्यनिषेध सफल किया था । उनकी स्तुतियाँ उन्हें सन्त सिद्ध करती हैं, तथा आत्म - निवेदन उन्हें योगी सिद्ध करता है । सर्वज्ञ के अनन्य उपासक थे ।
I
आचार्य हेमचन्द्र के दिव्य जीवन में पद-पद पर हम उनकी विविधता, सर्वदेशीयता, पूर्णता, भविष्यवाणियों में सत्यता और कलिकालसर्वज्ञता देख सकते हैं । उन्होंने अपनी ज्ञान - ज्योत्स्ना से अन्धकार का नाश किया। वे महर्षि, महात्मा, पूर्ण संयमी, उत्कृष्ट, जितेन्द्रिय एवं अखण्ड ब्रह्मचारी थे । वे निर्भय, राजनीतिज्ञ, गुरुभक्त, भक्तवत्सल तथा वादिमानमर्दक थे । वे सर्वधर्मसमभावी, सत्य के उपासक, जैन धर्म के प्रचारक तथा देश के उद्धारक थे । वे सरल थे, उदार थे, निःस्पृह थे । सब कुछ होते हुए भी, प्रो. पीटर्सन के शब्दों में, दुनिया के किसी भी पदार्थ पर उनका तिलमात्र मोह नहीं था । उनके प्रत्येक ग्रन्थ में विद्वत्ता की झलक, ज्ञानज्योति का प्रकाश, राजकार्य में औचित्य, अहिंसा प्रचार में दीर्घदृष्टि, योग में आकर्षण, स्तुतियों में गाम्भीर्य, छन्दों में बल, अलङ्कारों में चमत्कार, भविष्यवाणी में यथार्थता एवं उनके सम्पूर्ण जीवन में कलिकालसर्वज्ञता झलकती है ।
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हेमचन्द्राचार्य प्रकृति से सन्त थे । सिद्धराज जयसिंह एवं कुमारपाल की राज्यसभा में रहते हुए भी उन्होंने राज्यकवि का सम्मान ग्रहण नहीं किया । वे राज्यसभा में भी रहे तो आचार्य के रूप में ही । गुजरात का जीवन उन्नत करने के लिये उन्होंने अहिंसा और तत्त्वज्ञान का रहस्य जनसाधारण को समझाया, उनसे आचरण कराया और इसीलिये अन्य स्थानों की अपेक्षा गुजरात में आज भी अहिंसा की जड़ें अधिक मजबूत हैं । गुजरात में अहिंसा की प्रबलता का श्रेय आचार्य हेमचन्द्र को ही है । गुजरात ने ही आचार्य
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हेमचन्द्र को जन्म दिया । यह दैवी घटनाओं का चमत्कार प्रतीत होता है, किन्तु वास्तव में आचार्य हमेचन्द्र ने अपने दिव्य आचरण से, प्रभावकारी प्रचार एवं उपदेश से महात्मा गांधी के जन्म की पृष्ठभूमि ही मानों तैयार की थी । भारत के इतिहास में यदि सर्वथा मद्यविरोध तथा मद्यनिषेध हुआ है तो वह सिद्धराज एवं कुमारपाल के समय में ही । इसका श्रेय निःसन्देह पूर्णतया आचार्य हेमचन्द्र को ही है । उस समय गुजरात की शान्ति, तुष्टि, पुष्टि एवं समृद्धि के लिये आचार्य हेमचन्द्र ही प्रभावशाली कारण थे । इनके कारण ही कुमारपाल ने अपने आधीन अठारह बड़े देशों में चौदह वर्ष तक जीवहत्या का निवारण किया था । कर्णाटक, गुर्जर, लाट, सौराष्ट्र, कच्छ, सिन्धु, उच्च भंमेरी, मरुदेश, मालव, कोंकण, कीर, जांगलक, सपादलक्ष, मेवाड़, दिल्ली और जालन्धर देशों में कुमारपाल ने प्राणियों को अभयदान दिया और सातों व्यसनों का निषेध किया ।
आचार्य हेमचन्द्र ने अपने पाण्डित्य की प्रखर किरणों से साहित्य, संस्कृति और इतिहास के विभिन्न क्षेत्रों को आलोकित किया है । वे केवल पुरातन पद्धति के अनुयायी नहीं थे । जैन साहित्य के इतिहास में हेमचन्द्र युग के नाम से पृथक् समय अङ्कित किया गया है तथा उस युग का विशेष महत्त्व है । वे गुजराती साहित्य और संस्कृति के आद्य-प्रयोजक थे । इसलिये गुजरात के साहित्यिक विद्वान् उन्हें गुजरात का ज्योतिर्धर कहते हैं । उनका सम्पूर्ण जीवन तत्कालीन गुजरात के इतिहास के साथ गुंथा हुआ है । उन्होंने अपने ओजस्वी और सर्वाङ्गपरिपूर्ण व्यक्तित्व से गुजरात को संवारा है, सजाया है और युग-युग तक जीवित रहने की शक्ति भरी है ।
'हेम सारस्वत सत्र' उन्होंने सर्वजनहिताय प्रकट किया । कन्हैयालाल माणकलाल मुन्शी ने उन्हें गुजरात का चेतनदाता (Creator of Gujarat Consciousness) कहा है । डॉ. वि.भा.मुसलगांवकर : आचार्य हेमचन्द्र, पृ. १६९-१७३
कृतिकार हेमचन्द्र
१. आचार्य हेमचन्द्र : पृ. १७२-१७३
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अनुसन्धान-५३ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग-१
इनके जीवनवृत्त के सम्बन्ध में स्वरचित ग्रन्थों एवं परवर्ती आचार्यों/ लेखकों द्वारा लिखित निम्नाङ्कित ग्रन्थों में प्रचुर एवं प्रामाणिक सामग्री उपलब्ध
१. शतार्थकाव्य
श्रीसोमप्रभसूरि २. कुमारपाल प्रतिबोध सोमप्रभसूरि १२४१ ३. मोहराज पराजय
मन्त्री यशपाल १२२८-१३३२ ४. पुरातन प्रबन्ध सङ्ग्रह अज्ञात ५. प्रभावक चरित
प्रभाचन्द्रसूरि
१३३४ ६. प्रबन्ध चिन्तामणि मेरुतुङ्गसूरि
१३६१ ७. प्रबन्धकोश
राजशेखरसूरि
१४०५ ८. कुमारपाल प्रबन्ध
उपाध्याय जिनमण्डन १३९२ ९. कुमारपाल प्रबोध प्रबन्ध जयसिंहसूरि १४२२ १०. कुमारपाल चरितम् जयसिंहसूरि
१४२२ ११. विविधतीर्थकल्प जिनप्रभसूरि १३८९ १२. रासमाला
अलेक्जण्डर १८७८
किन्लॉक फार्ल्स १३. लाईफ ऑफ हेमचन्द्र
(हेमचन्द्राचार्य जीवन चरित्र कस्तूरमल बांठिया) १४. हेम समीक्षा
मधुसूदन मोदी १५. श्री हेमचन्द्राचार्य
धूमकेतु
१९४६ १६. आचार्य हेमचन्द्र
डॉ. वि.भा.मुसलगांवकर १९७१ स्वकृत ग्रन्थ १. व्याश्रय काव्य
हेमचन्द्रसूरि २. सिद्धहेमशब्दानुशासन प्रशस्ति हेमचन्द्रसूरि ३. परिशिष्ट पर्व
हेमचन्द्रसूरि ११७२ ४. त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित हेमचन्द्रसूरि
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आधुनिक काल में उपर्युक्त सामग्री के आधार पर सबसे पहले जर्मन विद्वान् डॉ० बुल्हर ने ईस्वी सन् १८८९ में वेना में रहते हुए हेमचन्द्रसूरि का जीवन चरित्र लिखा है । यह पुस्तक जर्मन भाषा में प्रकाशित हुई थी। इसी का अंग्रेजी अनुवाद प्रो. डॉ० मणिलाल पटेलने ई.सन. १९३६ में किया था जिसे सिंघी जैन ज्ञानपीठ विश्व भारती शान्तिनिकेतन से प्रकाशित किया गया था । इसी के आधार पर आचार्यश्री का जीवन वृत्तान्त लिखा जा रहा है। जीवनचरित्र
हेमचन्द्र का जन्म अहमदाबाद से ६० मील दूर धंधुका में विक्रम संवत् ११४५ कार्तिक पूर्णिमा को हुआ था । धंधुका में इनके माता-पिता मोढ़ वंशीय वैश्य रहते थे। पिता का नाम चाचिग और माता का नाम पाहिणीदेवी था । पिता का नाम, चाच्च, चाच, चाचिग तीनों मिलते है । मोढ़ वंशीय वैश्यों की कुलदेवी चामुण्डा और कुलयक्ष गोनस था । माता पाहिणी जैन थी और पिता चाचिग सनातनधर्मी थे । नामकरण के समय नाम रखा गया चांगदेव । इनके मामा नेमिनाग जैन धर्मी थे । आगामी प्रसङ्गों में उदयनमन्त्री द्वारा रूपये दिये जाने पर उन्होंने शिवनिर्माल्य शब्द का प्रयोग किया है अतः इसके पिता शैव थे, ऐसा लगता है। पिता शैव और माता जैन इसमें कोई विरोध नहीं है। स्वयं गुजरात के महाराजाधिराज सिद्धराज जयसिंह की माता जैन थी और उनके पिता शैव धर्मावलम्बी थे ।
प्रबन्ध कोष के अनुसार चांगदेव जब गर्भ में तब माता पाहिणी ने स्वप्न में आम्र का सुन्दर वृक्ष देखा था । इस पर आचार्य देवचन्द्र ने स्वप्नलक्षण फल का कथन करते हुए कहा था कि 'वह दीक्षा लेने योग्य होगा ।' कुमारपाल प्रतिबोध के अनुसार उसकी माता ने चिन्तामणि रत्न का स्वप्न देखा था । उसका फल कथनकरते हुए आचार्य देवचन्द्र ने कहा था कि तुम्हारे एक चिन्तामणि तुल्य पुत्र होगा, परन्तु गुरु को सौंप देने के कारण सूरिराज होगा, गृहस्थ नहीं । दीक्षा :
कुमारपाल प्रतिबोध के अनुसार चांगदेव अपनी माता पाहिणी के साथ पूर्णतल्लगच्छीय देवचन्द्रसूरि के उपदेश सुनने के लिए पौषधशाला जाते
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अनुसन्धान-५३ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग-१ थे । उपदेशों से प्रभावित होकर चांगदेव ने आचार्य से दीक्षा ग्रहण करने की इच्छा प्रकट की । उस समय नेमिनाग ने गुरु से चांगदेव का परिचय भी करवाया । चांगदेव की बात सुनकर आचार्य ने उसकी माता से दीक्षा की अनुमति चाही । किन्तु, उसने कहा कि इसके पिता अभी बाहर गए हैं, उनके आने पर अनुमति प्रदान की जाएगी । नेमिनाग के समझाने-बुझाने पर उसने अपने पुत्र को आचार्यश्री को सौंप दिया और आचार्य ने उसे खम्भात में मन्त्री उदयन के पास रखा । आचार्य ने जैन संघकी अनुमति से समय पर चांगदेव को दीक्षा दी और उसका नाम सोमचन्द्र रखा । सोमचन्द्र का शरीर सुवर्ण के समान तेजस्वी एवं चन्द्रमा के समान सुन्दर था, इसीलिए वे हेमचन्द्र कहलाए।
प्रबन्ध चिन्तामणि के अनुसार बाल्यावस्था का एक प्रसङ्ग और मिलता है - "चांगदेव अपने समवयस्क बालकों से खेलते हुए उपाश्रय पहुचे
और बाल्य स्वभाव से देवचन्द्राचार्य के पाट पर तत्काल जा बैठे । आचार्य ने देखा और कहा कि यदि इसने दीक्षा ग्रहण कर ली तो युगप्रधान के समान होगा । आचार्य ने उसकी माता से उसको मांगा और माता ने 'पिता बहार गए हैं' कहकर टाल दिया । भाई नागदेव के कहने से बहिन पाहिणी ने आचार्य को सुपुर्द कर दिया और वह खम्भात में उदयन मन्त्री के पास चला गया ।
चाचिग घर आया और चांगदेव को न देखकर पूछा कि चांगदेव कहां है ? माता चुप रही, फिर उसे ज्ञात हुआ कि चांगदेव खम्भात में मन्त्री उदयन के पास है । चाचिग अपने पुत्रको लेने के लिए खम्भात, उदयन के घर पहुंचा और स्नेहविह्वल होकर पुत्र की याचना की । मन्त्री उदयन ने तीन दुशालें और तीन लाख रूपये प्रदान कर उसकी दीक्षा की अनुमति चाही। चाचिग ने पुत्रप्रेम में पागल होकर यह कहा कि यह द्रव्य शिवनिर्माल्य है, आप मुझे मेरा पुत्र दीजिए । अन्त में मन्त्री उदयन के हर तरह से बहुत समझाने-बुझाने पर दीक्षा की अनुमति प्रदान की ।
समय पर उदयन मन्त्री के सहयोग से चतुर्विध संघ के समक्ष देवचन्द्राचार्य ने उसको दीक्षा दी और दीक्षा नाम रखा सोमचन्द्र । प्रभावक चरित्र के अनुसार इनका दीक्षा संस्कार विक्रम संवत् ११५० माघ शुक्ला
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चतुर्दशी शनिवार को हुआ था । जिनमण्डनगणि कृत कुमारपाल प्रबन्ध के अनुसार इनका दीक्षा संवत् ११५४ लिखा है। जो कि काल गणना के अनुसार युक्त संगत प्रतीत होता है । प्रबन्ध चिन्तामणि, प्रबन्ध कोष, पुरातन प्रबन्ध सङ्ग्रह आदि ग्रन्थकार भी दीक्षा समय ८ वर्ष ही बतातें हैं । अतः ११५४ ही उपयुक्त प्रतीत होता है। प्रो. पारीख (काव्यानुशासन प्रस्तावना, पृष्ठ २६७६८, महावीर विद्यालय, बम्बई)ने बुल्हर के मत का खण्डन करते हुए दीक्षा संवत् ११५४ ही स्वीकार किया है । उनका कथन है कि आचार्य देवचन्द्र की दृष्टि चांगदेव परव विक्रम संवत् १९५० में ही पड़ी होगी । प्रबन्ध चिन्तामणि के अनुसार इनकी दीक्षा खम्भात में न होकर कर्णावती । (आज का अहमदाबाद) में हुई थी और दीक्षा महोत्सव में चाचिग भी सम्मिलित था । नामकरण संस्करण के समय इनका नाम सोमचन्द्र रखा गया ।
दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात् सोमचन्द्र विद्याध्ययन में संलग्न हुए । उन्होंने प्रभावक चरित्र (हेमचन्द्रसूरि प्रबन्ध, श्लोक ३७) के अनुसार तर्क, लक्षण एवं साहित्य विद्या पर थोड़े से समय में ही अधिकार प्राप्त कर लिया। तर्क, लक्षण और साहित्य उस युग की महान् विद्याएँ मानी जाती थी और इस महत्रयी का पाण्डित्य राज दरबार और जन समाज में अग्रगण्य होने के लिए अत्यावश्यक था । सोमचन्द्र की शिक्षा का प्रबन्ध स्तम्भतीर्थ में उदयन मन्त्री के निवास स्थान पर ही हुआ था । प्रो. पारीख (काव्यानुशान की अंग्रेजी प्रस्तावना) के मतानुसार हेमचन्द्र ने गुरु देवचन्द्रसूरि के साथ देश-देशान्तर परिभ्रमण करते हुए शास्त्रीय एवं व्यावहारिक ज्ञान की अभिवृद्धि की थी । डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री के मतानुसार (आचार्य हेमचन्द्र और उनका शब्दानुशासनएक अध्ययन, पृष्ठ १३, - नेमिचन्द्र शास्त्री) हेमचन्द्र नागोर में धनद नामक सेठ के यहाँ तथा देवचन्द्रसूरि और मलयगिरि के साथ गौड़ देश के खिल्लर ग्राम गए थे तथा स्वयं काश्मीर गए थे । संवत् ११६६ में नागपुर के धनद नामक व्यापारी ने ही सूरिपद प्रदान महोत्सव किया था । इस प्रकार २१ वर्ष की अवस्था में हेमचन्द्र आचार्य बन गए थे । गुरु का नाम
डॉ० बुल्हर के मतानुसार हेमचन्द्र ने अपने किसी भी ग्रन्थ में अपने
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गुरु के नाम का उल्लेख नहीं किया है, जो कि यथार्थ प्रतीत नहीं होता है। त्रिषष्टिशलाकापुरुष चरित के १०वें पर्व की प्रशस्ति में हेमचन्द्र ने अपने गुरु का स्पष्ट नामोल्लेख किया है । प्रभावक चरित्र एवं कुमारपाल प्रबन्ध के अनुसार हेमचन्द्र के गुरु देवचन्द्रसूरि ही थे। विन्टरनित्ज महोदय ने मलधारी अभयदेवसूरि के शिष्य हेमचन्द्र का उल्लेख किया है । (ए हिस्ट्री आफ इण्डियन लिटरेचर विन्टरनित्ज, वाल्यूम टू, पृष्ठ ४८२-४८३) । डॉ० सतीश चन्द्र (दी हिस्ट्री आफ इण्डियन लाजिक, पृष्ठ १०५)ने आचार्य हेमचन्द्र को प्रद्युम्नसूरि का गुरुबन्धु लिखा है । उत्पादादि सिद्धि प्रकरण टीका में चन्द्रसेन ने हेमचन्द्र के गुरु का नाम देवचन्द्रसूरि ही लिखा है । अतः यह स्पष्ट है कि हेमचन्द्र के गुरु का नाम देवचन्द्रसूरि ही था । देवचन्द्र ही इनके दीक्षा गुरु, शिक्षा गुरु एवं विद्या गुरु थे। यह सम्भव है कि उन्होंने अन्य विद्याओं का अध्ययन अन्यत्र भी किया हो । प्रबन्ध चिन्तामणि के अनुसार हेमचन्द्र ने अपने गुरु से स्वर्णसिद्धि का रहस्य पूछा था, गुरु ने नहीं बताया था । सरस्वती की आराधना
__प्रभावक चरित्र के अनुसार ब्राह्मीदेवी जो कि विद्या की अधीष्ठात्री देवी है की आराधना के लिए काश्मीर जाने का विचार किया था । मार्ग में ताम्रलिप्ति (खम्भात) होते हुए जब रैवन्तगिरि पर पहुचे तो हेमचन्द्र को यह स्थान पसन्द आया और उन्होंने प्रबन्ध चिन्तामणि के अनुसार वहीं आराधना करने का मानस बनाया । हेमचन्द्र वहीं उपासना करने लगे और माता सरस्वती उनके सन्मुख प्रकट होकर कहने लगी - हे पुत्र ! तुम्हारी समस्त मनोकामनाए, पूर्ण होंगी । समस्त वादीगणों को पराजित करने की क्षमता तुम्हें प्राप्त होगी । यह सरस्वती देवी का वरदान सुनकर वे प्रसन्न हुए और काश्मीर यात्रा पर नहीं गए । इस प्रकार शारदा की कृपा से वे सिद्धसारस्वत बन गए और उनमें 'शतसहस्रपद' धारण करने की शक्ति प्रकट हुई । सिद्धराज जयसिंह से सम्बन्ध
___ महाराजा सिद्धराज जयसिंह इतिहास प्रसिद्ध और समग्र दृष्टियों से राजनीति का धुरन्धर माना जाता था । आचार्य हेमचन्द्र का सम्बन्ध सिद्धराज
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जयसिंह से कब हुआ ? प्रभावक चरित्र और प्रबन्ध चिन्तामणि के अनुसार संवत् ११८१ में दिगम्बर कुमुदचन्द्र के साथ वादी देवसूरि का जो शास्त्रार्थ हुआ था उस समय हेमचन्द्र भी देवसूरि के साथ थे । प्रबन्ध चिन्तामणि के अंग्रेजी अनुवादक प्रो. टोनी के अनुसार सर्वप्रथम अपनी बहुमुखी विद्वत्ता से ही राजा को प्रभावित किया होगा और बाद में धार्मिक प्रभाव आया होगा। प्रभावक चरित्र (२२/६७) के अनुसार सिद्धराज जयसिंह और आचार्य हेमचन्द्र का मिलन अणहिलपुर के एक सकड़े मार्ग पर हुआ था । जहाँ से हाथी को निकलने में रुकावट पड़ी थी और हेमचन्द्र ने 'सिद्ध को निश्शङ्क होकर अपने गजराज को ले जाने के लिये कहा और श्लेष से स्तुति की ।' हेमचन्द्र की प्रशान्त मुद्रा और उद्भट पाण्डित्य से प्रभावित होकर अभिवादन के पश्चात् उन्होंने कहा होगा कि 'प्रभो ! आप राजप्रासाद में पधारकर दर्शन देने की कृपा करें ।' इसके पश्चात् ही हेमचन्द्र ने यथा समय राज्यसभा में प्रवेश किया और अपनी अद्भुत वैदुष्य और चारित्रबल से राजा को प्रसन्न किया।
कुमुदचन्द्र के साथ शास्त्रार्थ का समय ११८१ के अनुसार हेमचन्द्र का सम्पर्क सिद्धराज जयसिंह से उसी समय हुआ था । किन्तु, प्रबन्ध चिन्तामणि, प्रभावक चरित्र के अनुसार इनका सम्पर्क इस शास्त्रार्थ से पूर्व ही हो चुका था । प्रो. पारीख के मतानुसार संवत् ११६९ के लगभग यह सम्पर्क हुआ होगा ।
अरबी भूगोलज्ञ अरी इदसी ने लिखा है कि जयसिंह बुद्ध प्रतिमा की पूजा करता था । यह उल्लेख डॉ० बुल्हर ने भी किया है । हेमचन्द्र की अमृतमय वाणी में उपदेश न मिलने पर जयसिंह के चित्त में एक क्षण भी संतोष नहीं होता था । आचार्य हेमचन्द्र तथा सिद्धराज जयसिंह लगभग समवयस्क थे । सिद्धराज का जन्म केवल तीन वर्ष पूर्व ही हुआ था । अतः इन दोनों का परस्पर सम्बन्ध गुरु शिष्य के समान कभी नहीं रहा । फिर भी सिद्धराज सदैव हेमचन्द्र के प्रभाव में रहे ।
सिद्धराज जयसिंह और आचार्य हेमचन्द्र के सम्बन्धों को देखकर सोमप्रभसूरि कुमारपाल प्रबन्ध में लिखते हैं 'बुधजनों के चूड़ामणि आचार्य हेमचन्द्र भुवनप्रसिद्ध सिद्धराज को सर्व स्थानों में प्रष्टव्य हुए ।' शैव होने पर
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भी सिद्धराज जयसिंह जिनेन्द्र धर्म के प्रति अनुरक्त हुआ । हेमचन्द्र के प्रभाव में आकर ही जयसिंह ने रम्य राजविहार बनवाया । हेमचन्द्र रचित संस्कृत व्याश्रय महाराज के अनुसार सिद्धपुर में महावीर स्वामी का मन्दिर बनवाया। सिद्धपुर में ही चार जिनप्रतिमाओं से समृद्ध सिद्धविहार भी बनवाया । हेम-गोपालक
कहा गया है कि आचार्य हेमचन्द्र जिस समय सिद्धराज जयसिंह की राजसभा में पहुंचे, उसी समय ईर्ष्यावश किसी मसखरे विद्वान् ने व्यङ्ग्य कसते हुए कहा - "आगतो हेमगोपालो दण्डकम्बलधारकः" अर्थात् दण्डकम्बल धारक हेमगोवालिया आ गया है (जैन साधु बांए कन्धे पर कम्बल
और दांए हाथ में दण्ड धारण करते हैं) यह सुनकर हेमचन्द्र ने तत्काल ही सहज भाव से उस विद्वान् का मुख बन्द करने के लिए करारी चोट करते हुए उत्तर दिया- "षडदर्शनपशुग्रामांश्चारयन् जैनवाटके" अर्थात् षड्दर्शनरूप पशुगणको जैन वाड़े में चराता हुआ दण्ड कम्बल धारक हेमचन्द्र आया है। अर्थात् आक्षेपकारक विद्वानों का सदा के लिए मुंह बन्द हो गया । सिद्धहेम शब्दानुशासन की रचना
___ मालव देश और उसका अधिपति महाराजा भोज, सिद्धराज जयसिंह की आंखों में सर्वदा खटकता रहता था और उसके लिए रात-दिन प्रयत्न रहता था कि मेरी मालव पर विजय हो । विक्रम संवत् ११९१ में सिद्धराज जयसिंह ने मालव पर विजय प्राप्त की । मालव को लूटकर वहाँ के ऐश्वर्य
और साहित्यिक समृद्धि को लेकर पाटण आया और उस समृद्धि को देखते हुए जब 'भोज व्याकरण' देखा तो वह मालव के प्रति नत-मस्तक होकर रह गया । साहित्यिक दृष्टि से मालव इतना समृद्ध था, आज गुजरात भी नहीं है । आज गुजरात के पास साहित्यिक दृष्टि से अपना कहने को कुछ नहीं है । राज्यविस्तार, आर्थिक और सामाजिक के दृष्टि से गुजरात भले कितना ही बड़ा हो किन्तु, मालव की साहित्य समृद्धि के सामने गुजरात की साहित्य
१. बूत यानी प्रतिमा । बुद्ध प्रतिमा ही ज्यादातर देखी होने के कारण एरेबिक लोग इस प्रतिमा
को बूत-बुध करके पहचानते थे । वास्तव में यह प्रतिमा शिवकी या जिनकी होनी चाहिए।
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समृद्धि शून्य है । महाराजा भोज रचित भोज व्याकरण के समान गुजरात का भी कोई व्याकरण होना चाहिए ।
सिद्धराज जयसिंह की राजसभा में बड़े धुरन्धर दिग्गज विद्वान् थे । जैसे सिंह नामक सांख्यवादी, वीराचार्य, वादी देवसूरि, कुमुदचन्द्र, शारदादेश के उत्साह पण्डित, सागर पण्डित, राम, प्रज्ञाचक्षु महाकवि श्रीपाल, महामति भागवत, देवबोध, भाव बृहस्पति, अभयदेवसूरि, मलधारी हेमचन्द्र, वर्द्धमानसूरि आदि । उन्होंने इस व्याकरण की रचना करने में कौन विद्वान् सक्षम है ? इस दृष्टि से अपनी विद्वत्परिषद् को देखा तो केवल अपूर्व प्रतिभा सम्पन्न हेमचन्द्र ही नजर आए कि यही मेरी कामना को पूर्ण कर सकते हैं। उन्होंने राजसभा में हेमचन्द्र से अनुरोध किया 'हे प्रभो ! आप गुजरात के लिए भी व्याकरण की नवीन रचना कीजिए ।'
सिद्धराज जयसिंह की यह अभिलाषा अनुरोध स्वीकार करते हुए हेमचन्द्र ने कहा कि एतत् सम्बन्धी जो साहित्य और जो विद्वान् अपेक्षित हों, उनकी आप व्यवस्था करावें । जयसिंह ने स्वीकार किया । काश्मीर आदि से समस्त प्रकार के व्याकरण और उनके विद्वानों को बुलाकर हेमचन्द्र के सहयोगी के रूप में रखा । हेमचन्द्र ने भी अपनी प्रकर्ष प्रतिभा का उपयोग करते हुए भगवान महावीर की देशना का अमूल्य सूत्र स्याद्वाद समक्ष रखते हुए व्याकरण की रचना प्रारम्भ की । पहला ही सूत्र 'सिद्धिः स्याद्वादाद्' अर्थात् स्याद्वाद और समन्वयवाद का शङ्खनाद कर दिया । इस व्याकरण में राजा और अपना नाम जोड़ते हुए व्याकरण का नाम रखा 'सिद्धहेमशब्दानुशासन' । सिद्ध अर्थात् सिद्धराज जयसिंह, हेम अर्थात् हेमचन्द्र और शब्दानुशासन अर्थात् व्याकरण । इस व्याकरण का परिचय आगे दिया जाएगा । समस्त विद्वानों द्वारा एक मत से इस व्याकरण के सम्बन्ध में प्रशंसात्मक अभिमत सुनकर सिद्धराज जयसिंह प्रसन्न हुए और कहा जाता है कि जल के प्रवाह में अधिष्ठात्री देवी ने इस व्याकरण को सहज स्वीकार किया इसीलिए यह गुजरात का प्रसिद्ध व्याकरण बन गया । महाराजा कुमारपाल
सिद्धराज जयसिंह अपुत्रीय थे इसीलिए किसी विद्वान् ज्योतिषी से
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ज्ञात कर कि मेरे पीछे राज्यधुरा का संचालन कुमारपाल करेंगे । वे यह नहीं चाहते थे कि कुमारपाल राज्य का अधिपति बने । अतएव कुमारपाल के मरण का अनेक बार प्रयोग किया गया । कुमारपाल भी मरणभय से इधरउधर भागते रहे । एक समय कुमारपाल हेमचन्द्र के सम्पर्क में आए, उनके लक्षण देखकर हेमचन्द्र ने यह निश्चय किया और कुमारपाल से कहा कि 'तुम इस प्रदेश के राजा बनोगे उस समय मुझे याद करना ।' सिद्धराज जयसिंह के भेजे हुए राज्यपुरुष कुमारपाल को ढूँढ़ते हुए खम्भात आ पहुँचे । उस समय हेमचन्द्र ने अपनी वसती के भूमिगृह में कुमारपाल को छिपा दिया और उसके द्वार को पुस्तकों से ढक कर उसके प्राण बचाए । कहा जाता है कि जब राजपुरुष हेमचन्द्र के पास पहुंचे और पूछा तो जवाब दिया कि तलघर में ढूंढ लो, राजपुरुषों ने सोचा कि वहाँ पुस्तकें ही पुस्तकें है इसीलिए वे लोग वापिस चले गए। मन्त्री उदयन और आचार्य हेमचन्द्र उसके संरक्षण का अनेक बार प्रयोग करते रहे । जयसिंह की मृत्यु के पश्चात् राजगद्दी का बखेड़ा भी प्रारम्भ हुआ किन्तु अन्त में संवत् ११९९ मार्ग शीर्ष कृष्णा चतुर्दशी को कुमारपाल का राज्याभिषेक हो गया । राज्य की उथल-पुथल और षड्यन्त्रकारियों से गुजरात को मुक्त करने में कुमारपाल ने सबल प्रयत्न किया
और पूर्णतः से इसको मुक्त करवा दिया । राज्यव्यवस्था में अत्यन्त संलग्न होने के कारण हेमचन्द्र को भूल भी गए था ।
कुमारपाल प्रबन्ध, प्रबन्ध चिन्तामणि, पुरातन प्रबन्ध संग्रह कुमारपाल प्रबन्ध के अनुसार जिस समय कुमारपाल का राज्याभिषेक हुआ उस समय उसकी अवस्था ५० वर्ष ही होगी । इसका लाभ यह हुआ कि उसने अपने अनुभव और पुरुषार्थ द्वारा राज्य की सुदृढ़ व्यवस्था की । यद्यपि कुमारपाल सिद्धराज के समान विद्वान् नहीं था, तब भी राज्यप्रबन्ध के करने के पश्चात् धर्म तथा विद्या से प्रेम करने लगा था । कुमारपाल की राज्यप्राप्ति के संवाद सुनकर हेमचन्द्र कर्णावती से पाटण गए, तब मन्त्री उदयन से ज्ञात हुआ कि वह उन्हें बिल्कुल भूल चुका है । हेमचन्द्र ने उदयन से कहा कि 'आज आप राजा से कहें कि वह अपनी नई रानी के महल में न जावें । आज वहाँ उत्पात होगा ।' यह किसने कहा यह जानने की जिज्ञासा हो तो अत्यन्त
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अनुरोध करने पर मेरा नाम बताना । उदयन ने वैसा ही किया । रात्रि को महल पर बिजली गिरी और रानी की मृत्यु हो गई। राजा ने यह विस्मयकारक चमत्कार देखकर आचार्य हेमचन्द्र को गुरु के रूप में स्मरण किया और राज्यसभा में बुलाए । राजा ने उनका सन्मान किया और प्रार्थना की कि 'उस समय आपने मेरे प्राणों की रक्षा की थी और यहाँ आने पर हमें दर्शन भी नहीं दिए, लीजिए अब अपना राज्य संभालिये ।' आचार्य ने उत्तर दिया- 'राजन् ! यदि आप कृतज्ञता के कारण प्रत्युपकार करना चाहते हैं तो भगवान महावीर की वाणी अनेकान्तवाद और अहिंसा का प्रचार-प्रसार करें ।' राजा ने शनैःशनैः उक्त आदेश के स्वीकार करने की प्रतिज्ञा की और अपने राज्य से कुमारपाल ने प्राणीवध, मांसाहार, असत्य भाषण, द्यूतव्यसन, वेश्यागमन, परधनहरण, मद्यपान आदि दुर्व्यसनों का जड़मूल से निषेध कर दिया । अमारिघोषणा करवाई । उसने अपने अधीन १८ प्रान्तों में पशुवध का निषेध कर दिया था । अहिंसा का इतना व्यापक प्रचार किया कि कुमारपाल का जीवन अहिंसामय हो गया। कुमारपाल प्रतिबोध के अनुसार कुमारपाल के आचार-विचार और व्यवहार देखने से तथा हेमचन्द्र के अनन्योपासक होने से कुमारपाल ने जीवन के अन्तिम दिनों में जैन धर्म स्वीकार कर लिया होगा और प्रायः उनका जीवन द्वादशव्रतधारी श्रावक जैसा हो गया होगा । इसीलिए कुमारपाल को हेमचन्द्र स्वयं अपने ग्रन्थों में 'परमार्हत' करते हैं । यह सत्य है कि वह जैन विचारों का पालन करते हुए तन्मय हो गया था और हेमचन्द्र को गुरु मानकर वह उन्हीं के आदेशों का अनुसरण करता था । प्रभास पाटण के भावबृहस्पति विक्रम संवत् १२२९ में भद्रकालि शिलालेख में माहेश्वर नृपाग्रणी कहते हैं और हेमचन्द्र भी संस्कृत व्याश्रय काव्य के २०वें सर्ग में कुमारपाल की शिवभक्ति का उल्लेख करते
कहते हैं कि हेमचन्द्र और कुमारपाल का गुरु-शिष्य जैसा सम्बन्ध था और हेमचन्द्राचार्य के प्रभाव में आकर कुमारपाल ने जैन परम्परा की अत्यधिक उन्नति की थी। अनेक जिनमन्दिर बनवाए । १४०० विहार बनवाए और जैन धर्म को राज्यधर्म बनाया । इसका उल्लेख रामचन्द्रसूरि कृत
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अनुसन्धान-५३ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग-१
कुमारविहारशतक में मिलता है । जहाँ कुमारपाल ने सहस्रों मन्दिरों का जीर्णोद्धार कराया वहीं केदार तथा सोमनाथ के मन्दिर का भी जीर्णोद्धार करवाया ।
___कुमारपाल की प्रार्थना पर ही आचार्य हेमचन्द्र ने त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित महाकाव्य, योगशास्त्र तथा वीतराग स्तुति आदि की रचना की । संस्कृत व्याश्रय काव्य का अन्तिम सर्ग और प्राकृत व्याश्रय काव्य कुमारपाल के समय में ही लिखा गया । प्रमाण मीमांसा की रचना भी इसी के काल में हुई । अनेक ग्रन्थों की स्वोपज्ञ टीकाएं, जिसमें कि कुमारपाल का उल्लेख मिलता है, रचना की गई । कुमारपाल ने ७०० लेखकों को बुलवाकर हेमचन्द्र निर्मित ग्रन्थ की प्रतिलिपि करवाई और २१ ज्ञानभण्डार भी स्थापित किए।
परमार्हत् कुमारपाल रचित साधारण जिनस्तवः 'नमाखिलाखण्डलमौलिरत्न' ३३ पद्यों का यह स्तव भी प्राप्त होता है । ऐसा लगता है कि जैन शासन में वासितचित्त होकर कुमारपाल ने अन्तिम समय में वीतराग स्तोत्र, योगशास्त्र आदि ग्रन्थों का पारायण करते हुए ही और गुरु की आज्ञापालन करते हुए ही इस जैहिक लोक का त्याग किया हो ! सोमनाथ यात्रा
राजा कुमारपाल ने जब सोमनाथ की यात्रा की तो गुरु को भी साथ में चलने का आमन्त्रण दिया । हेमचन्द्र ने सहर्ष स्वीकार किया और कहा हम तपस्वियों का तो तीर्थाटन मुख्य धर्म है । यात्रा करते हुए सुखासन आदि वाहनों के लिए हेमचन्द्र के अस्वीकार किया और पैदल यात्रा की । राजा ने अत्यन्त भक्ति के साथ सोमनाथ के लिङ्ग की पूजा की और गुरु से कहा कि 'आपको किसी प्रकार की आपत्ति न हो तो आप त्रिभुवनपति सोमेश्वरदेव का अर्चन करें ।' आचार्य हेमचन्द्रने आह्वान, अवगुण्ठन मुद्रा, मन्त्र, न्यास, विसर्जन आदि स्वरूप, पञ्चोपचार विधि से शिव का पूजन किया तथा 'भव बीजाङ्करजनना रागाद्याः क्षयमुपागता यस्य । ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्मै ॥' आदि स्वप्रणीत श्लोकों से स्तुति की । कहा जाता है कि उन्होंने इस अवसर पर राजा को साक्षात् महादेव के दर्शन कराए। इस पर कुमारपाल ने कहा कि हेमचन्द्राचार्य सब देवताओं के अवतार और त्रिकालज्ञ हैं । इनका
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उपदेश मोक्ष मार्ग को देने वाला है । (संस्कृत व्याश्रय काव्य, सर्ग-५, श्लोक १३३-१४१)
इसी प्रकार राजा कुमारपाल की कुलदेवी कण्टेश्वरी देवीके समक्ष जो पशुबली-सप्तमी को ७०० पशु और ७ भैंसे, अष्टमी को ८०० पशु और ८ भैंसे तथा नवमी को ९०० पशु और ९ भैंसे दी जाती थी उसको भी अपनी शक्ति का प्रयोग कर समाप्त करवाया । शैवमठाधीश गण्ड बृहस्पति भी जैनाचार्यों को वन्दन करते थे। ऐसा होने पर भी वे अन्ध श्रद्धा (गतानुगतिक) के पक्षपाती नहीं थे। हेमचन्द्र ने महावीरस्तुति में स्पष्ट कहा है हे वीर प्रभु, केवल श्रद्धा से ही आपके प्रति पक्षपात नहीं है और न ही किसी द्वेष के कारण दूसरे से अरुचि है । आगमों के ज्ञान और यथार्थ परीक्षा के बाद तेरी शरण ली है । 'न श्रद्धयैव त्वयि पक्षपातो न द्वेषमात्रादरुचि परेषाम् । यथावदाप्तत्वपरीक्षया च त्वामेव वीर प्रभुमाश्रिताः स्मः ॥ महावीर स्तुति, श्लोक-५ ।'
८४ वर्ष की अवस्था में अनशनपूर्वक अन्त्याराधन क्रिया उन्होंने आरम्भ की तथा कुमारपाल से कहा कि 'तुम्हारी आयु भी छ: माह शेष रही है ।' अन्त में कुमारपाल को धर्मोपदेश देते हुए संवत् १२२९ में अपना देह त्याग दिया । शिष्य समुदाय
आचार्य हेमचन्द्र का गुजरात के दो-दो राजाओं-सिद्धराज जयसिंह और कुमारपाल, उदयन मन्त्री आम्रभट्ट, वाग्भट्ट, चाहड़, खोलक, महामात्य शान्तनु आदि राजवर्गीय परिवार से घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है। आचार्य का शिष्य समुदाय भी विशाल रहा है । कहा जाता है कि उनके १०० शिष्य थे । शतप्रबन्धकार रामचन्द्रसूरि, अनेकार्थ कोष के टीकाकार महेन्द्रसूरि, वर्द्धमानगणि, देवचन्द्रगणि, गुणचन्द्रगणि, यशःचन्द्रगणि, वैय्याकरणी उदयचन्द्रगणि, बालचन्द्रसूरि आदि मुख्य थे ।
आचार्य हेमचन्द्र रचित त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित का मङ्गलाचरण 'सकलार्हत्प्रतिष्ठान' को परवर्ती तपागच्छ परम्परा पाक्षिक प्रतिक्रमण इत्यादि
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अनुसन्धान-५३ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग-१ में इसको चैत्यवन्दन के रूप में बोलकर हेमचन्द्राचार्य के प्रति अपनी भावाञ्जलि प्रस्तुत करता है । यह उचित भी है । साहित्य सर्जना
युगानुसार तर्क, लक्षण और साहित्य इन तीन महाविद्याओं का अधिकृत अध्ययन कर राज्यसभा का सदस्य बन जाना उत्तम कोटि का माना जा सकता है। किसी एक-दो विधा पर अपनी प्रतिभा के बल पर नूतन साहित्य का निर्माण कर महाकवि या महालेखक बनना सम्भवित माना जा सकता है किन्तु, अनेक विधाओं पर अधिकारपूर्ण मौलिक साहित्य का निर्माण करना सर्वोत्कृष्ट या सिद्धसारस्वत ही कर सकता है । इस तीसरी कोटि में आचार्य हेमचन्द्र को रखना ही न्यायसङ्गत होगा । इन्होंने जो कुछ भी साहित्य सर्जन किया वह मौलिक ही रहा, कोई टीका या टिप्पणी नहीं । हाँ, यह सत्य है कि पूर्व कवियों, लेखकों का विधिवत् अध्ययन कर उनके मन्तव्यों को आपने स्थान-स्थान पर उद्धृत अवश्य किया है या उनको आत्मसात् कर मौलिक सृजन ही किया है । यह भी एक विधा पर नहीं - शब्दानुशासन (पंचांगी सहित), कोष, अनेकार्थी कोष, देशी नाममाला, महाकाव्य, द्विसन्धान काव्य, अलङ्कार शास्त्र, छन्दःशास्त्र, न्याय शास्त्र, योग शास्त्र और स्तोत्र आदि विविध विषयों पर रचनाएँ की हैं जो कि यह सिद्धसारस्वत ही कर सकता है। दूसरी बात यह कि साहित्य सर्जन के अतिरिक्त दो-दो महाराजाओं पर अपने वैदुष्य का प्रभाव डालना और एक को तो अपना वशम्वद ही बना लेना, उन जैसे प्रभावक आचार्यों का ही कार्य है। उनके द्वारा जो निर्मित साहित्य जो प्राप्त हो रहा है उसकी सूची आगमप्रभाकर मुनिश्री पुण्यविजयजी ने तैयार की थी वह निम्न है :ग्रन्थ नाम
श्लोक संख्या १. सिद्धहेमशब्दानुशासन २. सिद्धहेम लघुवृत्ति
९००० ३. सिद्धहेम बृहवृत्ति
१८००० सिद्धहेम बृहन्न्यास
८४००० ५. सिद्धहेम प्राकृतवृत्ति
२२००
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लिङ्गानुशासन उणादिगणविवरण
धातुपरायणविवरण
६.
७.
८.
९.
१०.
११.
१२. देशीनाममाला
अभिधानचिन्तामणिनाममाला
अनेकार्थ कोष
निघण्टु कोष
१३.
काव्यानुशासन सविवरण
१४. छन्दोनुशासन सविवरण
१५. संस्कृत द्वयाश्रय
१७. प्रमाणमीमांसा (अपूर्ण)
३९८४
३२५०
५६००
१००००
१८२८
३९६
३५००
६८००
३०००
१५००
२५००
१०००
३६०००
३५००
१२७५०
१८८
३२
३२
४४
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१८. वेदाङ्कुश
१९. त्रिषष्टिशलापुरुषचरित महाकाव्य
२०. परिशिष्ट पर्व
२१. योगशास्त्र
२२. वीतरागस्तोत्र
२३. अन्ययोगव्यवच्छेद द्वात्रिंशिका
२४.
अयोगव्यवच्छेद द्वात्रिंशिका
२५.
महादेव स्तोत्र
कहा जाता है कि इन्होंने ३.५ करोड़ श्लोको का निर्माण किया था किन्तु आज उसका शतांश ही २,०७,००० श्लोक प्रमाण ही साहित्य प्राप्त होता है । विदेशी आक्रान्ताओं द्वारा कुछ साहित्य जला दिया होगा, कुछ नष्ट हो गया होगा और कुछ भण्डारों में उपेक्षित पड़ा हुआ होगा ।
प्राप्त साहित्य पर किञ्चित् विवेचन प्रस्तुत
:
है सिद्धहेमशब्दानुशासन, ७ अध्याय - आचार्य हेमचन्द्र ने अपने समय में उपलब्ध समस्त व्याकरण वाड्मय का अनुशीलन कर अपने 'शब्दानुशासन' एवं अन्य व्याकरणग्रन्थों की रचना की । हेमचन्द्र के पूर्ववर्ती व्याकरणों में तीन दोष-विस्तार, कठिनता एवं क्रमभङ्ग या अनुवृत्तिबाहुल्य पाये जाते हैं,
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अनुसन्धान- ५३ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग - १
1
किन्तु शब्दानुशासनकार हेमचन्द्र उक्त तीनों दोषों से मुक्त हैं । उनका व्याकरण सुस्पष्ट एवं आशुबोधक रूप में संस्कृत भाषा के सर्वाधिक शब्दों का अनुशासन उपस्थित करता है । यद्यपि उन्होंने पूर्ववर्ती व्याकरणों से कुछ न कुछ ग्रहण किया है, किन्तु उस स्वीकृति में भी मौलिकता और नवीनता है उन्होंने सूत्र और उदाहरणों को ग्रहण कर लेने पर भी उनके निबन्धनक्रम के वैशिष्ट्य में एक नया ही चमत्कार उत्पन्न किया है। सूत्रों की समता, सूत्रों के भावों को पचाकर नये ढंग के सूत्र एवं अमोघवृत्ति के वाक्यों को ज्यों के त्यों रूप में अथवा कुछ परिवर्तन के साथ निबद्ध कर भी अपनी मौलिकता का अक्षुण्ण बनाये रचाना हेमचन्द्र जैसे प्रतिभाशाली व्यक्ति का ही कार्य है ।
प्रारम्भ के ७ अध्यायों में कुल ३५६६ सूत्र हैं । लघुवृत्ति, बृहद्वृत्ति, बृहन्न्यास आदि व्याख्या ग्रन्थ लिखकर अपूर्व वैदुष्य का परिचय दिया है । लिङ्गानुशासन स्वोपज्ञ विवरण, उणादिगण स्वोपज्ञ विवरण, धातुपारायण स्वोपज्ञ विवरण इत्यादि का निर्माण कर शब्दानुशासन के पाँच अंगों को परिपुष्ट किया है ।
I
प्राकृत व्याकरण (सिद्धहेमशब्दानुशासन का आठवाँ अध्याय) आचार्य हेम का यह प्राकृत व्याकरण समस्त उपलब्ध प्राकृत व्याकरणों में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण और व्यवस्थित है । इसके चार पाद हैं । प्रथम पाद में २७१, द्वितीय पाद में २१८, तृतीय पाद में १८२ और चतुर्ध पाद में ३८८ कुल सूत्र १०५९ हैं । चतुर्थ पाद में शौरसेनी, मागधी, पैशाची, चूलिका पैशाची की विशेषताओं का निर्णय है । हेमचन्द्र के सन्मुख पाँच-छः सदियों का भाषात्मक विकास और साहित्य उपस्थित था, जिसका उन्होंने पूर्ण उपयोग किया है । चूलिका पैशाची और अपभ्रंश का उल्लेख वररुचि ने नहीं किया है । चूलिका और अपभ्रंश का अनुशासन हेम का अपना ही है । अपभ्रंश भाषा का नियमन ११९ सूत्रों में स्वतन्त्र रूप से किया है । उदाहरणों में अपभ्रंश के पूरे के पूरे दोहे उद्धृत कर नष्ट होते हुए विशाल साहित्य का उन्होंने संरक्षण किया है ।
हेमचन्द्र ही सबसे पहले ऐसे वैय्याकरण हैं जिन्होंने अपभ्रंश भाषा
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के सम्बन्ध में इतना विस्तृत विवेचन उपस्थित किया है ।
I
कोष-अभिधानचिन्तामणि नाममाला - १२वीं शताब्दी में जितने कोष ग्रन्थ लिखे गए उनमें से हेमचन्द्र के कोष सर्वोत्कृष्ट हैं । श्री ए. बी. कीथ अपने संस्कृत साहित्य के इतिहास में उक्त कथन का समर्थन करते हैं । इसमें छः काण्ड हैं जिनकी पद्य संख्या कुल १५४२ हैं । इस पर 'तत्त्वबोधविधायिनी' नामक स्वोपज्ञ टीका है । इस टीका ग्रन्थ में शब्द प्रामाण्य वासुकि एवं व्याडि से लिया गया है और व्युत्पत्ति धनपाल और प्रपञ्च से ली गई है। विकास, विस्तार, वाचस्पति आदि ग्रन्थों से लिया गया है । कोषों में यह कोष अनेक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है । इतिहास की दृष्टि से इस कोष का बड़ा महत्त्व है । टीका में पूर्ववर्ती ५६ ग्रन्थकारों और ३१ ग्रन्थों का उल्लेख किया है । सांस्कृतिक दृष्टि से हेमचन्द्र के कोषों की सामग्री महत्त्वपूर्ण है । हेमचन्द्र का स्थान न केवल संस्कृत कोष -ग्रन्थकारों में अपितु सम्पूर्ण कोष-साहित्यकारों में अक्षुण्ण है । भाषाविज्ञान की दृष्टि से भी यह कोष अत्यन्त उत्कृष्ट है। जो कि अभिधान चिन्तामणि में शब्द नहीं
शेषसङ्ग्रह नाममाला
आए थे उसकी पूर्ति स्वरूप ही है ।
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अनेकार्थ सङ्ग्रह जिन शब्दों के एक से अनेक अर्थ होते हैं उन शब्दों का इसमें संकलन किया गया है । इसमें ७ काण्ड हैं और १९३९ श्लोक हैं । अनेकार्थ शब्दों के इस सङ्ग्रह में प्रारम्भ एकाक्षर शब्दों से और अन्त षडक्षर शब्दों से होता है । शब्दों का क्रम आदिम अकारादि वर्णों तथा अन्तिम ककारादि व्यञ्जनों के अनुसार चलता है । इस कोष पर श्री हेमचन्द्रसूरि के शिष्य महेन्द्रसूरि टीका की है ।
देशीनाममाला - जिस प्रकार शब्दानुशासन में प्राकृत एवं अपभ्रंश का व्याकरण लिखकर शब्दानुशासन को पूर्णता प्रदान की है उसी प्रकार कोष साहित्य में भी देशी नाममाला लिखकर कोष साहित्य को पूर्णता प्रदान की है । इसमें ३९७८ शब्दों का संकलन है । देशी शब्दों का सङ्ग्रह कठिन कार्य है, सङ्ग्रह करने पर भी उनका ग्रहण करना और भी कठिन कार्य है । इसीलिए हेमचन्द्र ने यह कार्य अपने हाथों में लिया । देशी नाममाला में प्रयुक्त शब्दों की व्युत्पत्ति संस्कृत शब्दों से नहीं हो सकती । इसीलिए
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इन्हें निरर्थक मानकर शब्दों का सङ्ग्रह कहकर डॉ० बुल्हर ने हेमचन्द्र की आलोचना की है किन्तु, डॉ० बुल्हर आलोचना करते समय हेमचन्द्र के मन्तव्य को समझ नहीं पाये। प्रो. मुरलीधर बनर्जीने स्वसम्पादित देशीनाममाला की प्रस्तावना में इस प्रश्न पर युक्ति संग्रत विचार किया है और आलोचना का समुचित उत्तर भी किया है। प्रो. पिशल ने इन शब्दों का सङ्ग्रह व्यर्थ ही माना है किन्तु प्रो. बनर्जी ने इसका भी उत्तर दिया है । देशी शब्दों का यह शब्दकोश बहुत ही महत्त्वपूर्ण तथा उपयोगी है इसमें तत्सम, तत्भव और देशी शब्दों का प्रयोग किया गया है । इस कोष में ४०५८ शब्द संकलित हैं । जिसमें तत्सम शब्द १८०, गर्भित तद्भव शब्द १८५०, संशय युक्त तद्भव शब्द ५२८ और अव्युत्पादित प्राकृत शब्द १५०० हैं । इस कोष में आठ अध्याय हैं और कुल ७८३ गाथाएँ हैं।
निघण्टु शेष - यह वनस्पति शब्दों का कोष है । इसमें छ: काण्ड हैं । ३७९ श्लोक हैं । वैद्यक शास्त्र की दृष्टि से यह अत्यन्त उपयोगी है।
काव्यानुशासन - इसमें तीन प्रमुख विभाग हैं । १. सूत्र (गद्य), २. व्याख्या, ३. वृत्ति । काव्यानुशासन में कुल सूत्र २०८ हैं। सूत्रों की वृत्ति करने वाली व्याख्या 'अलङ्कार चूड़ामणि' कहलाती है और इसी व्याख्या को सुस्पष्ट करने के लिए उदाहरणों के साथ 'विवेक' नाम वृत्ति लिखी गई है। काव्यानुशासन ८ अध्यायों में विभक्त है । अलङ्कारशास्त्र से सम्बन्ध रखने वाले सारे विषयों का प्रतिपादन बहुत ही सुन्दर रूप से किया गया है । अलङ्कार चूडामणि में कुल ८०७ उदाहरण प्रस्तुत किए गए हैं और 'विवेक ८२५ उदाहरण प्रस्तुत किए गए हैं । सम्पूर्ण काव्यानुशासन में १६३२ उदाहरण प्रस्तुत हैं । अलङ्कार चूडामणि एवं विवेक में ५० कवियों तथा ५१ ग्रन्थों के नामों का उल्लेख किया गया है ।
प्रथम अध्याय में काव्य परिभाषा, काव्यहेतु, काव्यप्रयोजन आदि का वर्णन है। द्वितीय अध्याय में रस, स्थायी भाव, व्यभिचारी भाव तथा सात्त्विक भावों का वर्णन किया गया है । तृतीय अध्याय में शब्द, वाक्य, रस तथा दोषों पर प्रकाश डाला गया है। चतुर्थ अध्याय काव्यगुण अर्थात् ओज, माधुर्य एवं प्रसाद पर प्रकाश डाला गया है । पञ्चम अध्याय में छ: शब्दालङ्कारों
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का वर्णन है । छठे अध्याय में २९ अर्थालङ्कारों का वर्णन है। सप्तम अध्याय में नायक-नायिका के भेद-प्रभेदों पर विचार किया गया है। अष्टम अध्याय में काव्य को प्रेक्ष्य तथा श्रव्य दो भागों में विभाजित किया गया है । इसमें बाणभट्ट की तरह हेमचन्द्र भी कथा और आख्यायिका का भेद स्वीकार कर रहे हैं । नवमें अध्याय में चम्पू काव्य की परिभाषा है ।
काव्यानुशासन प्रायः सङ्ग्रहग्रन्थ है । इसमें आचार्य ने राजशेखर, मम्मट, आनन्दवर्द्धन और अभिनवगुप्त आदि से पर्याप्त आदि से पर्याप्त सामग्री ग्रहण की है । काव्यप्रकाश का विशेष उपयोग किया गया है, फिर भी काव्यानुशासन में हेमचन्द्र की मौलिकता अक्षुण्ण है । यद्यपि काव्यप्रकाश के साथ काव्यानुशासन का अधिक साम्य है । किन्तु, कहीं-कहीं नहीं अपितु पर्याप्त स्थानों पर हेमचन्द्र ने मम्मट का विरोध भी किया है। जैसे उपमा की परिभाषा । काव्यानुशासन में अपने समर्थन के लिए हेमचन्द्र विविध ग्रन्थ एवं ग्रन्थकर्ताओं के नाम उद्धृत करने में अत्यन्त चतुर हैं । कतिपय विद्वानों के मतानुसार काव्यानुशासन में मौलिकता का अभाव खटकता है । महामहोपाध्याय पी.वी.काणे के मतानुसार आचार्य हेमचन्द्र प्रधानतः वैय्याकरणी थे तथा अलङ्कारशास्त्री गौणरूप में थे । उनके मतानुसार काव्यानुशासन सङ्ग्रहात्मक हो गया है । त्रिलोकीनाथ झा (बिहार रिसर्च सोसायटी, वोल्यूम-४०-३ भाग एक-दो पृ० २२-२३) का मत भी इसी प्रकार है । श्री ए.बी.कीथ भी काव्यानुशासन में मौलिकता नहीं देखते । श्री एस.एन.दास. गुप्त एवं श्री एस.के.डे. इस विषय में कीथ के ही मत को स्वीकार करते हैं । किन्तु, श्री विष्णुपद भट्टाचार्य (आचार्य हेमचन्द्र पर व्यक्तिविवेक के कर्ता का ऋण' निबन्ध इण्डियन कल्चर ग्रन्थ १३ पृष्ठ २१८-२२४) ने श्री काणे के मत का खण्डन किया है और हेमचन्द्र के काव्यानुशासन में मौलिकता प्रस्थापित की है । वे रस-सिद्धान्त के कट्टर अनुयायी थे । काव्यानुशासन के मतानुसार काव्य संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और ग्राम्य अपभ्रंश में भी लिखा जा सकता है । काव्यानुशासन की व्याख्याओं 'अलङ्कार चूड़ामणि' तथा 'विवेक' में जो उदाहरण एवं जानकारी दी है वह संस्कृत साहित्य में एवं काव्यशास्त्र के इतिहास के लिए अत्यन्त उपयुक्त है ।
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मम्मट का काव्यप्रकाश क्लिष्ट है, साधारण पाठकों के लिए सुगम नहीं और संस्कृत के काव्य के अतिरिक्त अन्य साहित्य विधाओं का अध्ययन करने के लिए दूसरे ग्रन्थ भी देखने पड़ते हैं । हेमचन्द्र का काव्यानुशासन इस अर्थ में परिपूर्ण है।
छन्दोनुशासन - इसका अपरनाम छन्द चूडामणि है और स्वोपज्ञ टीका है । यह आठ अध्यायों एवं ७६३ सूत्रों में विभक्त है । अपने समय तक आवेशकृत एवं पूर्वाचार्यों द्वारा प्ररूपित समस्त संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश छन्दों का समावेश करने का प्रयत्न किया है । छन्दों के लक्षण तो इसमें संस्कृत में लिखे हैं किन्तु उनके उदाहरण, उनके प्रयोगानुसार संस्कृत, प्राकृत या अपभ्रंश से दिए गए हैं। ऐसे अनेक प्राकृत छन्दों के नाम लक्षण उदाहरण भी दिए हैं जो स्वयम्भू छन्द में नहीं है ।
छन्दोनुशासन की रचना काव्यानुशासन के बाद हुई है । छन्दोनुशासन से भारत के विभिन्न राज्यों में प्रचलित छन्दों पर प्रकाश पड़ सकता है । ग्रन्थ में प्रस्तुत उदाहरणों के अध्ययन से हेमचन्द्र का गीति काव्य में सिद्धहस्त होना भी मालूम पड़ता है।
संस्कृत साहित्य की दृष्टि से छन्दोनुशासन के रूप में हेमचन्द्र की देन अधिक दृष्टिगत नहीं होती किन्तु प्राकृत तथा अपभ्रंश भाषा की दृष्टि से उनकी देन उल्लेखनीय है ।
प्रमाण-मीमांसा - प्रमाण-मीमांसा में यद्यपि उनकी मूल स्थापनाऐं विशिष्ट नहीं है तथापि जैन प्रमाण शास्त्र को सुदृढ़ करने में, अकाट्य तर्कों पर प्रतिष्ठित करने में प्रमाणमीमांसा विशिष्ट स्थान रखता है । यह ग्रन्थ सूत्र शैली का ग्रन्थ है । उपलब्ध ग्रन्थ में २ अध्याय और ३ आह्निक मात्र हैं। अपूर्ण है। हो सकता है कि वृद्धावस्था के कारण इसे पूर्ण न कर पाए हों, अथवा शेष भाग नष्ट हो गया हो । इस ग्रन्थ में हेमचन्द्र की भाषा वाचस्पति मिश्र की तरह नपीतुली, शब्दाडम्बरों से रहित, सहज और सरल है । यह न अति संक्षिप्त है और न अधिक विस्तार वाला । प्रमाण-मीमांसा का उद्देश्य केवल प्रमाणों की चर्चा करना नहीं है अपितु प्रमाणनय और सोपाय बन्ध मोक्ष इत्यादि परमपुरुषार्थोपयोगी विषयों की चर्चा करना है । इस ग्रन्थ की
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विशेषता यह है कि हेमचन्द्र ने 'गृहीतग्राही' और 'ग्रहीष्यमाणग्राही' दो का समत्व दिखाकर सभी धारावाही ज्ञानों में प्रामाण्य का समर्थन कराया है । हेमचन्द्र इन्द्रियाधिपत्य और अनिन्द्रियाधिपत्य दोनों को स्वीकार करके उभयाधिपत्य का ही समर्थन करते हैं । हेमचन्द्र ने जय-पराजय व्यवस्था का नया निर्माण किया है। यह नया निर्माण सत्य और अहिंसा तत्त्वों पर प्रतिष्ठित हुआ है। इसके अनुसार जैन दर्शन जीवात्मा और परमात्मा के बीच भेद नहीं मानता। प्रत्येक अधिकारी व्यक्ति सर्वज्ञ बनने की शक्ति रखता है । अनेकान्तवाद और स्याद्वाद का इसमें पूर्ण समर्थन किया गया है ।
प्रमाणमीमांसा में हेमचन्द्र ने पूर्ववर्ती आगमिक, ताकिक, सभी जैन मन्तव्यों को विचार व मनन से पचाकर अपने ढंग की विशद, अपुनरुक्त, सूत्रशैली तथा सर्वसङ्ग्राहिणी विशदतम स्वोपज्ञ वृत्ति में सन्निविष्ट किया है। प्रमाणमीमांसा ऐतिहासिक दृष्टि से जैन तत्त्व साहित्य में तथा भारतीय दर्शन साहित्य में विशिष्ट महत्त्व रखता है ।
व्याश्रय संस्कृत - व्याश्रय काव्यों में प्रस्तुत संस्कृत व्याश्रय काव्य का स्थान अपूर्व है। इसमें सिद्धहेमशब्दानुशासन अध्याय ७ तक के नियमों, उदाहरणों को दिखाना आवश्यक समझकर सूत्रों के उदाहरण प्रस्तुत किए हैं। दूसरी तरफ चालुक्य वंश का ऐतिहासिक वर्णन भी दिया गया है । जो चालुक्य वंश के इतिहास के लिए स्पष्टता मूल्यवान है । इस काव्य में २० सर्ग और २८८८ श्लोक हैं । द्विसन्धान काव्यों की दृष्टि से यह काव्य अभूतपूर्व है।
व्याश्रय प्राकृत - सिद्धहेमशब्दानुशासन के ८वें अध्याय प्राकृत व्याकरण के नियमों को स्पष्ट करने के लिए प्राकृत व्याश्रय काव्य की रचना की गई है। यह ८ सर्गों में विभाजित है। जिसमें ६ सर्ग में शौरसेनी, मागधी, पैशाची, चूलिका पैशाची और अपभ्रंश भाषा के उदाहरण स्पष्ट हैं । दूसरी तरफ महाराजा कुमारपाल जीवनचरित्र वर्णित है । इस प्रकार व्याकरण और जीवनचरित्र का प्रत्येक पद्यों में प्रयोग करते हुए कवि ने इसमें अपार सफलता प्राप्त की है।
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित महाकाव्य - यह ३६००० श्लोक परिमाण
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अनुसन्धान-५३ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग-१ का महाकाव्य है । इसे पौराणिक व ऐतिहासिक महाकाव्य भी कह सकते हैं। जैन परम्परा में जो ६३ शलाका महापुरुष माने गए हैं - चौवीस तीर्थंकर, बारह चक्रवर्ती, नौ बलदेव, नौ वासुदेव, नौ प्रतिवासुदेव । दस पर्यों में इसका विभाजन किया गया है। प्रत्येक पर्व में अनेकों सर्ग हैं। प्रथम पर्व में भगवान ऋषभदेव का, सप्तम पर्व जैन रामायण, आठ-नौ-दस पर्व ऐतिहासिक महापुरुष नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और महावीर के है । इसमें त्रैलोक्य का वर्णन पाया जाता है । इसमें परलोक, ईश्वर, आत्मा, कर्म, धर्म, सृष्टि आदि विषयों का विशद विवेचन किया गया है । इसमें दार्शनिक मान्यताओं का भी विस्तारपूर्वक विवेचन किया गया है । इतिहास, कथा एवं पौराणिक तथ्यों का यथेष्ट समावेश किया गया है । सृष्टि, विनाश, पुनर्निर्माण, देवताओं की वंशावली, मनुष्यों के युगों, राजाओं की वंशावलि का वर्णन आदि पुराणों के सभी लक्षण पूर्णरूपेण इस महद् ग्रन्थ में पाये जाते हैं ।
यह सारा काव्य प्रौढ़ एवं उदात्त शैली का उत्कृष्ट उदाहरण है । प्रत्येक वर्णन सजीव एवं सालङ्कार है ।
___ डॉ. हरमन जेकोबी ने त्रिषष्ठिशलाकापुरुषचरित को रामायण, महाभारत की शैली में रचे गये एक जैन महाकाव्य के रूप में स्वीकार किया है । यह ग्रन्थ पुराण और काव्य-कला दोनों ही दृष्टियों से उत्तम है। इस विशाल ग्रन्थ का कथा-शिल्प महाभारत की तरह है। आचार्य हेमचन्द्र ने अपने इस ग्रन्थ को महाकाव्य कहा है । उसकी संवाद-शैली, उसके लोक-तत्त्वों और उसकी अवान्तर कथाओं का समावेश इस ग्रन्थ को पौराणिक शैली के महाकाव्यों की कोटि में ले जाता है ।
___ परिशिष्ट पर्व - इसे 'स्थविरावलिचरित' भी कहा गया है । इसमें १३ सर्ग हैं । मुक्तिगामी जम्बूस्वामी, प्रभव, शय्यम्भव, यशोभद्र, भद्रबाहु, सम्भूतिविजय, स्थूलिभद्र आर्यमहागिरि, आर्य सुहस्ति, वज्रस्वामी, आर्यरक्षित, आदि श्रुतकेवली चतुर्दश पूर्वधर, दस पूर्वधर, आचार्यों का प्राप्त पूर्ण परिचय दिया गया है।
___ आचार्य हेमचन्द्र की दो द्वात्रिंशिकाएँ प्राप्त होती है । पहली है अन्ययोग व्यवच्छेद द्वात्रिंशिका । इसमें ३२ श्लोक हैं । भक्ति की दृष्टि से
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इन स्तोत्रों का जितना महत्त्व है उनसे कहीं अधिक काव्य की दृष्टि से महत्त्व है । अन्य योग व्यवच्छेद द्वात्रिंशिका में अन्य दर्शनों का खण्डन किया गया है । डॉ. आनन्दशंकर ध्रुव ने इन पर अपना अभिमत प्रकट किया है । उनके मत से 'चिन्तन और भक्ति का इतना सुन्दर समन्वय इस काव्य में हुआ है। यह दर्शन तथा काव्यकला दोनों ही दृष्टि से उत्कृष्ट कहा जा सकता है।' जैन दर्शन के व्यापकत्व के विषय में बतलातेहुए हेमचन्द्र कहते हैं कि जिस प्रकार दूसरे दर्शनों के सिद्धान्त एक दूसरे को पक्ष व प्रतिपक्ष बनाने के कारण मत्सर से भरे हुए हैं उस प्रकार अर्हत् सिद्धान्त नहीं है क्योंकि यह सारे नयों को बिना भेदभाव के ग्रहण कर लेता है ।
इस स्तोत्र पर श्री मल्लिषेणसूरि की टीका ‘स्याद्वादमञ्जरी' है ।
वीतराग स्तोत्र - यह भक्ति स्तोत्र है । इसमें २० स्तव हैं । ८८ पद्यों का एक स्तव है इस प्रकार कुल पद्य संख्या १८६ है । भक्तहृदय हेमचन्द्र ने वीतराग स्तोत्र भक्ति के साथ समन्वयात्मकता एवं व्यापक दृष्टिकोण प्रदर्शित किया है।
अयोग व्यवच्छेद द्वात्रिंशिका - इसमें भी ३२ पद्य हैं । इसमें प्रमुखता से स्वमत का मण्डन अर्थात् जैन मत का प्रतिष्ठापन किया गया है। भगवान महावीर की स्तुति करते हुए सरल एवं सरस शब्दों में जैन धर्म का स्वरूप संक्षेप तथा प्रामाणिक भाषा में वर्णित किया गया है ।
महादेव स्तोत्र - इस स्तोत्र में महादेव को आधार बनाकर वीतराग देव की स्तुति की गई है और यह सर्वधर्मसमन्वय की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण कृति है।
योगशास्त्र - चालुक्य नरेश कुमारपाल के विशेष अनुरोध से आचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र की रचना की थी। इसमें १२ प्रकाश और १०१८ श्लोक हैं । इस पर स्वोपज्ञ विवरण प्राप्त है। जिस प्रकार दिगम्बर परम्परा में योग विषयक शुभचन्द्र कृत ज्ञानार्णव ग्रन्थ अप्रतिम है उसी प्रकार श्वेताम्बर परम्परा में हेमचन्द्र का योगशास्त्र भी एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है । यह सरल, सुबोध, संस्कृत में रचा गया है। प्रायः इसमें अनुष्टुप् छन्द का ही प्रयोग किया गया है।
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अनुसन्धान-५३ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग-१ ___ इसमें ११ प्रकाश योगशास्त्र की परम्परा के अनुसार ही लिखे गए हैं, किन्तु बारहवें प्रकाश में 'श्रुतसमुद्र और गुरु के मुख से जो कुछ मैंने जाना है, उसका वर्णन कर चुका हूँ । अब वह निर्मल अनुभवसिद्ध तत्त्व को प्रकाशित करता हूँ' । इस योगशास्त्र की तुलना पतञ्जलि योगशास्त्र से की जा सकती है । विषय तथा वर्णनक्रम में मौलिकता तथा भिन्नता होते हुए भी महर्षि पतञ्जलि के योगसूत्र तथा हेमचन्द्र के योगशास्त्र में बहुत सी बातों में समानता पायी जाती है । अनीश्वरवादी होते हुए भी यत्र-तत्र परमेश्वर विषयक कल्पना भी दिखाई देती है । वस्तुतः यह उनकी उदारता है । वे परमात्मा व्यक्ति के नहीं गुणों के पूजक हैं । पातञ्जल का योगमार्ग एक प्रकार से एकान्तिक हो गया है, उसके द्वार सबके लिए खुले नहीं है। उसमें सबको आत्मानुभूति देने का आश्वासन भी नहीं है। जबकि योगशास्त्र में सभी मनुष्य उनको बताये हुए मार्ग पर चलकर मुक्तावस्था का आनन्द अनुभव कर सकते हैं । विश्वशान्ति के लिए तथा दृष्टिराग के उच्छेदन के लिए आचार्य हेमचन्द्र का योगशास्त्र आज भी अत्यन्त उपादेय ग्रन्थ है ।
विन्टरनित्ज अपने भारतीय साहित्य के इतिहास में लिखते हैं - योगशास्त्र केवल ध्यानयोग नहीं है अपितु सामान्य धर्माचरण की शिक्षा है। वरदाचारी (हिष्ट्री ऑफ संस्कृत लिटरेचर) भी इसी प्रकार का मत प्रकट करते है।
टीका ग्रन्थ - आचार्य हेमचन्द्र प्रणीत शब्दानुशासन, कोष आदि पर अनेक उद्भट लेखकों ने समय-समय पर लेखनी चलाई है, उनमें से कुछ के उल्लेखनीय नाम अकारानुक्रम से इस प्रकार हैं :
सिद्धहेमशब्दानुशासन (संस्कृत व्याकरण) - अमरचन्द्र (बृहद्वृत्ति अवचूरि), कनकप्रभ (लघुन्यास दुर्गपद व्याख्या), काकल कायस्थ (लघुवृत्ति ढुंढिका दीपिका), जिनसागरसूरि (दीपिका), धनचन्द्र (लघुवृत्ति अवचूरि), धर्मघोष (न्यास), नन्दसुन्दरगणि (लघुवृत्ति अवचूरि), मुनिशेखरसूरि (लघुवृत्ति ढुंढिका), रामचन्द्र (न्यास), विद्याकर (बृहद्वृत्ति दीपिका), विनयसागरगणि (अष्टाध्याय तृतीय पाद वृत्ति)
इस व्याकरण के आधार पर अनेक प्रक्रिया ग्रन्थ भी लिखे गए हैं,
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जो निम्न हैं :- चन्द्रप्रभा व्याकरण (मेघविजयोपाध्याय), हेमप्रकाश व्याकरण (हेमलघु प्रक्रिया, स्वोपज्ञ विनयविजयोपाध्याय), हेमप्रक्रिया (वीरसिंह । महेन्द्र), हेमबृहद् प्रक्रिया (मयाशंकर शास्त्री), हेमशब्द संचय (अमरचन्द्र), हेमशब्दचन्द्रिका (मेघविजय) ।
प्राकृत व्याकरण - अमरचन्द्रसूरि, हरिभद्रसूरि लिङ्गानुशासन (दुर्गपदप्रबोधवृत्ति) श्रीवल्लभोपाध्याय,
शेषसङ्ग्रह नाममाला (श्रीवल्लभोपाध्याय), निघण्टु नाममाला (श्रीवल्लभोपाध्याय),
अभिधान चिन्तामणि नाममाला टीका - कुशलसागरगणि, देवसागरगणि (व्युत्पत्ति रत्नाकर), भानुचन्द्रगणि, श्रीवल्लभोपाध्याय (सारोद्धार), साधुरत्न (अवचूरि)
व्याश्रय काव्य टीका (संस्कृत) - अभयतिलकोपाध्याय व्याश्रय काव्य टीका (प्राकृत) - पूर्णकलशगणि
वीतराग स्तोत्र टीका - प्रभानन्दसूरि (दुर्गपद प्रकाशिका), सोमोदयगणि, नयसागरगणि (अवचूरि), राजसागरगणि, माणिक्यगणि, मेघगणि
योगशास्त्र टीका - अमरप्रभसूरि (वृत्ति), इन्द्रसौभाग्यगणि (वार्तिक), मेरुसुन्दरगणि (बालावबोध), सोमसुन्दरसूरि (बालावबोध) । उपसंहार
साढ़े तीन करोड़ पंक्तियों के विराट् साहित्य का एक व्यक्ति के द्वारा सृजन करना स्वयं असाधारण बात है। आचार्य हेमचन्द्र अपने भव्य व्यक्तित्व के रूप में एक जीवन विश्व विद्यालय अथवा मूर्तिमान ज्ञानकोष से उन्होंने ज्ञानकोष के समकक्ष विशाल ग्रन्थ सङ्ग्रह का भी भावी पीढ़ी के लिए सृजन किया था । तेजस्वी और आकर्षक व्यक्तित्व को धारण करने वाले वे महापुरुष थे । वे तपोनिष्ठ थे, शास्त्रवेत्ता थे तथा कवि थे । वे महर्षि, महात्मा, पूर्णसंयमी, उत्कृष्ट जितेन्द्रिय एवं अखण्ड ब्रह्मचारी थे। वे निर्भय, राजनीतिज्ञ, गुरुभक्त, मातृभक्त, भक्तवत्सल तथावादी मानमर्दक थे । वे सर्व धर्म समभावी, सत्य के उपासक जैन धर्म के प्रचारक तथा देश के उद्धारक थे । कहा जाता
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अनुसन्धान-५३ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग-१
है कि उन्होंने अपने प्रभाव एवं उपदेश से ३३००० कुटुम्ब अर्थात् डेढ़ लाख व्यक्ति जैन धर्म में दीक्षित किए थे । सिद्धराज जयसिंह एवं कुमारपाल की राज्यसभा में रहते हुए भी उन्होंने राज्यकवि का सम्मान ग्रहण नहीं किया था। वे राज्यसभा में भी रहे तो केवल आचार्य के रूप में । गुजरात में अहिंसा की प्रबलता का श्रेय आचार्य हेमचन्द्र को ही है । वे केवल पुरातन पद्धति के अनुयायी नहीं थे । जैन साहित्य के इतिहास में 'हेमचन्द्रयुग' के नाम से पृथक् समय अंकित किया गया है तथा उस युग का विशेष महत्त्व है । वे गुजराती साहित्य और संस्कृत के आद्यप्रयोजक थे । इसलिए गुजरात के साहित्यिक विद्वान् उन्हें गुजरात का ज्योतिर्धर कहते हैं । इनके महाकाव्यों की तुलना संस्कृत साहित्य के एक भट्टी काव्य से ही की जा सकती है। किन्तु, भट्टी में भी वह पूर्णता व क्रमबद्धता नहीं जो हमें हेमचन्द्र में मिलती है । मधुसूदन मोदी ने भी हेमसमीक्षा नामक पुस्तक में उनके अपभ्रंश दोहों अत्यधिक प्रशंसा की है ।
हेमचन्द्र ने अपने समग्र साहित्य में स्थल-स्थल पर समन्वय भावना का व्यवहार किया है । इनके ग्रन्थ निश्चय ही संस्कृत साहित्य के अलङ्कार है । वे लक्षण, साहित्य, तर्क, व्याकरण एवं दर्शन के परमाचार्य हैं । आचार्य हेमचन्द्र के विशालकाय विपुल ग्रन्थसंग्रह को देखकर 'हेमोच्छिष्टं तु साहित्यम्' ऐसा कहा गया है।
इस निबन्ध के लेखन में जिन साहित्यकारों, जिन लेखकों, जिन ग्रन्थों विशेषतः डॉ० वि. भा. मुसलगांवकर लिखित 'आचार्य हेमचन्द्र' का उपयोग विशेष रूप से किया गया है, अतएव इन सबका मैं आभारी हूँ ।
प्राकृत भारती अकादमी,
जयपुर
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१५५ योगदृष्टिसमुच्चय - सटीकनुं ध्यानार्ह संशोधन-सम्पादन
मुनि त्रैलोक्यमण्डनविजय
महान योगाचार्य श्री हरिभद्रसूरि विरचित योगग्रन्थो, भारतवर्षीय प्राचीन योगसमृद्धिनो आपणने सांपडेलो अमूल्य वारसो छे; योगविषयक मौलिक विचारणा, नवली रजूआत, विविध योगपरम्पराओनो सरस समन्वय व. उमदां तत्त्वो तो आ ग्रन्थोमां छे ज, पण एथी वधीने आ ग्रन्थोनुं मुख्य जमा पासुं ए छे के आना प्रणेता स्वयं योगमार्गना नीवडेल साधक छे. एओनी वाणी अनुभवजन्य छे. अने माटे ज आ वाणी हृदयस्पर्शी, आपणने हठात् योग माटे प्रेरे तेवी अनुभवाय छे.
योगदृष्टिसमुच्चय ए हरिभद्रसूरिजीनी कालजयी रचना छे. कदमां नानकडी होवा छतां तेमां रहेला उच्चकोटिना भावो अने अन्यत्र अलभ्य एवा आठ योगदृष्टिनी प्ररूपणा द्वारा करायेला आत्मकल्याणमार्गना विवेचनने लीधे ए योगमार्गना पथिकोने हमेशां आकर्षती रही छे.
__ आ ग्रन्थनी स्वोपज्ञ टीका साथेनी ताडपत्र पोथीना आधारे थयेली संशोधित-सम्पादित वाचना हमणां प्रकाशित थई. आम तो आ पूर्वे आ ग्रन्थ अनेकवार प्रकाशित थई चूक्यो छे. एना पर अनेक विवेचनो पण लखायां छे. छतां पण आ ग्रन्थनुं फरी एकवार प्रकाशन थयुं ते बाबत आश्चर्य उपजावे ते स्वाभाविक छे. अने तेथी ज आ लेखमां आ प्रकाशननी जरूरियात, आ वाचनामां अपनावायेली सम्पादनपद्धति, आ प्रकाशननी ध्यानार्हता व. जणाववा प्रयत्न करेल छे. आ प्रकाशननी जरूरियात
__वि.सं. २०६५ ना चातुर्मास दरमियान पूज्य गुरुभगवन्त आ. श्रीशीलचन्द्रसूरिजी म. पासे योगदृष्टिसमुच्चयन अध्ययन करवानुं थयु. आ वखते अमारी पासे बे मुद्रित वाचना हती. १. दिव्यदर्शन ट्रस्ट द्वारा हारिभद्रयोगभारतीमां प्रकाशित २. Prof. L. Suali द्वारा सम्पादित अने
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देवचन्द्र-लालभाई-फण्ड द्वारा प्रकाशित. आ बन्ने वाचना ओछेवत्ते अंशे संशोधनार्ह हती. गुरुभगवन्ते केटलुक संशोधन बन्ने वाचनानी मेळवणी द्वारा तो केटलुक स्वयंप्रज्ञाथी करेलु हतुं, परन्तु हजु पण केटलांक स्थळे अर्थसंगति नहोती थती. पाठनी प्रामाणिकता प्रत्ये सन्दिग्धता रहेती हती. आ संजोगोमां गुरुभगवन्तने प्राचीन प्रत जोडे मुद्रित वाचनाने मेळवी जोवा मन थयुं, अने सद्भाग्ये विदुषी साध्वी श्रीचन्दनबालाश्रीजीना सहयोगथी योगदृष्टिसमुच्चयसटीकनी वि.सं. ११४६मां लखायेली ताडपत्र प्रति(खण्डित) अने सम्भवतः १६मा सैकानी कागदप्रति प्राप्त थई.
___ आ प्रतो साथे मुद्रित वाचनाने मेळवी जोतां पूर्वे करेलु संशोधन तो प्रमाणित थयुं ज, पण डगले ने पगले नवा शुद्ध पाठ जडता गया. साथे ने साथे घणी जग्याए नवो पाठ उमेरवानो थयो. केटलाक सामान्य भाषाकीय फेरफारवाळा पाठोने ध्यानमां न लहीए तो पण ग्रन्थना भावोना स्पष्टीकरण माटे अनिवार्य गणाय तेवां शुद्धिस्थानो घणां हतां. मुद्रित अशुद्ध के खण्डित पाठने आधारे थयेलुं विवेचनगत अर्थघटन, ग्रन्थकारना कथयितव्यथी घणुं जुदुं पडतुं जणायुं. आ पछी तो अभ्यासीओ सुधी शुद्धवाचना पहोंचाडवा- मन थाय ए तद्दन स्वाभाविक हतुं. ए इच्छा ज प्रस्तुत प्रकाशननी जननी बनी.
_ वि.सं. २०६६नुं वर्ष आगमप्रभाकर मुनिश्री पुण्यविजयजी म.नी दीक्षाशताब्दीनुं वर्ष हतुं. तेनी उजवणीना उपलक्ष्यमां ते महापुरुषनी रुचि अने कार्योने अनुरूप कशंक करवू, अने ते रीते वास्तविक उजवणी करवी एवो अध्यवसाय गुरुभगवन्तना चित्तमा जाग्यो. ते अध्यवसाय- ज स-रस परिणाम एटले प्रस्तुत सम्पादन. सम्पादन-पद्धति
आ वाचनाना सम्पादनमां मुख्यत्वे त्रण वस्तुओ पर भार मूकवामां आव्यो छे. (१) पाठसंशोधन (२) व्यवस्थित मुद्रण (३) ग्रन्थनी उपादेयतामां वृद्धि.
पाठसंशोधन - प्राचीन लिपिना केटलाक अक्षरोना तेनाथी तद्दन जुदा एवा अत्यारना अक्षरो साथेना सरखापणाने लीधे घणीवार भ्रमपूर्ण वांचन अने तेने परिणाम भ्रामक पाठो सर्जाता होय छे. अमां पण ज्यारे सर्जाता भ्रामक
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पाठनी संगति कोइक रीते करवी शक्य होय त्यारे तो एमांथी बचवुं मुश्केल बनी रहे छे. आनुं एक उत्तम उदाहरण श्लोक - १०नी टीकामां जोवा मळ्युं. आमां टीकाकारे सम्यक्त्वनी व्याख्या करतां प्रशमादि सम्यक्त्वनां लिङ्गोनां वर्णननुं तत्त्वार्थभाष्यगत वाक्य उद्धृत कर्तुं छे. अने पछी स्पष्टता करी छे के प्रशम-संवेग-निर्वेद-ए रीते सम्यक्त्वनां लिङ्गोनुं कथन प्राधान्यनी अपेक्षाए ज छे. लिङ्गोनी प्राप्ति तो आस्तिक्य-अनुकम्पा -निर्वेद-एम पश्चानुपूर्वीए थाय छे. आ माटे वाक्य छे – “यथाप्राधान्यमयमुपन्यासो लाभश्च पश्चानुपूर्व्या". आमां 'ला'ने बदले 'चा' पण वांची शकाय तेम होवाथी अने प्राचीन 'भ' अने आजना 'रु' वच्चे कोइ ज तफावत नहीं होवाथी वांचवामां आव्युं “चारुश्च पश्चा०' पछी आगळ च होय तो विसर्गनो ओ थवो सम्भावित नहीं होवाथी पाठ सुधारवामां आव्यो- '० न्यासः चारुश्च पश्चा० आ पाठने अनुसारे लखायेला विवेचनोमां आ क्रमनी चारुता अने प्राधान्यापेक्षी क्रमनी अचारुता पण प्रतिपादित करवामां आवी ! संशोधकोए " ० न्यास आचारश्च पश्चा०" एवो पाठ पण सूचव्यो !! वात क्यांनी क्यां पहोंचे छे !
"
घणी वार आपणी आंख अल्पपरिचित शब्दने स्थाने समानता धरावतो अने वाक्यमां संगत थई शके तेवो अतिपरिचित शब्द वांची ले छे. अने जो एवं व्यापकपणे बने तो मूळ शब्दनुं स्थान ए हदे जोखमाय छे के काळक्रमे आवो शब्द अहीं होवो जोइए एवी सम्भावना पण कोइने नथी लागती. जेमके श्लोक-४७ नी ३-४ पंक्ति " चित्रा सतां प्रवृत्तिश्च साऽशेषा ज्ञायते कथम् ?'' आमां ‘साऽशेषा' ना स्पष्टीकरण माटे टीका छे - " तदन्यापोहतः ". हवे उपरोक्त पंक्तिओनुं विवेचन करवानुं थाय त्यारे 'तदन्यापोहत : ' शब्दने नजरअन्दाज करीने अर्थ करवामां आवे छे : 'मुनिओनी चैत्यवन्दनादि विविध प्रवृत्तिओ समग्रपणे कई रीते जाणी शकाय ?" आ अर्थमां बे असंगति छे : १. ‘अशेष' नो अर्थ ‘साकल्येन' थाय नहीं के 'तदन्यापोहत : ' २. तारा जेवी प्रारम्भिक कक्षानी दृष्टिमां समग्र सत्प्रवृत्तिना ज्ञाननुं प्रयोजन पण नथी. हवे ताडपत्रीय पाठ जुओ "सा ह्येषा ज्ञायते कथम् ?'' आमां ‘हि एव तदन्यापोहत:' पण संगत थई जाय छे. अने तारादृष्टिने उचित तात्त्विक अर्थघटन पण तारवी शकाय छे के - " मुनिओनी प्रवृत्तिओ चैत्यवन्दनादि
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विविध प्रकारनी होय छे. माटे एषा = आ प्रवृत्ति = प्रस्तुत प्रवृत्ति सा हि = मुनिओने मान्य ज हशे, अमान्य नहीं होय, तेवू कई रीते जाणी शकाय?" आवी तारादृष्टिवाळा जीवनी विचारणा होय छे.' 'ह्येषा' ने बदले 'शेषा' वांचवाथी ऊभी थयेली भ्रान्ति ग्रन्थकारना आशयथी आपणने केटले दूर लई जाय छे !
संशोधकोनी संशोधनदृष्टि प्रायः उपकारक ज बनी रहे छे. पण प्रायः शब्द सूचवे छे तेम कोइकवार हानिकारक पण थाय छे. श्लोक ८२ मां मूळपाठ हतो – “आत्मानं पान्सयन्त्येते" जड लोको पापरूपी धूळथी आत्माने खरडे छे – एवो एनो भाव हतो. हवे हस्तलिखितमां 'न्' नो अनुस्वार लखातो हतो'पांसयन्त्येते'. आमां जो कोइक कारणे अनुस्वार न वंचाय तो 'पासयन्त्येते' वंचातुं हतुं, जे स्वाभाविक रीते संशोधकोने संशोधन माटे प्रेरे तेम हतुं. हस्तप्रतोमा सामान्यतः 'श' अने 'स' वच्चे अराजकता प्रवर्तती हती, तेथी अहीं पण एम ज हशे एवं समजी 'पाशयन्त्येते' एम सुधारवामां आव्यु. 'आत्मानं पाशयन्त्येते' ए वाक्यनो 'आत्माने बन्धनग्रस्त बनावे छे' एम अर्थ पण बेसाडी देवामां आव्यो. आ संशोधने 'पान्सयन्ति' सुधी पहोंचवानी सम्भावनाने पण नष्ट करी नांखी. आश्चर्यनी वात तो ए छे के आजे पण आ पंक्तिनुं 'आत्माने पापरूपी धूळथी जड लोको बांधे छे' एवं धरार विवेचन करती वखते ए पण नथी विचारवामां आवतुं के धूळथी बांधी कई रीते शकाय ?
पाठ नक्की करती वखते तर्कबद्ध विचारणा अने अन्य ग्रन्थोना सन्दर्भ पर पण आधार राखवानो थयो. श्लोक १७८-पंक्ति ३ 'सात्मीकृतप्रवृत्तिश्च' जोइए के 'सात्मीभूतप्रवृत्तिश्च' ? ए प्रश्न थयो. 'कृ' अने 'भू' बन्ने वांची शकाय तेम होवाथी नक्की करवू मुश्केल हतुं. हवे आ पंक्ति असङ्गानुष्ठान नामना श्रेष्ठतम योगने वरेला योगीनी धर्मप्रवृत्ति केवी होय ते जणावे छे अने एना स्पष्टीकरण माटे टीकामां चन्दनगन्धन्याय अपायो छे. विचार ए आव्यो के चन्दनमां गन्ध आत्मसात् ज होय के ए गन्धने आत्मसात् करे ? स्पष्ट छे के चन्दनमां गन्ध आत्मीभूत होय अने तेथी पाठ पण 'सात्मीभूतप्रवृत्तिश्च' जोइए. षोडशकमां पण 'सात्मीभूत' शब्द मळ्यो (१०.७). एथी एने ज स्वीकार्यो.
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श्लोक १७० अने १७३ मां टीकानो पाठ मूळमां घूसी गयो हतो तेने काढी मूळ शब्दो यथास्थाने गोठववानुं पण ताडपत्रना आधारे शक्य बन्युं. श्लोक ८ नी टीकामां प्रातिभज्ञानने अन्य दर्शनीओ पण नामान्तरे स्वीकारे छे ए जणावतां एक नाम नितीरण आव्युं छे. आ नितीरण शब्द कया दर्शननो छे ते ख्याल नहीं आववाथी ए अशुद्ध हशे एम समजी एना निरीक्षण, तीरण व. सुधारा सूचवाया छे. ताडपत्रमा आ शब्द पर 'बौद्धानाम्' एवी टिप्पणी मळी. अने 'नितीरण' शब्द ज साचो होवानी प्रतीति थई, एथी आनन्दआनन्द थई गयो. आवा आनन्दपूर्ण अनुभवो तो घणा थया, पण बधाने अहीं वर्णववानी जग्या नथी. एक वातनी खातरी छे के आ सम्पादनने माणनाराने पण एवा ज अनुभव थया वगर नहीं रहे.
एक वातनी स्पष्टता जरूरी छे के ताडपत्रीय भिन्न पाठोने युक्तता चकास्या पछी ज स्वीकारवामां आव्या छे. ज्यां मुद्रित पाठ ज वधु उपयुक्त लाग्यो त्यां मुद्रित पाठने ज उपर राखी ता. पाठने टिप्पणमां मूकवामां आव्यो छे. ज्यां मु. पाठ पण ता. पाठनी जेम ध्यानार्ह लाग्यो त्यां मु. पाठ टिप्पणमां आप्यो छे. अभ्यासीओनी सुविधा माटे तमाम संशोधित पाठोनी एक सूचि पण मूकवामां आवी छे.
व्यवस्थित मुद्रण - आमां विरामचिह्न, अवग्रह, अवतरणचिह्न व.नी योजना अने ग्रन्थप्रतीक, अवतरणिका, उद्धरण व.ना विभागनो समावेश थाय छे. आ बधी बाबत स्वयं भले नानी होय, पण एने लीधे अर्थबोधमां घणीवार मोटो फरक पडी जाय छे. दा.त. श्लोक-१५९- अवतरणिकावाक्य श्लोक १५८नी टीकानो अन्तिमवाक्य तरीके मुद्रित थयुं छे. आ वाक्यनो १५८मा श्लोक साथे मेळ गोठववो शक्य ज नथी, छतां वर्षोथी एम ज छपातुं आव्यु छे. श्लोक-९८ टीकामां प्रेक्षावान् माटे प्रयोजायेला शब्द 'यथाऽऽलोचितकारिणां' नी जग्याए 'यथा लोचितकारिणां' एवो मुद्रित पाठ केटलो जुदो अर्थ दर्शावे छे !
_ विरामचिह्नोनी अस्तव्यस्तता केटली मुश्केली सर्जे तेनुं एक श्रेष्ठ उदाहरण श्लोक ९४नी टीकामां जोवा मळ्युं. मुद्रित पाठ आवो हतो - "कोशपानं विना ज्ञानोपायो नाऽस्त्यत्र = स्वभावव्यतिकरे युक्तिः =
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अनुसन्धान-५३ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग-१ शुष्कतर्क-युक्त्या। कश्चिदपरो दृष्टान्तोऽप्यस्याऽर्थस्योपोद्बलको विद्यते नवेत्याह - विप्रकृष्टो०" आनो अर्थ समजवामां बहु मुश्केली पडी हती. एक तो पहेलां कोइ दृष्टान्त अपायुं ज नथी तो अपर दृष्टान्त केवी रीते कहेवाय ? बीजुं मूळ श्लोकमां आवेलो ‘यतः' शब्द अहीं दृष्टान्त फक्त निदर्शन माटे नहीं, पण हेतु तरीके छे एम सूचवतो हतो, ज्यारे उपर मुजब तो एर्नु अवतरण फक्त निदर्शन माटे थतुं हतुं. प्रश्नोत्तरनी आ रीत पण अयोग्य छे एम न्यायनो सामान्य अभ्यासी पण कही शके तेम हतुं. आ माटे ताडपत्रमा जोयुं तो मूंझवण घटवाने बदले ओर वधी, कारण के एमां 'विद्यते एवेत्याह' हतुं, जे सूचवतुं हतुं के 'विद्यते नवेत्याह' ए अर्थनी अणसमझने लीधे करवामां आवेलो सुधारो हतो. हवे तो 'कश्चिदपरः' पण कई रीते जोडq ए प्रश्न बन्यो. बहु मथामण करी त्यारे अचानक झबकारो थयो के पाठ आम होवो जोइए - "कोशपानं विना ज्ञानोपायो नाऽस्त्यत्र = स्वभावव्यतिकरे युक्तितः = शुष्कतर्क-युक्त्या कश्चिदपरः । दृष्टान्तोऽप्यस्याऽर्थस्योपोद्बलको विद्यते एवेत्याह-विप्रकृष्टो०" आम विरामचिह्नोनी गोठवण बदलवा मात्रथी बधी मूंझवण टळी जाय छे ते स्वयं समजाय तेवू छे. व्यवस्थित मुद्रण विद्यार्थीनो अडधो श्रम ओछो करी नांखे छे ते जातअनुभवनी वात छे अने अहीं माटे ज एना पर एटलो भार मूकवामां आव्यो छे. ग्रन्थनी उपादेयतामा वृद्धि
योगदृष्टि०मां विषयनिरूपण ए रीते छे के एकमांथी बीजा अने बीजाथी त्रीजा विषयमा प्रवेश थतो रहे. एटले घणीवार एवं बने के विद्यार्थीने समझण ज न पडे के आ विषयनो मूळ विषय साथे कयो सम्बन्ध छ ? आ मूंझवण टाळवा विस्तृत विषयानुक्रम मूकवामां आव्यो छे.
अभ्यासीओनी सुविधा माटे १. मूळपाठ, २. श्लोकानुक्रमणिका, ३. उद्धृतपाठसूचि, ४. विशेषनामसूचि, ५. विशिष्टविषयसूचि, ६. दृष्टान्तादिसूचि, ७. विशिष्टशब्दसूचि, ८. पारिभाषिक शब्दसूचि, ९. संशोधितपाठसूचि - एवां नव परिशिष्टो मूकवामां आव्यां छे. आमां ७-८ परिशिष्ट अंगे थोडंक कहेवू जरूरी लागे छे. श्रीहरिभद्रसूरिजीना वाङ्मयनी भाषा, शैली, विषयपसंदगी व. तमाम पासां पर बौद्धदर्शननी ऊंडी असर जणाय छे. तेओए ललितविस्तरादि ग्रन्थोमां
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जे रीते बौद्धोनो सबळ प्रतीकार को छे ते जोतां बौद्ध ग्रन्थोनुं गम्भीर अध्ययन तेओए कर्यु हशे ते प्रतीत थाय छे. लागे छे के ते दरमियान बौद्धदर्शननी योगसम्बन्धित परिभाषा, विचारणा अने प्ररूपणाथी तेओ अवश्य प्रभावित थया हशे. अने तेने लीधे तेओना योगसाहित्यमां एवा केटलाय पदार्थो अने शब्दो जोवा मळे छे के जे सामान्यतः जैनदर्शनमा प्रचलित नथी अने बौद्धदर्शनमां ते प्रचलित होवानुं लागे छे. जेमके श्रद्धा माटे प्रयोजेलो 'अधिमुक्ति' शब्द. आ उपरान्त अन्य योगधाराओना तत्त्वो-शब्दो पण तेओनी प्ररूपणामां अवश्य समाया छे. वळी, केटलांक तत्त्वोनी जेम केटलाक शब्दो पण तेओनी प्रतिभानो उन्मेष छे. योगदृष्टि०मां प्रयोजेला आवा विशिष्ट शब्दोनी टीकामां तेओए ते शब्दोना पर्यायो आप्या छे. केटलाक प्रचलित जैन शब्दो अने विशिष्ट शब्दोनी विशिष्ट व्याख्या पण आपी छे. आ शब्दोना आधारे विविध योगधाराओना परस्पर आदानप्रदान अने समन्वय विशे सरस संशोधन थई शके तेम होवाथी तेवा शब्दोनी सूचि बनाववामां आवी छे. ७मा परिशिष्टमां विशिष्ट शब्द अने तेनो पर्यायशब्द मूकवामां आव्या छे, ज्यारे ८मामां जेनी विशिष्ट व्याख्या करवामां आवी छे तेवा शब्दो मूकवामां आव्या छे, जेमां महदंशे जैन पारिभाषिक शब्दोनी साथे केटलाक विशिष्ट शब्दोनो पण समावेश थाय छे. अन्य ग्रन्थोमां प्रयोजायेला आ शब्दोनु अर्थघटन सुगम बने ते पण आ सूचिओनो आडफायदो छे. आ प्रकाशननी ध्यानार्हता
आम तो कोइ पण ग्रन्थनी संशोधित वाचना ध्यानार्ह ज होय छे, पण आनी ध्यानार्हता माटे एटले लखवू पडे के आ ग्रन्थ महदंशे विवेचनोना आधारे ज भणाय छ– भणावाय छे. अने आ भणनाराओ के भणावनाराओ मूळग्रन्थने जोवा-वांचवा लगभग टेवायेला नथी होता. एटले मूळग्रन्थने लगतुं गमे ते काम करवामां आवे, ए लोकोने कशो फेर नथी पडतो. अने एटले ज आ संशोधित वाचनाने अनुसारे विवेचनोमां यथोचित परिवर्तन करवा प्रेरणा करवी जरूरी लागे छे.
___ एक वातनी स्पष्टता करवानी के पोतानी सामे अशुद्ध पाठ होवा छतां प्रबुद्ध विवेचको जे हदे साचा अर्थघटन सुधी पहोंच्या छे ते नवाई पमाडे तेवू
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छे. छतांय शुद्ध पाठना आधारे थतुं अर्थघटन तेनाथी जुदं होय तेमां बेमत नहीं. श्लोक ७३मां 'तथाऽप्रवृत्तिबुद्धयाऽपि' एवो अशुद्ध पाठ अने तेनी खण्डित टीकाने आधारे थयेवं विवेचन केटलुं परिवर्तनीय छे ते संशोधितपूर्णपाठने जोया पछी स्वतः समजाय तेवू छे. श्लोक ३२मां 'सर्वत्रैव'नो 'दीनादौ' अर्थ भले संगत थई जतो होय, पण हरिभद्रसूरिजी 'हीनादौ' थी जे सूचववा मांगे छे ते केटलुं महत्त्वपूर्ण छे ! श्लोक-१६नी टीकामां 'भगवदवधूत' नामना स्थाने 'भगवद्दत्त' के 'भगवदन्तवादी' व. भ्रमपूर्ण वांचनने लीधे इतिहासादिविषयक ग्रन्थोमां थयेला उल्लेखो पण बदलवा पडे तेम छे. ढूंकमां, योगदृष्टिसमुच्चयना तमाम अभ्यासीओए आ सम्पादन अवश्य ध्यान पर लेवा जेतुं छे.
अन्ते, आ पुस्तकना प्रतिभावरूपे विद्वान् मुनिराज पूज्य श्रीधुरन्धरविजयजी म. ए लखेला पत्रनो केटलोक अंश उद्धृत करीश के जेमां घणुं बधुं समाई जाय छे : "योगदृष्टि मळ्युं. सरस कार्य कर्यु.... जे व्यक्ति गीतार्थ नथी, छेदना ज्ञानथी पूरा मार्गना उत्सर्ग-अपवाद जाण्या नथी, ते आ ग्रन्थोनो उपयोग श्रोताओने हताश थई जाय तेवा ज विचार-प्रवचन फेलाववामां करे छे. आ योगग्रन्थो पूर्वगतश्रुतना अंशो छे. आना उपर अधिकारी व्यक्ति सामे वाचना थई शके. व्याख्यानमां तो बालजीवोनी अधिकता होवाथी आ ग्रन्थो ना लेवा जोइए एवं मारुं मानतुं छे. अशुद्ध ग्रन्थोना आधारे अशुद्ध प्ररूपणा थाय तेनुं मार्जन कोण करशे ?"
ग्रन्थ - योगदृष्टिसमुच्चयः सटीकः कर्ता - श्रीहरिभद्रसूरिजी सं. - आ. श्रीशीलचन्द्रसूरिजी प्र. - जैनग्रन्थप्रकाशनसमिति - खम्भात, २०६६ प्राप्ति - सरस्वती पुस्तक भण्डार,
११२, हाथीखाना, रतनपोल, अमदावाद-१
श्री विजयनेमिसूरि जैन स्वाध्याय मन्दिर, १२, भगत बाग, पालडी,
अमदावाद-७
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माहिती :
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नवां प्रकाशनो
१. वसन्तविलासमहाकाव्यम् । कर्ता : श्रीबालचन्द्रसूरि, सं. सी.डी. दलाल; पुन: सं. साध्वी चन्दनबाला श्री । प्र. सेन्ट्रल लायब्रेरी - बरोडा; पुन: प्र. भद्रङ्कर प्रकाशन, अमदावाद । ई० २०१०, सं. २०६६ ।
वर्षोथी अप्राप्य ग्रन्थमां छ नवां परिशिष्टो तथा मूळ अंग्रेजी प्रस्तावनानो गुजराती अनुवाद उमेरीने थयेलुं रंगीन प्रकाशन.
२. कीर्तिकौमुदीमहाकाव्यं तथा सुकृतसंकीर्तनमहाकाव्यम् । कर्ता : महाकवि सोमेश्वरदेव, कवि अरिसिंह ठक्कुर । सं. मुनि पुण्यविजयजी; पुनः सं. साध्वीचन्दनबाला श्री । प्र. सिंघी ग्रन्थमाला; पुनः प्र. भद्रङ्कर प्रकाशन, अमदावाद । ई. २०१०, सं. २०६६
अलभ्य बनेल बे काव्यग्रन्थोने एक पुस्तकमां सांकळीने उपयुक्त प्रस्तावनालेख - परिशिष्टादि सामग्री साथे करवामां आवेल रंगबेरंगी प्रकाशन.
३. सुकृतकीर्तिकल्लोलिन्यादिवस्तुपालप्रशस्तिसङ्ग्रहः । कर्ता : श्रीउदयप्रभसूरिआदि अनेक कविओ । सं. मुनि पुण्यविजयजी; पुनः सं. साध्वी चन्दनबाला श्री । प्र. सिंघी ग्रन्थमाला; पुनः प्र. भद्रङ्कर प्रकाशन, अमदावाद । ई. २०१०, सं. २०६६ ।
केटलांक नवां परिशिष्टो तथा वस्तुपाल विषयक विशेष सामग्रीथी संवर्धित रंगीन प्रकाशन.
४. त्रैलोक्यदीपक राणकपुर तीर्थ (सचित्र), ले. डॉ. कुमारपाल देसाई, प्र. शेठ आणंदजी कल्याणजी, अमदावाद । सं. २०६३, ई. २००७ जैन श्वेताम्बर संघनुं रमणीय तीर्थ राणकपुर, तेना मन्दिरनी कलाकोतरणी तेमज दिव्य भव्यता माटे विश्वविख्यात छे. लाखो लोको प्रतिवर्ष तेनी मुलाकाते आवे छे, अने भारतनी जैन कलाना आ बेनमून आविष्कारने जोईने अभिभूत थाय छे.
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आ भव्य मन्दिरनी शिल्पकलानां दर्शन तथा परिचय सौने घेर बेठां पण मळी रहे तेवी वर्षोनी अपेक्षा आ सचित्र ग्रन्थ द्वारा पूर्ण थाय छे. आ ग्रन्थ गुजराती, हिन्दी बन्ने भाषाओमां उपलब्ध छे. तीर्थनी परिकल्पनाना रोमांचक इतिहासथी मांडीने तेनी साम्प्रत स्थिति सुधीनी तमाम बाबतोने आवरी लेती फोटो-चित्रावली थकी आ ग्रन्थ दर्शनीय ज नहि, पण स्पृहणीयसंग्रहणीय बन्यो छे. कलाप्रेमीओने परितुष्ट करनारुं प्रकाशन.
५. श्रीव्यवहारसूत्रम्, नियुक्ति - भाष्य सहितम्, सटीकम् । भाग १६ । टीकाकार : श्रीमलयगिरिसूरिः; सं. आ. विजयमुनिचन्द्रसूरि । प्र. आ.श्री ॐकारसूरिज्ञानमन्दिर, सूरत । सं. २०६६. ई. २०१० ।
विविध परिशिष्टो साथे एक दुर्लभ गणाता ग्रन्थ- सरस सम्पादन । छेदग्रन्थ- आम सटीक प्रकाशन आपणे त्यां विरल गणाय. शुद्धिनो ख्याल पूरतो राखेल छे.आगमप्रभाकर मुनि श्रीपुण्यविजयजीए तैयार करावेल सटीक व्यवहारसूत्रनी प्रेसकॉपीना आधारे आ ग्रन्थ तैयार करवामां आवेल छे.
६. किरातार्जुनीयम्, प्रदीपिकाटीकासहितम् । कर्ता : महाकवि भारवि, टीकाकार : धर्मविजयजी गणि, सं. - अम्बालाल प्रजापति । प्र.वीरशासनम्, सूरत । सं. २०६६, ई. २०१० ।
___ डॉ. अम्बालाल प्रजापतिए पीएच.डी. पदवी निमित्ते हस्तप्रतोना आधारे तैयार करेली समीक्षित आवृत्तिनुं संशोधनोपयोगी अनेक परिशिष्टो साथेनुं प्रकाशन.
७. प्राकृतरूपावली । कर्ता : श्रीविजयकस्तूरसूरि । प्र. - भद्रङ्कर प्रकाशन, अमदावाद । सं. २०६६, ई. २०१० ।
प्राकृतविज्ञानपाठमाळानां परिशिष्टो - प्राकृतशब्दरूपावली अने प्राकृतधातुरूपावलीनुं अलगथी पुनर्मुद्रण.
८. भक्तामरस्तोत्र, उपा. मेघविजयजी, कनककुशलगणि, अने गुणाकरसूरि विरचित त्रण टीका सहित । सं. - युगचन्द्रविजयजी । प्र. - भद्रङ्कर प्रकाशन, अमदावाद । सं. २०६६, ई. २०१० ।
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संस्कृतना प्रारम्भिक अभ्यासी तथा जैनमन्त्रउपयोगी प्रकाशन.
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- तन्त्रना उपासको माटे
९. उवासगदसाओ, हिन्दी अनुवाद अने टिप्पण सहित । सं./अनु. मुनि दुलहराज । प्र. जैन विश्व भारती, लाडनूं । ई. २०१० ।
१०. जीतकल्प सभाष्य, हिन्दी अनुवाद सहित । कर्त्ताः श्रीजिनभद्रगणिक्षमाश्रमण, सं./अनु. समणी कुसुमप्रज्ञा । प्र. - जैन विश्व भारती, लाडनूं । ई. २०१० ।
विस्तृत भूमिका, टिप्पण, पाठान्तरनोंध, परिशिष्टो, विषयानुक्रम व. सम्पादनना तमाम अंगोथी परिपूर्ण आ प्रकाशनो आगमना अभ्यास माटे तो उपयोगी छे ज, पण साथे ने साथै सम्पादकोए अपनाववा जेवी सम्पादन पद्धति, आगम-प्रकाशनमां राखवा जेवी सावधानी, संशोधनक्षेत्रे कार्य करवा इच्छुकोए केळववा जेवी सज्जता व. बाबतो माटे दीवादांडीनी गरज पण सारे छे. सकळ श्री जैनसंघने जेनां मीठां फळ चाखवा मळे छे एवो परिश्रम सेवनारा आ विद्वान् विदुषीओने अन्तरनां अभिनन्दन.
आपणे त्यां आगमोनां सम्पादननी वैज्ञानिक अने प्रमाणभूत पद्धतिनो पायो मुनि श्रीपुण्यविजयजीना हाथे नंखायो. तेमणे करेलां विविध आगमग्रन्थोनां सम्पादनो, बृहत्कल्पसूत्र - वृत्तिनुं सम्पादन, आ कार्यो सम्पादनना इतिहासमां अजोड कार्यो छे. एमनी ए पद्धतिने अनुसरवानुं अने तदनुसार काम करवानुं गजुं, आपणे त्यां, त्यार पछी लगभग कोई पासे नथी जोवा मळ्युं. आंशिक रूपे मुनि श्रीजम्बूविजयजीमां एवी क्षमता जोवा मळी, परन्तु तेमना सम्पादननुं मुख्य क्षेत्र दर्शन अने व्याकरण रघुं; आगम - सम्पादन ए तेमनो प्रासङ्गिक विषय ज रह्यो. आजे आगम- सम्पादन आपणे त्यां नथी थतुं एवं नथी, परन्तु श्री पुण्यविजयजीनी ऊंचाईने आंबे तेवी क्षमता क्यां जोवा मळे ? अने जे थोडुंक काम थतुं हशे, तेमां पण आधार तो पुण्यविजयजी द्वारा संकलित संशोधित सामग्री ज बने छे. ते न होय तो आगम - सम्पादननुं काम 'लोढाना चणा' बराबर छे.
लोढाना चणा चाववानुं कार्य तेरापन्थनां श्रमण - श्रमणी करी रह्यां छे
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तेवुं उपरोक्त बे सम्पादनो जोतां कही शकाय. अलबत्त, आनो विशद अभ्यास थाय पछी ज तेनी अन्तरिक गुणवत्ता विषे निःशङ्क कही शकाय. परन्तु प्रथम नजरे ज आ सघन अने श्रमपूर्ण अध्ययननुं फळ छे एम तो अवश्य कही शकाय तेम छे. ओछामां ओछु, आजे आगम ग्रन्थो उपर अनधिकृत लोको जे सरलताथी टीका-विवरणो लखवा मांड्या छे तेवुं सरल तो आ सम्पादनकार्य नथी ज.
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११. शोभनस्तुति वृत्तिमाला, खण्ड १ - २, टीकापञ्चकैरवचूरिषष्ठेन च ग्रथिता । कर्ता : शोभन मुनि टीका : विविध मुनिवरो; सं. मुनिहितवर्धनविजय; प्र. कुसुमअमृतट्रस्ट, वापी; सं. २०६६, ई. २०१०
वि.सं. १९८३ मां प्रो. हीरालाल रसिकदास कापडिया द्वारा थयेल सम्पादन-प्रकाशननुं पुनः सम्पादन पुनः सम्पादन आम तो प्रा. कापडियाना सम्पादननी पुनरावृत्ति ज छे. नवीनतामां सं. मुनिश्रीना कथन प्रमाणे, ६ टीकाकारोए पोतानी टीकामां कोई भूल करी होय ते आ सम्पादके सुधारी छे. आ अंगे सम्पादकनी नोंध प्रस्तावनामां आ प्रमाणे वांचवा मळे छे :- "अमे विविध टीकाओमां रहेला दोषोनुं संशोधन आवश्यकतानुसार कर्तुं छे अने आ माटे पचाश जेटली टीप्पणो संस्कृत भाषामां लखीने आ ग्रन्थमां दाखल करी छे. आ ग्रन्थनुं सम्पादन करती वेळा जुदीजुदी टीकाओमां प्रधानतया व्याकरणदोषो अने क्वचित् आगमिक पदार्थनी स्खलना पण अमारी नजरे चडी. जेनुं संशोधन अमे ते ज स्थळे टीप्पणो लखीने कर्तुं छे."
सम्पादक महाशयनी आ गर्वोक्ति पछी हवे तेमणे करेलां टीप्पणो (? टिप्पणो) तपासीए.
१. खण्ड १, पृ. ३६, टि. १, अहीं वृत्तिमां " अत्र 'प्रवितर ' इति क्रियापदं, किं कर्तृ ?” आम मुद्रित पाठ छे. सं.नी दृष्टिए आ 'किं कर्तृ?" पाठ अशुद्ध छे; 'कः कर्ता ?' एम होवुं जोईए. आथी तेमणे टि. मां लख्युं : ‘दोषाऽऽकुलमिदम्’. वृत्तिकारनी अपेक्षा समजवाना प्रयत्न विना तेमनी वातने 'दोषाकुल' कहेवामां औचित्यभङ्ग थाय छे. 'किं कर्तृ' ने बदले 'किंकर्तृ' एम वांचीए; ‘क्रियापदं किंकर्तृ ?' ओटले कः कर्ता यस्य तत् किंकर्तृ एम समजीए तो बधुं सुस्थ होवानुं समजाई जाय.
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२. पृ. ३७, टि. १, अहीं सं. ने 'दद' प्रयोग असाधु जणायो छे. सामान्य रीते आवी क्षतिने लेखनदोष मानीने 'दद [स्व]' आम पाठ तैयार करवानो होय छे. वृत्तिकारनी भूल छे एवं मानी 'दोषाऽऽविष्टोऽयं प्रयोगः' एवी टि. करवी ते तो धृष्टता ज बनी जाय. 'सम्भव ! सुखं दद त्वं' ए स्तुतिमां ‘दद' प्रयोग जोवा मळे पण छे.
३. पृ. १९५, टि. १ वृत्तिकारे अर्थ स्पष्ट करवा लखेल 'तदेव ध्वान्तं कुमतध्वान्तं' एवं पदगुच्छ सं. ने नथी गम्यु. तेथी तेमणे टि.मां लखी दीधुः 'अयं पाठो निरर्थकः प्रतिभाति'. ए पाठने तेमणे [-] मां छपाव्यो छे ! वृत्तिकारना गुरुजन तेमने आवी टकोर करी शके; आपणे, सदीओ पछी जन्मेला, आवी रीते नोंध करीए तो तेमां विनयहानि अवश्य थाय.
४. पृ. १९८, टि. १. वृत्तिकारे 'श्रीशान्तिदेवता' एवा मूलगत पदनी टीका करतां लख्युं छे के 'अयं श्रीशब्दः पूज्यत्वसूचकः' आ वांचीने भडकी गयेला सं. ए टि. लखी के - 'आगमदृष्ट्याऽयुक्तमिदम्'.... इत्यादि. सं. नुं मन्तव्य छे के कृतिकार एक मुनि छे. शान्तिदेवता ए देवी छे एटले संसारी छे. ते मुनि माटे पूज्य न बनी शके. एटले 'श्री' नो अर्थ 'पूज्य' एवो वृत्तिकारे कर्यो छे ते तेमनी आगमिक भूल छे. आटलेथी न अटकता सं. 'श्री' नो अर्थ पण समजावे छे : श्री एटले ऋद्धि, तेनाथी युक्त शान्तिदेवी - आम अर्थ कराय.
___ एकाङ्गी, विवेकशून्य अने अपरिपक्व दृष्टि, तेमज पोताना छीछरा, ऐदम्पर्यविहोणा बोधनो मोटो अहंकार, मनुष्य पासे केवी चेष्टा, चपलताओ करावे तेनो आ नादर नमूनो ज गणवो पडे. अन्यथा आवी भूलो शोधीने तथा तेने आवी रीते वर्णवीने, पोते मोटी धाड मारी होय ते रीते ठेरठेर ते विषे नोंध लखवानुं दुःसाहस सं. द्वारा न थयुं होत.
___ सं. ने व्याकरणविषयक भूलो बहु झुंचती होय तेम लागे छे; तेमणे काढेली ५२ भूलोमां मोटा भागनी तेवी ज छे. आ परिप्रेक्ष्यमां आपणे सं. महोदयना व्याकरणज्ञाननी वानगी चाखीए :
(१) ग्रन्थना मुखपृष्ठ उपर वाक्य छ : 'टीकापञ्चकैरवचूरिषष्ठेन च ग्रथिता". हवे 'टीकापञ्चकेन' एवो प्रयोग तो जाणीतो छ अने मान्य पण.
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परन्तु आ 'टीकापञ्चकैः' प्रयोग नवो जाणवा मळ्यो. व्याकरणना कया सूत्रथी आवो समास-प्रयोग थयो हशे तेनो ख्याल आववो मुश्केल छे. ए ज रीते 'अवचूरिषष्ठेन' प्रयोग पण कया सूत्रथी को हशे ? 'अवचूरि' स्त्रीलिङ्गपद गणाय. तेनो 'षष्ठ' साथे विग्रह तथा समास केवी रीते थई शके ते वात समजमां आवती नथी. सम्पादयिता टीकाकार महर्षिओनी भूलो शोधी शके छे, तो आ विशिष्ट प्रयोग पण तेमना ध्यानमां होवो ज जोईए.
(२) अंदरना टाइटल पर पोताना गुरुओनां नाम साथे 'महाराज्ञां' पदनो प्रयोग पण मजानो, नवतर जणायो छे. 'महाराजानां' प्रयोग तो व्याकरणथी सिद्ध होवानुं जाण्युं छे. आ प्रयोग कया नियमथी थाय ते समजवानुं बाकी छे. हा, 'महाराज्ञां' अपप्रयोग होवानुं जरूर जाण्युं छे. पण पूर्व-महर्षिओनी क्षति शोधनार व्यक्ति आवो अपप्रयोग करे ते जरा मान्यामां न आवे तेवू छे.
प्रस्तावनामां एक वात आ प्रमाणे नोंधी छे : "अन्य कोई स्तुतिग्रन्थ उपर दश हजार श्लोको जेटलुं विशाळ संस्कृत साहित्य लखायुं नथी. ... इतर दर्शनोनुं समग्र स्तुतिसाहित्य एकत्र करीए तो दश हजार श्लोकोना प्रमाण सुधी ते पहोंची वळी शके तेम नथी." इत्यादि.
जैनेतर भक्तिसाहित्यनी विपुलता अने इयत्तानो पूरो परिचय मेळव्या विना ज थयेलु उपरोक्त विधान, विद्वज्जनोनी नजरमां हास्यास्पद ज बनी रहे तेवं छे. विवेक होय तो आवां अधकचरां-ऊभडक विधानोथी बची शकाय.
पूर्व-प्रकाशित पण हाल अलभ्य एवी ६ टीकाओ युक्त शोभनस्तुतिने आ रीते रंगीन साजसज्जा धरावतां पुस्तकोरूपे उपलब्ध करावीने एक खोट पूरी करी गणाय.
१२. निर्ग्रन्थसम्प्रदाय-जैनतर्कभाषा-ज्ञानबिन्दपरिशीलन । ले. पण्डित सुखलालजी, अनु.-डॉ. नगीन जी. शाह । प्र. - संस्कृत - संस्कृति ग्रन्थमाला, अमदावाद । ई. २००६ ।
१३. पंचकर्मग्रन्थपरिशीलन । ले. - पण्डित सुखलालजी, अनु. डॉ. नगीन जी. शाह प्र. - संस्कृत-संस्कृति ग्रन्थमाला, अमदावाद । ई.
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२००७।
१-५ कर्मग्रन्थोना हिन्दी विवेचन तेमज जैनतर्कभाषा अने ज्ञानबिन्दुनासम्पादन वखते प्रस्तावनारूपे लखायेला लेखोनो तथा निर्ग्रन्थसम्प्रदाय नामना पुस्तकने गुजराती अनुवाद. भारतीय तत्त्वज्ञानना जिज्ञासुओए परिशीलनअभ्यास करवा जेवा ग्रन्थो.
१४. उपदेशमाला, कर्ता : श्रीधर्मदासगणिः । टीका - हेयोपादेया, टीकाकार : श्रीसिद्धर्षिगणिः । सं. मुनिजम्बूविजयः; प्र. श्रुतज्ञान प्रसारक सभा, अमदावाद; ई. २०१०, सं. २०६६
थोडा ज वखत अगाऊ साध्वी चन्दनबालाश्री द्वारा सम्पादित आ ग्रन्थनु, केटलीक विशिष्ट ताडपत्र-प्रतिओना आधारे आ, नवेसरथी थयेखें सम्पादन छे. सम्पादकश्रीनी विलक्षण शोधदृष्टिनो लाभ आ सम्पादनने अवश्य मळ्यो हशे तेम मानी शकाय.
प्रस्तावनामां सिद्धर्षिगणिना गुरु कोण ते विषे सामान्य चर्चा थई छे. प्रायः आ. मुनिचन्द्रसूरिजीए अन्यत्र लखेल प्रस्तावना-लेखना उद्धरणरूप ते चर्चा जणाय छे. परन्तु ते जम्बूविजयजीने पण मान्य ज होय तेम लागे छे. आ चर्चामां "दुर्गस्वामिशिष्यसद्दर्षिचरणरेणोः सिद्धर्षेः" एवं हेयोपादेयानी प्रशस्ति गत वाक्य टांकीने तेनो अर्थ आ प्रमाणे कल्पवामां आव्यो छे : "एटले सिद्धर्षिना गुरु दुर्गस्वामि छे.सद्दर्षि-ए वखतना - वर्तमान आचार्य होय. जेमनी आज्ञामां सिद्धर्षि होय."
____ आ अर्थघटन विशेष ऊहापोह मागी ले छे. सामान्य रीते तो उपरोक्त वाक्यनो शब्दार्थ आवो थायः “दुर्गस्वामीना शिष्य सद्दर्षिना चरणरेणु (शिष्य) सिद्धर्षिनी", आवो शब्दार्थ प्रकट होवा छतां उक्त बन्ने मुनिवरोए उक्त क्लिष्ट कल्पना जेवो अर्थ केम तारव्यो हशे ? ए प्रश्न थाय.
'उपमितिभवप्रपञ्चा'नी प्रशस्तिना श्लोक ८मां 'दुर्गस्वामी'नो उल्लेख छे. श्लोक १०मां, तेमनाथी (तेमना पछी) 'सद्दर्षि' थयानो निर्देश छे. अने श्लोक १४मां तेमना शिष्य लेखे "तच्चरणरेणुकल्पेन सिद्धाभिधानेन" ए प्रमाणे 'तेमना-सद्दर्षिना चरणरेणुतुल्य सिद्ध' एवो उल्लेख स्पष्ट करवामां
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आव्यो छे.
देल्लमहत्तरना शिष्य गर्षिः तेमणे बेने दीक्षा आपी : दर्गस्वामीने तथा सिद्धर्षिने; तेथी ते सिद्धर्षिना दीक्षादाता गणाय. गर्गर्षिना शिष्य दुर्गस्वामी; तेमना शिष्य सद्दर्षि; तेमना सिद्धर्षि. आम क्रम उपमिति - प्रशस्तिना आधारे नक्की थई शके तेम छे. गर्गषिए अलग अलग समये दुर्गस्वामीने अने तेमना प्रशिष्य एवा सिद्धर्षिने दीक्षा आपी होय तो ते बनवाजोग गणाय; अशक्य न गणाय.
आम, आटली सरल योजना स्पष्टतः समजाय तेवी होवा छतां 'चरणरेणु'नो अर्थ 'शिष्य' एवो न कल्पीने 'तेमनी आज्ञामां होय' एवो कल्पवा पाछळ कयुं प्रमाण काम करतुं हशे, ते समजातुं नथी. अस्तु. आ बाबते विशेष ऊह अपेक्षित गणाय.
१५. भारतीय जैन श्रमणसंस्कृति अने लेखनकळा, ले. मुनि पुण्यविजयजी; प्र. श्रुतरत्नाकर, अमदावाद; ई. २०१०
ई. १९३६मां लखायेल आ अधिकृत, आधारभूत तथा प्रमाणभूत शोधनिबन्ध मूळे "जैन चित्रकल्पद्रुम' ग्रन्थना एक अंग तरीके छपायेलो. ते ग्रन्थ दायकाओथी अलभ्य होई तेमांना आ निबन्धनुं स्वतन्त्र यथावत् पुनः प्रकाशन आ पुस्तक रूपे करवामां आव्युं छे. एक अत्यन्त मौलिक अभ्यास, उपयुक्त प्रकाशन.
१६. The Jain Philosophy
The Yoga Philosophy The unknown life of Jesus Christ.
ले. वीरचंद राघवजी गांधी, सं. कुमारपाळ देसाई, प्र. वर्ल्ड जैन कोन्फेडरेशन, मुंबइ, ई.स. २००८-१०
वीरचंद राघवजी पश्चिमना विश्वमां जैन तत्त्वज्ञाननो प्रचार करनारा प्रथम प्रतिनिधि हता. ई.स. १८९३मां योजायेली विश्वधर्मपरिषद- चिकागोमां अनेकान्तवाद परनुं तेओनुं रसप्रद वक्तव्य माणीने प्रभावित थयेली अमेरिकायुरोपनी जनताले तेओने होंशेहोंशे आवकार्या हता. सन्मान्या हता, सांभळ्या
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हता. वीरचंदजीओ पण योग, मानसशास्त्र, आहारविज्ञान, जैन फिलोसोफी व. विषयो पर ऊंडं चिन्तन धरावतां सुन्दर वक्तव्यो आप्या हता अने लेखो पण लख्या हता. आ वक्तव्य-लेखोमां भारतीय संस्कृतिनुं यथार्थ दर्शन रजू थयु हतुं. ध जैन फिलोसोफी ग्रन्थमां जैन तत्त्वज्ञानविषयक अने ध योग फिलोसोफीमां योग विषयक प्रवचन-लेखोनुं संकलन थयुं छे. त्रीजो ग्रन्थ मूळ फ्रेन्च भाषामां निकोलस नोटोविचे लखेला ग्रन्थनो संशोधन साथेनो अनुवाद छे.
१७. व्युत्पत्तिवाद (द्वितीयाकारक - प्रथम खण्ड) - गुजराती विवेचन. कर्ता - गदाधरभट्ट,गुज.वि.- मुनिश्री भव्यसुन्दरविजयजी म., प्र. दिव्यदर्शन ट्रस्ट, धोळका, ई.स. २०१०
गुजराती भाषामां व्युत्पत्तिवादने समजवा इच्छता अभ्यासुओ माटे उपयोगी प्रकाशन.
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माहिती :
अनुसन्धान - ५३ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग - १
हेम - समारोह तथा संस्कृत - पर्वनो हेवाल
अमदावादमां योजाई गयो गुजराती भाषा - साहित्यना त्रण मूर्धन्य साहित्यकारो - संशोधकोने हेमचन्द्राचार्य-चन्द्रक अर्पण करवानो समारोह
डॉ. निरंजन राज्यगुरु
कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य जेवी विश्ववन्दनीय विभूतिना नाम अने काम साथै सम्बन्ध धरावता अने पूज्यपाद आचार्यश्री विजयसूर्योदयसूरीश्वरजी महाराजनी प्रेरणाथी स्थपायेला ट्रस्ट 'कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवमजन्मशताब्दी स्मृति-संस्कार - शिक्षणनिधि 'ना उपक्रमे, पूज्य आचार्यश्रीना मार्गदर्शनानुसार चाली रहेली विविध ज्ञानवर्धक प्रवृत्तिओमांनी ओक प्रवृत्ति ते आपणा साहित्य अने संस्कृतिनी अमूल्य सेवा करनार विशिष्ट प्रतिभासम्पन्न विद्वानोने 'श्रीहेमचन्द्राचार्य - चन्द्रक' अर्पण करीने तेमनुं बहुमान करवानी छे.
भूतकाळमां पं. श्री दलसुखभाई मालवणिया, डॉ. श्री हरिवल्लभ भायाणी, श्री शान्तिभाई शाह, श्री उमाकान्त शाह, श्री नगीनभाई शाह, श्री के आर. चन्द्रा, श्री सत्यरंजन बेनरजी, श्री जयन्त कोठारी, श्री मधुसूदन ढांकी, श्री लक्ष्मणभाई भोजक वगेरे दस जेटला भारतीय कक्षाना विद्वानोने आ चन्द्रक अर्पण थयो छे. ते शृङ्खलामां आगळ वधतां ता. ९-१० - २०१० आसो सुदी बीज वि.सं.२०६६ना रोज शेठ हठीसिंहनी वाडी, शाहीबागना उपाश्रयमां, पू. आचार्यश्रीना सान्निध्यमां गुजराती भाषा - साहित्यना त्रण तेजस्वी विद्वानो सर्वश्री कनुभाई जानी, लाभशंकर पुरोहित अने डॉ. हसुभाई याज्ञिकने ‘हेमचन्द्राचार्य-चन्द्रक' अर्पण करवा योजायेलो चन्द्रक-प्रदान समारोह अ साचा अर्थमां ज्ञानभक्ति-महोत्सव बनी रह्यो, अने ते सौने माटे संतृप्ति आपनारो नीवड्यो. अ प्रसंगे अतिथि - विशेषपदे अमदावादना जग विख्यात स्थापत्यविद्द, पुरातत्त्वविद्द पद्मभूषण डॉ. मधुसुदन ढांकी तथा अमरेलीना संस्कृत भाषा - साहित्यना पण्डितश्री वसंतभाई परीख उपस्थित हता. श्री रघुवीर चौधरी, डॉ.
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शिरीष पंचाल, कविश्री राजेन्द्र शुक्ल, कविश्री जयदेव शुक्ल, डॉ. मनोज रावल, डॉ. नाथालाल गोहिल, डॉ. राजेश पंड्या, श्री हर्षद त्रिवेदी, डॉ. रवजी रोकड जेवा साहित्यकार विद्वानो अने प्राध्यापकोनी उपस्थितिने लीधे विद्वानोना मेळा जेवू वातावरण रचायेखें, तो भाविक श्रोतावर्ग पण बहोळी संख्यामां उपस्थित रहेलो. जैन संघना श्रेष्ठिवर्य वडील श्री श्रेणिकभाई कस्तूरभाई, शेठश्री आणन्दजी कल्याणजी पेढीना प्रमुखश्री संवेगभाइ लालभाइ ओ बन्ने अग्रणीओनी अतिथि-विशेषरूपे हाजरी सोनुं अने सुगन्धना सुभग समन्वय समी हती. आ प्रसंग माण्या पछी सौने थयुं के आवो अवसर फरी फरी योजावो ज जोइओ.
___ आ मङ्गल प्रसङ्गे गुजरातना तेजस्वी अध्यापको अने विवेचक अभ्यासीओमां जेमनुं नाम अत्यन्त आदरथी लेवामां आवे छे अवा श्री शिरीषभाई पंचाल तथा गुजरात साहित्य अकादमीना महामात्र, 'शब्दसृष्टि' ना सम्पादक अने कवि-विवेचक श्री हर्षद त्रिवेदी द्वारा दीपप्रागट्य थयु. मे पछी पूज्य आचार्यश्री विजयसूर्योदयसूरीश्वरजी महाराजसाहेब द्वारा मङ्गलाचरण बाद संगीतज्ञ आदरणीया इन्दुबेन पण्डित तथा श्री शिरीषभाई पण्डित द्वारा मंगल गान प्रस्तुत थयुं, जेमां सरस्वती-वन्दना अने हेमचन्द्रस्तुति हता. ओ पछी स्वागत-प्रवचन करतां ट्रस्टना प्रतिनिधि श्री पङ्कजभाई शेठे 'कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम-जन्मशताब्दी-स्मृति संस्कार-शिक्षणनिधि' ट्रस्टनी विविध प्रवृत्तिओनो ख्याल आपीने जणाव्यु के एकवीश वर्ष पूर्वे गच्छाधिपति आचार्यश्री विजयसूर्योदयसूरिजी म.सा.नी प्रेरणाथी ट्रस्टनी स्थापना थई, अने अनेक परिसंवादो, सेमिनार, संगोष्ठिओ, ग्रन्थप्रकाशनो तथा हेमचन्द्राचार्यचन्द्रकना अर्पण-समारम्भो थता रह्या छे. जेने देश-परदेशना विद्वानो द्वारा सहकार मळतो रह्यो छे. आजे गुजराती भाषाना त्रण मूर्धन्य संशोधकोनुं बहुमान करवानो मङ्गल प्रसङ्ग योजायो छे, एमां उपस्थित सौनुं हार्दिक स्वागत छे.
स्वागत-प्रवचन बाद आ कार्यक्रमनी भूमिका बांधतां डॉ. निरंजन राज्यगुरुओ जणाव्युं के - "आपणे त्यां गुजरातमां साहित्य, शिक्षण, संस्कार, सेवा, स्वाध्याय अने संशोधनमां कार्यरत अनेक संस्थाओ पोतपोतानी रीते काम करे छे. दरेकना उद्देशो, कार्यप्रणाली, अभिगमो विभिन्न होय मे स्वाभाविक छे, परन्तु भाषा-साहित्यना अणिशुद्ध उत्कर्ष माटे मथनारी संस्थाओ अने
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सम्पूर्ण सात्त्विक व्यवहारो धरावनारी व्यक्तिओ ओछी थती जाय छे अ हकीकत छे. त्यारे ओक अद्भुत योगानुयोग छे के गुजराती भाषानो पिण्ड जे बे सत्पुरुषो द्वारा बंधायो छे ते कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्यजी अने भक्तकवि नरसिंह महेता - ओ बंनेना नामथी ट्रस्टो चाले छे, अने साहित्यना क्षेत्रमा अपूर्व योगदान कर्यु होय अवा सर्जको-संशोधकोने आ ट्रस्टो द्वारा नवाजवामां आवे छे. बेउ ट्रस्ट साधुजनोना शुभ संकल्पोनुं परिणाम छे. 'हेमचन्द्राचार्य-चन्द्रक' आजे त्रण गुर्जर सरस्वती-आराधकोने अर्पण थवा जई रह्यो छे, अने 'नरसिंह महेता ओवोर्ड' आजथी मात्र बार दिवस पछी शरदपूर्णिमाना दिवसे गुजराती भाषाना ओक समर्थ कवि श्री अनिल जोशीने अर्पण थशे. बे धर्मपरम्पराओनुं संमिलन थाय, भेदनी भीत्युं भांगती जाय ओवा वातावरण, निर्माण करवाना बीज आचार्य हेमचन्द्रे रोपेलां. आजे अनुं वटवृक्ष पांगरी रह्यु होय अवा अणसार देखाता थया छे. दिव्य चैतसिक उघाडनी घडीओ नजीक आवी छे.
___ "आजे जेमनुं बहुमान थशे से त्रणेय विद्वान महानुभावो अकथी वधु भाषाओ जाणे छे, शब्दना अनुशासनमा रहेनारा छे, शब्दविवेकने पूरेपूरो पिछाणनारा छे, त्रणे य साचा ब्राह्मणो छे. श्रेष्ठिरूप धरीने-शामळशा शेठ बनीने भगवाने पोते नरसैयानी सेवाभक्ति स्वीकारेली, अने अेक शब्दना सर्जकनुं सन्मान करेलुं. आम आजे समस्त भारतवर्षना श्रेष्ठिवर्यनी हाजरीमां, सन्तपुरुषोना सान्निध्यमां, गुजरातना ख्यातनाम प्रकाण्ड पण्डितोना हस्ते आ त्रणे विद्यापुरूषोनुं सन्मान थशे.
"पूज्य आचार्यश्री विजयसूर्योदयसूरिजी महाराजसाहेब तथा पूज्य आचार्यश्री विजयशीलचन्द्रसूरिजी महाराजसाहेब द्वारा साहित्य अने संशोधनना क्षेत्रमा ओक अतिमहत्त्व- कार्य मे थइ रह्यं छे के, गुजराती भाषा-साहित्यना संशोधन/अध्ययन/अध्यापन साथे जोडायेला नवी पेढीना सर्जको-संशोधकोने आपणा प्राचीन जैन-जैनेतर साहित्यनी दिशामां दोरीने रस लेता करवा. गोधरा, महुवा, सुरत, तगडी अने अमदावादमां आ पहेलां योजायेला परिसंवादो तथा साहित्यगोष्ठिओ अने, पूज्य शीलचन्द्रजी महाराजसाहेबना विद्यातपथी पुष्ट थता जता 'अनुसन्धान'नो बावनमो अंक ओनी शाख पूरे छे. केटलीये निष्क्रिय कलमोने फरी चेतनवन्ती बनाववानुं कार्य तेमना द्वारा थतुं रडुं छे. संशोधनक्षेत्रनी
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अत्यारनी परिस्थिति अने विद्वानोनी कारमी अछतना समये आजना संसारत्यागी युवान साधु-साध्वीजीओ द्वारा सम्पूर्ण प्रमाणभूत अने वैज्ञानिक ढंगथी थई रहेला संशोधन/अध्ययन / सम्पादन अने प्रकाशनो जोतां आशास्पद अने उज्ज्वल भविष्यनी अंधाणी जेम महाराजसाहेबने देखाणी छे, अनी प्रतीति समग्र विद्याजगतने थवामां हवे झाझी वार नथी. "
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आटली भूमिका पछी श्री कनुभाई जानीनो परिचय आपतां श्री जयदेव शुक्ले जणाव्युं के - " अक तणखो दीपमाळनो परिचय आपवा जाय तो केवी ते आपी शके ? आ जरापण नम्रता नथी. त्रणे महानुभावो आवा दीपमाळ समा छे. साहित्यना, संगीतना अने कलाओना तमाम क्षेत्रोना मर्मज्ञो छे. श्री कनुभाई जानी ओटले सहज, सरळ, निर्दम्भ, निस्पृह छतां जीवता जागता ज्ञानकोश..." आम कहीने तेमणे कनुभाई जानीना व्यक्तित्वना अनेक पासांओने उजागर कर्या हता. अ पछी श्री लाभशंकर पुरोहितनो परिचय आपतां श्री शिरीष पंचाले पोतानी त्रीश - पांत्रीश वर्षनी मैत्रीनो उल्लेख करीने जणाव्युं के "आधुनिकता - अनुआधुनिकताना पूर्व-पश्चिमना तमाम साहित्यनो, आपणी संस्कृतना शिष्ट-प्रशिष्ट साहित्यनो सम्पूर्ण परिचय होवा छतां लोकधर्मी साहित्यकार तरीके गुजरातना परम्परित साहित्य, संस्कार, कलाओ, विद्याओना पूरा जाणकार श्री लाभुदादा नम्रतानी साथे पोते जे माने छे तेनी प्रतीति सौने कराववा पूरा कटिबद्ध होय छे. समाजमां आवी असली वातो करनारा ओछा ज होय... ' त्यारबाद प्रा. परम पाठके ७२ वर्षना युवान संशोधक श्री हसु याज्ञिकनो परिचय आपतां तेओना मध्यकालीन कथासाहित्य, गूढ विद्याओ, लोकसाहित्य, संगीतना मरमी अभ्यासी संशोधक अने सामाजिक रहस्यात्मक कथासाहित्यना सर्जक तरीकेना विभिन्न पासांओ वर्णव्या हता.
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आ प्रसंगे आचार्यश्री विजयशीलचन्द्रसूरिजीओ वक्तव्य आपतां श्रीहेमचन्द्राचार्यजी द्वारा गुजरातने मळेल पांच अनुशासनोनी सदृष्टान्त चर्चा करी हती. " ओकली विद्या सन्मानने पात्र बनावती नथी परन्तु अमां ज्ञान, क्रिया, तप, साधना भळे तो ज मुक्ति प्राप्त थाय. कलिकालसर्वज्ञनुं बिरुद हेमचन्द्राचार्यजीने
गुर्जर सम्राटोने मार्गगामी बनाववाने कारणे प्राप्त थयुं छे, अने मात्र सम्प्रदायना लेबलथी ज ओळखाववामां आवे छे परन्तु आचार्य श्री अटला सीमित नहोता. '
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ओम कहीने स्वधर्मे परमनिष्ठ छतां परधर्मे पूरा समन्वयवादी, सर्वधर्मसमभावनी केडी कंडारनारा महापुरुष तरीकेनुं ओमनुं विविधरंगी व्यक्तित्व इतिहासनां प्रमाणो आपीने प्रस्फुटित कर्यु हतुं. त्यारबाद प्रशस्तिपत्रोनुं वांचन : मनोज रावल, हर्षद त्रिवेदी, निरंजन राज्यगुरु द्वारा थयुं अने त्रण विद्वज्जनोनुं सन्मान माला, श्रीफळ, शाल, सरस्वतीनी प्रतिमा, प्रशस्तिपत्र तथा अकावन हजारनी राशिना चेक साथे हेमचन्द्राचार्य-चन्द्रकनी अर्पण-प्रदान विधि ताळीओना गडगडाट वच्चे तथा वेदोक्त ऋचाओ अने जैन माङ्गलिक श्लोकोना पठनउच्चारण साथे करवामां आव्यु. सन्मान/बहुमान पछी तुरत ज चन्द्रक-विभूषित त्रणे महानुभावोना हस्ते आचार्यश्री अने तेमना मुनिओ द्वारा लिखित अने सम्पादित त्रण पुस्तको १. सिद्धहेम-लघुवृत्ति-उदाहरण-कोश, २. धर्मतत्त्वचिन्तन, ३. श्रीहेमचन्द्राचार्य अने तेमणे रचेल महादेवबत्रीशी- विमोचन करवामां आव्यु हतुं. ओ पछी श्री कनुभाई जानी, श्री लाभशंकर पुरोहित अने श्री हसु याज्ञिक द्वारा पोताना थयेला बहुमान अंगे प्रतिभाव वक्तव्यो अपायां.
अतिथि-विशेष श्री मधुसूदन ढांकी साहेबे आ प्रसंगे जैन संघ तरफथी आ रीते जैनेतर साहित्यना त्रण ऊंडा अभ्यासीओ- सन्मान थयुं ओ बदल पोतानी प्रसन्नता व्यक्त करीने हेमचन्द्राचार्य तथा सिद्धराज जयसिंहना इतिहास अंगे प्राप्त थता प्रमाणभूत सन्दर्भो विशे हिन्दी भाषामां विद्वत्तापूर्ण व्याख्यान आप्युं हतुं.
आ प्रसंगे अमरेलीथी खास उपस्थित रहेला संस्कृत भाषा-साहित्यना राष्ट्रीय कक्षाना विद्वान पंडित अने गुजराती साहित्य, संस्कृति तथा लोकवाणीना मरमी, परखंदा मालमी श्री वसंतभाई परीख साहेबे ज्ञानामृतनुं पान करवा आटला लांबा समय सुधी अकधारा बेसी रहेला खरा अधिकारी श्रोताजनोनुं अभिवादन करीने आवा ज्ञान-भक्तिसभर कार्यक्रमने बिरदाव्यो हतो. अने पू. महाराजसाहेब द्वारा गुजरातनी संस्कारभागीरथीना त्रण प्रवाह जेवा अणमोल मोतीडांने पारखीने अमनुं यथोचित बहुमान थयुं अने हजु साहित्य-संशोधन अने शब्दसाधना करनारी पेढीनो जीवन्त प्रवाह वही रह्यो छे ओनी प्रतीति कराववामां आवी ते बदल आनन्दनी लागणी व्यक्त करी हती.
तो गुजराती साहित्य परिषदना पूर्व प्रमुख अने वर्तमान ट्रस्टीश्री
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रघुवीर चौधरीले आजे थयेलुं त्रण विद्वानो, सन्मान मात्र मध्यकाळनुं रहस्य जाणनारा, गुजरात के पश्चिम भारतना ज नहीं पण समग्र भारतना विद्यापुरुषोनुं अभिवादन छे अम कहीने पोतानो हर्ष व्यक्त को हतो. त्यारबाद कविश्री राजेन्द्र शुक्ले पोतानी तीर्थ-उध्धारनो भाव व्यक्त करती बे रचनाओनुं पठन कर्यु हतुं.
'शून्य, शिखर समरावशें, ऊर्ध्व- चैत्य उधरावशें, तीर्थ उद्धारशुं आगवू, शब्दनुं बिम्ब पधरावशें, अवनवी आंगी रचशुं वळी, गन्ध कर्पूर पमरावशें, मौनना मन्द मन्द स्वरे गाइशें, स्तवन गवरावरों,
नित्य आनन्दनी गोचरी, वापर्यु अ ज वपरावशें...'
समापन पछी चन्द्रक-प्रदानना उपलक्ष्यमां, ते ज दिवसे बपोरे ओक विद्वद्गोष्ठी (सेमिनार)नुं आयोजन करवामां आवेलं. तेमां पण डॉ. शिरीष पंचाल, हर्षद त्रिवेदी, सिमलाथी पधारेला संस्कृतना विद्वान अने सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालयना पूर्व कुलपति,त्रिवेणी कविश्री डॉ. अभिराज राजेन्द्र मिश्र, अमेरिका छोडीने अमदावादमां स्थायी थयेला नाट्यविद् जयन्ति पटेल 'रंगलो' तथा विविध विद्वान प्राध्यापकोओ 'वर्तमान समयमां समाज अने साहित्यना सम्बन्धो' तथा 'मध्यकालीन साहित्यना संशोधन क्षेत्रे अध्यापकोनी उदासीनता' विषये व्याख्यानो आपेलां. जे खरेखर विद्वद्भोग्य अने जिज्ञासानी तृप्ति करे तेवा हता. समारम्भना आगला दिवसे ता. आठमीनी रात्रे ओक नानकडो पण अर्थसघन कविमेळो हठीसिंहनी वाडीना पटांगणमां करवामां आवेलो, जेमां सर्वश्री लाभशंकर पुरोहित, दलपत पढियार, निरंजन राज्यगुरु, किशोरचन्द्र पाठक तथा डॉ. राजेन्द्र मिश्र वगेरेओ भाग लीधो हतो.
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अमदावादमां श्री हठीसिंह केसरीसिंहनी वाडी मध्ये संस्कृत-सभा
अमदावाद शहेरमां शेठ श्री हठीसिंह केसरीसिंहनी वाडीमां जैन संघमां शासनसम्राट समुदायना गच्छाधिपति पू. आचार्य श्री विजयसूर्योदयसूरीश्वरजी महाराजना तत्त्वावधानमां आसो सुदी १, ता. ८-१०-२०१०, शुक्रवारना दिने अक संस्कृत सभा योजाई गई.
विद्वान आचार्यश्री विजयशीलचन्द्रसूरिजी म.नी प्रेरणाथी कीर्तित्रयी मुनिओ द्वारा संकलित संस्कृतभाषामय अयनपत्र 'नन्दनवनकल्पतरु'ना पचीसमा अंक - 'रजत अंक'ना प्रकाशन- प्रागट्य निमित्ते आ संस्कृत - सभानुं आयोजन करवामां आव्युं हतुं.
आ सभाना अध्यक्ष तरीके संस्कृतभाषाना आदरणीय विद्वान्, सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालयना पूर्व कुलपति, त्रिवेणी कवि डॉ. श्री अभिराज राजेन्द्र मिश्र शिमलाथी पधार्या हता. बीजा वक्ताओमां पाटणनी हेमचन्द्राचार्य युनिवर्सिटीना स्थापक कुलपति श्री कुलीनचन्द्र याज्ञिक तथा गुजरातना संस्कृत साहित्यना मान्य विद्वान प्रा. श्री विजय पंड्या पधार्या हता. ते सिवाय कीर्तित्रयी मुनिओओ पण संस्कृत भाषामां पोतानुं वक्तृत्व आप्युं हतुं.
सभाध्यक्ष श्री राजेन्द्र मिश्रजीओ पोताना मननीय प्रवचनमां बुलंद स्वरे जणाव्युं हतुं के— “भारत देशनी सर्व भाषाओ संस्कृतभाषामांथी ज उत्पन्न थई छे अने ते ते भाषाओना मोटा भागना शब्दो संस्कृत ज छे, तेथी संस्कृतभाषा अ भारतनी अन्यान्य प्रादेशिक भाषाओनी समोवडी ज छे. भले आजना झडपथी पलटाता देश- काळमां ते व्यवहारभाषा न बनी शके, पण तेथी तेनुं महत्त्व जराय ओछं थतुं नथी, उलटं वधी जाय छे. आजथी बे हजार वर्ष पहेलां जे संस्कृतभाषा बोलाती अने लखाती हती ते ज आजे पण बोलाय अने लखाय छे. काश्मीरमां जे संस्कृत बोलाय - लखाय छे ते ज केरलमां पण बोलाय-लखाय छे. युरोपीय लेटिन भाषानी जेम संस्कृत भाषा कोई क्लासिकल भाषा नथी के जे व्यवहारमां न वपराती होय. संस्कृत भाषा आजे पण व्यवहारमां छे, तेमां बोलाय - लखाय छे अने ग्रन्थो पण रचाय छे. अन्य
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भाषाओमां जेम साहित्यना नवा नवा प्रकारो रचाय छे तेम संस्कृतभाषामां पण रचाय ज छे. ओ कोई मृत भाषा नथी. ते तो सदाय जीवन्त अने नित्यनूतन भाषा छे. आ छेल्ला शतकमां ज जोइओ तो संस्कृत भाषामां ३००थी अधिक महाकाव्यो रचायां छे. अन्य कोइपण भाषाओ करतां आ आंकडो क्यांय वधारे छे. ज रीते महाकाव्य सिवायना साहित्यना प्रकारोमां पण आ ज स्थिति छे. अने अमो साहित्यकारो पण आजे अन्य भाषाओना उत्तमोत्तम प्रशिष्ट साहित्यनी जेम संस्कृतभाषामां पण तेवू ज उत्तम अने प्रशिष्ट साहित्य रचवाना पूर्ण प्रयत्नो करीओ छीओ, जेथी संस्कृतभाषा अन्य भाषानी साथोसाथ टकी शके, लोकोने तेना तरफ आकर्षण लागे, ते पार्छ ऊंचुं आवे. आपणा लोकोने पण अमारी भलामण छे के- ज्यारे वसति-गणतरी थाय छे त्यारे तेमां भाषाओना खानामां लोको पोतानी प्रादेशिक भाषा अने अंग्रेजी भाषा जाणे छेओम लखावे छे. तेथी दरेक प्रादेशिक भाषामां अने अंग्रेजीभाषामां लाखोकरोडो लोकोनी गणतरी थाय. ज्यारे संस्कृतभाषामां मात्र अमुक हजार लोकोनी ज गणतरी थाय छे. आपणी दरेकनी मूळ भाषा तो संस्कृत ज छे. दरेक भाषामां संस्कृत शब्दनो ज घणो मोटो उपयोग थाय छे. तो जो आपणे वसति-गणतरी वखते प्रादेशिक भाषा साथे संस्कृतभाषा पण लखावीओ तो सरकारने पण थाय के- देशमां संस्कृतभाषी लोको घणा वधारे छे, तेथी अमारे पण तेना प्रचारप्रसार माटे कंइक करवू जोइओ. तो आ भाषाने नित्य जीवन्त अने उच्चस्तरनी राखवा माटे आपणे ज प्रयत्न करवो पडशे."
'नन्दनवनकल्पतरु'ना प्रकाशन अंगे पण तेमणे कडं के - "भारतमां अत्यार सुधीमां ३००थी अधिक संस्कृत सामयिको प्रकाशित थयां छे. आजे पण १५० थी वधु सामयिको प्रकाशित थाय छे. पण मने तो बे ज संस्कृत सामयिको अत्यन्त शिष्ट अने शुद्ध लाग्यां छे के जेमां आगळना नामथी लइने छेल्ला पानाना अक्षर सुधी अेक पण व्याकरणनी भूल न होय के अशुद्धि न होय. ते बे सामयिकोमां ओक छे दिल्हीथी प्रकाशित थतुं 'दूर्वा' अने बीजूं छे 'नन्दनवनकल्पतरु'. मने ओ खूब ज गमे छे, अने तेनुं साद्यन्त वाचन हुं करुं छु. मारे मन तेनुं खास महत्त्व तो ए छे के संसारथी विरक्त साधु भगवन्तो तेनुं सम्पादन-प्रकाशन करे छे. अने हुं पूरा विश्वासथी कहीश के भारतभरमां
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अनुसन्धान - ५३ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग - १
अन्यान्य सम्प्रदायोना लाखो साधु महात्माओ हशे पण संस्कृत सामयिकनुं प्रकाशन तेमांनुं कोई करतुं होय अ मारी जाणमां नथी. मात्र अहींथी ज कीर्तित्रयी मुनिओ तेनुं प्रकाशन करे छे. आ सामयिकना पचीसमा अंकना प्रकाशन माटे आ बधो समारम्भ कर्यो, पण मारी विनन्ति छे के अहीयां अटकवानुं नथी, हजी तो घणी लांबी मजल कापवानी छे अने निरन्तर तेनुं प्रकाशन करवानुं छे. अमो सर्व साहित्यकारो - संशोधको सर्वदा आपना सहयोगमां रहीशुं.”
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श्री कुलीनचन्द्र याज्ञिके जणावेलुं के - "संस्कृत भाषानां सुभाषितो आपणने जीवनमां वधु ने वधु सारी रीते केम जीवाय - ते खूब सरळताथी अने हृदयस्पर्शी रीते शीखवे छे. प्रत्येक सुभाषितोमां जीवननो अर्क पड्यो छे. पहेलां तो नानपणथी बाळकोने आ सुभाषितो शीखवाडातां हतां तेथी तेमनुं जीवन संव्यवस्थित अने सरळ रहेतुं. आजे ओ बधुं लुप्त थई गयुं छे, छतां
अटलुंज प्रस्तुत छे. आजकाल सरकार नैतिक मूल्योनां शिक्षण अंगे चिन्तित छे, पण जो आ सुभाषितोना माध्यमथी नैतिक मूल्यो शीखवाय तो ओक ओक सुभाषित घणां घणां नैतिक मूल्यो शीखवाडी शके. मने तो लागे छे के ज्यारथी व्यवस्थित रीते संस्कृतभाषा शीखववी बंध थई छे त्यारथी ज नैतिक मूल्योनो ह्रास थवा मांड्यो छे.'
प्रा. श्री विजय पंड्या 'जैन रामायण' विषय पर अभ्यासपूर्ण प्रवचन आपतां वाल्मीकि रामायणथी मांडी आजसुधीनां रामायणो साथे 'पउमचरिय' वगेरे जैन - रामायणोनुं तुलनात्मक विश्लेषण कर्तुं हतुं.
कीर्तित्रयी मुनिओमां, मुनिश्री रत्नकीर्तिविजयजी अन्यत्र चातुर्मासार्थे गया होवाथी तेमना संस्कृतभाषामय संदेशा - पत्रनुं पठन करवामां आव्युं हतुं. मुनिश्री धर्मकीर्तिविजयजीओ 'कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्यजीनी कविप्रतिभा' विषय पर संस्कृतभाषामां मननीय प्रवचन करतां कह्युं हतुं के - "गुजराती भाषानां मूळ-कुळ हेमचन्द्राचार्यजीने आभारी छे." मुनिश्री कल्याणकीर्तिविजयजीओ ‘नन्दनवनकल्पतरुनो उद्भव अने विकासयात्रा' विषय पर संस्कृतभाषामां बोलतां आ सामयिकना प्रकाशन अंगेनी तमाम माहिती आपी हती. तो मुनिश्री त्रैलोक्यमण्डनविजयजीओ 'संस्कृत काव्यसाहित्यमां जैनमुनिओनुं प्रदान' विषय
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________________ डिसेम्बर 2010 181 पर मधुर संस्कृतभाषामां बोलतां जैनमुनिओना अनुपम साहित्यसर्जन विशे सरस जाणकारी आपी हती. ___आ सभामां कच्छ-युनिवर्सिटीना पूर्वकुलपति श्री कान्ति गोर पण उपस्थित रह्या हता अने प्रासंगिक प्रवचन आप्यु हतुं. ते सिवाय आ सभामां संस्कृत साहित्य अकादमीना अध्यक्ष श्री गौतम पटेल, गुजरातना संस्कृतभाषाना मूर्धन्य कवि श्री हर्षदेव माधव तथा अन्य विद्वान साहित्यकारो उपस्थित रह्या हता. सभाना मुख्य कार्य रूपे अयनपत्र 'नन्दनवनकल्पतरु'ना पचीसमा अंकना लोकार्पण साथे डॉ. राजेन्द्र मिश्रना नूतन पुस्तक 'संस्कृत भाषा के अर्वाचीन काव्यसाहित्य का समीक्षात्मक इतिहास' तथा साध्वीश्री चन्दनबालाश्रीजी सम्पादित त्रण ग्रन्थो, पण लोकार्पण थयुं हतुं. सभाना अन्ते आचार्यश्री विजयसूर्योदयसूरिजीओ पोताना आशीर्वाद आप्या हता. आखी सभानुं सफळ संचालन संस्कृतभाषाना मूर्धन्य विद्वान डॉ.श्री वासुदेव पाठके कर्यु हतुं. C/o. सन्त साहित्य-संशोधन केन्द्र, आनन्द-आश्रम, घोघावदर (गोंडल)