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मनकान्त
सम्पादक-पं० जुगलकिशोर मुख्तार
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-विषयसूची
AIKA
१ समन्तभद्र-भारतीके कुछ नमूने (युक्त्यनुशासन)-[सम्पादक २२३ २ आ० भाषाओं की व्यु० जैन० महत्व-[बा० ज्योतिप्रसाद एम. ए. २२५ ३ ग्रंथ और ग्रंथकार (मूलाचार कार्तिकेयानुप्रेक्षा)-[सम्पादक २२७ ४ वीतरागस्तोत्र-[सम्पादक
२३३ ५ सर राधाकृष्णनके विचार
२३४ ६ साम्प्रदायिक दंगे और अहिंसा-[बा० राजकुमार जैन २३५
७ भ० महावीर और उनका सन्देश-[श्रीकस्तूरसाव जैन, बी० ए० २३७ नवंबर ८ वनस्पति घी-[महात्मा गांधी
२४६ दिसंबर
६६३ वें सूत्रमें 'संजद' पदका विरोध क्यों ?-[पं० दरबारीलाल २४७ १० कायरता घोरपाप है-[श्री अयोध्याप्रसाद गोयलीय ११ बंगालके कुछ प्राचीन जैनस्थल-[बा० ज्योतिप्रसाद एम० ए० २६१ १२ चारित्र्यका आधार-[श्री काका कालेलकर " २६३ १३ धर्म और नारी-[बा० ज्योतिप्रसाद जैन, एम० ए०
२६५ १४ अपभ्रंश भापाका जैन कथा-साहित्य-पं० परमानन्द शास्त्री २७३ १५ प्रा. जैनमं०के ध्वंसे निर्मित मस्जिदें-[बा० ज्योतिप्रसाद एम०ए० २७६ १६ रत्न और आ० का कए कर्तृत्व प्रमाण सिद्ध है-[पं० दरबारीलाल २८२ १७ एक प्राचीन ताम्र-शासन-[सम्पादक
१८ भट्रारकीय मनोवृत्तिका एक नमूना-[सम्पादक INE १६ विविध-विषय-[जे० पी०] शा २० साहित्यपरिचय और समालोचन-[ज्योतिप्रसाद जैन H ams-deamreshames-Tame r ames-rameshameshamesTH
THERERMITT
HANUGREE
२८६
२६५
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च्यावश्यक सूचना
मत किरण में अनेकान्तके प्रकाशनमें होनेवाली विलम्बपर अपना भारी खेद व्यक्त करते और उसके कारण एवं तज्जन्य अपनी मजबूरीको बतलाते हुए यह श्राशाकी गई थी कि अगली किरणोंका मैटर शीघ्र ही प्रेस में जाकर वे प्रेसके श्राश्वासनानुसार जल्दी छप सकेंगीं और कुछ समयके भीतर ही विलम्बकी पूर्ति हो जायगी । परन्तु जिस हाइट प्रिंटिंग कागजपर अगली किरणोंके छापनेकी सूचनाकी गई थी उसका परमिट तो मिलगया था किन्तु कागज नहीं मिला था । कागजके लिये कितनी ही बार सहारनपुर के चक्कर लगाने पड़े और प्रत्येक होलसेलर ( wholeseller ) को उसके देने के लिये प्रेरणा की गई परन्तु सबने टकासा जवाब दे दिया और कह दिया कि हमारे पास आपके मतलब का कागज नहीं है। मालूम यह हुआ किं सहारनपुर जिलेका कोटा तो कम है और परमिट अधिकके कटे हुए हैं, ऐसी हालत में माँग के अधिक बढ़जानेसे अक्सर व्यापारी लोग (होलसेलर्स) श्राते ही माल को प्रायः इधर उधर कर देते हूँ – दुकानोंपर रहने नहीं देते — और फिर ड्योढे दुगुने दामों पर बलैकमार्केट द्वारा अपने खास व्यक्तियोंकी मार्फत बेचते हैं | यह देखकर डिस्ट्रीव्यूटरों (distributors) के पास से कागजके मिलनेकी व्यवस्थाके लिये परमिटमें सुधार कर देने की प्रार्थना की गई परन्तु पेपर कंट्रोलर साहबने उसे मंजूर नहीं किया— अर्थात् अपनी हुंडी तो खड़ी रक्खी परन्तु उसके भुगतानकी कोई सूरत नहीं निकाली !! लाचार देहली में एक पेपर एडवाइजरी बोर्ड के मेम्बर के सामने अपना रोना रोया गया और इस सरकारी अव्यवस्थाकी र उनका
ध्यान दिलाया गया उन्होंने कं. सा. को कुछ लिखा और तब कंट्रोलर साहबने परमिट वापिस मँगाकर उसे होलसेलरों और डिस्ट्रीब्यूटरों दोनोंके नामपर कर दिया साथ ही सहारनपुरका कुछ कोटा भी बढ़ गया। ऐसा होनेपर भी कितने ही तक मिलोंसे डिस्ट्रीव्यूटरोंके पास २०x३० साइजका कागज नहीं श्राया, जो अपने पत्र में लगता है, और कुछ श्राया भी तो वह अपने को नहीं मिलसका श्राखिर ८ दिसम्बर से कागज मिलना शुरू हुआ, जो मिलते ही प्रेमको पहुँचा दिया गया जिसके पास मैटर पहलेसे ही छपने को गया हुआ था । प्रेसकों अपना कुछ टाइप बदलवाना था, इससे उसे छपाई प्रारम्भ करनेमें देर लगगई और इस तरह देर में और देर होगई ! A
यह सब देखकर विलम्बकी शीघ्र पूर्तिकी कोई श्राशा नहीं रही, और इसलिये किरणोंके सिलसिलेको ही प्रधान: अपनाया गया है । अर्थात् इस संयुक्त किरणको जून-जुलाई की न रखकर नवम्बर-दिसम्बर की क्खा गया है और किरणका नंबर पूर्व सिलसिले के अनुसार ही ६-७ दिया गया है । किरणें पूरी १२ निकाली जाएँगी - भले ही कुछ किरणें संयुक्त निकालनी पड़ें, परन्तु पृष्ठ संख्या जितनी निर्धारित है वह पूरी की जावेगी और इससे पाठकों को कोई अलाभ नहीं रहेगा । हम चाहते हैं यह वर्ष श्राषाढतक पूरा कर दिया जाय और वीरशासनजयन्ती के अवसरपर ... श्रावण से नया वर्ष शुरू किया जाय और उसके प्रारंभ में ही एक खास विशेषाङ्क निकाला जाय ।
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सम्पादक
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ॐ अहम्
यस्ततत्त्व-सघात
विश्वतत्त्व-प्रकाशक
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वाषिक मूल्य ४)
इस किरणका मूल्य )
नीतिविरोधष्वंसीलोकव्यवहारवर्तकः सम्यक् । | परमागमस्य बीज भुवनैकगुरुर्जयत्यनेकान्तः
“वर्ष ८ । वीरसेवामन्दिर (समन्तभद्राश्रम) सरसावा जि. सहारनपुर किरण ६-७ 5 मार्गशीर्ष-पौष शुक्ल, वीरनिर्वाण सं० २४७३, विक्रम सं० २००३
नवम्बर-दिसम्बर
१६४६
समन्तभद्र-भारतीके कुछ नमूने
युक्त्यनुशासन अभेद-भेदात्मकमर्थतत्वं तव स्वतन्त्राऽन्यतरतख-पुष्पम् ।
अवृत्तिमत्वान्समवाय-वृत्तेः संसर्गहानेः सकलाऽर्थ-हानिः ॥७॥ ____(हे वीरभगवन् !) पापका अर्थतत्त्व-आपके द्वारा मान्य-प्रतिपादित अथवा आपके शासनमें वर्णित • जीवादि-वस्तुतत्त्व-अभेद-भेदात्मक है-परस्परतन्त्रता (अपेक्षा, दृष्टिविशेष) को लिये हुए अभेद और भेद दोनों
रूप है अर्थात.कथचिव द्रव्य-पर्यायरूप, कथञ्चित् सामान्य-विशेषरूप, कथञ्चित् एकाऽनेकरूप और कथञ्चित् नित्यानित्यरूप है; न सर्वथा अभेदरूप (द्रव्य, सामान्य, एक अथवा नित्यरूप) है, न सर्वथा भेदरूप (पर्याय, विशेष, अनेक अथवा अनित्यरूप) है और न सर्वथा उभयरूप (परस्परनिरपेक्ष द्रव्य-पर्यायमात्र, सामान्य-विशेषमात्र, एक-अनेकमात्र अथवा नित्य अनित्यमात्र) है। अभेदात्मकतत्त्व-द्रव्यादिक और भेदात्मकत्त्व-पर्यायादिक दोनोंको खतन्त्र-पारस्परिक तन्त्रता से रहित सर्वथा निरपेक्ष स्वीकार करनेपर प्रत्येक-द्रव्य, पर्याय तथा,उभय, सामान्य, विशेष तथा उभय, एक, अनेक तथा. उभय और नित्य, अनिस्य तथा उभय-माकाशके पुष्प-समान (अवस्तु) होजाता.है-प्रतीयमान (प्रतीतिका विषम) न हो सकनेसे किसीका भी तब अस्तित्व नहीं बनता। ... ... .
. (इसपर यदि यह कहा जाय कि स्वतंत्र एक-द्रव्य प्रत्यक्षादिरूपसे उपलभ्यमान न होनेके कारण क्षणिकपर्याय की तरह अाकाश-कुसुमके समान अवस्तु है सो तो ठीक, परन्तु उभय तो द्रव्य-गुण-कर्म-सामान्य-विशेष-समवायरूप सत् तस्व है और प्रागभाव-प्रध्वंसाऽभाव-अन्योन्याऽभाव-अत्यन्ताऽभावरूप असत् तत्त्व है, वह उनके स्वतंत्र रहते हुए
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२२२
अनेकान्त
[ वर्ष ८
भी कैसे प्रकाशके पुष्प समान अवस्तु है ? वह तो द्रव्यादि-ज्ञानविशेषका विषय सर्वजनोंमें सुप्रसिद्ध है तो ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि कारणद्रव्य(अवयव)-कार्यद्रव्य (अवयवी)की, गुण-गुणीकी, कर्म-कर्मवानकी समवाय-समवायवानकी एक दूसरे से स्वतंत्र पदार्थके रूप में एक बार भी प्रतीति नहीं होती। वस्तुतत्त्व इससे विलक्षण-जात्यन्तर अथवा विजातीय-है और वह सदा सबोंको अघयव-अवयवीरूप, गुण-गुणीरूप, कर्म-कर्मवानरुप तथा सामान्य-विशेष. रूप प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे निर्बाध प्रतिभासित होता है।)
(यदि वैशेषिक-मतानुसार पदार्थोंको-द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय इन छहोंकोसर्वथा स्वतंत्र मानकर यह कहा जाय कि समवाय-वृत्तिसे शेष सब पदार्थ वृन्मिान हैं अर्थात् समवाय नामके स्वतंत्र पदार्थ-द्वारा वे सब परस्परमें सम्बन्धको प्राप्त हैं, तो) समवायवृत्तिके श्रवृत्तिमती होनेस-समकाय नामके स्वतंत्र पदार्थका दूसरे पदार्थों के साथ स्वयंका कोई सम्बन्ध न बन सकनेके कारण* उसे स्वयं सम्बन्धवान माननेसेसंसर्गकी हानि होती है किसी भी पदार्थका सम्पर्क अथवा सम्बन्ध एक दूसरेके साथ नहीं बनता । समकायसमवायिकी तरह असंहष्ट पदार्थों के समवायवृत्तिसे संसर्गकी कल्पना न करके, पदार्थोंके अन्योऽन्य-संसर्ग (एक दूसरेके साथ सम्बन्ध) को स्वभावसिद्ध माननेपर स्याद्वाद शासनका ही श्राश्य होजाता है; क्योंकि स्थभावसे ही व्यका सभी गुण-कर्म-सामान्य-विशेषोंके साथ क्थञ्चित् तादात्म्यका अनुभव करनेवाले ज्ञानविशेषके वश से यह द्रव्य है, यह गुण है, यह कर्म है, यह सामान्य है, यह विशेष है और यह उनका अविश्वम्भावरूप (अपृथग्भूत) समवाय-सम्बन्ध है, इस प्रकार भेद करके सत्रयनिबन्धम (समीचीन नयव्यवस्थाको लिये हुए) व्यवहार प्रवर्तका है और उससे अनेकान्तमत प्रसिद्ध होता है, जो वैशेषिकों को इष्ट नहीं है और इसलिये वैशेषिकोंके मतमें स्वभावसिद्ध संसर्गके भी न बन सकनेसे संसर्गकी हानि ही ठहरती है। और संसगेकी हानि होनेस-पदार्थोंका परस्परमें स्वत: (स्वभावसे) अथवा परत: (दूसरे के निमित्तसे) कोई सम्बन्ध न बन सकनेके कारण-संपूर्ण पदार्थों की हानि ठहरती है-किसी की पदार्थकी तब सत्ता अथवा व्यवस्था बन नहीं सकती।-अतः जो लोग इस हानिको नहीं चाहते उन आस्तिकोंके द्वारा वही वस्तुतत्व समर्थनीय है जो अभेद-भेदामक है, परस्परतंत्र है, प्रतीतिका विषय है तथा अर्थक्रिया में समर्थ है और इसलिये जिसमें विरोधके लिये कोई अवकाश नहीं है । वह वस्तुतत्त्व हे कीरजिन ! आपके मतमें प्रतिष्ठित है, इसीसे अापका मत अद्वितीय है-नयों तथा प्रमाणोंके द्वारा वस्तुतत्त्वको बिल्कुल स्पष्ट करनेवाला और दूसरे सभी प्रवादों (सर्वथा एकान्तवादो) से अबाध्य होनेके कारण सुव्यवस्थित है-दूसरा (सर्वथा एकान्तवादका प्राश्रय लेनेवाला) कोई भी मत व्यवस्थित न होनेसे उसके जोड़का, सानी अथवा समान नहीं है, वह अपना उदाहरण प्राप है।' समवाय पदार्थका दूसरे पदार्थों के साथ कोई सम्बन्ध नहीं बन सकता, क्योंकि सम्बन्ध तीन प्रकारका होता है-एक संयोग-सम्बन्ध, दूसरा समवाय-सम्बन्ध और तीसरा विशेषण-विशेष्यभाव-सम्बन्ध । पहला संयोग-सम्बन्ध इसलिये नहीं बनता, क्योंकि उसकी वृत्ति द्रव्यमें मानी गई है-द्रव्योंके अतिरिक्त दूसरे पदार्थों में वह घटित नहीं होती और समवाय द्रव्य है नहीं, इसलिये संयोगसम्बन्धके साथ उसका योग नहीं भिडता । यदि अद्रव्यरूप समवायमें संयोगकी वृत्ति मानी जायगी तो वह गुण नहीं बन सकेगा और वैशेषिक मान्यताके विरुद्ध पड़ेगा क्योंकि वैशेषिकमतमें संयोगको भी एक गुण माना है और उसको द्रव्याश्रित बतलाया है। दूसरा समवाय-सम्बन्ध इसलिये नहीं बन सकेगा, क्योंकि वह समवायान्तरकी अपेक्षा रक्खेगा और एकके अतिरिक्त दूसरा समवाय पदार्थ वैशेषिकोंने माना नहीं है । और तीसरा विशेषण-विशेष्यभाव सम्बन्ध इसलिये घटित नहीं होता, क्योंकि वह स्वतंत्र पदार्थोका विषय ही नहीं है। यदि उसे स्वतंत्र पदार्थोका विषय माना जायगा तो अतिप्रसंग श्राएगा और तब सह्याचल (पश्चिमीघाटका एक भाग) तथा विन्ध्याचल जैसे स्वतंत्र पर्वतोंमें भी विशेषण-विशेष्यभावका सम्बन्ध घटित करना होगा, जो नहीं हो सकता। विशेषण-विशेष्यभावसम्बकाकी यदि पदार्थान्तरके रूपमें संभावना की जाय तो वह सम्बन्धान्तरकी अपेक्षा विना नहीं बनता और दूसरे सम्बन्धकी अपेक्षा लेनेपर अनवस्था दोष पाता है। इस तरह तीनोंमेंसे कोई भी सम्बन्ध घटित नहीं हो सकता।
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किरण ६-७]
समन्तभद्र भारतीके कुछ नमूने
२२३
भावेषु नित्येषु विकारहानेर्न कारक-व्यापृत-कार्य-युक्तिः । ..
न बन्ध-भोगौ न च तद्विमोक्षः समन्तदोषं मतमन्येदीयम् ॥८॥ 'सत्तात्मक पदार्थोको–दिक्-काल-श्राकाश-कारमाको, पृथिव्यादि परमाण-द्रव्योंको, परम-महत्वादि गुणों को तथा सामान्य-विशेष-समवायको-(सर्वथा) नित्य माननेपर उनमें विकारकी हानि होती कोई भी प्रकारकी विक्रिया नहीं बन सकती-विकार की हानिसे कादि कारकोंका (जो क्रियाविशिष्ट द्रव्य प्रसिद्ध है) व्य पार नहीं बन मकता, कारक-व्यापारके अभ वमें (द्रव्य-गुण-कर्मरूप) कार्य नहीं बन सकता, और कार्यके भभावमें (कार्यलिनात्मक अनुमानरूप तथा योग-सन्बन्ध-संसर्गरूप) युक्ति घटित नहीं हो सकती । युक्तिके अभावमें बन्ध तथा (बन्ध-फलानुभवनरूप) भोग दोनों नहीं बन सकते और न उनका विमोक्ष ही बन सकता है। क्योंकि विमोक्ष बन्धपूर्वक ही होता है, बन्धके अभाव मोक्ष कैसा? इस तरह पूर्व पूर्वके प्रभावमें उत्तरोत्तरकी व्यवस्था न बन सकनेसे संपूर्ण भावात्मक पदार्थोंकी हानि ठहरती है-किसीकी भी व्यवस्था नहीं बन सकती । और जब भावात्मक पदार्थ ही व्यवस्थित नहीं होते तब प्राग्भाव-प्रध्वंसाऽभावादि अभावात्मक पदार्थोंकी व्यवस्था तो कैसे बन सकती है ? क्योंकि वे भावात्मक पदार्थोके विशेषण होते हैं, स्वतंत्ररूपसे उनकी कोई सत्ता ही नहीं है । अतः (हे दीरजिन !) आपके मतसे भिन्न दूसरोंका-सर्वथा एकान्तवादी वैशेषिक, नैयायिक, मीमांसक तथा सांख्य आदिका-मत (शासन) सब प्रकार से दोषरूप है-देश-काल और पुरुषविशेषकी अपेक्षासे भी प्रत्यक्ष, अनुमान तथा श्रागम-गम्य सभी स्थानों में बाधित है।'
अहेतुकत्व-प्रथितः स्वभावस्तस्मिन् क्रिया-कारक-विभ्रमः स्यात् ।
आबाल-सिद्धर्विविधार्थ-सिद्धि दान्तरं किं तदस्यतां ते ॥१॥ '(यदि यह कहा जाय कि पारमादि नित्य द्रव्योंमें स्वभावसे ही विकार सिद्ध है अत: कारकव्यापार, कार्य और कार्ययुकि सब ठीक घटित होते हैं और इस तरह सकल दोष असंभव ठहरते हैं कोई भी दोषापत्ति नहीं बन सकती; तब यह प्रश्न पैदा होता है कि वह स्वभाव बिना किसी हेतुके ही प्रथित (प्रसिद्ध है अथवा श्राबाल-सिद्धिसे विविधार्थसिद्धि के रूपमें प्रथित है ? उत्तरमें) यदि यह कहा जाय कि नित्य पदार्थों में विकारी होनेका स्वभाव विना किसी हेतुके ही प्रथित है तो ऐसी दशामें क्रिया और कारकका विभ्रम ठहरता है-स्वभावसे ही पदार्थोंका ज्ञान तथा प्राविर्भाव होनेसे ज्ञप्ति तथा उत्पत्तिरूप जो प्रतीयमान क्रिया है उसके भान्तिरूप होनेका प्रसंग आता है, -अन्यथा स्वभावके निहें तुकत्वकी सिद्धि नहीं बनती। और क्रियाके विभ्रमसे प्रतिभासमान कारक-समूह भी विभ्रमरूप हो जाता है क्योंकि क्रियाविशिष्ट द्रव्यका नाम कारक प्रसिद्ध है, क्रियासे कारककी उत्पत्ति नहीं ।..और स्वभाववादीके द्वारा क्रिया कारकका विभ्रम मान्य नहीं किया जा सकता-विभ्रमकी मान्यतापर वादान्तरका प्रसंग.भाता है-सर्वथा • स्वभाववाद स्थिर न रहकर एक नया विनमवाद और खड़ा हो जाता है। परन्तु (हे वीरजिन !) क्या आप-आपके स्याद्वाद-शासनसे.--- द्वेष रखनेवाले के यहाँ यह वादातर बनता है ?-नहीं बनता; क्योंकि सब कुछ विनम है' ऐसा एकान्तरूप वादास्तर स्वीकार करनेपर यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि उस विभ्रममें अविभ्रम-अभ्रान्ति है या वह भी विधम-भान्तिरूप है ? यदि अविभ्रम है तो विनम-एकान्त न रहा-अविभ्रम भी कोई पदार्थ ठहरा । और यदि विनममें भी विनम है तो.सर्वत्र अभ्रान्तिको सिद्धि हुई; क्योंकि विभ्रममें विभ्रम होनेसे वास्तविक स्वरूपकी प्रतिष्ठा होती है। और ऐसी हालतमें स्वभावके निर्हेतुकत्वकी,सिद्धि नहीं हो सकती।'
यदि यह कहा जाय कि (बिना किसी हेतुके नहीं किन्तु) आबालसिद्धिरूप हेतुसे विविधार्थक-सर्वथा मित्य पदार्थों में विक्रिया तथा कारक-व्यापारादिकी-सिद्धिके रूप में स्वभाव, प्रश्रित प्रसिद) है अर्थात् क्रिया
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२२४
श्रनैकान्त
कारकादिरूप जो विविध अर्थ हैं उन्हें बालक तक भी स्वीकार करते हैं इसलिये वे सिद्ध हैं और उनका इस प्रकारसे सिद्ध होना ही स्वभाव है - तो यह वादान्तर हुआ; परन्तु यह वादान्तर भी ( हे वीर भगवन् ! ) आपक द्वेषियों के यहाँ बनता कहाँ है ? – क्योंकि वह श्रबाल-सिद्धिसे होनेवाली निर्णीति नित्यादि सर्वथा एकान्तवादका श्राश्रय लेने पर नहीं बन सकती, जिससे सब पदार्थों सब कार्यों और सब कारणोंकी सिद्धि होती । कारण यह कि वह निर्णीति श्रनित्य होती है और विना विक्रियाके बनती नहीं, इसलिये सर्वथा नित्य एकान्तके साथ घटित नहीं हो सकती । प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे किसी पदार्थकी सिद्धिके न हो सकनेपर दूसरोंके पूछने अथवा दूषणार्थ जिज्ञासा करनेपर स्वभाववादका श्रव लम्बन ले लेना युक्त नहीं है; क्योंकि इससे प्रतिप्रसंग आता है— प्रकृतसे श्रन्यत्र बिपक्षमें भी यह घटित होता है— सर्वथा नित्य अथवा क्षणिक-एकान्तको सिद्ध करनेके लिये भी स्वभाव एकान्तका अवलम्बन लिया जा सकता है।
यदि यह कहा जाय कि प्रत्यक्षादि प्रमाणोंकी सामर्थ्यसे विविधार्थकी सिद्धिरूप स्वभाव है तो फिर स्वभाव - एकान्तवाद कैसे सिद्ध हो सकता है ? क्योंकि स्वभावकी तो स्वभावसे ही व्यवस्थिति है उसको प्रत्यक्षादि प्रमाणोंके बलसे व्यवस्थापित करनेपर स्वभाव एकान्त स्थिर नहीं रहता। इस तरह हे वीर जिन ! आपके अनेकान्तशासन से विरोध रखने काले सर्वथा एकान्तवादियोंके यहाँ कोई भी वादान्तर ( एकके साथ दूसरा वाद ) बन नहीं सकता — वादान्तर तो सम्यक् एकान्तके रूपमें आपके मित्रों - संपक्षियों अथवा अनेकान्तवादियोंके यहाँ ही घटित होता है ।
येषामवक्तव्यमिहाऽऽत्म-तत्त्वं देहादनन्यत्व- पृथक्त्व- क्लृप्तेः ।
तेषां ज्ञतवेऽनवधार्यतच्चे का बन्ध-मोक्ष- स्थितिरप्रमेये ॥ १० ॥
वर्ष ८
नित्यत्मा देहसे (सर्वथा) अभिन्न है या भिन्न इस कल्पनाके होनेसे (श्रौ श्रभिरन्नत्व तथा भिन्नत्व दोनोंमेंसे किसी एक भी विकल्पके निर्दोष सिद्ध न हो सकनेसे) जिन्होंने आत्मतत्वको 'अवक्तव्य' - वचनके अगोचर अथवा अनिर्वचनीय माना है उनके मत में आत्मतत्त्व अनवधार्य (श्रज्ञेय) तत्त्व हो जाता है— प्रमेय नहीं रहता। और आत्मतत्त्वके अनवधायें होनेपर - प्रत्यचादि किसी भी प्रमाण का विषय न रहनेपर- बन्ध और मोक्षकी कौनसी स्थिति बन सकती है ? बन्ध्या-पुत्र की तरह कोई भी स्थिति नहीं बन सकती-न बन्ध व्यवस्थित होता है और न मोक्ष | और इसलिये बन्ध-मोतकी सारी चर्चा व्यर्थं ठहरती है ।"
हेतुर्न दृष्टोऽत्र न चाप्यदृष्टो योऽयं प्रवादः क्षणिकाऽऽत्मवादः ।
'न ध्वस्तमन्यत्र भवे द्वितीये' सन्तानभिन्नेन हि वासनाऽस्ति ॥ ११ ॥
'प्रथम क्षण में नष्ट हुआ चित्त-आत्मा दूसरे क्षण में विद्यमान नहीं रहता' यह जो ( बौद्धोंका ) क्षणिकात्मवाद है वह (केवल) प्रवाद है- प्रमाणशून्य वाद होनेसे प्रलापमात्र है; क्योंकि इसका ज्ञापक— अनुमान करानेवाला — कोई भी दृष्ट या अदृष्टहेतु नहीं बनता ।
देहसे श्रात्माको सर्वथा श्रभिन्न माननेपर संसारके प्रभावका प्रसंग आता है; क्योंकि देह-रूपादिककी तरह देहात्मक आत्माका भवान्तर-गमन तब बन नहीं सकता और इसलिये उसी भवमें उसका विनाश ठहरता है, विनाशका नित्यत्व के साथ विरोध होनेसे श्रात्मा नित्य नहीं रहता और चार्वाकमतके श्राश्रयका प्रसंग 'ता है, जो श्रात्मतत्वको भिन्नत न मानकर पृथिवी आदि भूतचतुष्कका ही विकार अथवा कार्य मानता है और जो प्रमाण- विरुद्ध है तथा श्रात्मतत्ववादियोंको इष्ट नहीं है । और देहसे श्रात्माको सर्वथा भिन्न माननेपर देहके उपकार- अपकार से श्रात्मा के सुख-दुःख नहीं बनते, सुख-दुःखका प्रभाव होनेपर राग-द्वेष नहीं बन सकते और राग-द्वेषके अभाव में धर्म-अधर्म संभव नहीं हो सकते । श्रतः 'स्वदेहमें अनुरागका सद्भाव होनेसे उसके उपकार - अपकार के द्वारा श्रात्माके सुख-दु:ख उसी तरह उत्पन्न होते हैं जिस तरह स्वगृहादिकें उपकारअपकारसे उत्पन्न होते हैं' यह बात कैसे बन सकती है ? नहीं बन सकती । इस तरह दोनों ही विकल्प सदोष ठहरते हैं ।
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किरण ६-७]
समन्तभद्र-भारतीके कुछ नमूने
२२५
(यदि यह कहा जाय कि 'जो सत् है वह सब स्वभावसे ही मणिक है, जैसे शब्द और विद्युत् आदि; अपना प्रारमा भी चूँ कि सत् है अतः वह भी स्वभावसे क्षणिक है, और वह स्वभावहेतु ही उसका ज्ञापक है, तो इस - प्रकार के अनुमानपर ऐसा कहने अथवा अनुमान लगानेपर-यह प्रश्न पैदा होता है कि वह हेतु स्वयं प्रातपत्ता
(ज्ञाता) के द्वारा दृष्ट (देखा गया) है या अदृष्ट (नहीं देखा गया अर्थात कल्पनारोपित) है? दृष्टहेतु संभव नहीं हो — सकता; क्योंकि सब कुछ क्षणिक होने के कारण दर्शनके अनन्तर ही उसका विनाश हो जानेसे अनुमानकालमें भी उसका
प्रभाव होता है। साथ ही, चित्तविशेषके लिङ्गदर्शी उस अनुमाताका भी संभव नहीं रहता । इसी तरह कल्पनारोपित (कशित) अदृष्ट हेतु भी नहीं बनता; क्योंकि उस कल्पनाका भी तत्क्षण विनाश होजानेसे अनुमानकालमें सद्भाव नहीं रहता।)
(यदि यह कहा जाय कि व्याप्तिके ग्रहण कालमें लिङ्गदर्शनकी जो कल्पना उत्पन्न हुई थी उसके तरक्षण विनाश हो जानेपर भी उसकी वासना (संस्कार) बनी रहती है अत: अनुमानकालमें लिङ्गदर्शनसे प्रबुद्ध हुई उस वासनाके सामर्थ्यसे अनुमान प्रवृत्त होता ही है, तो ऐसा कहना युक्र नहीं है, क्योंकि) सन्नानभिन्न (चित्त)में-हेतु(साधन)
और हेतुमद् (साध्य) के अविनाभाव-सम्बन्धरूप व्याप्तिके ग्राहक चित्तसे अनुमाताका चित्त (सन्तानतः भिन्नकी तरह) भिन्नसन्तान होनेसे उसमें-वासनाका अस्तित्व नही बन सकता-यदि भिन्न सन्तानवालेके वासनाका अस्तित्व माना जाय तो भिन्नसन्तान देवदत्त-द्वारा साध्य-साधनकी व्यातिका ग्रहण होनेपर जिनदत्तके (व्याप्तिका ग्रहण न होने पर भी) साधनको देखने मात्रसे साध्यके अनुमानका प्रसंग आएगा; क्योंकि दोनों में कोई विशेषता नहीं है। और यह बात संभव नहीं हो सकती; क्योंकि व्याप्तिके ग्रहण विना अनुमान प्रवर्तित नहीं हो सकता)।
आधुनिक भाषाओंकी व्युत्पत्तिके लिये जैनसाहित्यका महत्व
(ले०-वा. ज्योतिप्रसाद जैन, एम. ए.)
- <. • गुजराती पत्र 'श्री जैन सत्यप्रकाश' (वर्ष १२ किन्तु इस शब्द । संस्कृत रूप एक प्राचीन जैन अंक १) में प्रो० मूलराजजीका एक संक्षिप्त लेख 'दो अन्य 'धृहत्कथाकोष' में उपलब्ध होता है । इस शब्दोंकी व्युत्पत्ति' शीषकसे प्रकाशित हुआ है। उससे ग्रन्थके रचयिता दिगम्बराचार्य हरिषेण थे और प्रकट होता है कि जैन साहित्यका अध्ययन भारतवर्ष उन्होंने इस प्रन्थकी रचना विक्रम संवत् ८९ (सन् की आधुनिक लोकभाषाओं की व्युत्पत्तिकी जानकारीके ६३२ ई०) में की थी। यह ग्रन्थ अब प्रसिद्ध प्राच्य लिये भो उपयोगी एवं आवश्यक है।
भषाविज्ञ डा. ए. एन. उपाध्ये द्वारा संपादित होकर पंजाब प्रान्तमें प्रचलित लोकभाषाका एक शब्द
सिघी जैन ग्रंथमाला के अर्न्तगत, भारतीय विद्याभवन कडो, जिसका अर्थ है कन्या, लड़की अथवा पुत्री। बम्बई से प्रकाशित हो चुका है । उक्त कथाकोषकी यह शब्द अपने इस प्रकृतरूपमें अथवा किसी रूपान्तर कथा न. ३. (पृ०५०) का शीर्षक 'मृतक संसर्ग नष्ट को लिये हुए अन्य किसी प्रान्तीय भाषामें नहीं मिलता माला कथानकम्' है। इस कथामें लड़कीके अर्थों में संस्कृत प्राकृत आदि भाषाओं में भी अभी तक ऐसा 'कुटिकां' शब्दका प्रयोग हुआ है* । फुटनोट तथा कोई शब्द जानने में नहीं आया जिससे कुड़ी', शब्दकी भूमिका पृ० १०३ पर दिये हुए विशेषशब्दार्थकोषमें व्युत्पत्तिकी जासके।
* वृहत्कथाकोष, कथा नं० ३०, श्लोक ८-६।
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२२६
... . अनेकान्त
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विद्वान सम्पादकी भी 'कुटिका' का अर्थ 'कन्याम्' स्वामीसमन्तभद्रकी उकिमें भी 'ठक' शब्द आया है, अर्थात पुत्री किया है।
जो कि श्रद्धेय पं० जुगलकिशोरबी मुख्तारके मतानुसार प्रस्तुत कथाका प्रारंभ इस प्रकार होता है-उत्तरा. पंजाब देशका ही घातक है। कनिघम साहिवने अपने पथके वनदेवपुरमें बलवर्धन नामक प्रतापी राजा था प्रन्थ 'एन्शेन्ट जागरफी' में भी ठक्क देशका पंजाबसे जिमकी अनि सुन्दर कुल वधनी नामकी रानी थी। उस ही समीकरण किया है।म लेविस राइस, एडवर्ड नगरमें धनदत्त नामक एक 'टक्क श्रेष्ठी' + रहता था। पी० राइस, तथा रा०प० भार० नरासिहाच:यरने में इसकी स्त्रीका नाम धनदत्ता था । इनके धनदेवी ठक्क को पंजाब देश ही लिखा है। न मकी पुत्री थी । इस नगर में एक दूसरा 'टक्कश्रेष्ठी' पूर्णभद्र रहता था। इसकी स्त्रीका नाम पूर्णचन्द्रा था।
. अतः इसमें सन्देह नहीं रह जाता कि वृहत्कथा और पुत्रका पूर्णचन्द्र । एक दिन पूर्णभद्रने धनदत्तसे काप
कोषकी प्रस्तुत कथामें उल्लिखित टक्कश्रेष्ठीका अर कहा कि 'भाप अपनी पुत्री धनवतीका विवाह मेरे पंजाबी सेठही है, और उसके साथ लड़कीके अर्थ. पुत्र पूर्णचन्द्र के साथ करदें। धनदत्तने उत्तर दिया शुद्ध पंजाबी शब्द कुड़ीके संस्कृत रूप 'कुटिका' शब्द कि 'यदि आर मुझे बहुत-मा धन देवें तो मैं अपनी का योग सर्वथा संगत और उचित है। दूसरे, लड़की देदूं।' इसपर पूर्णभद्र बोला धन आप चाहे
पंजाब प्रान्तमें सदेवसे ही लड़कियों की कुछ कमी रहती जितना लेलें लड़की जल्दी देदें।
भाई है और इसलिये वहाँ कन्याविक्रय प्रायः होता कथाम धनदत्त और पूर्णभद्र दोनोंके ही लिये रहता है । कथामें धनदतका अपनी लडकीके बदले में 'टक्कश्रेष्ठी' शब्द प्रयुक्त हुआ है और प्रो० मूलराज
धनकी मांग करना इसी बातको सूचित करता है। जीने इसका अर्थ किया है-रक्कदेशय 'अथवा टक्क- . कथाकोषके उपर्युक संस्करणकी भूमिका (पृ. देशका रहने वाला । बृहत्कथाकोषकी कथा नं. ६३ १०१-११०) में डा० उपाण्येने ऐसे लगभग ३५० शब्दों में भी टक्कः, टकिनी, टक्ककाना शब्द आये हैं (श्लोक का कोष दिया । जो प्रचलित प्रान्तीय भाषामों, ११, १२,६७)। और वहाँ डा० उपाध्येने टक्क या प्राकत या देसी भाषामों में प्रयुक्त होते हैं किन्तु टक्ककका पर्थ कंटक कंजूस (a niggard) किया,
संस्कृत साहित्यमें जिनका प्रयोग नही होता । इन है और अनुमान किया है कि संभवतया 'ठक' शब्दकी शब्दोंका कथाकोषकारने संस्कृत रूप देकर या अपने भाँति यह कोई पेशेवर नाम (a professional मल रूपमें ही प्रय ग किया है डा. उपाध्येके शब्दोंमें name) हेx।किन्तु जैसा कि प्रो० मूलराजनाका ये शाब्दिक प्रयोग अपने रूप और प्रों द्वारा साज कशन है कि कोषोंमें रक नाम बाहीक जाविका है। भारतवर्ष की माधनिक भाषाओंके तत्तत् शब्दों राजहरनिकी (५, १५०) में भी टक्देशका उल्लेख
व का स्मरण करादेते है-चाहे ये भाषायें आर्य हों या है और इससे पंजाबका तात्पर्य है। पंजाबके पर्वत
___ द्राविड़, और इन शब्दोंके लिये तत्सम तदूध प्राकृत प्रदेशकी लिपिको आज भी 'टाकरी' कहते ह'अस्तु. अथवा देसी शब्द उपलब्ध हों या न हों।" कमसेकम प्रस्तुत कथामें तो टक्क शब्दका अर्थ क्षेत्र सूचक अर्थात् पंजाब ही ठीक ऊंचता है। बाहिक (टक) इस प्रकार, विशाल जैन साहित्यके सम्यक् अध्ययन जतिका निवास पश्चिमोत्तर प्रान्त में ही था। श्रवण द्वारा विभिन्न आधुनिक भारतीय लोकभाषाभोंके न बेलगोलके प्रसिद्ध शिलालेख न०५४ में संग्रहीत जाने कितने शब्दोंकी व्युत्पत्तिपर महत्वपूर्ण प्रकाश
- पड़ सकता है। + वही, श्लोक ३, ५। Brhat-Kathakosa, Introd. p. 105 १७-११-४६ .
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ग्रन्थ और ग्रन्थकार
[सम्पादकीय]
['पुरातन-जैनवाक्य-सूची' की प्रस्तावनामें, जो अभी तक अप्रकाशित है और अब जल्दी ही प्रेसको जानेवाली है, 'ग्रन्थ और ग्रन्थकार' नामका भी एक प्रकरण है, जिसमें मैंने इस वाक्यसूचीके आधारभूत ६३ मूलग्रन्थोंका परिचय दिया है। इस प्रकरणमेंसे नमूनेके तौरपर कुछ ग्रन्थोंका परिचय अनेकान्त-पाठकोंके अवलोकनार्थ नीचे दिया जाता है:
१ मूलाचार और वट्टकर
पाई जाती हैं जिनमें ग्रंथकर्ताका नाम कुन्दकुन्दाचार्य दिया
हुया है। डाक्टर ए. एन. उपाध्येको दक्षिणभारतकी कुछ 'मूलाचार' जैन साधुओंके प्राचार-विषयका एक बहुत ऐसी प्रतियोंको स्वयं देखनेका अवसर मिला है और जिन्हें, ही महत्वपूर्ण एवं प्रामाणिक ग्रंथ है। वर्तमानमें दिगम्बर प्रवचनसारकी प्रस्तावनामें, उन्होंने quite genuine in सम्प्रदायका 'आचाराङ्ग' सूत्र समझा जाता है। धवला टीकामें भाचारानके नामसे उसका नमूना प्रस्तुत करते हुए विल्कुल असली प्रतीत होने वाली' लिखा है। इसके कुछ गाथाएँ उदृत है, वे भी इस ग्रंथमें पाई जाती है, सिवाय. माणिकचन्द्र दि. जैन-ग्रन्थमालामें मूलाचारकी जब कि श्वेताम्बरोंके प्राचाराला में वे उपलब्ध नहीं हैं, जो सटीक प्रति प्रकाशित हुई है उसकी अन्तिम पुष्पिकामें इससे भी इस ग्रंथको आचाराङ्गकी ख्याति प्राप्त है । इसपर भी मूलाचारको कुन्दकुन्दाचार्य-प्रणीत' लिखा है। वह 'आचारवृत्ति' नामकी एक टीका प्राचार्य वसुनन्दीकी उप- पुष्पिका इस प्रकार है:लब्ध है, जिसमें इस ग्रंथको आचाराङ्गका द्वादश अधिकारों में उपसंहार (सारोद्धार) बतलाया है, और उसके तथा भाषा
_ "इति मूलाचार-विवृतौ द्वादशोऽध्यायः ।कुन्दटीकाके अनुसार इस ग्रंथकी पथसंख्या १२४३है। वसनन्दी कुन्दाचायप्रतिमूलाचाराख्य-विवृतिः । कृतिरियं प्राचार्यने अपनी टीकामें इस ग्रंथके कर्ताको वट्टकेराचार्य, ।
वसुनन्दिनः श्रीश्रमणस्य" वहकर्याचार्य तथा कट्टरकाचार्यके रूपमें उल्लेखित किया. यह सब देखकर मेरे हृदयमें यह ख़याल उत्पन्न हुमा
है-पहला रूप टीकाके प्रारम्भिक प्रस्तावना-वाक्यमें, दूसरा कि कुन्दकुन्द एक बहुत बड़े प्रवर्तक आचार्य हुए हैं- १० तथा ११वें अधिकारों के सन्धि-वाक्यों में और प्राचार्यभनिमें उन्होंने स्वयं प्राचार्यके लिये 'प्रवर्तक' होना
तीसरा चे अधिकारके सन्धिवाक्यमें पाया जाता है। एक बहुत बड़ी विशेषता बतलाया है और प्रवर्तक' परन्तु इस नामके किसी भी प्राचार्यका उल्लेख अन्यत्र विशिष्ट साधुओंकी एक उपाधि है, जो श्वेताम्बर जैनसमाज गुर्वावलियों, पट्टावलियों, शिलालेखों तथा ग्रंथप्रशस्तियों में आज भी व्यवहृत है, हो सकता है कि कुन्दकुन्दके इस
मादिमें कहीं भी देखने में नहीं पाता, और इस लिये प्रवर्तकस्व-गुणको लेकर ही उनके लिये यह 'वट्टर' जैसे - ऐतिहासिक विद्वानों एवं रिसर्चस्कॉलरोंके सामने यह प्रश्न पदका प्रयोग किया गया हो। और इसलिये मैंने बटोर,
बराबर खड़ा हुमा है कि ये वरादि नामके कौनसे प्राचार्य वट्टकरि और बढेरक इन तीनों शब्दोंके अर्थपर' गम्भीरताके हैं और कब हुए हैं।
साथ विचार करना उचित सममा । तदनुसार मुझे ग्रह मूलाचारकी कितनी ही ऐसी पुरानी हस्तलिखित प्रतियां मालूम हुआ कि वहकका अर्थ वर्तक-प्रवर्तक है. हरा देखो, माणिकचन्द्र-ग्रंथमालामें प्रकाशित ग्रन्यके दोनों बाल-गुरु-बुड्ढ-सेहे गिलाण-थेरे य खमण-संजुत्ता । 'भान नं.१६, २३॥
वट्टावणगा अएणे दुस्सीले चावि जाणिता
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२२८
अनेकान्त
गिरा-वाणी-सरस्वतीको कहते हैं, जिसकी वाणी-सरस्वती प्रवर्तिका हो – जनताको सदाचार एवं सन्मार्ग में लगानेवाली हो—उसे 'वट्टकेर' समझना चाहिये । दूसरे, वट्टकोंप्रवर्तकों में जो इरि गिरि-प्रधान- प्रतिष्ठित हो अथवा ईरि समर्थ - शक्तिशाली हो उसे 'वट्टकेरि' जानना चाहिये। तीसरे, वट्ट नाम वर्तन-आचरणका है और ईरक प्रेरक तथा प्रवर्तकको कहते हैं सदाचारमें जो प्रवृत्ति करानेवाला हो उसका नाम 'वट्टेरक' है । अथवा वह नाम मार्गका है, सन्मार्गका जो प्रवर्तक, उपदेशक एवं नेता हो उसे भी 'वट्टेरक' कहते है । और इसलिये अर्थकी दृष्टिसे ये वट्टकेरादि पद कुन्दकुन्दके लिये बहुत ही उपयुक्त तथा संगत मालूम होते हैं । श्राचर्य नहीं जो प्रवर्तकत्व-गुणकी विशिष्टताके कारण ही कुन्दकुन्दके लिये वहेरकाचार्य (प्रवर्तकाचार्य) जैसे पदका प्रयोग किया गया हो । मूलाचारकी कुछ प्राचीन प्रतियों में ग्रन्थकर्तृत्वरूप से कुन्दकुन्दका स्पष्ट नामोल्लेख उसे और भी अधिक पुष्ट करता है । ऐसी वस्तुस्थितिमें सुहृद्वर पं० नाथूरामजी प्रेमीने, जैन सिद्धान्तभास्कर (भाग १२ किरण १ ) में प्रकाशित 'मूलाचार के कर्ता वहकेरि' शीर्षक अपने हालके लेखमें, जो यह कल्पना की है कि, बेट्टगेरि या बेहकेरी नामके कुछ ग्राम तथा स्थान पाये जाते हैं, मूलाचारके कर्ता उन्हींमेंसे किसी बेट्टगेरिया बेट्टकेरी ग्रामके ही रहनेवाले होंगे और उस परसे कोesकुन्दादिकी तरह 'वट्टकेरि' कहलाने लगे होंगे, वह कुछ संगत मालूम नहीं होती - बेह और वह शब्दोंके रूपमें ही नहीं किन्तु भाषा तथा श्रर्थ में भी बहुत अन्तर है। बेट्ट शब्द, प्रेमीजीके लेखानुसार, छोटी पहाड़ीका वाचक कनदी भाषाका शब्द है और गेरि उस भाषामें गलीमोहल्लेको कहते हैं; जब कि वह और वहक जैसे शब्द प्राकृत भाषाके उपर्युक्र अर्थके वाचक शब्द हैं और ग्रन्थकी भाषा अनुकूल पड़ते हैं । ग्रंथभर तथा उसकी टीका में बेगेरि या बेट्टकेरि रूपका एक जगह भी प्रयोग नहीं पाया जाता और न इस ग्रंथ के कर्तृत्वरूपमें अन्यत्र ही उसका प्रयोग देखने में आता है, जिससे उन कल्पनाको कुछ श्रवसर मिलता । प्रत्युत इसके, ग्रन्थदानकी जो प्रशस्ति मुद्रित प्रतिमें
ति है उसमें 'श्रीमद्वट्टेरकाचार्यकृतसूत्रस्य मद्विधेः ' इस वाक्यके द्वारा 'वट्टेरक' नामका उल्लेख है, जो कि प्रन्थकार-नामके उक्त तीनों रूपोंमेंसे एकरूप है और सार्थक
[ वर्ष -
है। इसके सिवाय, भाषा-साहित्य और रचना-शैलीक भी यह ग्रंथ कुन्दकुन्दके ग्रंथोंके साथ मेल खाता है, इतना ही नहीं बल्कि कुन्दकुन्द के अनेक ग्रंथों के वाक्य ( गाथा तथा गाथांश) इस ग्रंथमें उसी तरहसे संप्रयुक्त पाये जाते हैं जिस तरह कि कुंदकुंदके अन्य ग्रंथोंमें परस्पर एक-दूसरे ग्रन्थके वाक्योंका स्वतंत्र प्रयोग देखनेमें आता है* । अतः जब तक किसी स्पष्ट प्रमाण द्वारा इस ग्रन्थके कर्तृत्वरूपमें वट्टकेराचार्य का कोई स्वतंत्र अथवा पृथक् व्यक्तित्व सिद्ध न हो जाय तब तक इस ग्रंथको कुन्दकुन्दकृत मानने और घट्टकेराचार्यको कुन्दकुन्दके लिये प्रयुक्त हुआ प्रवर्तकाचार्य पद स्वीकार करने में कोई खास बाधा मालूम नहीं होती ।
२ कार्तिकेयाऽनुप्रेक्षा और स्वामिकुमार - .
यह अ वादि बारह भावनाओंपर, जिन्हें भव्यजनों के लिये श्रानन्दकी जननी लिखा है (गा० १), एक बड़ा ही सुन्दर, सरल तथा मार्मिक ग्रंथ है और ४८६ गाथा- संख्याको लिये है। इसके उपदेश बड़े ही हृदय-ग्राही हैं, उक्रियाँ हुए अन्तस्तलको स्पर्श करती हैं और इसीसे यह जैनसमाजमें सर्वत्र प्रचलित है तथा बड़े आदर एवं प्रेमकी दृष्टिसे देखा जाता है।
इसके कर्ता ग्रन्थकी निम्न गाथा नं० ४८८ के अनुसार 'स्वामिकुमार' हैं, जिन्होंने जिनवचनकी भावनाके लिये और चंचल मनको रोकनेके लिये परमश्रद्धा के साथ इन भावनाओं की रचना की है :
जिण वयण-भावा सामिकुमारेण परमसद्धाए । रइया अणुपेक्खाओ चंचलमण-रुभट्ठ ॥
'कुमार' शब्द पुत्र, बालक, राजकुमार, युवराज, श्रविवाहित, ब्रह्मचारी श्रादि अथके साथ 'कार्तिकेय' अर्थ में भी प्रयुक्त होता है, जिसका एक श्राशय कृतिकाका पुत्र है और दूसरा आशय हिन्दुओंका वह षडानन देवता है जो शिवजीके उस वीर्यं से उत्पन्न हुआ था जो पहले अग्निदेवताको प्राप्त हुआ, अग्निसे गंगामें पहुंचा और फिर गंगामें स्नान करती हुई छह कृतिकाओंके शरीरमें प्रविष्ट हुआ, जिससे उन्होंने एक एक पुत्र प्रसव किया और वे छहों पुत्र बादको विचित्र रूपमें मिलकर एक पुत्र 'कार्तिकेय' हो गये, * देखो, अनेकान्त वर्ष २ किरण ३ पृ० २२१-२४
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किरण ६-७]
प्रन्थ और प्रत्यकार
२२६
जिसके छह मुख और १२ भुजाएँ तथा १२ नेत्र बतलाए जाते सहन करने वाले सन्तजनोंके कुछ उदाहरण प्रस्तुत किये है, हैं। और जो इसीसे शिवपुत्र, अग्निपुत्र, गंगापुत्र तथा जिनमें एक उदाहरण कार्तिकेय मुनिका भी निम्न प्रकार है:कृतिका आदिका पुत्र कहा जाता है। कुमारके इस कार्तिकेय "स्वामिकार्तिकेयमुनिः क्रौचराज कृतोपसर्ग अर्थको लेकर ही यह ग्रंथ स्वामी कार्तिकेयकृत कहा जाता सोद्वा. साम्यपरिणामेन समाधिमरणेन देवलोकं है तथा कार्तिकेयानुप्रेक्षा और स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा जैसे प्राप्यः (त:१)" नामोंसे इसकी सर्वत्र प्रसिद्धि है। परन्तु ग्रन्थभरमें की भी इसमें लिखा है कि 'स्वामिकार्तिकेय मुनि क्रौंचराजकृत ग्रन्थ कारका नाम कार्तिकेय नहीं दिया और न ग्रन्थको उपसर्गको समभावसे सहकर समाधिपूर्वक मरण के द्वारा कार्तिकेयानुप्रेक्षा अथवा स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा जैसे नामसे देवलोकको प्राप्त हुए।' उल्लेखित ही किया है। प्रत्युत इसके. ग्रन्थके प्रतिज्ञा और तत्वार्थराजवार्तिकादि ग्रन्थों में 'अनुत्तरीपपाददशांग' का समाप्ति-वाक्योंमें ग्रन्थका नाम सामान्यत: 'अणुपेहाम्रो' वर्णन करते हुए, वर्द्धमानतीर्थकरके तीर्थमें दारुण उपसर्गोको (अनुप्रेक्षा) और विशेषत:, 'बारसअणुवेक्खा' (द्वादशानुप्रेक्षा) सहकर विजयादिक अनुत्तर विमानों (देवलोक) में उत्पन्न होने दिया है । वुन्दकुन्दके इस विषयके ग्रन्थका नाम भी 'वारस वाले दस अनगार साधुओं के नाम दिये हैं, उनमें कार्तिक अथवा 'अणुपेक्खा है। तब कार्तिकेयानुप्रेक्षा यह नाम किसने और कार्तिकेयका भी एक नाम है। परन्तु किसके द्वारा वे उसर्गको कब दिया, यह एक अनुसन्धानका विषय है। ग्रन्थपर एक- प्राप्त हुए ऐसा कुछ उल्लेख साथम नहीं है। .. मात्र संस्कृत टीका जो उपलब्ध है वह भट्टारक शुभचन्द्रकी हाँ, भगवतीयआराधना जैसे प्राचीन ग्रन्थकी निम्न है और विक्रम संवत् १६१३में बनकर समाप्त हुई है। गाथा नं. १५४६ में क्राँचके द्वारा उपसर्गको प्राप्त हुए एक इस टीकामें अनेक स्थानों पर ग्रंथका नाम 'कार्तिकेनानुप्रेक्षा' ब्यक्रिका उल्लेख जरूर है.साथमें उपसर्गस्थान 'रीहेडक' और दिया है और ग्रन्थकार का नाम 'कार्तिकेय' मुमि प्रकट किया 'शक्ति' हथियारका भी उल्लेख है-परन्तु 'कार्तिकेय' है तथा कुमारका अर्थ भी कार्तिकेय' बतलाया है। नामका स्पष्ट उल्लेख नहीं है। उस व्यक्रिको मात्र अग्निइससे संभव है कि शुभचन्द्र भट्टारकके द्वारा ही यह दायितः' लिखा है, जिसका र्थ होता है अग्निप्रिय, नामकरण किया गया हो-टीकासे पूर्वके उपलब्ध साहित्यमें अग्निका प्रेमी अथवा अग्निका प्यारा, प्रेमपात्र:'ग्रंथकाररूपमें इस नामकी उपलब्धि भी नहीं होती। रोहेडयम्मि सत्तीए हमोकौंचेण अग्गिदयिदोवि।
'कोहेण जाण तापदि' हरयादि गाथा नं. ३६४ की तं वेदणमधियासिय पडिवएणो उत्तम अह्र ।। टीकामे निर्मल समाको उदाहृत करते हुए घोर उपसर्गोंको 'मूलाराधमादर्पण' टीकामें पं० श्राशाधरजीने 'अग्गि*वोच्छं अणुपेहाओ (गा. १); बारमअणुपेक्खायो दयिदो' (अग्निदयितः) पदका अर्थ, 'अग्निराज नाम्नो भणिया हु जिणागमाणुसारेण (गा. ४८८)।
राज्ञः पुत्रः कार्तिकेयसंज्ञः'-अग्नि नामके राजाका पुत्र x यथा:-(१) कार्तिकेयानुप्रेक्षाष्टीका वक्ष्ये शुभश्रिये- कार्तिकेय संज्ञक--दिया है। कार्तिकेय मुनिकी एक कया
(आदिमंगल) भी हरिषेण, श्रीचन्द्र और नेमिदत्तके कथाकोपोंमें पाई (२) कार्तिकेयानुप्रेक्षाया वृत्तिविरचिता वरा (प्रशस्ति ८)। जाती है और उसमें कार्तिकेयको कृतिका मातासे उत्पन्न (३) 'स्वामिकार्तिकेयो मुनीन्द्रो अनुप्रेक्ष्या व्याख्यातुकाम: अग्निराजाका पुत्र बतलाया है। साथ ही, यह भी लिखा ___ मल गालनमंगलावाप्ति-लक्षण[मंगल]माचष्टे(गा.१) है कि कार्तिकेयने बालकालमें--कुमारावस्थामें ही मुनि (४) केन रचितः स्वामिकुमारेण भव्यवर-पुण्डरीक-श्री- दीक्षा ली थी, जिसका अमुक कारण था, और कार्तिकेयकी
स्वामिकार्ति केमुनिना श्राजन्मशीलधारिणः अनुप्रेक्षा: बहन रोहेटक नगरके उस कोच राजाको ब्याही थी जिसकी रचिताः।
(गा.४८७)। शकिसे पाहत होकर अथवा जिसके किये हुए दारुण (१) प्राई श्रीकार्तिकेयसाधुः संस्तुवे (rce) उपसर्गको जीतकर कार्तिकेय देवलोक सिधारे हैं। इस (सली ना मन्दिर प्रति वि०, संवत् १८०६
कथाके पात्र कार्तिकेय और भगवती आराधनाकी उक्त गाथाके
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२३.
अनेकान्त
- वर्ष ८
पात्र 'अग्निदयित' को एक बतलाकर यह कहा जाता है परिवर्तनादिका यह कार्य किसी बादके प्रतिलेखक द्वारा संभव और माम तौरपर माना जाता है कि यह कार्तिकेयानुप्रेक्षा मालूम नहीं होता, बल्कि कुमारने ही जान या अनजानमें उन्हीं स्वामी कार्तिकेयकी बनाई हुई है जो क्रौंच राजाके जोइन्दुके दोहेका अनुसरण किया है ऐसा जान पड़ता है। उपसर्गको समभावसे सहकर देवलोक पधारे थे, और इस- उन दोहा और गाथा इस प्रकार हैं:-- लिये इस ग्रंथका रचनाकाल भगवतीभआराधना तथा श्री विरला आणहिं तत्तु बहु बिरला णिसुणहिं तत्तु । कुन्दकुन्दके ग्रंथोंसे भी पहलेका है-भले ही इस अन्य तथा विरला मायहिं तत्त जिय विरला धारहि तत्तु ॥६॥ भ० अाराधनाकी उन गाथामें कार्तिकेयका स्पष्ट नामोल्लेख
-योगसार न हो और न कथामें इनकी इस ग्रन्थरचनाका ही कोई विरला णिसुणहि तच्च विरला जाणंति तच्चदो तर्छ । उल्लेख हो।
बिरला भावहि तचं विरनाणं धारणा होदि ॥३७॥ पन्तु डाक्टर ए. एन. उपाध्ये एम. ए. कोल्हापुर इस
-कार्तिकेयानुप्रेक्षा मतसे सहमत नहीं है। यद्यपि वे अभीतक इस प्रन्यके और इसलिये ऐसी स्थितिमें डा. साहबका यह मत कर्ता और उसके निर्माणकालके सम्बन्धमें अपना कोई है कि कार्तिकेयानुप्रेक्षा उन कुन्दकुन्दादिके बादकी, ही नहीं निश्रित एक मत स्थिर नहीं कर सके फिर भी उनका इतना बल्कि परमात्मप्रकाश तथा योगसारके कर्ता योगीन्दु प्राचार्य के कहना स्पष्ट है कि यह ग्रन्थ उतना (विक्रमसे दोसो या तीनसौ . भी बाद की बनी हुई है, जिनका समय उन्होंने पूज्यपादके वर्ष पहलेकाx)प्राचीन नहीं हैं जितना कि दन्तकथाओंके समाधितंत्रसे बादका और चण्ड व्याकरणसे पूर्वका अर्थात
पारपर मानाजाता है, जिन्होंने ग्रन्धकार कुमारके न्यनि- ईसाकी ५ वीं और वीं शताब्दीके मध्यका निर्धारित किया वको अन्धकारमें डाल दिया है। और इसके मुख्य दो है क्योंकि परमात्मप्रकाशमें समाधितंत्रका बहुत कुछ अनुकारण दिये है, जिनका सार इस प्रकार है:-
सरण किया गया है और चण्ड-व्याकरणमें परमात्मप्रकाशके (8) कुमारके इस अनुप्रेक्षा ग्रंथमें बारह मावनाओंकी प्रथम अधिकारका ५ वां दोहा (कालु लहे विशु जोहया' गणनाका जो क्रम स्वीकृत है वह वह नहीं है जो कि इत्यादि) उदाहरणके रूप में उखुत है। बट्टकर, शिवाय और कुन्दबुन्कके ग्रन्थों (मूलाचार, भ. इसमें सन्देह नहीं कि मूलाचार भगवतीमाराधना माराधना तथा बारसअणुपेक्खा) में पाया जाता है, बल्कि और बारसअगुवेक्खामें बारहभावनाओंका क्रम एक है, उससे कुछ भिन्न वह क्रम है जो बादको उमास्वातिके इतनानी
इतना ही नहीं बल्कि इन भावनाओंके माम तथा क्रमकी तत्त्वार्थसूत्र में उपलब्ध होता है।
प्रतिपादक गाथा भी एक ही है, और यह एक खास विशे(२) कुमारकी यह अनुप्रेक्षा अपभ्रंश माषामें नहीं पता है जो गाथा तथा उसमें वर्णित भावनाओंके क्रमकी लिखी गई: फिर भी इसकी २७१ वीं गाया 'णिसुणहि' अधिक प्राचीनताको सूचित करती है । वह गाथा इस
और 'भावहि' (prefer by हिं) ये अपभ्रंशके दोपद प्रकार है :प्राघुसे है जो कि वर्तमान काल तृतीय पुरुषके वहुबचनके अद्धवमसरणमेगत्तमण्ण-संसार-सोगमसुचित्तं । रूप हैं। यह गाथा जोइन्दु (योगीन्दु) के योगसारके ६५ वें भासव-संवर-णिज्जर-धम्म वोहि च चिंतिते)जो ॥ दोहेके साथ मिलती जुलती है, एक ही प्राशयको लिये उमास्वातिके तत्वार्थसूत्र में इन भावनाओंका व्रम हुए है और उन दोहेपरसे परिवर्तित करके रक्खी गई है। एक स्थानपर ही नहीं बल्कि तीन स्थानोंपर x पं. पन्नालाल वाकलीवालकी प्रस्तावना पृ०॥
विभित्र है। उसमें अशरणके अनन्तर एकत्वCatalogue of Sk. and Pk. Manus
अन्यत्व भावनाओंको न देकर संसारभावनाको दिया है cripts in the C. P. and Berar P. XIV;
17. और संसारभावनाके अनन्तर एकत्व-अन्यत्व भावनाको तथा Winternitz, A history of Indian * परमात्मप्रकाशकी अंग्रेजीप्रस्तावना पृ. ६४.६७ Literature, Vol. II, P. 577.
तथा प्रस्तावनाका हिन्दीसार पृ० ११३.११५,
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किरण ६-७ ]
रक्खा है; लोकभावनाको संसारभावना के बाद न रखकर निर्जराभावना के बाद रक्खा है और धर्मभावनाको बोधि दुर्लभसे पहले स्थान न देकर उसके अन्त में स्थापित किया है जैसा कि निम्न सूत्रसे प्रकट है
प्रन्थ और प्रकार
"अनित्याऽशरण - संसारैकत्वाऽन्यत्वाऽशुच्या ssस्रव-संवर- निर्जरा-लोक- बोधिदुर्लभ - धर्मस्वाख्यात - तस्वानुचिन्तनमनुप्रेक्षाः ॥ ६-७”
और इससे ऐसा जाना जाता है कि भावनाओंका यह क्रम, जिसका पूर्व साहित्यपरसे समर्थन नहीं होता, बाद को उमास्वातिके द्वारा प्रतिष्ठित हुआ है । कार्तिकेयानुप्रेक्षामें इसी क्रमको अपनाया गया. । अतः यह ग्रन्थः उमास्वातिके पूर्वका नहीं बनता । तब यह उन स्वामिकार्तिकेयकी कृति भी नहीं हो सकता जो हरिषेणादि कथाकोषोंकी उक्त कथाके मुख्य पात्र हैं, भगवती श्राराधनाकी गाथा नं० १५४६ में 'अग्निदयित' (अग्निपुत्र) के नामसे उल्लेखित हैं अथवा अनुत्तरोपपाददशाह में वर्णित दश अनगारोंमें जिनका नाम है। इससे अधिक ग्रन्थकार और प्रन्थके समय-सम्बन्ध में इस क्रमविभिन परसे और कुछ फलित नहीं होता ।
अब रही दूसरे कारण की बात, जहाँ तक मैने उसपर विचार किया है और ग्रन्थको पूर्वापर स्थितिको देखा है उस परसे मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं होता कि ग्रंथ में उक्त गाथा नं० २७६ की स्थिति बहुत ही संदिग्ध है और वह मूलत: ग्रंथका अंग मालूम नहीं होती—बादको किसी तरहपर प्रक्षिप्त हुई जान पड़ती है । क्योंकि उक्त गाथा 'लोकभावना' अधिकारके अन्तर्गत है, जिसमें लोकसंस्थान, लोकवर्ती जीवादि छह द्रव्य, जीवके ज्ञानगुण और श्रुतज्ञानके विकल्परूप नैगमादि सात नय, इन सबका संक्षेप में बड़ा ही सुन्दर व्यवस्थित वर्णन गाथा नं० ११५ से २७८ तक पाया जाता है । २७८ वीं गाथामें नयोंके कथनका उपसंहार इस प्रकार किया गया है:
एवं विविहरणएहि जो वत्थू व बहरेदि लोयम्मि । दंसण-गारण चरितं सो साहदि सम्ग- मोक्खं च ॥
इसके अनन्तर 'विरला शिसुहिं तच्च' इत्यादि • गाथा नं. २७६ है, जो औपदेशिक ढंगको लिये हुए है और sist तथा इस अधिकारकी कथन- शैलीके साथ कुछ संगत
$
२३१
मालूम नहीं होती - खासकर क्रम प्रत गाथा नं० २८० की उपस्थितिमें, जो उसकी स्थिति को और भी सन्दिग्ध कर देती है, और जो निम्न प्रकार है:
तच्च कहिज्जमाणं णिच्चलभावेण गिद्धदे जो हि । तं चि भावेइ सथा सो वि य तत्त्वं वियागेई ॥
||२=०||
इसमें बतलाया है कि, 'जो उपर्युक्त तत्वको — जीवादिविषयक तस्वज्ञानको अथवा उसके मर्म को— स्थिरभावसे— ताके साथ — ग्रहण करता है और सदा उसकी भावना रखता है वह तस्वको सविशेष रूपसे जाननेमें समर्थ होता है।
इसके अनंतर दो गाथाएँ और देकर 'एव लोयसहावं जो भायदि' इत्यादि रूपसे गाथा नं७ २८३ दी हुई है, जो लोकभावनाके उपसंहारको लिये हुए उसकी समाप्ति-सूचक है और अपने स्थानपर ठीक रूपसे स्थित है। वे गाथाएँ इस प्रकार हैं:-- it
को
at इथि कस्स ए मयणेण खंडियं माणं । इंदिपडिंग जिमो को या कसाएहि संतप्तो । २८१| सो वसो इत्थिजणे स ग जिओ इंदिएहि में हेा । जो ण य गिहृदि गंथं श्रब्भतर बाहिरं सव्वं १२.२। इनमेंसे पहली गाथामें चार प्रश्न किये गए हैं- १ कौन सीजनों के वशमें नहीं होता ? २ मदन- काम देवसे किसका मान खंडित नही होता १, ३ कौन इन्द्रियोंके द्वारा जीता नहीं जाता ?, ४ कौन कषायोंसे संतप्त नहीं होता ! दूसरी गाथ में केवल दो प्रश्नोंका ही उत्तर दिया गया है जो कि एक खटकने वाली बात है, और वह उत्तर यह है कि स्त्रीजनोंके वशमें वह नहीं होता और वह इन्द्रियों से जीता नहीं जाता जो मोहसे बाह्य और आभ्यन्तर समस्त परिग्रहको ग्रहण नहीं करता है।'
इन दोनों गाथाकी लोकभावनाके प्रकरण के साथ कोई संगति नहीं बैठती और न ग्रन्थमें अन्यत्र ही कथनकी ऐसी शैलीको अपनाया गया है। इससे ये दोनों ही गाथाएं स्पष्ट रूपसे प्रक्षिप्त जान पड़ती हैं और अपनी इस प्रक्षिप्तताके
कारण उक्त 'विरला गिसुखहिं तच्च' नामकी गाथा म० २७६ की प्रक्षिप्तताकी संभावनाको और दृढ करती हैं। मेरी रायमें इन दोनों गाथाओं की तरह २७६ नम्बरकी गाथा भी प्रक्षिप्त है, जिसे किसीने अपनी ग्रन्थप्रतिमें अपने उपयोग के
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२३२
भनेकान्त
[वर्ष
लिये संभवत: गाथा न. २८० के आसपास हाशियेपर, बादका बना हुआ है, ठीक मालूम नहीं होता। मेरी समममें उसके टिप्पणके रूपमें, नोट कर रक्खा होगा, और जो प्रति- यह ग्रंथ उमास्वातिके तत्वार्थसूत्रसे अधिक बादका नहीं लेखकको असावधानीसे मूलमें प्रविष्ट हो गई है। प्रवेशका है--उसके निकटवर्ती किसी समयका हं.ना चाहिये । और यह कार्य भ. शुभचन्द्रकी टीकासे पहले ही हुआ है, इसीसे इसके कर्ता वे अग्निपुत्र कार्तिकेयमुनि नहीं है जो श्रामइन तीनों गाथाओंपर भी शुभचन्द्रकी टीका उपलब्ध है तौरपर इसके कर्ता समझे जाते हैं और क्रौचराजाके द्वारा
और उसमें (तदनुसार पं. जयचन्द्रजीकी भाषा टीकामें भी) उपसर्गको प्राप्त हुए थे, बरिक स्वामिकुमार नामके प्राचार्य बड़ी खींचातानीके साथ इनका सम्बन्ध जोदनेकी चेष्टा की ही है जिस नामका रल्लेख उन्होंने स्वयं अम्तमंगलकी गई है; परन्तु सम्बन्ध जुबता नहीं है। ऐसी स्थितिमें उक्त गाथामे श्लेषरूपसे भी किया है:--, गाथाकी उपस्थितिपरसे यह कलपित करलेना कि उसे स्वामि- तिहयण-पहाण-सामि कुमार-काले वितविय तवयरणं। कुमारने ही योगसारके उन दोडेको परिवर्तित करके बनाया है, वसुपुज्जसुयं मल्लंबरमतियं स्थुवे णिचं |४| समुचित प्रतीत नहीं होता-खासकर उस हालतमें जबकि ग्रंथ- इसमें वसुपूज्यसुत वासुपूज्य, मल्लि और अन्तके तीन भरमें अपभ्रशभाषाका और कोई प्रयोग भीन पाया जाता हो। मेमि, पार्श्व तथा वर्द्धमान ऐसे पाँच कुमार-श्रमण तीर्थकरोंको बहुत संभव है कि किसी दूसरे विद्वानने दोहेको गाथाका बन्दना की गई है, जिन्होंने कुमारावस्थामें ही जिन-दीक्षा रूप देकर उसे अपनी ग्रन्थप्रतिमें नोट किया हो, और यह लेकर तपश्रारण किया है और जो तीन लोकके प्रधान भी संभव है कि यह गाथा साधारणसे पाठ भेदके साथ स्वामी हैं । और इससे ऐसा ध्वनित होता है कि ग्रन्धकार अधिक प्राचीन हो और योगीन्दुने ही इसपरसे थोड़ेसे परि- भी कुमारश्रमण थे, बालब्रह्मचारी थे और उन्होंने बाल्यावर्तनके साथ अपना उन दोहा बमाया हो; क्योंकि योगीन्दुके वस्थामें ही जिनदीक्षा लेकर तपश्चरण किया है-जैसा परमात्मप्रकाश आदि ग्रंथों में और भी कितने ही दोहे ऐसे कि उनके विषयमें प्रसिद्ध है, और इसीसे उन्होंने, अपनेको पाये जाते हैं जो भावपाहुड तथा समाधितंत्रादिके पद्योंपर विशेषरूपमें इए, पाँच घुमार तीर्थकरोकी यहाँ स्तुत की है। से परिवर्तित करके बनाये गये हैं और जिसे डाक्टर साहबने स्वामि-शब्दका व्यवहार दक्षिण देशमें अधिक है और स्वयं स्वीकार किया है। जबकि कुमारके इस ग्रंथकी ऐसी वह व्यनि-विशेषोंके साथ उनकी प्रतिष्टाका द्योतक होता है। कोई बात अभी तक सामने नहीं आई-कुछ गाथाएं ऐसी कुमार, कुमारसेन, कुमारनन्दी और कुमारस्वामी जैसे जरूर देखने में आती हैं जो कुन्दकुन्द तथा शिवार्य जैसे नामों के प्राचार्य भी दक्षिण में हुए है। दक्षिण देशमें बहुत प्राचार्योंके ग्रन्थों में भी समानरूपसे पाई जाती हैं और वे प्राचीन कालसे क्षेत्रपालकी पूजाका भी प्रचार रहा है और
और भी प्राचीन स्रोतसे सम्बन्ध रखने वाली हो सकती हैं, इस ग्रन्थकी गाथा. नं. २५ में 'क्षेत्रपाल' का स्पष्ट जिसका एक नमूना भावनाओंके नामवाली गाथ.का उपर नामोल्लेख करके उसके विषयमें फैली हुई रक्षा-सम्बन्धी दिया जा चुका है। अतः इस विवादापन्न गाथाके सम्बन्धमें मिथ्या धारणाका निषेध भी किया है। हम सब बातोपस्से उक्त कल्पना करके यह नतीजा निकालना कि, यह ग्रन्थ अन्धकार महोदय प्रायः दरिल देशके प्राचार्य मालूम होते जोइन्दुके योगसारसे-ईसाकी प्रायः छठी शताब्से- हैं, जैसाकि डाक्टर उपाध्येने भी अनुमान किया है।
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वीतराग-स्तोत्र [यह स्तोत्र कोई २० वर्ष पहले, अगस्त सन् १९२६ में, काँधला जि० मुजफ्फरनगरके जैनमन्दिरशास्त्रभण्डारका निरीक्षण करते हुए, मुझे देखनेको मिलाथा; आज इसे अनेकान्तमें प्रकाशित किया जाता है। इसमें अलङ्कार-छटाको लिये हुए वीतरागदेवके स्वरूपका निर्देश करते हुए बार बार यह घोषित किया गया । है कि 'जो पुण्य-हीन हैं वे ऐसे वीतरागदेवका दर्शन नहीं कर पाते।'-अर्थात् वीतरागका दर्शन-अमुभवन
और सेवा-भजन बड़े भाग्यसे प्राप्त होता है। स्तोत्रकी पद-रचना प्रायः सरल तथा सुगम है और उसपरस्से सहज हीमें-बिना किसी विशेष परिश्रमके-बहुतकुछ अर्थावबोध हो जाता है, इसीसे स्तोत्रका अर्थ साथमें देनेकी जरूरत नहीं समझी गई। यह स्तोत्र वें पद्यपरसे 'कल्याणकीर्ति' प्राचार्यका बनाया हुश्रा जान पड़ता है और वें पद्यमें श्लेषरूपसे 'पद्मसेन' और 'नरेन्द्र सेन' नामके प्राचार्यों का भी उल्लेख किया गया है, जो कल्याणकीर्तिके गुरुजन मालूम होते हैं । कल्याणकीर्ति, पद्मसेन और नरेन्द्रसेन नामके अनेक प्राचार्य हो गये हैं, अभी यह निश्चित नहीं हो सका कि उनमेंसे यहाँपर कौन विधक्षित हैं:-सं०]
. (वसन्ततिलका) शान्तं शिवं शिव-पदस्य परं निदानं, सर्वज्ञमीशममलं जित-मोह-मानम् । संसार-नीरनिधि-मन्थन-मन्दराऽगं , पश्यन्ति पुण्य-रहिता न हि वीतरागम्॥१॥ अव्यक्त-मुनि-पद-पङ्कज-राजहंसं, विश्वाऽवतंसममरैविहित-प्रशंसम् । कन्दर्प-भूमिरुह-भजन-मत्त-नागं, पश्यन्ति पुण्य-रहिता न हि वीतरागम् ॥ २ ॥
संसार-नीरनिधि-तारण-यानपात्रं, ज्ञान्क-पात्रमतिमात्र-मनोग्य-गात्रम् । र दुर्वार-मार-धन-पातन-वात-गगं२ , पश्यन्ति पुण्य-रहिता न हि वीतरागम् ॥ ३ ॥
दान्तं नितान्तमतिकान्तमनन्तरूपं, योगीश्वरं किमपि संविदित-स्वरूपम् । संसार-मारव-पथाऽद्भुत-निर्भराऽगं३ , पश्यन्ति पुण्य-रहिता न हि वीतरागम् ॥ ४॥ . दुष्कर्म-भीत-जनता-शरणं सुरेन्द्रः, निश्शेष-दोष-रहितं महितं नरेन्द्रः । । तीर्थङ्करं भविक-दापित-मुक्ति-भाग, पश्यन्ति पुण्य-रहिता न हि वीतरागम् ॥ ५॥ कल्याण-वल्लि-वन-पल्वनाऽम्बुवाहं , त्रैलोक्य-लोक-नयनक-सुधा-प्रवाहं । .. सिद्धयङ्गना-वर-विलास-निबद्ध-रागं, पश्यन्ति पुण्य-रहिता न हि वीतरागम् ॥ ६॥ लोकाऽवलोकन-कलाऽतिशय-प्रकाशं, व्यालोक-कीति-वर,निर्जित-कम्बुध -हास्यम् । वाणी-तरङ्ग-नवरङ्ग-लसत्तडागं, पश्यन्ति पुण्य-रहिता न हि वीतरागम् ॥७॥ .. कल्याणकीर्ति-रचिताऽऽलय-कल्पवृक्ष, ध्यानाऽनले दलित-पापमुदात्त-पक्षम । नित्यं क्षमा-भर-धुरन्धर-शेषनागं, पश्यन्ति पुण्य-हिता न हि वीतरागम् ॥ ८॥ श्रीजैनसूरि-विनत-क्रम-पद्मसेनं, हेला-विनिर्दलित-मोह-नरेन्द्रसेनम् । लीला-विलंघित-भवाऽम्बुधि-मध्यभागं, पश्यन्ति पुण्य-रहिता न हि वीतरागम् ॥ ६॥ मन्दराऽचल. २ पवन-वेग. ३ पूर्ण छायातरु. ४ शङ्ख। । ।
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सर राधाकृष्णनके विचार पेरिसमें संयुक्त राष्ट्रीयसंघके शैक्षिक, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक संगठनके प्रथम अधिवेशनमें भाषण देते हुए हालमें सर राधाकृष्णनने कहाःमानवताका पुनः-संस्थापन
संसारकी वर्तमान दुरवस्थाके मुख्य कारण जीवनके प्रति - "यूनेस्काका उद्देश्य केवल इतना ही नहीं है कि वह हमारा पार्थिव दृष्टिकोण, प्रात्म-विद्याके प्रति हमारी अवज्ञा और थोडीसी नयी व्यवस्थाएँ करके बैठ जाये । उसे तो जीवनकी. आध्यात्मिक आदशाक प्रात हमारा उदासीनता ।
संसारको उन्नत करनेके लिये हमें आदर्शवादी दृष्टिकोण, एक नयी दिशा, एक नया दृष्टिकोण और एक नयी विचारधाराका अन्वेषण करना है, जो मानव जातिको स्फुरण
दार्शनिक विचारधारा तथा आध्यात्मिक तत्वोंको पुनः अपनाना प्रदान कर सके। अपने देशमें हम लोग इस बातमें विश्वास प रखते हैं कि ऐसी विचारधारामें आध्यात्मिकताका पुट अवश्य
नये आदर्शोकी आवश्यकता हो। धुरी राष्ट्रोंका उदाहरण हमारे लिये चेतावनी है। परन्तु मेरी सबसे अधिक चिन्ता इस बातके लिये है कि जर्मनी और जापान बौद्धिक अवदानों, वैज्ञानिक प्रगति, कहीं हम बुद्धिवादी ही अपने कार्यके प्रति भूठे सिद्ध न हों। औद्योगिक कुशलता और सैन्यशनिमें बढ़े चढ़े थे, लेकिन हममें विनम्रता ही नहीं, सचाई भी होनी चाहिये । अपरिफिर भी पिछले महायुद्ध में वे पराजित हुए। वे इसलिये पक्व मस्तिक.में मिथ्या धारणाएं भरने और ज्ञानके स्रोतों असफल हुए कि उनमें विवेक और बुद्धि का अभाव था। को विषाक कर देनेके लिये हमी उत्तरदायी हैं हम सरल ___ अगस्त १६४६के अन्तिम दिन जब न्यूरेम्वर्गके बन्दियों युवकोंके मस्तिष्कोंको विकृत कर देते हैं और युद्धकी इच्छा से पूछा गया कि उन्हें कोई युक्रि देनी है तो उनमें से एक न रखने वाले निषि व्यक्तियों को मृत्यु तथा विनाशका नंगा फ्रैंकने का “प्रधान अभियुक्र एडोल्फ हिटलर जर्मच-जनता नाच नाचनेवाले दानवों के रूपमें परिणत कर देते हैं। मानवके सम्मुख अपना अन्तिम बयान देनेको यहां उपस्थित नहीं हृदयकी कोमल भावनाओंका उन्मूलन करके उसकी सहज है। वैज्ञानिक त्रुटियोंके कारण हम युद्ध में पराजित नहीं हुए। खलकका अन्त कर देते हैं। महान बुद्धिवादी सुकरात, जिसे परमात्माने हिटलर और हम सबके विरुद्ध, जो ईश्वरसे पश्चिमी संसारके बुद्धिवादियोंका प्रतिनिधि कहा जा सकता विमख थे और जिन्होंने हिटलर की सेवाकी, अपना निर्णय है. प्रारम-निर्णयके सिद्धान्त पर चलता था। जब उसका दिया है।" जब कोई राष्ट्र खुल्लमखुल्ला परमात्मासे विमुख अपने समयके समाजसे संवर्ष हुआ तो उसने राज्यके आदेश होकर केवल पार्थिव सफलता और समृद्धिकी ओर मन की हमारे नेताके शब्दों में 'भद्र अवज्ञा" की। अपनी लगाता है त उसका पतन हो जाता है। आज जितनी बौद्धिक सचाई पर आघात होनेपर राज्यके अतिक्रमणसे लोहा आवश्यकता मानवको उसकी पूर्वावस्था लानेकी है उतनी लेनेका साहस हममेंसे कितने बुद्धिवादियोंमें है? राज्यके पाठशालाओं पुस्तकालयों या दूकानों और कारखानोंको लाने श्रादेशोंका सत्यसे विरोध होनेपर हममेंसे कितने उन आदेशों की नहीं। यदि हमें एक नवीन सार्वभौम समुदायको स्फूर्ति की अवज्ञा करते हुए शहीद होनेको तैयार हैं? प्रदान करनी है तो हमें मानवको स्फूर्ति दान करना चाहिये। हम आमाके पुजारी हैं। हमारे होठोंसे असत्यका एक माज ऐसे व्यक्तियों की संख्या बहुत है जिनकी परमात्मामें शत न निकलना चाहिये और न किसी मिथ्या विचारका प्रास्था नहीं है, जो दर्शनतत्त्वमें विश्वास नहीं रखते किन्तु प्रवेश ही हमारे मस्तिष्कमें होना चाहिये। मुझे इस बात यदि कोई हमसे यह कके कि हम नास्तिक अथवा पराङ्मुख हैं की कामना है कि हम सब राजनीतिसे ऊपर उठ कर केवल तो हम बुरा मान जायंगे। साप और प्रेम ही प्रत्येक धर्मका विश्व श्रादर्शोको ही अपनावें । एक जर्मन विचारकने कहा है उपदेश है। सत्य हमपे श्रद्धावान व्यक्रिका आदर करनेका "नये शोरगलके आविष्कारकोंके इर्दगिर्द नहीं, बल्कि नवीन प्राह करता है और प्रेम हमें मानव-जाति के सम्मानका पाठ प्रदर्शोके आविष्कारकों के इर्दगिर्द यह दुनिया घूमती हैपढ़ाता है। व्यक्रि और मानव-जाति संसारके दो स्तम्भ हैं
चुप-चाप घूमती है।" और अन्य समूह केवल बीच अध्याय ।
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साम्प्रदायिक दंगे और अहिंसा
- (लेखक बा० राजकुमार जैन)
SHANKज यह किसीसे भी छिपा नहीं कि साधारण सी कहावतसे मी यह स्पष्ट हो जाता है कि
मा जगह २ पर साम्प्रदायिक दंगे होरहे जो बड़ा है, जो शक्तिशाली है, जिसके भुजदण्डोंमें
" हैं। यह दंगे साम्प्रदायिक हैं या बल है, वही क्षमा कर सकता है। एक पतित, दलित PAPAD राजनैतिक ! इस प्रश्न का सम्बन्ध तथा शक्तिविहीन पुरुष, जिसे कुछ भी चारा नहीं, राजनीतिसे है और इस प्रश्नपर मुझे कुछ नहीं क्या करेगा ? वह क्षमाके सिवा और फर भी क्या लिखना है। देखना तो इस बातका है कि इन दंगों सकता है ? क्या एक ऐसे पुरुषकी क्षमा ही 'उत्तम से अहिंसाका क्या सम्बन्ध है।
क्षमा' हैं ? नहीं-नहीं। यह तो उसकी कायरता है। अहिंसा अभयका ही एक अंग है तथा इन एक ऐसा पुरुष जो उन्नति तथा वीरताकी सीढ़ीपर दोनोंमें एक विशेष सम्बन्ध है। जब तक हम अभय सबसे ऊंचे हो वह क्षमा करे, वह अहिंसक हो तो नहीं हैं तब तक हमारा अहिंसक होना एक सीमा बात दूसरी; परन्तु एक ऐसा पुरुष जिसने किसी भी तक निरर्थक है और हम भी उसी सीमाके अन्दर दिन उस सीढ़ीपर चढ़ने तकका साहस न किया ही हैं। क्या हमारा आततायियोंको क्षमा कर देना हो, किस प्रकार क्षमा कर सकता है ? वह तो बाध्य
और उनको इस प्रकार प्रेरणा देना ही अहिंसा है ? है क्षमा करनेके लिये। आज ठीक यही अवस्था क्षमा करनेसे पहले यह बात अवश्य ध्यानमें रक्खी जैनसमाजकी है। हमें वैसी अहिंसा नहीं चाहिये। जानी चाहिये कि क्षमा वहीं कर सकता है जिसमें हमें आजकल क्षमा करनेका अधिकार प्राप्त नहीं है, शव से बदला लेनेकी शक्ति हो। वे पुरुष जो उनसे इसके लिये हमें अधिकार प्राप्त करना होगा । मैं हरकर अपने २ घरों में भयभीत हुए बैठे हैं यह कहता हूँ कि अगर हम दंगोंसे अभय हो जाएं, तो नहीं कह सकते कि हम तो अहिंसक हैं। उनका इस किसी भी शक्तिका साहस दंगा करनेका नहीं हो प्रकार अहिंसाकी आडमें बैठा रहना सर्वदा दोषपूर्ण सकता है। आज जब हम अपना मान खो चुके हैं, है। इस प्रकारसे वह अहिंसाको कायरतामें परिव- बल, वीरता तथा शौर्य खो चुके हैं, अपनी उन्नतिके र्तित कर रहे हैं और जो दोष अन्य समाजोंने जैन सिंहासनसे च्युत हो गये हैं, आज जब हम अभयके
और बौद्ध धर्मकी अहिंसापर लगाया और भारतीय मार्गको भूल गये हैं और कायरताके पथपर अग्रसर परतन्त्रता उसीका फल बतलाया है, उसके योग्य हैं, तब ही नीच, पतित, अत्याचारी पुरुषोंको जिन बन रहे हैं। याद रक्खें इस प्रकार वे केवल अहिंसा का कि इतिहास उनके काले कारनामोंसे भरा पड़ा पर बल्कि अपने जैनधर्मपर भी कलंक लगा रहे हैं। है, दंगा करनेका साहस हुआ है। जैनधर्म अभयका 'मा बड़नको चाहिये छोटनको अपराध' इस सन्देश देता है और अभय हम तब ही हो सकते हैं
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२३६
जब हम शक्तिशाली हों, हमारे भुजदण्डों में बल हो, वीर हों और अतिवोर हों या हमारे अन्दर असा धारण तथा अद्वितीय आत्मशक्ति हो ।
अनेकान्त
वीर भगवानका आदेश है "तुम खुद जीओ, जीने दो ज़माने में सभी को” (Live and Let Live) जब हम संसारमें जीवित हो, शक्तिशाली हो, उन्नतिके शिखरपर हों, तब तुम दूसरोंको मत दवा और उन्हें भी जीने दो । अच्छा व्यवहार करो और अत्याचार न करो। पर यह बात नहीं है आजके लिये। अगर हम शक्तिविहीन हैं तो भी किसी को सतावें, परन्तु आज तो हमारा अस्तित्व ही मिटाये जानेकी चुनौती दी गई है । तुम्हारी सभ्यता, तुम्हारी संस्कृति, तुम्हारे धर्म कर्म सब कुछ नष्ट किये जा सकते हैं अगर तुम इसी प्रकार कायर बने रहे। अब जब हम स्वयं ही नष्ट हो जानेवाले हैं, तब दूसरोंके रहनेका प्रश्न ही नहीं उठता । क्या हिंसा और क्या अहिंसा ?
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वर्ष ८
पुरुष समझ जाए तो फिर अपनी ही बोली बोलनी चाहिये। मित्रों ! हमारी बोली अहिंसाकी है, लेकिन आज अपने कर्मानुसार तथा काल-चककी गतिसे हम इतने कायर हो चुके हैं कि हम सिंहक हो ही नहीं सकते। आज हमें दंगा करने वालोंको समभामा है । अमर वे हमारी बोलीमें नहीं समझते तो हमें उनको उन्हींकी बोलीमें समझाना पड़ेगा। चाहे वह बोली हिसाकी हो या अहिंसा की । फिर जब हम जागृत हो जाएँगे और इस भेदको समझने लगेंगे, तो कोई भी शक्ति इस प्रकारका अनुचित कार्य करने का साहस न करेगी । मेरी लेखनी फिर वही लिखने को विवश है कि जब तक हम वीर बलवान नहीं, अहिंसक कैसे ? हमें तो विवश होकर अहिंसाकी शरण लेनी पड़ती है ।
मित्रो ! आज हमें दंगा करनेवाले दुष्टोंको भगवान कुन्दकुन्दके आदेशानुसार समझाना है । अपनी बोलीमें या उनकी ही बोलीमें । अगर वे अहिंसाकी बोली नहीं समझते तो अपने प्यारे जैन धर्म तथा उसकी अहिंसाकी रक्षाके लिये, प्रचारके लिये, उन्नतिके लिये हमें हिंसाकी बोली ही बोलनी पड़ेगी। जब वे समझ जाएँगे तो हम अपनी ही बोली बोलेंगे ।
भगवान कुन्द कुन्दने कहा है कि हमें उसी बोली में ही बोलना चाहिये जिसमें कि दूसरा पुरुष समझ सके । उसे समझानेके लिये अगर हमें उसकी ही बोलीमें बोलना पड़े तो कोई डरकी बात नहीं; परन्तु हमें इस बातका ध्यान रखना चाहिये कि कहीं हम उस ही बोलीको अपना माध्यम न बनालें । जब वह..
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भगवान महावीर और उनका सन्देश (लेखक-श्री कस्तूरसावजी जैन अग्रवाल ,बी. ए., बी. टी.)
[किरण १ से आगे]
- -- पाठक अबतक धर्म और अहिंसांको जिस रूपमें देख विविध वैज्ञानिक प्रांविष्कारोंसे हम प्रतिक्षण अनेकविध चुके हैं उसका आधार अनुभूति (Feeling) ही प्रधान- लाभ भी उठा रहे हैं, वैज्ञानिकोंने प्रकृतिदेवीको एकनिष्टा रूपसे रही है। अब हम निम्न पंकियों में उसे बौद्धिकता और लगनसे, सेवा तथा तपस्यासे प्रसन्न करके उसे अपनी (Rationality) की कसौटीपर परखने का प्रयत्न करेंगे प्रज्ञाकारिणी चेरी बना लिया है, और अभी मानव समाजकी तथा पाश्चिमात्य विचारधारा किस तरह रहती है, उसको प्राशापूर्ण क्रियाशीलता भी अनन्त है। मामवजातिकी लक्ष्यमें रखकर इसके व्यावहारिक स्वरूपका परीक्षण करेंगे। वैज्ञानिक धमराशिकी सीमा कल्पनासे भी परिमित नहीं ... प्रायः लोग पुनर्जन्म तथा पारलौकिक सखमें विश्वास होती। इसीके बलपर सुखके परमोच शिखरपर मनुष्य नहीं करते बल्कि, उसे कपोलकल्पित तथा धोखेकी टट्टी आसीम हो सकता है। अतएव निराशावादियों तथा निष्क्रिय समझते हैं । जनवादी मनुष्यजीवनका लक्ष्य प्राधिभौतिक पुरुषोंका ही काल्पनिक सुख भविष्यकालीन मोक्ष है जो उन्नति, आर्थिक उत्कर्ष तथा काम-सेवन ही समजते हैं। सर्वथा त्याज्य तथा हेय है ऐसा उनका कहना है। उनके नजदीक शरीरसे पृथक पात्मा कोई वस्तु नहीं है असन्तोष अवनतिका कारण नहीं, किम्बहुना उत्ततिकी किन्तु इन्द्रियजनित सुखोंका भोग करना ही परम श्रेयस्कर पहली सीढी है। जबतक प्रसंतोषसे मनुष्य जर्जर नहीं होता, है। उनका कहना है कि 'ईश्वर और धर्म केवल ढोंग हैं। हमारे मनमें अपनी दशा सुधारनेका विचार भी नहीं पुरातन कालमें खुदग़रज़ तथा स्वार्थी किन्तु बुद्धिप्रधान पैदा होता। संतोषीका सुख प्रायः उन्नतिका घातक होता है पुरुषोंने केवल स्वार्थके लिये तथा अपने जीवनको सुखमय तथा उत्कर्षकी गति सदाके लिये स्की रहती है। मनुष्य बनाने के लिये जगतके भोले प्राणियोंको ठगकर अपना उल्लू निर्जीव तथा अकर्मण्य बन जाता है तथा गुलामी और सीधा करना अपना पैदायशी हक समझ लिया था। दासत्वका वह शिकार हो जाता है। अत: असन्तोष या "बेवकूफोंका माल अकलमन्दोंकी खुराक है" इस सिद्धान्तको हलचल जीवन पैदा करती है। वह हर प्रकारके साधनोंका दुनिया पहले ही से अपना चुकी है। जो भी हो, उनके प्रवलंबन लेकर न सिर्फ अपने आपको किंबहुना समूचे नज़दीक धर्म एक ढकोसला है, एक जाल है, अकर्मण्यता राष्ट्रको कहींसे कहीं पहुंचा देती है। साधन चाहे कैसा ही तथा अन्धपरम्परा है। भविष्यकालीन काल्पनिक सुखोंकी हो वह अपने उत्तम ध्येयकी प्राप्ति कर लेता है। हिंसा लालसाके लिये वर्तमानकालको बलिवेदीपर चढ़ाना गर्हणीय अथवा बलप्रयोगसे शान्ति स्थापित की जा सकती है। है। वास्तवमें विचारशील लोगोंके चित्तमें मानवजातिकी अतएव प्रभुता ही जीवनका लक्ष्य होना चाहिए । जब पश्चिममें उत्तरोत्तर उन्नति हो रही है-यह ऐतिहासिक हमारी नीयत अच्छी है तो मार्ग कैसा ही.कएटकाकीणे सत्य है। उसी प्रकार पूर्वमें अधःपतन हो रहा है यह भी क्यों न हो, हिम्मत न हारनी चाहिए। यदि बुरे साधनोंसे निर्विवाद है (इसका कारण धर्म समझा जाता है)।प्रकृतिपर उद्दिष्ट की सिद्धि हो सकती है तो इसमें हर्ज ही क्या ? मनुष्यका अधिकार होता जा रहा है। इसके गूढ रहस्य यही कारण है कि "All is well tha ends जितने आज मनुष्यको ज्ञात हैं और उनका जितना सदुपयोग well" की दुहाई दी जाती है। हमें भाम खानेसे मतलब अपने जीवन में यह कर रहा है-प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर है। है पेड़ गिननेसे नहीं। अतएव पाश्चिमात्य विचारधाराके
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२३५
अनुसार शान्तिका पाठ पढ़ाना तथा संतोषका बेसुरा राग अलापना एक अक्षम्य अपराध तथा महापाप है, कायरताकी निशानी है तथा पनकी अलामत है।
हमारे सामाजिक, पारिवारिक और व्यक्तिगत जीवनमें धर्म और ईश्वरवाद बढी व चा डालता है। इसीकी आइ अन्धविश्वासका अन्धेरा हमको आच्छादित किये हुए है । इसके नामपर करोड़ों मर मिटे है खून की नदियां वह चुकी हैं। धर्मामा दुखी और धर्मामा सुखी दिखाई देते हैं या दूसरे शब्दोंमें दुःखका तथा हमारी मौजूदा अधोगतिका कारण धर्म ही है।
अनेकान्त
विचारशील लोगोंके चित्त की उपरो तरंगें अवश्य उठा करती है, मानव जातिका उत्कों और सर्वोसध्येय क्या होना चाहिये यह प्रश्न जटिल होनेपर भी दवा रोचक, गंभीर और महत्वशाली है, उद्देश्य और ध्येयके मूलभूत तत्वोंसे इसका सम्बन्ध है, समस्त सिद्धान्तों और दर्शनोंका यही सार है सारा संसार युगके आदिले शान्ति और सुखकी खोज में रत रहा है। यही कारण है कि ज्ञान और अनुभवकी मात्रा उत्तरोतर बढ़ती गई। ज्ञानराशिकी ऐसी श्रीवृद्धिको देखते हुए उपरोक का हल आसानीसे यदि प्रश्नोंका नहीं तो काफी गवेषय व अन्वेषण के उपरान्त निकाला जा सकता है। हां, वर्तमान के नये आविष्कार और खोज शनके सदुपयोगमें बाधा डालने के लिए हमारी बुद्धिको भ्रममें डाल रहे हैं। यही कारण है कि धर्मके साथ २ सुख और शान्ति दुनियासे विदा होती जा रही है, अंधकारमय अधर्मरूपी अशान्तिका साम्राज्य होता जा रहा है । ग्रास्तिकतापर नास्तिकताकी विजय गौरवकी चीज समझी जा रही है। सद्बुद्धि और सत्प्रवृत्ति सारे संसारसे ऐसी गायब हो रही है; जैसे मानसरोवरसे मुकाफल घुगने वाले हंस स्वार्थकी । मात्रा बढ़ती जा रही है, नीति और सत्यका गला स्वार्थ साधनके लिये घोटा का रहा है। इनके पास उपति इसीका नाम है, किन्तु इसमें ही रूपनति बीजरूपसे छिपी न रह कर अपना विकराल रूप प्रकट कर रही है:
"राह वो चलते है जगती है जिसमें ठोकर काम हम करते हैं यह — जिसमें जरर देखते हैं।"
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भूमण्डलके इन आधुनिक विद्वानोंने या पूंजीरतियोंने धनद्वारा ही जगतकी सभी वस्तुओंका मूल्य निर्धारित
[ वर्ष ८
करना सीखा है, अपनी आमाकी महानता को भी धमकी तराजू पर तोलना चाहा है। इन दूषित विचारोंकी हवा हमारे दिल और दिमागको विला और गन्दा बनाती जा रही है। स्व० गुरुदेव रवीन्द्रनाथजीने विश्व-कल्याणका एक सस्ता और अच्छा नुसखा दुनिया वालोंको दिया है। हिंसा ही दुनियाको प्रेम और अहिंसाका रामय संगीत सुनाया है। इनके रोचक शब्दोंमें इस मर्जका इलाज चतुराई (Politics) और साँपे नहीं किन्तु प्रेम, श्रद्धा और त्याग है। अग्नि का शमन नहीं कर सकती, उसी प्रकार पाप पापका शमन नहीं कर सकता । शक्तिकी शनिका विकास ही उन्नतिका सहायक होगा। स्वनामधन्य विश्वविख्यात स्व० गुरुदेवीका मत है कि पश्चिमी सभ्यताने आज मनुष्यकी आमाको साथीलाओंसे बद्र करके घोर अवनति के कारागार में बन्द कर दिया है। मानवताके सधे विकासके लिए उनके शब्दोंका सार यहाँ दिया जाता है
"मनुष्यजातिकी वर्तमान सन्तानमें आधी मनुष्यता और आधी पशुता एवं बरता पाई जाती है। इसका मौजूदा भयानक रूप पूर्व ऐतिहासिक युगके (PreHistoric Period) दानवोंकी अपेक्षा अधिक सन्ताप जनक और फलतः श्रापत्तिजनक है। उन दानवोंमें केवल पशु-बल था, किन्तु ध्रुव मनुष्यसन्तानमें पशुबल तथा विनाशकारी बुद्धिवलका सम्मिलन है। इसने ऐसी बीम को जन्म दिया है, जिसकी वासनामें हृदयका अभाव और अस्त्र-शस्त्रको छल-कपटपूर्ण बना दिया है, इसने कधी पासनाको शत्रिशाली और कार्यक्षम बना दिया है। 'एक समय था जब एशिया के विचारशील पुरुषोंने मनुष्य में विद्यमान पशुता और क्रूरताको रोकने के लिए एडी से चोटका जोर लगा दिया था। किन्तु खेद है कि श्राज इस रोशन जमाने में वुद्धिकी इस पाशविक सताने हमारी नैतिक और अध्यात्मिक सम्पत्तिको छीन लिया है। पशुओंकी क्षमता जड़ नहीं थी, जीवनसे उसका संयोग अवश्य था। वह प्राणियोंकी ही सत्ता थी, किन्तु आजकल के वैज्ञानिक युगके आविष्कार उदाहरणार्थ सर्वनाशकारी यमके गोले, विषैली गैसें प्राणघातक हवाई जहाज, इ. लयकालको लानेवाले रोवों बम अॅटम बम, आदि भयंकर अस्त्र सर्वथा जब है।
जड़
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किरण ६-७१
भगवान महावीर और उनका सन्देश
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किन्तु विज्ञान जैसी पवित्र वस्तुका दुरुपयोग करने वाले सरह बुद्धिने निरे पाशविक बलपर तह पाई थी, उसी रक्तपिपासु नररूपी दानवोंको क्या कहें १ वे दुष्ट दानव तरह अब त्यागके बलबूतेपर लोभ और अहंकारका दमन अवश्य अपनी काली करतूतोंकी सजा पावेंगे, क्योंकि उन्हींके करना होगा। प्रानो मानव ! अामाको कारागारसे निकालने में निर्मित हथियार उन्हींके विरुद्ध उपयोगमें लाए जावेंगे।" मदद दो, मानवके प्रति श्रद्धा, त्याग और मानवताको प्रगट
गुरुदेवकी भविष्यवाणी सच निकली। जर्ममीने भयंकर करो" आदि। शस्त्र तथा अस्त्रोंसे सुसज्जित होकर सारे धरातलको पाश्चर्य
“यही है इबादत, यही दीनो ईमों। चकित कर दिया था, और ऐसा प्रतीत होरहा था कि इन
कि काम आये दुनियाँ में इनसा के इनौं।" नतनतासे परिपूर्ण अविष्कारों के बलपर सारे संसारपर उसकी
ऐतिहासिक दृष्टिले धर्मका जन्म विजय-पताका फहराने लगेगी। किन्तु आज उसी शस्त्रास और उसी रणनीतिने जिसका वह निर्माता था उसको तहस
__ ऐतिहासिक दृष्टिसे यदि छानबीन की जाए तो इस नहस करके ही दम लिया, ऐसा स्पष्ट हो गया है। ख्यात बातका पता चलता है कि सदियों पहिले इस एनगर्भा नामा डाक्टर इकबालने भी इसी मतको प्रदर्शित किया है:- भारत-भूमिमें नैतिकताकी आवाज गूंजती थी, मनुष्यके "तुम्हारी तहजीब अपने खंजरसे, श्रापही खुदकशी करेगी. प्रति मानवताका व्यवहार करना ही धर्म समझा जाता था। जो शाख्ने नाजुकपे आशियाना बना वो नापायदार छोगा।" नैतिक जिम्मेदारीके अनुसार ही सांसारिक कार्य चलते थे।
सच तो यह है कि पाश्रिमात्य सभ्यता तथा संस्कृति __ मानव प्राणी जब दूसरोंको अपने प्रति सन्यवहारसे पेश देखने में अत्यन्त सुन्दर प्रतीत होती है। इसका रूप तथा पाते देखता तो वह भी स्वाभाविक तौरपर अनायास ही शृंगार आँखों में चकाचौंध पैदा करता है। यह एक नशा है दूसरेके प्रति प्रेम प्रकट करता, उसके न्याय्य अधिकारों के किन्तु इसका परिणाम अत्यन्त भयावह तथा आत्मनाशका संरक्षण व संवर्धनमें लग जाका अर्थात् द्वेष और मत्सर कारण है। यह भ्रान्त धारणा समस्त संसारका सर्वनाश प्रतियोगिता तथा मुकाबलेके बदले सरलता और प्रेम तथा करेगी, अतएव किसी तरह भी इसे पूर्वीय लिबास नहीं पारस्परिक सहायताके मार्गपर चलने लगता। किन्तु संसारकी पहिनाया जा सकेगा। खुद पश्चिममें श्राज अस्त्र तथा शस्त्रों गति सदा एकसी नहीं रही। शनैः शनैः नैतिक जिम्मेदारीको की मनकार तथा अनठे व रोचक वैज्ञानिक प्राविष्कारों में लोग भूलने लगे। साँसारिक कार्यों में बाधा उपस्थित होने जीवनका सुमधुर सङ्गीत विलीन हो चुका है। मत्सर, लगी। चालाक और स्वार्थी लोग दूसरोंकी नैतिकतासे प्रतियोगिता तथा प्राण-घातक आर्थिक मुकाबलेकी काली फायदा उठाने लगे और समाजके नेताओंको व्यवहारके छायामें विकासका राजमार्ग भुला दिया है, और उन्हें अपनी लोप होने और अशान्तिका भयानक चित्र दिखाई देने खामखथालीने कायल कर दिया है तथा यह समझने लग लगा। अतएव समाजको अनीतिके गहरे कूपमें गिरनेसे गये हैं कि वे गुमराह हैं और शान्ति तथा कल्याणकी बचानेके लिए, सामाजिक शासनको सुसंगठित करनेके लिए उनकी कल्पना एक ऐसा स्वप्न है जो कभी भी सत्यकी नैतिक नियमोंको ही धार्मिक रूपमें परिणत करनेकी भावसृष्टिमें परिणत नहीं किया जा सकता।
श्यकता प्रतीत हुई । इन्हीं नैतिक नियमोंको संकलित, स्व. गुरुदेव इस आपत्तिजनक परिस्थितिसे बचनेके परिवधित और संशोधित करके धर्मका मौलिक रूप दिया लिए एकमात्र उपाय बतलाते रहे। उन्होंने कहीं लिखा गया। पुण्य और पापकी परिभाषा इसीका परिणाम है। है:-"अब समयने पलटा खाया है, अतएव पाशविक तथा जब नैतिक बन्धनोंका भय जाता रहा तो प्राकृतिक तथा जड़ शनि जब असफल रही है तो अन्य शक्रिकी खोज सामाजिक नियमोंका उल्लंघन धार्मिक दृष्टिसे अक्षम्य करार लगाना अवश्यम्भावि हो जाता है। दूसरोंको कष्ट पहुंचानेसे पाया! नैतिक जिम्मेदारीकी जगह अब धार्मिक जिम्मेदारी अब काम नहीं चलेगा बल्कि अब स्वयं कष्टको सहन करते समाजका अाधार व विश्व-कल्याणका प्राण बन गई। हुए त्याग भावनाको अपनाना होगा। पिछले युगोंमें जिस मानवके कष्टोंका अन्त करनेके लिए नैतिक सिद्धान्त-धार्मिक
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अनेकान्त
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शिक्षाके मौलिक रूपमें वदल गए । मानवताके पुजारियोंने के हितसाधनमें बाधा उत्पन्न होन संभवनीय है या जिसके अखिल मानवताके लिए धमका दिव्यसंदेश सुनाया । करनेसे स्वपं करने वालेको लजा या घृणा हो सके, उसे न भगवान महावीर भी धार्मिक आकाशके एक दैदीप्यमान करना ही काननकी दृष्टिसे योग्य सम्मा गया। सारांश नक्षत्र थे। सदियों पहलेसे ऐसे ही वीरपुङ्गवोंने धर्मकी ऐतिहासिक दृष्टिये मानव-समाजका जीवन एक सागरकी शीतल धारा प्रवाहित की। पतितोंका उद्धार करने, दलितोंको भाँति है, इसमें रह रह कर तरङ्ग उटती रही, जब नीतिकी बचाने, असहायको सहायता देने, पश्चात्तापकी अग्निसे न.काएं डूबने लगी तब धर्म के जहाजका अविष्कार हुआ, पाकुलित हृदयको संतोषामृतकी वृष्टिसे बुझाने प्रमाद और जब यह जहाज मंझधारमें आगया और किनारे पर पहुंचनेकी निराशाको दूर करके उत्साह, उमंग और कर्मण्यताको उम्मीद कम हो गई तो काननके बड़े बड़े जहाज विविध सिखाने और उच्च नागरिक प्रादर्शको स्थापित करनेके शस्त्रास्त्रोंसे सुसजित होकर जीवन सागरको चीरनेके लिए खयालसे धर्मका जन्म हुआ। यही नहीं किन्तु धर्ममें अवतीर्ण हुए। राजनीतिका भी प्रवेश श्रासानीसे हो गया। धार्मिक नियंत्रण से इस ऐतिहासिक खोजको यदि जैन साहित्यकी कसौटीपर लौकिक व्यवहार बंध गये, विश्वमें शान्ति स्थापित हो जाँचा जाय तो उपरोन बातोंका बहुत बड़ी हदतक समर्थन गई, संसार स्वर्गतुल्य हो गया। किन्तु काल सदासे ही हो जाता है। जैन साहित्यसे इस बातका पता चलता है परिवर्तनशील है। रूढ़ियोंने धर्मकी जगह ले ली। समयानुसार कि भारतवर्ष में पहिले तीन कालतक भोगभूमि रही है। रूढियोंमें परिवर्तन न होनेके कारण पतनका होना अनिवार्य यहाँ सा:गी प्रेम, मीति, सुख, आनन्द प्रादिका साम्राज्य हो गया। मनुष्यने अपनी मनुष्यता खो दी और जीवन था। न यहां आर्थिक अड़चनें ही थीं और न किसी प्रकारकी खतरेमें पड़ गया । धार्मिक जिम्मेदारीको भूल जानेके मंझटें। किन्तु तीसरे कालके अन्तमें लोगोंको भय पैदा कारण वातावरण प्रक्षुब्ध हो उठा, अशान्तिकी लहरें एक हुमा, अज्ञानने जोर पकड़ा, कर्तव्याकर्तब्यका भान न रहा, छोरसे लेकर दूसरे छोर तक उठने लगी । वर्तमान प्राधि- मैतिक बन्धन ढीले पड़ गये, कौटुम्बिक व्यवस्थ-नागरिक भौतिक जड़वादने एक ओर शान्ति प्रस्थापित करनेके लिए आदर्शको शान्तिके हेतु स्थापन करनेकी आवश्यकता प्रतीत भरसक प्रयत्न किया तो दूसरी ओर वासनाओंकी अग्निको होने लगी। जगतमें घोर अशान्तिके बादल मंडला रहे थे, और भी प्रज्वलित कर दिया। समति भूमण्डलपर सम्पूर्ण प्राकुलताका आधिपत्य हो चला था। ऐसे समयमें भगवान देशोंमें परस्पर सानिध्य और सम्पर्क स्थापित हो आदिनाथने जन्म लेकर-आवश्यकता, समय व परिस्थितिको जानेके कारण एकपर दूसरेकी संस्कृति, साहित्य, विचारधारा, लक्ष्य में रखते हुए-नैतिक नियोका निर्माण करके धर्मके वाणिज्य-व्यवसाय, कला कादिका प्रभाव पड़ा। विज्ञानकी मौलिक सिद्धान्तोंका प्रचार किया और भोगभूमिको कर्मजबरदस्त आँधीने जीवनकी कायापलट कर दी और सुचारु भूमिमें परिणत कर दिया । धार्मिक सिद्धान्तोंकी उत्पत्ति रूपसे सारे जगतको कार्यक्षम बनानेके लिये काननकी शरण गहरे विचारका नतीजा थी, इस लिये अब कथन और ली। जो काम प्राचीन काल में धार्मिक नियमों तथा संस्था- उपदेशसे इसका प्रचार होने लगा तथा इसकी सार्थकता
ने किया वह अब वर्तमानकाल में राजशासन द्वारा किया सिद्धान्तोंको कार्यरूपमें परिणत करनेसे होने लगी। यह जाने लगा। जहाँ नैतिक बल और धार्मिक जिम्मेदारी विचारधारा नैसर्गिक स्वाम विक तथा समयानुकूल थी। अपने अपने कालमें कामयाब रहे, वहाँ अब कानन द्वारा लोगोंने इसे हाथोंहाथ अपनाया। संसारकी समझमें यह सामाजिक, वैयनिक तथा राष्ट्रीय जीवनका नियन्त्रण किया बात आगई कि धर्म और अधर्मके आचरण का परिणाम जा रहा है। अधर्म, पाप या कर्तव्याकर्तव्यका निर्णय करनेके प्रमशः सुख और दुख होता है। इसीसे देश और समाजकी लिए कई तरहके नियम बना दिये गये और इन नियमोंकी व्यवस्था रह सकती है, संसारके लौकिक व्यवहार चल अवहेलना या उत्तरदायित्वसे च्युत होना काननकी दृष्टिसे सकते हैं। इसी तरह जब जब धार्मिक नियमोंकी अबसजा देनेके योग्य समझा गया। हमारे जिन कामोंसे समाज- हेलनाके कारण जगतमें अनीति और अशान्ति फैल जाती,
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किरण ६-७]
भगवान महावीर और उनका संदेश
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तब तब समय ऐसे ही नररत्नों या तीथंकरों को पै। करता ग़ाफिलों की इमदाद नहीं करता"। "श्रात्मनः प्रतिकूलानि और इनके कारण ही जगत्में ज्ञानसूर्यकी सुनहरी किरणें परेषा न समाचरत्" । "हर प्राणीको खुदकी हिफाजत अज्ञानको मिटाती तथा लोक-मयंदा स्थापित हो जाती। करनेका हक है" । श्रादि कानुनी तवोंसे उपर.क्र बालोंका
यह बात भी विचारणीय है कि धार्मिक सिद्धान्तोंका ही समर्थन होता है। र हमशा क्षात्रय राजाओं द्वारा ही हुआ है। क्योंकि धर्मके किन्तु दोनों समय के इन प्रयोगों में फर्क है । प्राचीन सिद्धान्तोंका प्रचार राजाश्रित रहा है। देश और समाज समयमें काननका पालन करना कराना उनका धार्मिक और हितके लिए अप्राकृतिक तथा अनैसर्गिक और लौकिकाचार नैतिक कर्तव्य समझा जाता था। विरोधका रूप व्यावहारिक तथा रुलियों के विरुद्ध बातें दण्डनीय समझी गई। इन था किन्तु आजकल बल-योग द्वार! कानुनको कामयाब चीजोंको काननका रूप प्राप्त हुआ। यों तो समयकी पुकारके बनाने का प्रयत्न किया जा रहा है, अर्थात अब पाशनिक बल अनुसार धार्मिक नियमोंका पालन अच्छी दृष्टिसे देखा जाता ही इसका आधार है और उन दिनों इसका अाधार कामरहा और यदा कदाचित् चन्द व्यक्ति या उनका समूह इन कर्तव्य. नैतिक आवश्यकता, अनुशासन तथा संयम रहा है। नियमोंकी अवहेलनाद्वारा समाज या राष्ट्र तथा देशकी जभी तो यत्र तत्र जैन शास्त्रों में - व्यवस्थामें बाधा उपस्थित करता तो न सिर्फ राजदण्ड ही "तृणतुल्य परद्रव्यं परं च स्वशरीरवत् । उसे भुगतना पड़ता बल्कि समाजकी दृष्टिसे भी वह गिर परदारां समां मातुः पश्यन् याति परं पदम्" । जाता । राजनीतिज्ञ पुरुषों,या राजाका यह कर्तव्य था कि ऐसे वाक्य मिलते हैं । दसरोंकी वस्तुओंको घासके तिनके
नियमाको श्रमली जामा की तरह, परस्त्रीको माताके समान और दूसरे जीवोंको पहिनाने में दिवश करे तथा आवश्यकतानुसार सैनिकबलको अपने समान जानो। क्या यह शिक्षा व्यावहारिक शिक्षा नहीं भी काममें लावे । यही कारण है कि भारतवर्ष में उस समय है? क्या इसपर अमल करनेसे मनुष्य-प्राणी शान्तिको शान्ति व सुव्यवस्थाका मधुर सङ्गीत सुनाई देता रहा है। नहीं पा सकता? गत महासमरके अन्त में विश्वशान्तिको सदाके लिए
धर्म और राजनीति स्थापित करनेके खयालसे अमेरिकाके स्वनाम धन्य प्रेसिडेन्ट
वैसे तो धर्म और राजनीति विपरीत विचारधाराएँ विल्सनने अन्तर्राष्ट्रीय परिषद्को जन्म दिया और एक लंबी
प्रतीत होती हैं किन्तु वास्तवमें ऐसा नहीं है। प्राचीन काल चौदी नियमावली बना दी, किन्तु उसे कार्यरूपमें, सैनिक
में राजनीतिका प्रवेश मानव जीवन के प्रत्येक क्षेत्रमें पाया बलका प्रभाव होने के कारण, वह परिणत न कर सका और
जाता है। धर्मके प्रचारक तथा संस्थापक च र राजनीतिज्ञ परिणाम यह निकला कि युद्धकी ज्वाला पुनः भी
तथा मानसश स्त्रवेत्ता थे । मानवप्राणीके स्वभावों, उनकी धधक उठी । किन्तु भारतवर्षके प्राचीन राजनीतिज्ञोंको
प्रवृत्तियों आदिका उन्होंने सूक्ष्म निरीक्षण अवश्य किा यह बात भलीभाँति परिचित थी कि अपनी प्रजाके हित
था । जैन ग्रन्थों में सभ्यर्शन व उसके अंगोंका साधनके लिए सैनिक-शनिद्वारा राष्ट, देश, समाजके नियमों
वर्णन मिलता है। उदाहरणार्थ सहधर्मीके दोषोको ढाँकना; व धार्मिक सिद्धान्तोंका प्रचार प्रासानीसे कराया जा सकता है।
जुलूस रथयात्रा, पूजापाठ, संघ निकालना, धार्मिक उत्सव जैनसाहित्य और कानून ।
कराना श्रादिके द्वारा धर्म प्रभावना करना; सहधर्मियोंसे ___ भारतवर्ष की अनेक धार्मिक तथा सामाजिक प्रवृत्तिपर प्रेम करना, भाड़े समम्में उनकी सहायता करना, समाज ही मौजूदा काननका आधार है । धर्मके नियमोंको तथा संगठनका बीज बोना आदि चीजें सम्यग्दृष्टिका प्रण हैं। प्रचलित रिवाजोंको लक्ष्यमें रखकर ही ( Juris इन्हीं चीजोंको जैन धर्ममें सभ्यग्दर्शनके अंगों अर्थात् Prudence) कानूनके मूलभूत तत्व बनाये गए हैं ऐसा स्थितिकरण, प्रभावना, वात्सल्य श्रादि नामोसे याद किया खुद कानदानोंका खयाल है। "अन्दर की आवाज जो कुछ है। इनके मूलभूत तत्वोंपर दृष्टि डालनेसे मालूम पड़ता है कि कहती है उसपर अमल करना जुर्म नहीं"। "कानन उन्होंने मानसविज्ञान (Psychology) के गढ तत्त्वों तथा
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समाज
राजनीति Politics) नागरिकशास्त्र (Civics भरिका गहरा अध्ययन करके मानव प्राणियों के स्वभावों तथा प्राकृतिक नियमको समझकर उनको धर्म सचिहित कर लिया था। यही नहीं बल्कि दुनियावी जरूरतों पर ध्यान देकर इन आश अपितु नैतिक गुरुको जिनका होना एक अच्छे नागरिकके लिए अत्यन्त श्रावश्यक हैव्यवहारिक रूप दिया और यह चीजें लौकिक या व्यवहार धर्ममें समाविष्ट हो गई। प्राचीन कालके आदर्श व्यक्ति अपने समय के अच्छे नागरिक कहलाये जा सकते हैं। बे-लौस होते थे, स्वार्थं उन्हें छूता नहीं था, दूसरों से लडना वे पाप समझते थे । दूसरोंकी सेवा करना, पड़ोसियोंकी सहायता व अभ्यागत, प्रवासियों व अतिथियोंका उचित आदर करना, उन्हें भोजन देना श्रादि पुण्य समझा जाता था। ये चीजें उनके नित्य तथा नैमित्तिक कार्यों में शुमार (परिगणित) की जाती थीं। ऐसे ही शुद्ध व्यक्ति राज्य शासन के जिम्मेदार होते थे । सारांश यह कि राज्य अपने सामने उच्च आदर्श रखता था और इसीलिए वह राष्ट्र, और देश की हर प्रकारकी उच्चतिका जिम्मेदार समझा जाता था । Proj Herold Laski का बयान है कि "त्येक राज्यशासन उसके नागरिकों] चरित्रका आईना है। उसके अन्तर्गत व्यक्रि तथा समाजके नैतिक चरित्रका प्रतिविम्ब उसमें दिखाई देता है।" यदि इस सत्यको जैन साहित्य में कथित पुरायों और कयाकर देखें तो उपरोक बातोंकी सत्यता अनायास ही सिद्ध हो जाती है। वास्तवमें आदर्श राजनीतिज्ञों द्वारा ही सुशासन संचालित होता है । यह उत्तम नरपुंगव - जिनके हृदमों पर अपने अनुयायि की चोट होती है— वातावरणको शुद्ध करनेके लिए, फलप्रातिकी काशा न रखते हुए, राज्यशासन या धर्मशासनको चलाते हैं । मानवप्राणी जिस समाज या राष्ट्रमें रहता हैं उसका जीवन उसी राष्ट्रकी उच्चति या अवनतिपर निर्भर है। इसलिए राजनीतिज्ञ एवम् धार्मिक सिद्धान्तोंके प्रचारक जनसाधारण के कल्याणकी भावनाको लक्ष्य में रखते हुए बड़ी योग्यतासे शासनका रथ हाँकनेमें व्यस्त रहते हैं। 'चेमं सर्वप्रजानां प्रभवतु बलवान् धार्मिको भूमिगल' आदि पाठ इसी बातकी ध्यनित करते हैं। व्यावहारिक जीवनकी कामप्राची ही उनका परमो ध्येय रहता है। शायद इसी
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कारण ही पारधर्मको धामधर्म या पारलौकिक धर्मकी सिद्धि कहा गया है। इसकी सिद्धिके बगैर हम कुछ नहीं कर सकते । इस प्रदर्शपर ही उनकी नई दुनियाकी बुनियाद खड़ी हो सकती है परमार्थका बीज यहीं योगा जा सकता है तथा कोई भी नागरिक त्याग, सेवा, दया, कर्तव्य नैतिक तस्यों द्वारा ही अपने जीवन में स्वके सुखोंका अनुभव करके विश्वकी शान्ति में सहायक सिद्ध हो सकता है।
किन्तु आजकल अनेक देशोंके राज्यशासनने जिस वातावरणको पैदा किया है, उससे नागरिकोंको न तो उन्नति करने का मौका ही मिलता है और न विश्वकल्याण तथा शान्ति का स्वप्न ही सत्यसृष्टिमे परियात किया जा सकता है। इस मसीनों के युगमै इस श्रौद्योगिक तथा व्यावसायिक प्रतियोगिता के दौर में खुदगरजीको विशेष महत्व दिया गया है। स्वायंभावनाएँ प्रदील होती जा रही हैं तथा दूसरों के व्यक्तित्वको मिटानेपर राष्ट्र तुले हुये नफरत की जहरीली भावना बधोग की तरफ उन्हें ले जा रही है, शक्ति और स्वार्थका बोलबाला है और तुर्फा यह है कि प्रत्येक राष्ट्र शान्ति-स्थापनकी दुहाई दे रहा है। बेचारी जनता न तो अपने उद्धारका कोई ज्ञान रखती है और न इस मार्ग पर अग्रसर ही हो सकती है इन राजनीतिज्ञों की कूटनीतिने ही सारे विश्वमें रसन्तोष की भावना पैदा कर दी है। क्या ही अच्छा हो कि ये लोग तनिक विचारसे काम लें और सच्ची मानवता का सबूत दें :
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"कपनी मीठी खाँड सी करनी विष की होय । कथनी तज करनी करें तो विष से अमृत होय ॥ " इसी तरह जो सुख-शान्ति की स्थापनामें अनैतिक व अप्राकृतिक साधनों के अवलंबन द्वारा चिरस्थायी यश प्राप्त करना चाहते हैं, मानों वह आकाशसे फूल तोड़ कर लाने के सदृश ही हास्यास्पद विचार रखते हैं । विष से अमृतफल की आशा नहीं की जा सकती क्यूल को योकर आम नहीं खाये जा सकते, बालूसे तेल नहीं निकाला जा सकता, जल को मथकर नवनीत नहीं किकाला जा सकता । इसी तरह हिंसात्मक उपायों द्वारा शान्ति स्थापित नहीं की जा सकती। जब हमारी नीयत ही बुरी हो तो अच्छे फलोंकी आशा रखना ही व्यर्थ है। श्रोल्डस हकसलेके प्रसिद्ध, मान्य ग्रन्थ
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किरण ६-७ ]
Ends and means "साध्य और साधन" में इन्हीं समस्याओं पर प्रकाश डाला है । साध्य और साधनकी व्याख्या करते हुये आपने आदर्श समाज, धनासक्क मानव, और अहिंसा आदि विषयोंको जोरदार शब्दों में प्रतिपादित किया है। वे फर्माते हैं कि किसी तरह भी बुरे उपायों या साधनोंद्वारा उत्तम साध्य या ध्येय की प्राप्ति नहीं हो सकती । "यदि हमारा ध्येय तथा श्रादर्श शुद्ध है तो उँचे श्रादर्श तक हमारी रसाई ( पहुंच) सिर्फ पवित्र तथा शुद्धसाधनों द्वारा ही हो सकती है" । किन्तु खेद तो इस बातका है कि इस समय सारे संसारपर स्वार्थ साधनका भूत सवार है, वह इसके परिणाम स्वरूप वासनाओका गुलाम बन गया है ! ऐसी परिस्थिति में मानव या राष्ट्रको विश्वकल्याण के पवित्र श्रादर्श में सहायक खयाल करना गलत है। जैन धर्म की भी यही मान्यता है । वह कहता है कि अहिंसा द्वारा ही जगत् में शान्ति प्रस्थापित की जा सकती है। आत्मोद्धारकी कुंजी भी यही है। इसी मार्ग का अनुसरण करके स्वाभाविक तथा असीम सुखकी प्राप्ति हो सकती है । अहिंसा, सत्य, ईश्वर, धर्म, शान्ति, सुख, संतोष आदि एक ही अर्थके पर्यायवाची शब्द हैं। इन्हींकी उपासना, इन्हींका सहारा, व इन्हीका सम्पूर्ण ज्ञान ही हमारा उच्चादर्श है तथा नैतिक, व्यावहारिक, स्वाभा विक या धार्मिक कर्तव्य भी यही है । इसके सामने स्वार्थसाधु, विषय- लोलुप, वासनाओंका पुजारी घुटने टेक देता है। इसके लिए सच्चे नागरिक, दार्शनिक या धार्मिक पुरुषको मुसीबतें झेलनी पड़ती हैं, कष्ट सहन करने पड़ते हैं । यही नहीं, बल्कि आत्मोत्सर्ग द्वारा विरोधियोंके हृदय पर विजय प्राप्त करनी होती है।
भगवान महावीर और उनका सन्देश
जैनशास्त्रोंनें परिषह - सहन तथा उपसर्गं जीतने का बड़ा मौलिक तथा रोचक वर्णन किया गया है। विरोधियोंकी कष्ट - न देकर स्वयं कष्ट सहना खेल नहीं है, इस तत्वमें मानसशास्त्र (Psychology) के गढ़ तम्बों का अंतभाव है। दूसरों के लिए कष्ट सहना जीवनका बढ़ा ध्येय है । जब बीज स्वयंको नष्ट कर डालता है तब ही तो नयन-मनोहर वृक्ष उसमेंसे जन्म लेता है। हिंसा तथा असत्य या राग भावोंद्वारा पैर व मत्सर बढ़ता है । शान्तिकी लहरें जीवन - सागर में उठती हैं, द्वेषके बादल सिरपर मंडराने लगते हैं तथा सर्वमका पहाड़ सिर पर टूट पड़ता है, किन्तु परिषह-सहन
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काले हृदयको भी नतमस्तक बना देता है। सारा संसार ऐसे श्रादर्श व्यक्तिको सर आँखों पर बिठा लेता है । विरोधियों के हृदयको शुद्धब पवित्र कर देता है। वह पश्चात्ताप की अग्नि में बुरे भावोंको जला देता है और पवित्र अन्तःकरण से धीर, वीर तथा अपने उपकारीका अनुयायी बन जाता है। अब वह अपने आपमें तबदीली महसूस करने लगता है और समझता है कि
"सत्वेषु मैत्रीं गुणिषु प्रमोदं निष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम् । माध्यस्वभावं विपरीत- वृत्ती, सदा ममात्मा विधातु देव ॥” (अमितगति)
यही धर्मका व्यावहारिक तथा सार्वभौम रूप है ।
कुछ आधुनिक पाश्चिमात्य विद्वानोंका मत है कि भारतवर्ष जैसे सुसम्पन्न कृषि प्रधान देशमें प्राचीन काल में रोटीका सवाल ऐसा उम्र नहीं था, इसीसे अध्यात्मवाद बेकार लोगोंके दिमासी पैदावार है । "An idle brain is satan's workshop " इसी उक्रिके अनुसार ही फुरसत के समय में Mysticism या Spirituality का जन्म हिन्द में हुआ । किन्तु एक दूसरी विचारधारा यह भी बताती है कि यह जरूरी नहीं कि फुरसत के समयको सबलोग बरबाद ही कर देते हैं, बल्कि ललित कलाओं, ज्ञानके विविध अंगों तथा संस्कृति व सभ्यता की उन्नतिको चरम सीमापर ऐसे ही समय में पहुंचाया जाता है । भारतवर्ष के प्रकागद-पडितोंने जो सेवाएँ साहित्य, विज्ञान, संस्कृति और कलाके सिलसिले में की हैं वे भुलाई नहीं जासकतीं । विश्वके इतिहास में यह अमर गाथाएँ अंकित रहेंगी । प्रो० मैक्समूलर (Prof. Max Muller) जैसे शास्त्रियोंका मत है कि इस भारतवर्षने सदियों पहिले, जब यूरोप अज्ञानकी घोर निद्रामें पड़ा हुआ था, ऐसी सभ्यताको जन्म दिया जो रहती दुनिया तक यादगार रहेगी और इस देशको यदि विश्वगुरुके पदसे विभाषित किया जाय तो योग्य है, आदि । आर. सी. दत्त (R. C. Dutt ), अलपेरूनी Alberun 5 ) ब्राउन (Brown ), कौंउट जरना Count Jerna) आदि कतिपय विद्वानोंने अपने लेखों द्वारा उपरोक्त मतका ही समर्थन किया है। कहा जाता है कि आध्यात्मिक विचारवादका बीज सबसे पहिले भारतवर्ष ही में
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अनेकान्त
वृक्ष
बोया गया। यहाँकी भौगोलिक, प्राकृतिक तथा मानसिक परिस्थिति इसी अनुकूल थी। इस विचारधाराके लिए यहाँका जलवायु बहुत अच्छा सिद्ध हुआ । इस वृक्षको फलने फूलते देखकर दूसरे देशोंमें भी यह बीज बोया गया, किन्तु दूसरी जगह विशुद्ध वातावर एके न मिलने से पिशालकाय नहीं हो सका। मानसशास्त्रियों Psychologists तथा समाजविशन (Social Science के परिवर्तीका कथन है कि बाह्य और अभ्यंतर परिस्थितियोंका प्रभाव विचार-निर्माणपर पड़ता है । यही कारण है कि श्राध्यात्मिक विचारधारा यहीं पर बढ़ी, उसका विकास यहींके शान्त वातावरण में हुआ। न तो यहाँ पहिले रोटीका सवाल ही था और न दूसरे अडंगे। फलतः इस धन-धान्यले परिपूर्ण भूमिपर बड़े बड़े प्राचार्यने साहित्य और ज्ञानकी ऐसी बड़े बड़े उपासना की कि अध्यात्मकी देवी प्रसन्न होगई यहाँके नयनाभिराम स्वगपम प्राकृतिक सौन्दर्य, शीतल तथा शान्त वातावरण, मनोहर दृश्यों और ज्ञान-पिपासा धादिने अध्यादकी गुथियाँको सुला दिया । अन्यामवाद भारतवर्ष की सारे विश्वको श्रनुपम देन है । इसकी क़दर वही कर सकता है जिसने यह मजा चखा है। सारे विश्वकी बीमारीका यही इलाज है । ग़ालिब साब भी बढी फरमाते हैं:
।
"इसे तबियतने शीतका महा पाया ।
दर्द की दवा पाई दर्द बे-दवा पाया ।" देवशास्त्रका निधन भी वही अध्यात्मवाद है, किन्तु खवाज रहे कि यह निष्क्रिय नहीं है इसके लिए पुरुषार्थ को अपनाना पड़ता है ।
"अमलसे ज़िन्दगी बनती है, जन्नत भी, जन भी" पारलौकिक जगतका आधार या निश्रय धर्मका आधार व्यवहार धर्म है। व्यवहार धर्म पहिली सीढ़ी है। इसी गुजरते हुए, ऊपरकी मंजिल पर पहुंचा जा सकता है। अध्यात्मवाद बेकारीका नतीजा नहीं, बल्कि पुरुषार्थ का नतीजा है, मनुष्यमात्रकी चरमोतम उन्नति है ।
वास्तव में रूयोंके प्रावधर्म असली रूपको छिपा दिया है। अबतो केवल धामारहित अस्थिपंजर पा कलेवरका भीषण दृश्य ही दिखाई देता है । इसी रूपको देख कर पाश्चिमात्य लोग धर्मको अव्यावहारिक समझने लगे हैं।
[ वर्ष ८
1
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धर्मने तो यही प्रतिपादित किया है कि दुष्ट के साथ हमें नीच नहीं होना चाहिए किन्तु क्रोधको शान्तिसे वैर भावको प्रेम तथा दयाभावसे और को साधुतासे जीतना ही श्रेष्ठ है। धर्मकी रूढ़ियों और बाह्य लोंको समयानुकूल बदलना पाप नहीं है। धर्म के नामपर श्राडम्बर, ज्ञान, ६. त्याचारका प्रदर्शन करना पाप है धर्मके मूलभूत सिद्धान्त कभी नहीं बदलते चोरी और झूठ रुदा पाप ही समझे जायेंगे। दुनिया के कोने २ से इसके विरुद्ध ही आवाज उठेगी। लौकिक स्वार्थ-साधन या श्रारमाका विकारी रूप ही नरकका द्वार कहलाया जासकता है । मानवताका पुजारी जब पति हो जाता है तो वह घृणित समझा जाता है । इसीको अधमाचरण का फल कहा जायेगा। अकर्मण्यता और वैराग्यमें बहुत बड़ा अन्तर है उतरदायिश्वसे घबरला धर्म नहीं बंधन और फाकाकशीको तपस्या नहीं कहा गया है किन्तु लोक लौकिक धर्मको साधन करता हुआ पुरुषार्थी जीव ने विशेष और स्वाभाविक आदर्श मुनि की तरफ बढ़ता है । वह जानता है कि "सर्व परवशं दुःखं सर्वं श्रात्मदशं सुखम्" धर्मको मूल जानेसे मनुष्य अपनी मनुष्यता को खो देता है तथा बदनामी का जीवन गुज़ारकर कालके गाल में चला जाता है । इसीलिये तो किसीने कहा है कि जगतमें आकर हमें मानवताका सबूत देना चाहिए तथा पथ भ्रष्ट न होना चाहिए। कर्तव्यका डी दूसरा नाम धर्म ?
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"जो तू श्रयो जगतमें जगत सराहे तोय | ऐसी करनी कर चली को पावे ईसी न दोष" ||
धर्म दो प्रकार का है। एककों मोच धर्म या नि धर्म कहते हैं तो दूसरे को व्यवहारधर्म या श्रावकधर्म कह सकते हैं। पहले धर्मका आदर्श विशिष्ट वया स्वाभाविक पदकी प्राप्ति है । दूसरे का आदर्श यह है कि हमें संसार में क्या करना चाहिए घ हम क्या कर सकते हैं । समाजमें हमारा स्थान क्या है ? हमें हमारे उत्तरदायित्व को किस तरह निभाना चाहिए। धर्मके दस चिन्द्र बताये गये हैं इमा, मार्दव, चाय, - क्षमा, श्रार्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग श्राकिंचन्य और ब्रह्मचर्य । येही चीजें मानवताकी द्योतक है। इनसे जब यह मानवत होजाता है या अपने स्वभावको भूल जाता है तो वह न सिर्फ अपनी अधोगति अभिमुख होता है बल्कि सामाजिक जीवनमें भी बाधा डालता है । ए० ई० मैण्डर A. E
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किरण ६-७]
भगवान महावीर और स्नका सन्देश
२४५
Mander साहब अपनी पुस्तक "Psychology for उसे हम किसी तरह निष्ठुर या हिंसक नहीं कह सकते । Every Man Woman" में क्रोधकी प्रवृत्तिका वर्णन आमाकी उपासना बाकी नौ चिन्होंकी उपासना है। इसीका करते हुए बतलाते हैं कि-"जब मनुष्य पर क्रोधका भूत नाम भेदविज्ञान है । इसी भेदविज्ञानमय परिणतिको शास्त्र सवार हो जाता है तो उसका चेहरा सुर्ख होजाता है, की परिभाषामें अन्तरात्मा कहा जाता है । इस पदको पा मुट्टियों बंध जाती हैंविचारशक्ति उसमें बाकी नहीं रहती। लेनेके बाद कर्तव्याकर्तव्यका प्रतिभास होता है। सांसारिक आँखोंसे चिनगारियां निकलती हैं और वह परिणामको सोचने सुखों और दुखोंको वह स्थितप्रज्ञ उदासीन भावसे भुगतता के बदले मरने-मिटने पर तुल जाता है। यह उसकी है, विश्वकल्याण में सहायक होता है । पुरुषार्थी होने के अस्वाभाविक दशा है, उसका विकृत रुप हैं। उसकी कारण समाज या राष्ट्रको उन्नतिमें उसका हाथ होता है । स्नायविक प्रन्थियों में ऐठन पैदा होजाती है। हृदयसे शकरकी नैसर्गिक नियमों, सामाजिक, नैतिक अथवा धार्मिक बन्धनोंमात्रा खूनकी नाली में दौड़ जाती है और इस कारण हम का उल्लंघन करने वाला अपने कियेकी सज़ा पाता है । किसी भयंकर बातके करनेपर उतर पाते हैं। फलत: पाचन- धार्मिक परिभाषामें इसे पाप या धर्माचरण के फलके नामसे क्रिया बन्द हो जाती है। ऐसे समयमें शरीर-विज्ञानके याद करते हैं, और पाश्चिमात्य लोग प्रकृतिके खिलाफ्न मतानुसार एड्रेनलीन (Adrenalin) की अधिक बग़ावत करनेका अवश्यंभावि परिणाम कहते हैं। चाहे जो मात्रा इतनी प्रतिक्रिया प्रारंभ करके शरीरको अपनी असली भी कह लें, दुष्कर्मों का फल भुगतना प्राणिमात्रके लिए हालतमें लानेके लिए सहायक होती है। अतएव इन विद्वानों अनिवार्य है। व्यभिचारी या हिंसक राज्यद्वारा या समाजसे के मतानुसार मनुष्यको ऐसे अस्वाभाविक तथा अप्राकृतिक अपने कियेका दण्ड पाता है। यदि किसी देशमें यह चीज़
शाने या तो किसी उद्यानमें निकल जाना चाहिये या दण्डनीय समझी नहीं गई तो भी प्रकृति उसे बीमारीके कोई शारीरिक काममें अपने श्रापको व्यस्त रखना चाहिए,' रूपमें अवश्य दण्ड देती है। अतएव मनुष्यमात्र अपनी इसी तरह उस समय भोजन करना शरीरको हानि करतूतोंका जिम्मेदार है। उसकी उन्नति या अवनति पहुँचाना है।" आदि
उसीके हाथ है। जब प्राणी अवनतिके अभिमुख होता है
तो उसे दर्शनशास्त्री 'बहिरास्मा' के नामसे पुकारते हैं, यह अत: इस पाश्चिमात्य मानसशास्त्रीने भी स्पष्ट रूपसे स्थिति सर्वनाशका कारण है । अन्तरात्माकी दशामें बतला दिया है कि क्रोध मनुष्य मात्रका स्वभाव नहीं है मनुष्य अपने जीवनको स्वर्गीय वातावरण में बदल सकता
और इससे भयंकर हानि होती है, अतएव यह त्याज्य है। है. किन्तु जिसके सामने विशेष प्रादर्श है वह इन तमाम इसीलिए तो तमाको प्रारमाका गुण कहा गया है। इसके बातोंसे परे अतुलनीय, असीम व अखण्ड सुखके लिए बराबर कोई दूसरा तप नहीं है। और न दयाहीन धर्मको प्रात्मशुद्धिकी ओर अग्रसर होता है। वही पूर्ण शुद्ध व्यक्रि धर्मके नाम से जाना जा सकता है, किन्तु उसका व्यवहार-धर्म परमात्मा कलवानेका हक रखता है । यही मानवताकी चरम की दृष्टिपे यह अर्थ कदापि नहीं है कि यदि न्यायका खून सीमा है. यही उपादेय है । वहीं प्रारमसाक्षात्कार है, हो रहा हो; समाजकी मर्यादाका अतिक्रम हो रहा हो, सिद्धावस्था है तथा मुक्तिका कमनीयरूप है । यह अनुभवगम्य लौकिक विधिर्यो जबरन उल्लंघन किया जा रहा हो या है, अन्तरात्मा पदमें इसकी परम श्रानन्ददायिनी झलक खुदका फूक फूंक कर कदम रखनेके अनन्तर भी सर्वनाश हो दिखाई दे सकती है। तर्कके घोड़े यहाँ पहुँचने नहीं रहा हो तो दुब्बूपनका सबूत दो या श्रातताइयोंके धागे सर पाते।झुका दो । बल्कि ऐसे समयमें श्रातताइयोंको शिक्षा देना, दण्ड देना या दमन-नीतिसे काम लेना भी प्राय अहिंसा तथा "रहिमन बात अगमकी कहन सुननकी नाहिं । न्यायमार्गमें दाखिल है। यहाँ नियतका सवाल है। डाक्टर जो जानत ते कहत नहीं कहत ते जानत नाहिं॥" रोगियोंका इलाज करनेके लिये शस्त्रक्रिया करता है किन्तु अतएव विश्व कल्याणके हेतु जगत्के प्राणियोंके लिए
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अजेकान्त
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भगवान महावीरने जो सन्देश दिया है वह बुद्धिकी कसौटी रूप देखना चाहती है। ज्ञानकी प्यास इसी शर्बतसे बुझाना पर अच्छी तरह उतरता है। परन्तु खेद तो इस बातका चाहती है। इसलिये समाजके प्रकाण्ड पण्डितोंको चाहिए है कि आज कलकी हवा पूर्वाचार्यों कयनको, चाहे वह कैसा कि वह जैनसाहित्यको अाधुनिक दृष्टिकोणसे सुसम्पादित ही क्यों न हो, करोल-कल्पित बतलाती है। इनकी कोई करके उसका प्रचार करें । कई संस्थाएँ आजकल सुलेखकों अच्छी चीज समूचे साहित्यमें नजर नहीं आती। भिन्तु यही तथा विद्वानोंको जन्म देनेका छवा करती हैं किन्तु श्रामचीज यदि हॅकसले. रसेल, मॅक्समूलर, लास्की श्रादि तौरपर लकीरके फकीर ही इनके द्वारा पैदा ह.रहे हैं, अतएव पाश्चिमात्य विद्वानोंकी लेखनी द्वारा प्रतिपादित हो जाये तो समयका साथ देना जरूरी है। ग्रन्थमालाओं के संचालकोंको हम फौरन उसपर ईमान लाते हैं। इसका अर्थ है हमने चाहिए कि वे आजकलकी जरूरतोंको समझे । केवल अपनी बुद्धि या अक्लको इन जैसे अनेक विद्वानोंके हाथ बेच भाषांतरसे काम नहीं चलेगा। खोज तथा अन्वेषण करके दिया है। हम बुद्धिके गुलाम हैं। दूसरोंके नीबूमें हमें श्राम गवेषणापूर्ण लेखमालाएँ प्रारम्भ कर देनी चाहिए । तभी का स्वाद पाता है, किन्तु अपनी चीज खट्टी मालूम होती साहित्यकी सच्ची उपासना होगी। क्या हम आशा कर सकते है। यह हमारी बुद्धिकी बलिहारी है, हमारा अधःपात है। हैं कि समाजके विद्वान-साहित्यदेवताके चरणोंमें सुचारुहाँ, एक बात इससे यह निकलती है कि दुनिया अाधुनिक सुमनोंकी श्रद्धाञ्जलि समपित करेंगे? . .. ढंग और मौजूदा प्रणालीके श्राइनेमें अपना तथा धर्मका
Namastiiiiiiiimamt
वनस्पति घी
उस वनस्पतिसे किसीको मंगड़ा नहीं हो सकता जिसका अर्थ फल-फूल और पत्तियां हैं, किन्तु जब यह नाम अन्य वस्तुको दिया जाय तो उसे विष समझना चाहिये । वनस्पतिको कभी धोका नाम नहीं दिया जा सकता। यदि उससे वास्तवमें घी बन सकता है तो यह घोषित करनेके लिये मैं प्रथम आदमी हूंगा कि अब असली घीकी कोई आवश्यकता नहीं है। घी या मक्खन पशुओंके दूधसे बनता है बनस्पतिको घी और मक्खनके नामसे बेचना भारतीय जनताको धोखा देना है, यह पूर्ण रूपसे बेइमानी है।
- व्यापारियोंका यह सुसष्ट कर्तव्य है कि वे इस प्रकारके किसी उत्पादनको घीका नाम देकद न बेचें। किसी भी सरकारको इस प्रकारके मालकी बिक्री जारी नहीं रहने देना चाहिये। आज करोड़ों भारतीयोंको न तो दूध मिल रहा है और न घी, मक्खन या महा ही। अत: अगर यहांकी मृत्यु संख्या इतनी बढ़ गई है एवं यहाँके निवासी उत्साहहीन हैं तो कोई आश्चर्यकी बात नहीं। मनुष्य बिना दूध अथवा दूधके बने पदार्थसे जीवन नहीं धारण कर सकता। इस प्रकारसे धोका देनेवाला भारतका शत्र है।
-महात्मा गांधी
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२३ ३ सूत्र में 'संजद' पदका विरोध क्यों ?
(ले०-न्यायाचार्य पं० दरबारीलाल जैन, कोठिया)
'षट्खण्डागम' के उल्लिखित ६३ वें सूत्रमें 'संजेद' है। उन्होंने मनुष्यगतिसम्बन्धी उन पाँचों ही-to, पद है या नही? इस विषयको लेकर काफी अरसेसे चर्चा ११,६२ ६३-सूत्रोंको द्रव्य-प्ररूपक बतलाया है। परन्तु चल रही है। कुछ विद्वान् उक्त सूत्रमें 'संजद' पदकी हमें अंब भी ऐसा जरा भी कोई स्रोत नहीं मिलता, जिमसे अस्थिति बतलाते हैं और उसके समर्थन में कहते हैं कि उसे 'द्रव्यका ही प्रकरण' समझा जा सके । हम उन प्रथम तो वहाँ द्रव्यका प्रकरण है. अत एव वहाँ द्रव्य- पाँचों सूत्रोको उत्थानिका-वाक्य सहित नीचे देते हैं:स्त्रियोंके पाँच गुणस्थानोंका ही निरूपण है । दूसरे, "मनुष्यगतिप्रतिपादनार्थमाहषटखण्डागममें और कहीं आगे-पीछे द्रव्य स्त्रियों के पाँच मणुस्सा मिच्छाइटि-सासणसम्माइट्ठि-असंजदगुणस्थानोंका कथन उपलब्ध नहीं होता । तीमरे, वहाँ सम्माइट्टि-वाणे सियो पज्जत्ता सिया अपज्जत्ता ८ell सत्रमें पर्याप्त' शब्दका प्रयोग है जो द्रव्यस्त्रीका ही बोधक तत्र शेषगणस्थानसत्त्वावस्थाप्रतिपादनार्थमाहहै। चौथे, वीरसेनस्वामीकी टीका उक्त सूत्रमें 'संजद' पदका
सम्मामिच्छाइटि-संजदासंजद-संजद-ट्ठाणे णियमा समर्थन नहीं करती, अन्यथा टीकामै उक्त पदका उल्लेख
पज्जता ॥६॥ अवश्य । होता पाँचवे, यदि प्रस्तुत सूत्रको द्रव्यस्त्रीके गुग्णस्थानीका प्ररूपक-विधायक न माना जाय और चूंकि
मनुष्यविशेषस्य निरूपणार्थमाहषटखण्डागर्म में ऐसा और कोई स्वतंत्र सूत्र है नहीं जो ... एवं मणुस्सपज्जत्ता ॥११॥ द्रव्यस्त्रियों के पाँच गुणस्थानोंका विधान करती हो, तो मानुषीषु निरूपणार्थमाहदिगम्बर पर मंगके इस प्राचीनतम सिद्धान्त ग्रन्थ षट्खण्डा मासिणीस मिच्छाइट्रि-सासणसम्माइट्टि-ट्ठाणे गमसे द्रव्यस्त्रियों के पांच गुणस्थान सिद्ध नहीं हो सकेंगे सिया पजत्तियाओ सिया अपज्जत्तियाभो ॥१२॥ और जो प्रो. हीरालालजी कह रहे है उसका तथा श्वेताम्बर
तत्रैव शेषगुणविषयाऽऽरेकापोहनार्थमाहमान्यताका अनुषंग अवेिगा । अत: प्रस्तुत E३ सूत्रको ।
सम्मामिच्छाइट्रि-असंजदसम्माइट्टि-संजदासंजद - 'संजद' पदसे रहित मानना चाहिये और उसे द्रव्यस्त्रियोंके
संजद-ट्टाणे णियमा पजत्तियागो || पाँच गुणस्थानोंका विधायक समझना चाहिये।
-धवला मु० पृ. ३२६-३३२ । उक्त दलीलोंपर विचार
ऊपर उद्धृत हुए मूलसूत्रों और उनके उत्थानिका
वाक्योंसे यह जाना जाता है कि पहल' (८८) और दूसरा १-षट्खण्डागमके इस प्रकरणको जब हम गौरसे (६०) ये दो सूत्र तो सामान्यतः मनुष्यगति--पर्यातकादिक देखते हैं तो वह द्रव्यका प्रकरण प्रतीत नहीं होता। मेदसे रहित (अविशेषरूपसे) सामान्य मनुष्य के प्रतिपादक मूलग्रन्थ और उसकी टीकामें ऐसा कोई उल्लेख अथवा हैं । और प्रधानताको लिये हुए वर्णन करते हैं । प्राचार्य संकेत उपलब्ध नहीं है जो वहाँ द्रव्यका प्रकरण सूचित वीरसेनस्वामी भी यही स्वीकार करते हैं और इसीलिये करता हो। विद्वद्वर्य पं० मक्खनलालजी शास्त्रीने हाल में वे मनुष्यगतिप्रतिपादनार्थमाई' (८६) तथा 'तत्र (मनुष्य'जैनबोधक' वर्ष ६२, अंक १७ और १६ में अपने दो गतौ) शेषगुणस्थानसवत्तवस्थाप्रतिपादनार्थमाह', (६०) लेखों द्वारा द्रव्यका प्रकरण सिद्ध करनेका प्रयत्न किया इसप्रकार सामान्यतया ही इन सूत्रोंके मनुष्यगतिसम्बन्धी
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२४८
अमेकान्त
[वर्ष
तर
उत्थानिकावाक्य रचते हैं। इसके अतिरिक्त, अगले सूत्रोंके . यहां हम यह आवश्यक समझते हैं कि पं० मक्खन उत्थानिकावाक्योंमें वे 'मनुष्यविशेष' पदका प्रयोग करते लालजी शास्त्रीने जो यहाँ द्रव्यप्रकरण होनेपर जोर दिया है जो खास तौरसे ध्यान देने योग्य है और जिससे विदित है और उसके न माननेमें जो कुछ आक्षेप एवं आपत्तियां हो जाता है कि पहले दो सूत्र तो सामान्य-मनुष्यके प्ररूपक प्रस्तुत की हैं उनपर भी विचार कर लिया जाय । अतः. हैं और उनसे अगले तीनों सूत्र मनुष्यविशेषके प्ररूपक नीचे 'श्राक्षेप-परिहार' उपशीर्षकके साथ विचार किया हैं। अतएव ये दो (८६, ६०) सूत्र सामान्यतया मनुष्य- जाता है। गतिके ही प्रतिपादक है, यह निर्विवाद है और यह कहनेकी नरूरत नहीं कि सामान्य कथन भी इष्ट विशेष में निहित होता है-सामान्यके सभी विशेषोंमें
आक्षेर-यदि ६२ वां सूत्र भारस्त्रीका विधायक या जिस किसी विशेष में नहीं । तात्सर्य यह कि उक्त सूत्रोंका
माना जाय-द्रव्यस्त्र का नहीं, तो पहला, दूसरा और चौथा निरूपण संभवताकी प्रधानताको लेकर है।
ये तीन गुणस्थान होना आवश्यक है क्योंकि भावस्त्री ___ तीसरा (६१), चौथा (६२), और पांचवाँ (६३) ये
माननेपर द्रव्यमनुष्य मानना होगा | और द्रव्य मनुप्यके तीन सूत्र अवश्य मनुष्यविशेषके निरूपक है-मनुष्यों के चोथा गुणस्थान भी अपयोप्त अवस्था में हो सकता है। चार भेदों (सामान्य मनुष्य, मनुष्यपर्याप्त. मनुष्यनी और परन्तु इस सूत्रमें चौथा गुणस्थान नहीं बनाया है केवल अपर्याप्त मनुष्य) मेंसे दो भेदों-मनुष्यपर्याप्त और दो ही (पहला और दूसरा) गुणस्थान बताये गये है। मनुष्यनी-के निरूपक हैं। और जैसा कि उपर कहा जा
इससे बहुत स्पष्ट हो जाता है कि यह ६२ वां सूत्र चुका है कि बीरसेन स्वामीके 'मनुष्यविशेषस्य निरूपणार्थ- द्रव्यस्त्रीका ही निरूपक है? माई', 'मानुर्षषु निरूपणार्थमाई' और 'तत्रैव (मानुषीष्वेव) परिहार-पण्डितजीकी मान्यता ऐसी प्रतीत होती शेषगुणविषयाऽऽरेकोपोहनार्थमाई' इन उत्थानिकावाक्योंसे है कि भावस्त्रीविशिष्ट द्रव्यमनुष्यके अपर्याप्त अवस्थामें मी प्रकट है । पर, द्रव्य और भावका मेद वहाँ भी नहीं है- चौथा गुणस्थान होता है अर्थात् सम्यग्दृष्टि जीव मर कर द्रव्य और भावका भेद किये बिना ही मनुष्य पर्याप्त और भावस्त्रीविशिष्ट द्रव्यमनुष्य होसकता है और इस लिये मनुष्यणीका निरूपण है। यदि उक्त सूत्रों या उत्थानिका ६३ वें सूत्रकी तरह ६२ वे सूत्रको भावस्त्रीका निरूपण वाक्योंमें 'द्रव्यपर्याप्तमनुष्य और 'द्रव्यमनुष्यगी' जैसा करनेवाला माननेपर सूत्र में पहला, दूसरा और चौथा इन पद प्रयोग हंता अथवा टीकामें ही वैसा कुछ कथन होता, तीन गुणस्थानोंको बताना चाहिये था, केवल पहले व तो निश्चय ही 'द्रव्यप्रकरण' स्वीकार कर लिया जाता। दूसरे इन दो ही गुणस्थानोको नही? इसका उत्तर यह परन्तु हम देखते हैं कि वहां वैसा कुछ नहीं है। अत: है कि सम्यग्दृष्टि जीव, जो द्रव्य और भाव दोनोसे मनुष्य यह मामना होगा कि उक्त सूत्रोंमें द्रव्यप्रकरण इष्ट नहीं होगा उसमें पैदा होता है-भावसे स्त्री और द्रव्यसे है और इस लिये ६३ वे सूत्र में द्रव्यस्त्रियोंके ५ गुणस्थानों- मनुष्य में नहीं, क्योंकि सम्यग्दृष्टि जीव समस्त प्रकारकी का वहाँ विधान नहीं है, बल्कि सामान्यत: निरूपण है स्त्रियोंमें पैदा नहीं होता । जैसा पण्डितजीने समझा है, और पारिशेष्यन्यायसे भावापेक्षया निरूपण वहाँ सूत्रकार अधिकांश लोग भी यही समझते हैं कि सम्यग्दृष्टि जीव और टीकाकार दोनोंको इष्ट है और इस लिये भाव द्रव्यस्त्रियों-देव, तिर्यंच और मनुष्यद्रव्यस्त्रियोंमें ही पैदा लिङ्गको लेकर मनुष्यनियोंमें १४ गुणस्थानोका विवेचन नहीं होता, भावस्त्रियोंमें तो पैदा हो सकता है। लेकिन समझना चाहिये । अतएव ६३ वे सूत्र में 'संजद' पदका यह बात नहीं है, वह न द्रव्यस्त्रियोंमें पैदा होता है और प्रयोग न तो विरुद्ध है और न अनुचित है। सूत्रकार न भावस्त्रियोंमें । सम्यग्दृष्टिको समस्त प्रकारकी स्त्रियों में
और टीकाकारकी प्ररूपणशैली उसके अस्तित्वको स्वीकार पैदा न होनेका ही प्रतिपादन शास्त्रोंमें है । स्वामी समन्तकरती है।
म्यग्दशनशुद्धा नारकनपुसकस्त्रोत्वानि' रत्न
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किरण ६-७.]
६३ वें सत्रमें 'संजद' पदका विरोध क्यों ?
२४६
करण्डश्रावकाचार के इस श्लोकमें 'स्त्रीच' सामान्य (जाति) लेकिन वहाँ नपुंसक वेदको छोड़कर अन्य कोई विशिष्ट पदका प्रयोग किया है जिसके द्वारा उन्होंने यावत् स्त्रियों वेद नहीं है। अतएव विवश उसी में उत्पन्न होता है। (स्त्रीत्वावच्छिन्न द्रव्य और भाव स्त्रियों) में पैदा न होनेका परन्तु तिर्यचोंमें तो स्त्रीवेदसे. विशिष्ट-उँचा दूसरा वेद स्पष्ट उल्लेख किया है । पण्डितप्रवर दौलतरामजीने प्रथम पुरुषवेद है, अतएव बद्धायुष्क क्षायिक सम्यग्दृष्टि पुरुषवेदी नरक बिन षभू ज्योतिष वान भवन सब नारी' इस तिर्यंचोंमें ही उत्पन्न होता है । यह श्राम नियम पद्यमें 'सब" शब्द दिया है जो समस्त प्रकारकी स्त्रियोंका है कि सम्यग्दृष्टि जहां कहीं (जिस किसी गतिमें) पैदा बोधक है। यह पद्य भी जिम पंचसंग्रहादिगत प्राचीन होता है वहां विशिष्ट (सर्वोच) वेदादिकों में ही पैदा गाथाका भावानुवाद है उस गाथामें भी 'सव्व-इय॑ सु' होता है-उससे जघन्यमें नहीं। पाठ दिया हुआ है। इसके अलावा, स्वामी वीरसेनने वीरसेनस्वामीके इस महत्वपूर्ण समाधानसे प्रकट है षटखएडागमके सूत्र की टीकामें सम्यग्दृष्टिकी उत्पत्तिको कि मनुष्यगनिमें उत्पन्न होनेवाला सम्यग्दृष्टि जीव द्रव्य और लेकर एक महत्वपूर्ण शंका और समाधान प्रस्तुत किया भाव दोनोंसे विशिष्ट परुषवेदमें ही उत्पन्न होगा-भावसे स्त्रीहै जो खास ध्यान देने योग्य है और जो निम्न प्रकार :- वेद और द्रव्यसे परुषवेदमें नहीं, क्योंकि जो द्रव्य और भाव
"बद्घायुष्कःक्षायिकसम्यग्दृष्टिनरिकेषु नपुसकवेद इवात्र दोनोसे पुरुषवेदी है उसकी अपेक्षा नो भाषसे स्ववेदी और स्त्रीवेदे किन्नोखद्यते इति चेत्, न, तत्र तस्यैवैकस्य सत्त्वात् । द्रव्यसे पुरुषवेदीहै वह हीन एवं जघन्य है-विशिष्ट यत्र कवन समुत्पद्यमानः सम्यग्दृष्टिस्तत्र विशिष्ठवेदादिषु (सर्वोच्च) वेदवाला नहीं है। द्रव्य और भाव दोनोंसे जो समुत्पद्यते इति गृह्यताम् "
पुरुषवेदी है वही वहाँ विशिष्ट (सर्वोच्च) वेदवाला है। शंका-पायुका जिसने बन्ध कर लिया है ऐसा अतएव सम्यग्दृष्ट भावस्त्री विशिष्ट द्रव्य मनुष्य नहीं हो क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव जिस प्रकार नारकियोंमें नसक- सकता है और इसलिये उसके अपर्याप्त अवस्थामें चौथे वेदमें उत्पन्न होता है उसी प्रकार यहाँ तिर्यचोंमें स्त्रीवेदमें गुणस्थानकी कदापि संभावना नहीं है। यही कारण है कि स्यों नहीं उत्पन्न होता?
कर्मसिद्धान्तके प्रतिपादक ग्रन्थोंमें अपर्याप्त अवस्थामें अर्थात् समाधान-नहीं, क्योंकि नारकियोंमें वही एक नपु.
विग्रहगतिमें चतुर्थगुणस्थानमें स्त्रीवेदका उदय नहीं बतलाया
गया है। सामादन गुणस्थानमें ही उसकी व्युच्छित्ति सकवेद होता है, अन्य नहीं, अतएव अगत्या उसीमें पैदा
बतला दी गई है, (देखो, कर्मकाण्ड गा०३१२-३१३-३१६)। होना पड़ता है। यदि वहां नमकवेदमे विशिष्ट-उँचा (बढ़कर) कोई दूमरा वेद होता तो उसी में वह पैदा होता,
तात्पर्य यह कि अपर्याप्त अवस्थामें द्रव्यस्त्रीकी तरह
भावस्त्रीमात्रके भी चौथा गुणस्थान नहीं होता है। इमीसे १ 'पंढ' शब्दका संशोधन ठीक नहीं है। प्रो. प्रतियों में सूत्रकारने द्रव्य और भाव दोनों तरहकी: मनुष्यनियोंके । 'सब' शब्द ही उपलब्ध होता है। यथा- .
अपर्याप्त अवस्था में पहला, दूसराये दो ही गुगास्थान बतलाये छसु हेष्ठिमासु पुढविसु जोइस-वण-भवण-सव्वइत्थीसु । हैं उनमें चौथा गुणस्थान बतलाना सिद्धान्तावरुद्ध होनेके वारस मिच्छोवादे सम्माइहिस्स एत्यि उववादो ॥ कारण उन्हें इष्ट नहीं था। अत: सूत्रकी वर्तमान
-पंचसं० १-१६३। स्थितिमें कोई भी आपत्ति नहीं है। पण्डितजीने अपनी छसु हेट्टिमासु पुढवीसु जोइस-वण-बवण-सब्वइत्थीसु। उपर्युक्त मान्यताको जैनबोधकके ६१वे अंकमें भी दुहराते हुए णेदेसु सपुषजह सम्माइट्ठी दु जो जीवो ॥ लिखा है:-"यदि यह ६२ वाँ सूत्र भावस्त्रीका विधायक
-धवला मु. १ ली पु० पृ. २०६ । होता तो अपर्याप्त अवस्थामें भी तीन गुणस्थान होने चाहिये। हेछिमछप्पुढवीणं जोइसि-वण-भवण.सव्वइत्यीणं। .. . क्योंकि भावस्त्री (द्रव्यमनुष्य) के असंयत सम्यग्दृष्टि चौथा पुरिणदरे ण हि सम्मो ण सासणे णारयापुणो ॥ गुणस्थान भी लेता है।" परन्तु उपरोक्त विवेचनसे प्रकटो
-गोम्मटसार जीवकाँड गा० १२७। कि पण्डितजीकी यह मान्यता प्रापत्ति एवं भ्रमपूर्ण है।
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२१०
- अनेकान्त
..
[वर्ष ८
.
.
द्रव्यस्त्रीकी तरह भावस्त्रीके भी अपर्याप्त अवस्थामें चौथा भावस्त्रीका प्रकरण सिद्ध नहीं हो सकता? गुणस्थान नहीं होता है, यह ऊपर बतला दिया गया है। परिहार-यह प्राक्षेप सर्वथा असंगत है । हम ऊपर
और गोम्मटसार जीवकाण्डकी निम्न गाथासे भी स्पष्टत: कह पाये हैं कि सम्यग्दृष्टि भावस्त्रियों में भी पैदा नहीं होता, प्रकट है:
तब वहां सूत्रमें 'असंजद ठाणे' पदके जोड़ने व होनेका प्रश्न हेट्टिमछप्पुढवीणं जोइसि-वण-भवण- सब इत्यीणं ही नहीं उठता । स्त्रीवेदकर्मको लेकर वर्णन होनेसे पुण्णदरे ण हि सम्मो ण साठणे गणारयापुरणे ॥ भावस्त्रीका प्रकरण तो सुतगं सिद्ध हो जाता है।
., गा० १२७ ॥ . आक्षेप - यदि ८६, ६०, ६१ सूत्रोंको भाववेदी अर्थात् 'द्वितीयादिक छह नरक, ज्योतिषी व्यन्तर पुरुषके मानोगे तो वैसी अवस्थामें ८६ वे सूत्रमें 'असंजद भवनवासी देव तथा सम्पूर्ण स्त्रियाँ । इनकी अपर्याप्त ___ सम्माइटि-टाणे' यह पद है उसे हटा देना होगा, क्योंकि अवस्थामें सम्यक्त्व नहीं होता। भावार्थ-सम्यक्त्व सहित- भाववेदी मनुष्य द्रव्यस्त्री भी हो सकता है उसके अपर्याप्त जीव मरण करके द्वितीयादिक छह नरक, ज्योतिषी, व्यन्तर, अवस्थामें चौथा गुणस्थान नहीं बन सकता है । इसी भवनवासी देवो और समग्र स्त्रियोंमें उत्पन्न नहीं होता।' प्रकार ६० वें सूत्रमें जो 'संजद-टाणे पद है उसे भी हटा
आपने 'भावस्त्रीके असंगतसम्यग्दृष्टि चौथा गुणस्थान भी देना होगा। कारण, भाववेदी पुरुष और द्रव्यस्त्रीके संयत होता है और हो सकता है। इस अनिश्चित बातको सिद्ध गुणस्थान नहीं हो सकता है। इस लिये यह मानना होगा करने के लिये कोई भी श्रागम प्रमाण प्रस्तुत नहीं किया। कि उक्त तीनों सूत्र द्रव्यमनुष्यके ही विधायक हैं, भावयदि हो, तो बतलाना चाहिये, परन्तु अपर्याप्त अवस्थामें मनुप्यके नहीं? भावस्त्रीके चौथा गुणस्थान बतलानेवाला कोई भी पागम , परिहार-पण्डितजीने इस श्राक्षेपद्वारा जो आपत्तियाँ प्रमाण उपलब्ध नहीं हो सकता, यह निश्चित है। ... बतनाई हैं वे यदि गम्भीर विचारके साथ प्रस्तुत आक्षेप-जब ६२ वाँ सूत्र द्रव्यस्त्रीके गुणस्थानोंका।
.. की गई होती तो पण्डितजी उक्त परिणामपर न पहुँचते ।
मान लीजिये कि ६ वे सूत्र में जो 'असंजदसम्माइटि-ठाणे' निरूपक है तब उससे भागेका ६३ वां सूत्र भी द्रव्यस्त्रीका . निरूपक है। पहला ६२ वाँ सूत्र अपर्याप्त अवस्थाका
पद निहित है वह उसमें नहीं है तो जो भाव और द्रव्य निरूपक है, दूसरा ६३ वाँ पर्याप्त अवस्थाका निरूपक है,
दोनोंसे मनुष्य (पुरुष) है उसके अपर्याप्त अवस्थामें चौथा इतना ही भेद है। बाकी दोनों सूत्र द्रव्यस्त्रीके विधायक
गुणस्थान कौनसे सूत्रसे प्रतिपादित होगा? इसीप्रकार मान हैं । ऐमा नहीं हो सकता कि अपर्याप्त अवस्थाका बिधायक
लीजिये कि ६० वें सूत्रमें जो 'संजद-ट्ठाणे' पद है वह १२ वां सूत्र तो द्रव्यस्त्रीका विधायक हो और उससे लगा
उसमें नहीं है तो जो भाववेद और द्रव्यवेद दोनोंसे ही हुश्रा ६३ वा सूत्र पर्याप्त अवस्थाका भावस्त्रीका मान
पुरुष है उसके पर्याप्त अवस्थामें १४ गुणस्थानोंका उपपादन लिया जाय?
कौनसे सूत्रसे करेंगे? अतएव यह मानना होगा कि ८६
वां सूत्र उत्कृष्टतासे जो भाव और द्रव्य दोनोंसे ही मनुष्य परिहार-ऊपर बताया जा चुका है कि ६२ वाँ (पम्प) है, उसके अपर्यात अवस्थामें चौथे गुणस्थानका सूत्र 'पारिशेष्य' न्यायसे स्त्रीवेदी भावस्त्रोकी अपेक्षासे हे प्रतिपादक है और ६.बाँ सूत्र, जो भाववेद और द्रव्यवेद
और ६३ वां सूत्र भावस्त्रीकी अपेक्षासे है ही। अतएव दोनोंसे पुरुष है अथवा केवल द्रव्यवेदसे पुरुष है उसके उक्त आक्षेप पैदा नहीं हो सकता है।
पर्याप्त अवस्था में १४ गुणस्थानोंका प्रतिपादक है । ये आक्षेप-जैसे ६३ = सूत्रको भाषस्त्रीका विधायक दोनों सूत्र विषयकी उत्कृष्ट मर्यादा अथवा प्रधानताके मानकर उसमें 'संजद' पद जोड़ते हो, उसी प्रकार ६२३ प्रतिपादक है, यह नहीं भूलना चाहिये और इस लिये सूत्रमें भी भावस्त्रीका प्रकरण मानकर उसमें भी असंयत प्रस्तुत सूत्रोंको भावप्रकरणके मानने में जो श्रापत्तियाँ प्रस्तुत (असंजद-ठाणे) यह पद जोड़ना पड़ेगा। बिना उसके जोड़े की हैं वे ठीक नहीं हैं । सर्वत्र 'इष्टसम्प्रत्यय' न्यायसे
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किरण ६-७]
६३ वें सूत्रमें 'संजद' पदका विरोध क्यों ?
विवेचन एवं प्रतिपादन किया जाता है। साथमें जो विषय- होते हैं। वे निम्न प्रकार है:की प्रधानताको लेकर वर्णन हो उसे सब जगह सम्बन्धित (क) जिस कालमें षट्खण्डागमकी रचना हुई है उस नहीं करना चाहिये । तात्पर्य यह कि ८६ वाँ सूत्र भाववेदी कालकी-अर्थात् करीब दो हजार वर्ष पूर्वको अन्त:मनुष्य द्रव्यस्त्रीको अपेक्षासे नहीं है, किन्तु भाव और द्रव्य साम्प्रदायिक स्थितिको देखना चाहिये । जहां तक ऐतिमनुष्यकी अपेक्षासे है। इसी प्रकार १० वा सूत्र भाववेदी हासिक पर्यवेक्षण किया जाता है उससे प्रतीत होता है पुरुष और द्रव्यवेदी पुरुष तथा गौणरूपसे केवल द्रव्यवेदी कि उस समय अन्त:साम्प्रदायिक स्थितिका यद्यपि जन्म पुरुषकी अपेक्षासे है और चूंकि यह सूत्र पर्याप्त अवस्थाका हो चुका था परन्तु उसमें पक्ष और तीव्रग नहीं आई थी। है इस लिये जिस प्रकार पर्याप्त अवस्थामें द्रव्य और भाव कहा जाता है कि भगवान महावीरके निर्वाणके कुछ ही पुरुषों तथा स्त्रियोंके चौथा गुणस्थान संभव है उसी प्रकार काल बाद अनुयायिसाधुअोंमें थोड़ा थोड़ा मत-भेद शुरू पर्याप्त अवस्थामें द्रव्यवेदसे तथा भाववेदसे पुरुष और हो गया था और संघभेद होना प्रारम्भ हो गया था, लेकिन केवल द्रव्यवेदी पुरुष १४ गुणस्थान इस सूत्रमें वर्णित वीरनिर्वाणकी सातवीं सदी तक अर्थात् ईसाकी पहली किये गये हैं।
शताब्दीके प्रारम्भ तक मत-मेद और संघ-भेदमें कट्टरता इस तरह पण्डितजीने द्रव्यप्रकरण सिद्ध करनेके नहीं श्राई थी। अत: कुछ विचारमेदको छोड़कर प्रायः लिये जो भावप्रकरण-मान्यतामें आपत्तियां उपस्थित जैनपरम्पराकी एक दी धारा (अचेल) उस वक्त की हैं उनका ऊपर सयुक्तिक परिहार हो जाता है। तक बहती चली श्रारही थी और इसलिये उस समय अत: पहली दलील द्रव्य-प्रकरणको नहीं साधती । और षटखण्डागमके रचयिताको षटखण्डागममें यह निबद्ध इस लिये ६३ वा सूत्र द्रव्यस्त्रियोंके पांच गुणस्थानोंका करना या जुदे परके बतलाना श्रावश्यक न था कि द्रव्यविधायक न होकर भावस्त्रियोंक १४ गुणस्थानोंका विधायक स्त्रियोंके पाँच गुणस्थान होते हैं उनके छठे श्रादि नहीं है । अतएव ६३ सूत्रमें 'संजद' पदका विरोध नहीं है। होते । क्योंकि प्रकट था कि मुक्ति अचेल अवस्थासे होती . ऊपर यह स्पष्ट हो चुका है कि षट्खण्डागमका
है और द्रव्य मनुष्यनियां अचेल नहीं होती-वे सुचेल
ही रहती है। अतएव सुतगं उनके सचेल रहनेके कारण प्रस्तुत प्रकरण द्रव्य-प्रकरण नहीं है, भाव-प्रकरण है।
पांच ही गुणस्थान सुसिद्ध हैं। यही कारण है कि टीकाकार. अब दूसरी श्रादि-शेष दलीलोंपर विचार किया जाता है।
वीरसेन स्वामीने भी यही नतीजा और हेतु-प्रतिपादन उक्त २-यद्यपि षट्रखण्डामममें अन्यत्र कहीं द्रव्यस्त्रियोंके
१३ वे सूत्रकी टीकामें प्रस्तुत किये हैं और राजवातिककार • पांच गुणस्थानोंका कथन उपलब्ध नहीं होता, परन्तु इससे TE
अकलङ्कदेवने भी बतलाये हैं। . ... .. यह सिद्ध नहीं होता कि इस कारण प्रस्तुन ६३ वां सूत्र
ज्ञात होता है कि वीर निर्वाणकी सातवीं शताब्दीके . ही द्रव्यस्त्रियोंके गुणस्थानोंका विधायक एवं प्रतिपादक है।
पश्चात् कुछ साधुओं द्वारा कालके दुष्प्रभाव आदिसे. क्योंकि उसके लिये स्वतंत्र ही हेतु और प्रमाणोंकी जरूरत
वस्त्रग्रहणपर जोर दिया जाने लगा था, लेकिन उन्हें इसका है, जो अब तक प्राप्त नहीं हैं और जो प्राप्त है वे निराबाध
समर्थन श्रागमवाक्योंसे करना श्रावश्यक था, क्योंकि उसके और सोपपन्न नहीं हैं और विचारकोटिमें हैं-उन्हींपर यहाँ
बिना बहुजनसम्मत प्रचार असम्भव था। इसके लिये विचार चल रहा है । अतः प्रस्तुत दूसरी दलील ६३ वें
उन्हें.. एक आगमवाक्यका संकेत मिल गया वह था सूत्रमें संजद'पदकी श्रस्थितिकी स्वतंत्र साधक प्रमाण नहीं है।
। साधुअोंकी २२ परिषहोंमें आया हुआ 'अचेल' शब्द । ____ हाँ, विद्वानोंके लिये यह विचारणीय अवश्य है कि इस शब्दके अाधारसे अनुदरा कन्याकी तरह 'ईषद् चेलः षड्खण्डागममें द्रव्यस्त्रियों के पांच गुणस्थानोंका प्रतिपादन अचेल:'अल्पचेल अर्थ करके वस्त्रग्रहणका समर्थन किया क्यों उपलब्ध नहीं होता ? मेरे बिचारसे इसके दो समाधान और उसे श्रागमसे भी विहित बतलाया। इस समयसे ही हो सकते हैं और जो बहुत कुछ संगत और ठीक प्रतीत वस्तुतः स्पष्ट रूपमें भगवान महावीरकी अचेल परम्पराकी
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सर्वथा चेलरहित-दिगम्बर और अल्पचेल-श्वेताम्बर पलब्ध है। ये दो धारायें बन गई प्रतीत होती हैं। यह इस बात्तसे . (ख) यह पहले कहा जा चुका है कि षट्खण्डागमका मी सिद्ध है कि इसी समयके लगभग हुए प्राचार्य उमा- समस्त वर्णन भावकी अपेक्षासे है। अतएव उसमें द्रव्यस्वातिने भगवान महावीरकी परम्पराको सर्वथा चेलरहित वेदविषयक वर्णन अनुपलब्ध है। अभी हाल में इस लेखको ही बतलाने के लिये यह जोरदार और स्पष्ट प्रयत्न किया लिखते समय विद्वद्वर्य पं.फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्रीका जैनकि 'अचेल' शब्द का अर्थ अल्पचेल नहीं किया जाना बोधकमें प्रकाशित लेख पढ़नेको मिला । उसमें उन्होंने चाहिये-उसका तो नग्नता-सर्वथा चेलरहितता ही सीधा- खुद्दाबन्धके उल्लेखके आधारपर यह बतलाया है कि षट्मादा अर्थ करना चाहिए और यह ही भगवान महावीरकी खण्डागम भरमें समस्त कथन भाववेदकी प्रधानतासे किया परम्परा है। इस बातका उन्होंने केवल मौखिक ही कथन गया है। अतएव वहां यह प्रश्न उठना ही नहीं चाहिये नहीं किया, किन्तु अपनी महत्वपूर्ण उभय-परम्परा सम्मत कि षट्खण्डागममें द्रव्यस्त्रिोंके लिये गुणस्थान विधायक सूत्र सुप्रसिद्ध रचना तत्त्वार्थसूत्र में बाईस परीषहोंके अन्तर्गत क्यों नहीं आया ? उन्होंने बतलाया है कि 'घटखण्डागमकी अचेल परिषदको, जो अब तक दोनों परम्पराओंके शास्त्रोंमें रचनाके समय द्रव्यवेद और भाववेद ये वेदके दो भेद ही इसी नामसे ख्यात चली आई, 'नाग्न्य परीषह' के नामसे नहीं थे उस समय तो सिर्फ भाववेद वर्णनमें लिया जाता ही उल्लेखित करके लिखित भी कथन किया और अचेल था । षट्खण्डागमको तो जाने दीजिये जीवकाण्डमें भी शब्दको भृष्ट और भ्रान्तिकारक जानकर छोड़ दिया। द्रव्यस्त्रियोंके ५ गुणस्थानोंका विधान उपलब्ध नहीं होता क्योंकि उस शब्दकी खींचतान दोनों तरफ होने लगी और इसलिये यह मानना चाहिये कि मूल ग्रन्थों में भाव
और उसपरसे अपना इष्ट अर्थ फलित किया जाने लगा। वेदकी अपेक्षासे ही विवेचन किया जाता रहा, इस लिये हमारा विचार है कि इस विवाद और भ्रान्तिको मिटानेके मूल ग्रन्थों अथवा सूत्रग्रन्योमें द्रव्यवेदकी अपेक्षा विवेचन लिये ही उन्होंने स्पष्टार्थक और अंभ्रान्त अचेलस्थानीय नहीं मिलता है। हाँ, चारित्रग्रन्योंमें मिलता है सो वह 'नाम्न्य' शब्दका प्रयोग किया। अन्यथा, कोई कारण ठीक ही है। जिन प्रश्नोंका सम्बन्ध मुख्यतया चरणानुयोगसे नहीं कि 'अचेल' शब्दके स्थानमें 'नाग्न्य' शब्दका है उनका समाधान वहीं मिलेगा, करणानुयोगमें नहीं।' परिवर्तन किय जाता जो कि अबतक नहीं था। अतएव पण्डितजीका यह सप्रमाण प्रतिपादन युक्तियुक्त है। दूसरी श्रा० उमास्वातिका यह विशुद्ध प्रयत्न ऐतिहासिकोंके लिये बात यह है कि केवलीषटवण्डागमपरसे ही स्त्रीमुक्ति मिषेधकी इतिहासकी दृष्टिसे बड़े महत्वका है। इससे प्रकट है कि दिगम्बर मान्यताको कण्ठत: प्रतिपादित होना आवश्यक प्रारम्भिक मूल परम्परा अचेल-दिगम्बर रही और स्त्र के हो तो सर्वथावस्त्रत्याग और कवलाहारनिषेधकी दिगम्बर अचेल न होनेके कारण उसके पांच ही गुणस्थान सम्भव मान्यताप्रोको भी उससे कण्ठतः प्रतिपादित होना चाहिये । हैं. इससे आगेके छठे आदि नहीं।
इसके अलावा, सूत्रोंमें २२ परिषहोंका वर्णन भी दिखाना जान पड़ता है कि साधुअमेिं जब वस्त्र-ग्रहण चल चाहिये । क्या कारण है कि तत्त्वार्थसूत्रकारकी तरह षट्पड़ा तो स्त्रीमुक्तिका भी समर्थन किया जाने लगा; क्योंकि खण्डागमसूत्रकारने भी उक्त परीषहोंके प्रतिपादक सूत्र क्यों उनकी सचेलता उनकी मुक्तिमें बाधक थी। वस्त्र-ग्रहणके नहीं रचे? इससे जान पड़ता है कि विषय-निरूपणका बाद पुरुष अंथवा स्त्री किसीके लिये भी सचेलता बाधक संकोच-विस्तार सूत्रकारकी दृष्टि या विवेचनशैलीपर निर्भर नहीं रही। यही कारण है कि आद्य जैन साहित्यमें स्त्री- है। अत: षट्खण्डागममें भाववेद विवक्षित होनेसे द्रव्यमुक्तिका समर्थन अथवा निषेध प्राप्त नहीं होता । अतः स्त्रियोंके गुणस्थानोंका विधान उपलब्ध नहीं होता। सिद्ध है कि सूत्रकारको द्रव्यस्त्रियोंके ५ गुणस्थानोंका. ३-तीसरी दलीलका उत्तर यह है कि 'पर्यात' बतलाना उस समय आवश्यक ही न था और इसलिये शब्दके प्रयोगसे वहाँ उसका द्रव्य अर्थ बतलाना सर्वथा षट्खण्डागममें द्रव्यस्त्रियोंके ५ गुणस्थानोंका विधान अनु- मूल है। पर्याप्तकर्म जीव विपाकी प्रकृति और उसके
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उदय होनेपर जीव पर्याप्तक कहा जाता है। अतः उसका भाव भी अर्थ है । दूसरे, वीरसेन स्वामीके विभिन्न विवेच और अलङ्कदेव राजवार्त्तिकगत प्रतिपादनसे पर्याप्त मनुष्यनियों १४ गुणस्थानोंका निरूपण होने से वहाँ 'पर्याप्त' शब्दका अर्थ द्रव्य नहीं लिया जासकता है और इसलिये 'ज्जत्तम सिण' से द्रव्यस्त्रीका बोध करना महान् सैद्धान्तिक भूल | मैं इस सम्बन्ध में अपने " संजद पदके सम्बन्ध में अकलंकदेवका महत्वपूर्ण अभिमत" शीर्षक लेखमें पर्याप्त प्रकाश डाल चुका हूँ ।
४ – हमें बड़ा आश्चर्य होता है कि 'संजद' पदके विरोध में यह कैसे कहा जाता है कि 'वीरसेन स्वामीकी टीका उक्त सूत्रमें 'संजद' पदका समर्थन नहीं करती, श्रन्यथा टीका में उक्त पदका उल्लेख अवश्य होता ।' क्योंकि टीका दिनकर - प्रकाशकी तरह 'संजद' पदका समर्थन करती है। यदि सूत्रमें 'संजद' पद न हो तो टीकागत समस्त शंका-समाधान निराधार प्रतीत होगा । मैं यहाँ टीकागत उन पद वाक्यदिकों को उपस्थित करता हूँ जिनसे 'संजद' पदका प्रभाव प्रतीत नहीं होता, बल्कि उसका समर्थन सेष्टतः जाना जाता है। यथा
६३ वें सूत्र में 'संजद' पदका विरोध क्यों ?
'हुण्डावसर्पिण्यां स्त्रीषु सम्यग्दृष्टयः कन्नोत्पद्यन्ते, इति चेत्; नोट द्यन्ते । कुतोऽवसीयते ? अस्मादेव र्षात् । अस्मादेवार्षाद् द्रव्यस्त्रीणां निर्वृत्तिः सिद्धयेत्, इति चेत्, न सत्रास्त्वादप्रत्याख्यानगुण स्थितानां संयमानुश्पत्तेः। भावसंयमस्तासां सवाससामप्यविरुद्धः, इति चेत्, न तासां भावःसंयमोऽस्ति भावासंयमा'विनाभावि वरादान (न्यथानुपपत्तेः । कथं पुनस्तासु चतुर्दश गुणस्थानानीति चेत्, न, भावस्त्रीविशिष्टमनुष्यगौताविराधात् । भाववेदो वादरषाय न्नोपस्तीति न तत्र चतुदशगुणस्थानास सम्भव इति चेत्, न, अत्र वेदस्य प्राधान्याभावात् । गतिस्तु प्रधाना नसाद्विनश्यति । वेदविशेषणायां गतौ न तानि • सम्भवन्ति इति चेत्, न तद्वय देशमादधानमनुष्यगौ तत्सत्त्वाविरोधात् ।'
यहाँ सबसे पहले यह शंका उपस्थित की गई है कि यद्यपि स्त्रियों (द्रव्य और भाव दोनों) में सम्यग्दृष्टि जीव मरकर उत्पन्न नहीं होते हैं । लेकिन हुण्डावसर्पिणी ( श्राप
[२५३
वादिककाल) में स्त्रियों में सम्यग्दृष्टि क्यों नही उत्पन्न होते? ( इस शंकासे यह प्रतीत होता है कि वीरसेन स्वामीके सामने कुछ लोगोंकी हुण्डावसर्पिणी कालमें स्त्रियों में सम्यग्दृष्ट उत्पन्न होने की मान्यता रही और इसलिये इस शंका द्वारा उनका मत उपस्थित करके उसका उन्होंने निराकरण किया है । इसी प्रकारसे उन्होंने आगे द्रव्यस्त्री मुक्तिकी मान्यताको भी उपस्थित किया है जो सूत्रकार के सामने नहीं थी और उनके सामने प्रचलित थी और जिसका उन्होंने निराकरण किया है । हुण्डावसर्पिणीकालका स्वरूप ही यह है कि जिसमें अनहोनी बातें हो जायें, जैसे तीर्थंकरके पुत्र का होना, चक्रवर्तीका अपमान होना श्रादि । श्रौर इसलिये उक्त शंकाका उपस्थित होना सम्भव नहीं है ।) वीरसेन स्वामी इत· शंकाका उत्तर देते हैं कि हुण्डावसर्पिणी काल में स्त्रियों में सम्यग्टष्टपन्न नहीं होते। इसपर प्रश्न हुआ कि इसमें प्रमाण क्या है ? अर्थात् यह कैसे जाना कि हुडावसर्पिणी में स्त्रियों में सम्यग्दृष्ट उत्पन्न नहीं होते ? इसका उत्तर यह दिया गया है कि इसी आगम-सूत्रवाक्य से उक्त बात जानी जाती है । श्रर्थात् प्रस्तुत ६३ वे सूत्र में पर्याप्त मनुष्यनीके ही चौथा गुणस्थान प्रतिपादितः किया है, अपर्याप्त मनुष्यनीके नहीं, इससे साफ जाहिर है कि सम्यग्दृष्टि जीव किसी भी कालमें द्रव्य और भाव दोनों ही तरह की स्त्रियोंमें पैदा नहीं होते । श्रतएव सुतरां सिद्ध है कि हुण्डावसर्पिणी में भी स्त्रियों में सम्यग्दृष्टि पैदा नहीं हं ते ।
1
यहाँ हम यह उल्लेख कर देना श्रावश्यक समझते हैं कि पं० मक्खनलालजी शास्त्रीने टीकोक्क 'स्त्री' पदका द्रव्यस्त्री अर्थ करके एक और मोटी भूल की है । 'स्त्रीषु' पदका बिल्कुल सीधा सादा श्रर्थ है और वह है- 'स्त्रियोंमें' । वहाँ द्रव्य और भाव दोनों ही प्रकारकी स्त्रियोंका प्रह है। यदि केवल द्रव्यस्त्रियोंका ग्रहण इष्ट होता तो वीरसेन स्वामी अगले 'द्रव्यस्त्रीणां' पदकी तरह यहाँ भी 'द्रव्यत्रषु' पदका प्रयोग करते और जिससे सिद्धान्त विरोध अनिवार्य था, क्योंकि उससे द्रव्यस्त्रियोंमें ही सम्यग्दृष्टियों के उत्पन्न न होनेकी बात सिद्ध होती, भावस्त्रियोंमें नहीं । किन्तु वे ऐसा सिद्धान्तविरुद्ध श्रसंगत कंथन कदापि नहीं कर सकते थे और इसी लिये उन्होंने 'द्रव्यस्त्रष' पदका
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प्रयोग न करके 'स्त्रीषु' पदका प्रयोग किया है जो सर्वच सिद्धान्ताविय और संगत है। यह स्मरण रहे कि सिद्धान्त में भास्त्रीमुक्ति तो इष्ट है, द्रव्यस्त्रीमुक्ति इष्ट नहीं है। किंतु सम्पद-उत्पत्ति निषेध द्रव्य और भावस्त्र, दोनोंमें ही इष्ट है। अत: पंडितजी का यह लिखना कि ६ ३ वे सूत्र में पर्याप्त अवस्थायें दी जब द्रव्यस्त्रीके चौथा गुणस्थान सूत्रकारने बताया है तब टीकाकार यह शंका उठाई है कि द्रव्यस्त्री पर्याय में पष्टे क्या उत्पन्न नहीं होते हैं ? उत्तर में कहा है कि में सम्पष्टि जीव उत्पन्न नहीं होते है। क्यों नहीं उत्पन्न होते हैं ? इसके लिये आप प्रमा बतलाया है। अर्थात् श्रागममें ऐसा ही बताया है कि द्रव्य स्त्रीरमें सम्यग्दष्टि नहीं आता है"। "यदि ६३ व सूत्र भावीका विधायक होता तो फिर सम्यग्दर्शन क्यों नहीं होता, यह शंका उठाई ही नहीं जा सकती क्योंकि भाव स्त्री के तो सम्यग्दर्शन होता ही है परन्तु द्रव्यस्त्रीके लिये शंका उठाई है। अत: द्रव्यंस्त्रीका हो विधायक ६३ वां सूत्र है' । यह स्पष्ट हो जाती है।" बहुत ही स्खलित और भूलोंसे • भरा हुआ है । 'संजद' पदके विरोधी विद्वान् क्या उक्त विवेचनसे सहमत हैं ? यदि नहीं, तो उन्होंने अन्य लेखोंकी "तरह उक्त विवेचनका प्रतिबाद क्यों नहीं किया ? मुझे आश्चर्य है कि श्री वर्धमानी जैसे विचारक तटस्थ विद्वान् पं. "पक्षमें कैसे वद गये और उसका पोषण करने लगे १ पं० मक्खनलालजी की भूलोंका श्राधार भावस्त्री में सम्यग्दृष्टिकी उत्पत्तिको मानदा है जो सर्वसिद्धान्त विरुद्ध है। सम्यग्दृष्टि न द्रव्यस्त्रीमें पैदा होता है और न भावामें यह हम पहले विस्तार से सप्रमाण बतला श्राये हैं । श्राशा है पंडितजी अपनी भूलका संशोधन कर लेंगे । और तब वे 1 प्रस्तुत ३ सूत्रको विधायक ही समझोगे ।
दूसरी शंका यह उपस्थित की गई है कि यदि इसी श्रार्ष (प्रस्तुत श्रागमसूत्र) से यह जाना जाता है कि हुण्डा - 'वसर्पिणीयोंमें सम्यग्दृष्टि उत्पन्न नहीं होते जो इसी श्रार्ष (प्रस्तुत आगम सूत्र ) से व्यस्त्रियोंकी मुक्ति सिद्ध हो जाय, यह तो जाना जाता है? शंकाकारके सामने १२ व सूप 'संज़द' पदसे युक्त है और उसमें द्रव्य अथवा भावका स्पष्ट उल्लेखन होने से उसे प्रस्तुत शंका उत्पन्न हुई हैं । वह समझ रहा है कि ६३ वें सूत्रमें 'संजद' पदके होनेते
सूत्र
[वर्ष
=
द्रव्यस्त्रियों के मंच सिद्ध होता है। यदि सूषमें 'संजद' पद न हो, पाँच ही गुणस्थान प्रतिपादित हो तो यह पस्मीकि विषयक इस प्रकारकी शंका, जो इसी सूत्रपरसे हुई हैं, कदापि नींद सकती) इस शंकाका वीरमेन स्वामी उत्तर देते हैं कि यदि एसी शंका करो तो वह ठीक नहीं है क्योकि द्रयन्त्रिय सदस्य होनेसे पंचम प्रत्याख्यान (संयमासंयम) गुणस्थान में स्थित है और इसलिये उनके संयम नहीं बन सकता है । इस उत्तरसे भी रुष्ट जाना जाता है कि सूत्र में यदि पाँच ही गुणस्थानोंका विधान होता तो वीरसेनरवामी द्रव्यस्त्रमुक्तिका प्रस्तुत 'वस्त्र' हेतुद्वारा निराकरण न करते, उसी सूत्रको ही उपस्थित करते क्योंकि इसी श्रागमसूसे उसका निषेध है। अर्थात् प्रस्तुत तथा उत्तर देते कि 'द्रव्यस्त्रियोंके मोक्ष नहीं सिद्ध होता, ६२ सूत्र आदि पाँच ही गुणस्थान द्रव्यस्त्रियों के बतलाये है छठे आदि नहीं। वीरसेनस्वाभीकी यह विशेषता है कि जब तक किसी बातका साधक आगम प्रमाण रहता है तो पहले वे उसे ही उपस्थित करते हैं, हेतुको नहीं, अथवा उसे पीछे आगम समर्थन में करते हैं।
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शंकाकार फिर कहता है कि द्रव्यथियोंके भले ही द्रव्यसंयम न बने भावसंयम तो उनके वस्त्र र नेपर भी द्रव्यसंमन बने भावसंयम तो उनके सदस्य रहनेपर भी बन सकता है उसका कोई विरोध नहीं है ? इसका वे पुनः उत्तर देते हैं कि नहीं, द्रव्यस्त्रियोंके भावासंयम हैभावसंयम नहीं, क्योंकि भावासंयमका श्रविनाभावी वस्त्रादि का ग्रहण भावासंयमके बिना नहीं हो सकता है। तात्पर्य यह कि द्रव्यस्त्रियोंके वस्त्रादिमण होनेसे ही यह प्रतीत होता है कि उनके भावसंयम भी नहीं है— भावासंयम ही है, क्योंकि वह उसका कारण है। वह फिर शंका करता है'फिर उनमें चउदह गुणस्थान कैसे प्रतिपादित किये हैं ? अर्थात् प्रस्तुत सूत्रमें 'संजद' शब्दका प्रयोग क्यों किया है ? इसका वीरसेनस्वामी समाधान करते हैं कि नहीं, भाव स्त्रीविशिष्ट मनुष्यगति में उक्त चउदद गुणस्थानोंका सबै प्रति पादित किया है। अर्थात् २ सूत्र में जो 'संजद' शब्द है वें वह भागस्त्री मनुष्यकी अपेक्षा है, द्रव्पस्त्री मनुष्यकी पेक्षा नहीं। (इस शंका-समाधान से तो बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है कि प्रस्तुत है सूत्रमे 'संजद' पद है और
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छठेसे चउदह तक के गुणस्थानोंका बोधक है। और इसी लिये वीरसेनस्वामीने उसकी उपपत्ति एवं संगति भावस्त्री मनुष्य की अपेक्षा से बैठाई है, जैसी कि राजवार्तिककार कलंक देवने अपने राजवात्तिकमे बैठाई है। यदि उक्त सूत्र में 'संजद' पद न हो तो ऐसी न तो शंका उठती और न उक्त प्रकार से उसका समाधान होता। दोनोंका रूप भिन्न ही होता । श्रर्थात प्रस्तुत सूत्र द्रव्यस्त्रियोंके ही ५ गुणस्थानों का विधायक दो और उनकी मुक्तिका निषेधक हो तो "अस्मादेव श्रार्षाद् द्रव्यस्त्रीणां निवृतिः सिद्धयेत्” ऐसी शंका कदापि न उठनी, बल्कि द्रव्यस्त्रीणां निवृत्तिः कथं न भवति" इस प्रकार से शंका उठती और उस दशामें 'श्रस्मादेव श्राषद्' और 'निवृतिः सिद्धयेत्' ये शब्द भूल करके भी प्रयुक्त न किये जाते । श्रतः इन शब्दों के प्रयोगसे भी स्पष्ट है कि ε३ वें सूत्रमें द्रव्यस्त्रियोंके ५ गुणस्थानोंका `विधान न होकर भावस्त्रियोंके १४ गुणस्थानोंका विधान है और वह 'संजद' पदके प्रयोगद्वारा अभिहित है। और यह तो माना ही नहीं जा सकता है कि उपर्युक्त टीकामें चउदह गुणस्थानोंका जो उल्लेख है वह किसी दूसरे प्रकरण के सूत्र ·से सम्बद्ध है क्योंकि ‘अस्मादैवार्षाद् द्रव्यस्त्रीणां निर्वृतिः 'सिद्ध्येत्” शब्दों द्वारा उसका सम्बन्ध प्रकृत सूत्रसे ही है, यह सुहट) है ।
६३ वें सूत्र में 'संजद' पदका विरोध क्यों ?
शंकाकार फिर शंका उठाता है कि भाववेद तो Sarara ( गुणस्थान) से श्रागे नहीं है और इस लिये भाव स्त्रीमनुष्यगति में चउदह गुणस्थानोंका संभव नहीं है ? इसका वे उत्तर देते हैं कि 'नहीं, यहाँ योगमार्गयासम्बन्धी गतिप्रकरण में वेदकी प्रधानता नहीं है किन्तु गतिकी प्रधानता है और वह शीघ्र नष्ट नहीं होती - मनुष्यगतिकर्मका उदय तथा सत्त्व च उदहवें गुणस्थान तक रहता है और इसलिये उसकी अपेक्षा भावस्त्री के चउदद्द गुनास्थान उपपन्न हैं। इसपर पुनः शंका उठी कि "वेदविशिष्ट मनुष्यगति में वे चउदह गुणस्थान संभव नहीं है ? इसका समाधान किया कि नहीं, वेदरूप विशेषण यद्यपि ( नौवें गुणस्थान में) नष्ट हो जाता है फिर भी उपचारसे उक्त व्य1. प्रदेशको धारण करनेवाली मनुष्यगति में, जो चउदहवें स्थान तक रहती है, चउदह गुणस्थानोंका सत्त्व विरुद्ध
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नहीं है।' इस सत्र शंका-समाधान से सर्वथा स्पष्ट हो जाता है कि टीकाद्वारा ६३ वें सूत्रमें 'संजद' पदका निःसन्देह समर्थन है और वह भात्रस्त्री मनुष्यकी अपेक्षासे है, द्रव्यस्त्री मनुष्यकी अपेक्षा से नहीं ।
पं० मक्खनलालजी शास्त्रीने टीकागत उल्लिखित स्थलका कुछ श्राशय और दिया है लेकिन वे यहाँ भी स्खलित हुए हैं। आप लिखते हैं: - 'अब आगेकी टीका का आशय समझ लीजिये, आगे यह शंका उठाई है कि इसी श्रागमसे द्रव्यस्त्रीके मोक्ष सिद्ध होती है क्या ? उत्तर में टीकाकार श्राचार्य वीरसेन कहते हैं कि नहीं, इसी श्रागम से यह बात भी सिद्ध हो जाती है कि द्रव्यस्त्रीके : मोक्ष नहीं हो सकती है ।' यहाँ पण्डितजीने जो 'इसी श्रागमसे द्रव्यस्त्रीके मोक्ष सिद्ध होती है. क्या ?' और इसी आगमसे यह बात भी सिद्ध हो जाती है कि द्रव्यस्त्रीके मोक्ष नहीं हो सकती है ।' लिखा है वह 'अस्मदेवार्षाद् द्रव्यस्त्रीणां निरृत्तिः सिद्धयेत् इति चेत् नः सवासस्त्वादप्रत्याख्यान गुणस्थान संयमानुपपत्तेः ।' इन वाक्योंका श्राशय कैसे निक ला ? इनका सीधा श्राशय तो यह है कि इसी श्रागमसूत्र से द्रव्यस्त्रियों के मोक्ष सिद्ध हो जाय ? इसका उत्तर दिया गए कि 'नहीं, क्योंकि द्रव्यस्त्रियाँ सवस्त्र होने के कारण पंचम श्रप्रत्याशन • गुणस्थान में स्थित हैं और इसलिये उनके संयम नहीं बन सकता है । परन्तु पण्डितजीने 'क्या' तथा 'इमी श्रागमसे यह बात भी मिद्ध हो जाती है कि द्रव्यस्त्रीके मोक्ष नहीं हो सकता है ।' शब्दोंको जोड़कर शंका और उसका उत्तर दोनों ही सर्वथा बदल दिये हैं। टीकाके उन दोनों वाक्यों में न तो ऐसी शंका है कि इसी श्रागमसे द्रव्यस्त्रीके मोक्ष सिद्ध होती है क्या ? और न उसका ऐसा उत्तर है कि इसी आगमसे यह बान भी सिद्ध हो जाती है कि द्रव्यंस्त्रीके मोक्ष नहीं हो सकती है । यदि इसी श्रागमसूत्रमे द्रव्यस्त्रीके मोक्षका निषेध प्रतिपादित होता तो वीरसेनस्वामी 'सामस्वात्' हेतु नहीं देते, उसी श्रागमसूत्र को ही प्रस्तुत करते, जैसा कि सम्यग् ष्ट स्त्रियोंमें उत्पत्ति निषेध में उन्होंने श्रागम कोही प्रस्तुत किया है, हेतुको नहीं । अतएव पंडितजीका यह लिखना भी सर्वथा भ्रमपूर्ण है कि 'यदि ६३ वें सूत्रमें 'संजद' पद होता तो श्राचार्य वीरसेन इस प्रकार टीका नहीं करते कि इसी आर्षसे द्रव्यस्त्रीके मोक्ष नहीं द्धि होती
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है ।' क्योंकि वीरसेन स्वामीने यह कहीं भी नहीं लिखा कि 'इसी से द्रव्यस्त्रीके मोक्ष नहीं सिद्ध होती है । पण्डित जीसे अनुरोध करूँगा कि वे ऐसे ग़लत श्राशय कदापि निकालने की कृपा न करें ।
पण्डितजीका यह लिखना भी संगत नहीं है कि वीरसेनस्वामीने 'संयम' पदका अपनी टीका में थोड़ा भी जिकर नहीं किया । यदि सूत्र में 'संयम' पद होता तो यहाँ संयम' पद दिया गया है वह किस अपेक्षासे है ? इससे द्रव्यस्त्रीके संयम सिद्ध हो सकेगा क्या ? आदि शंका भी वे अवश्य उठाते और समाधान करते ।'
हम पण्डितजी से पूछते हैं कि 'संयम' पदका क्या अर्थ है ? यदि छठे से चउदह तक के गुणस्थानोंका ग्रहण उसका अर्थ है तो उनका टीका में स्पष्ट तो उल्लेख है । यदि द्रव्य स्त्रियोंके द्रव्यसंयम और भावसंयम दोनों ही नहीं बनते हैं तब उनमें चउदह गुणस्थान कैसे बतलाये ? नहीं भाव स्त्री विशिष्ट मनुष्यगतिकी अपेक्षा से इनका सत्त्व बतलाया गया है— 'कथं पुनस्तासु चतुर्दशगुणस्थानानीति चेत्, न, भावस्त्री विशिष्टमनुप्यगतौ तत्सत्त्वाविरोधात्'– यह क्या है ? आपकी उपयुक्त शंका और समाधान ही तो है । शंकाकार समझ रहा है कि प्रस्तुत सूत्र में जो 'संजद' पद है वह द्रव्यस्त्रियोंके लिये श्राया है और उसके द्वारा छठेसे चउदह तक के गुणस्थान उनके बतलाये गये है । वीरसेन स्वामी उसकी इस शंकाका उत्तर देते हैं कि चउदा गुणस्थान भाव स्त्रीको अपेक्षा से बताये गये हैं, द्रव्यस्त्रीको अपेक्षा से नहीं। इससे साफ है कि सूत्रमें संजद' पद दिया हुआ है और वह मात्रस्त्रीकी अपेक्षासे है ।
पण्डितजी ने श्रागे चलकर एक बात और विचित्र लिखी है कि प्रस्तुत सूत्रकी टीकामें जो चउदह गुणस्थानों और भाववेद आदिका उल्लेख किया गया है उसका सम्बन्ध इस सूत्र से नहीं है— अन्य सूत्रोंसे है - इसी सिद्धान्तशास्त्र में -जगह जगह ६ और १४ गुणस्थान बतलाये गये हैं । किन्तु पण्डितजी यदि गम्भीरता से 'श्रस्मादेव श्रार्षाद्' इत्यादि वाक्योंपर गौर करते तो वे उक्त बात न लिखते । यह एक साधारण विवेकी भी जान सकता है कि यदि दूसरी जगहों में उल्लिखित गुणस्थानोंकी संगति यहाँ बैठाई गई होती तो 'अस्मादेव श्रार्षाद्' वाक्य कदापि न लिखा जाता, क्योकि
अनेकान्त
[ वर्ष ८
श्राप के मतसे प्रस्तुत सूत्रमें उक्त चउदह गुणस्थानों या संजद' का उल्लेख नहीं है । जब सूत्रमें 'संजद' पद है और उसके द्वारा चउदह गुणस्थानोंका संकेत (निर्देश ) है तभी यहाँ द्रव्यस्त्री मुक्तिविषयक शंका पैदा हुई है और उसका यहीं समाधान किया गया है। यद्यपि आलाधिकार श्रादिमें पर्याप्त मनुष्यनियोंके चउदह गुणस्थान बतलाये हैं तथापि वहाँ गतिका प्रकरण नहीं है, यहां गतिका प्रकरण है और इसलिये उक्त शंका-समाधानका यहीं होना सर्वथा संगत है । श्रतः ६ श्रौर चउदह १४ गुणस्थानोके उल्लेखका सम्बन्ध प्रकृत सूत्र से ही है, अन्य सूत्रोसे नहीं । श्रतएव स्पष्ट है कि टीकासे भी ६३ सूत्र में 'संजद' पदका समथन होता है और उसकी उसमें चर्चा भी खुले तौर से की गई है।
५- अब केवल पाँचवीं दलील रह जाती है सो उसके सम्बन्ध में बहुत कुछ पहली और दूसरी दलीलकी चर्चा में कथन कराये हैं। हमारा यह भय कि 'इस सूत्र को द्रव्यस्त्रीके गुणस्थानोंका विधायक न माना जायगा तो इस सिद्धान्त ग्रंथसे उनके पांच गुणस्थानोंके कथन की दिगम्बर मान्यता सिद्ध न हो सकेगी और जो प्रो० हीरालालजी कह रहे हैं उसका तथा श्वेताम्बर मान्यताका अनुषंग श्रावेगा ।' सर्वथा व्यर्थ है, क्योंकि विभिन्न शास्त्रीय प्रमाणों, हेतुनों, संगतियों, पुरातवस्त्रे श्रवशेष्ठों ऐतिहासिक तथ्यों आदि से सिद्ध है कि द्रव्यस्त्रीका मोक्ष नहीं होता और इसलिये श्वेताम्वर मान्यताका अनुषंग नहीं श्रा सकता । श्राज तो दिगम्बरमान्यता के पोषक और समर्थक इतने विपुल रूपमें प्राचीनतम प्रमाण मिल रहे हैं जो शायद पिछली शतादियां में मो न मिले होगे । पुरातत्वका अबतक जितना अन्वेषण हो सका है और भूगर्भसे उसकी खुदाई हुई है उस सबमें प्राचीन से प्राचीन दिगम्बर नग्नपुरुष मूर्तियां दी उपलब्ध हुई हैं और जो दो हजार वर्षसे भी पूर्व की है । परन्तु सचेल मूर्ति या स्त्रीमूर्ति, जो जैन निग्रन्थ हो, कहींसे मी प्राप्त नहीं हुईं। हाँ, दशवीं शताब्दीके बादकी जरूर कुछ सचेलपुरुष मूर्तियाँ मिलती बतलाई जाती हैं सो उस समय दोनों ही परम्परा में काफी मतभेद हो चुका था तथा खण्डन- मण्डन भी आपस में चलने लगा था । सच पूछा (शेष पृष्ठ २६१ पर)
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कायरता घोर पाप है ! बङ्गाल और बिहारके वे नारकीय दिन !
(ले० श्री अयोध्याप्रसाद 'गोयलीय')
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उन्हीं दिनोंकी बात है जब पूर्वी बंगाल के हिन्दू भेड़ोंकी तरह मिमया और गायकी तरह उकराते हुए काटे जा रहे ये और वंगमहिलाएँ आतताइयोंके साथ चुपचाप उसी तरह जा रही थीं, जिस तरह बेगार में पकड़ी हुई गाय घास चरने सिपाही के साथ जाती हैं ।
1
मेरा डेढ वर्षका बच्चा एकाएक जोरसे चीख उठा, और बदहवास होता हुआ मेरे पास आया तो उसकी अंगुलीमें चींटा चिपटा हुआ था 1 मेरे छुड़ानेपर चिउँटा मर कर ही उँगलीसे अलग हुआ और मरते-मरते भी खूनकी धार बहा
गया।
यथा तो काफी देर सुककर खेलने लगा, पर मैं अपने में खो गया । सोचा बंगालके हिन्दुओंसे तो यह चिउँटा ही छाल दर्जे श्रेष्ठ है, जिसमे बच्चों के हृदयपर यह अङ्कित कर दिया कि "बच्च ! हमको छेड़ना कुछ अर्थ रखता है ।" और अब भूलकर भी यह उन्हें नहीं ड़ता।
एक चिउँडेने मरकर अपनी जातिकी सुरक्षाका बच्चन उस शरारती जबकेसे ले लिया। यदि वीरवकी दर मेरे पास होती तो ऐसे जाँनिसार चिउंटेका स्मारक मुझे बनवाना चाहिए था । परन्तु जो कौम, लोक-हित-युद्धमें सूझ मरनेवाले और परोपकारार्थ सर्वस्व न्योछावर करनेवाले अपने सपूतों की तालिका तक न रख सकी भला उस कौममें जन्म लेकर मैं ऐसा साहस कर सकता था ? कैसी मूर्खतापूर्ण बात बी, जो सुनता वही हँसता ।
टीपास आई गई। जब मैंने सुना कि महात्माजी हिन्दुधकी रक्षाको पूर्वी बंगाल दौड़े गये हैं, और उड़ीसा खोपडियों गिनने फलकसे पहुँचे हैं। तभी ख़याल आया कि बंगालमें सिक्ख भी तो रहते हैं, की रचार्थ सिक्ख लीडर नहीं पहुंचे । क्या सिक्ख लीडरों
को हवाई जहाज नहीं मिला था। उन्होंने बंगाल जाना ही सिक्ख जातिका अपमान समस्या ।
सब जानते हैं सिक्सके बालको हाथ लगाना, सिंहकी मूंहको घूमा है। बड़े बड़े सीसमारखाँ, बादशाहों, सेनापतियों और पेशेवर शिकारियोंके शिकार पड़े। मगर कहीं यह पहने में न काया कि सिंहकी मूँहका बाल तो क्या का दाल ही का किसीने साहस किया हो । सिंहकी मूँछ या सके बाल उखेबनेकी घटना पढ़ने में नहीं धाई, वहाँ यह भी कभी पढ़ने या सुननेजें नहीं आया कि किसी विधर्मी ने गुरुद्वारेपर आक्रमण किया हो, सिक्ख महिलाको ऐ हो या सिक्खको तंग किया हो !
इसका कारण यही है कि प्रत्येक भाई इसके परिहमसे परिचित है । इसलिये बंगालके प्रधानमन्त्रीको सुसलमानोंके जिये शायनी देवी पड़ी कि 'मुसलमान सिक्खों को न छेड़ें, वे हमारे हितैषी हैं।' क्यों नहीं, १८५७ के विद्रोहमें अंग्रेजोका पक्ष लेकर जो मुसलमानी सक्तनतका चिराग का मुस्लिम मिनिस्ट्रीके होते हुए शी गल्क मस्जिदर अधिकार जमायें, जिन्हा जैसे दराज को दान शिकन जवाब दें। वे तो भाई और हितैषी ? और वे हिन्दू जो मुसलमानी सल्तनतको समाप्त कर देने वाले अंकोंसे १५० वर्ष से लोहा लेते रहे, अपना सर्वस्व देशहित न्योछावर कर दें, जनसंख्याके अनुपातसे अधिक बगैर हाथ पाँव हिलाये अधिकार दें, दिनरात बीडियों में हाथ डालते रहें, चुपचाप से और पिटते रहें, वे शत्रु ! बेशक, कायरताका यही पुरस्कार हिन्दुओं को मिलना चाहिये था ।
सिन्धकी मिनिस्टरी सत्यार्थप्रकाशपर यो प्रतिबन्ध लगायेगी, पर सिक्खोंके उस प्रन्थसाहब जिसमें जहाँगीर भी परिवर्तन न करा सका और जिसका हर एक अनुयायी दैनिक
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अनेकान्त
[वर्ष
प्रार्थनामें 'उठ गई सभा म्लेच्छकी' श्रादि कहकर मुसलमानों दोपाये भेड़-बकरियोंसे बदतर होगये हैं। वर्ना क्या कारण है के प्रति घृणा प्रगट करता है-प्रतिबन्ध तो क्या विरोधमें कि जो स्त्री एक बार अपहृत करली गई, वह कभी वापिस एक शब्द भी न कह सकी। इसका कारण निम्न उदाहरण - न आई और वह आतताइयोंमें घुलमिल एकाकार हो गई। से समझ में आयेगा।
और उन्हींकी सन्तान अपनी माताओंके अपमानका बदला • एक बार एक देशभक्कने व्याख्यान देते हुए कहा था- आतताइयोंसे लेनेके बजाय निरन्तर हिन्दुओंकी जान-मालके
'चीनियों और जापानियोंकी शक्रोशबाहतमें यूं तो घातक बने रहते हैं। बकौल महात्मा गाँधी 'भारतीय मुसल. काफी फर्क होता है, पर हिन्दुस्तानियों के लिये यह मुश्किल मान 8 फीसदी ऐसी ही देवियोंकी सन्तान हैं।' . है। उनकी पहचानका सरल उपाय यह है कि किसी चीनी सन २४ में जब साम्प्रदायिक उत्पात हो रहे थे एक के पाँवमें पीछे से टकर मार दी जाये तो वह पलटकर ठोकर हिन्दू नेताके यह कहनेपर कि मुसलमानी सल्तनतके जमानेमें मारनेका कारण पूछेगा और जापानी ठोकरका जवाब ठोकरसे हिन्दुओंको बलात् मुसलमान बनाया गया।' हसन निज़ामी दे चुकनेपर वजह दर्याफ्त करेगा । असावधानीके लिये ने कहा था कि ऐसा कहना हिन्दुओंका अपमान करना है। क्षमा मांगनेपर तो क्षमा करेगा, जानबूझकर शरारत की गई जो हिन्दू मुसलमानको छुआ पानी पीनेसे मरना बेहतर समतो फिर दुबारा प्रहार करेगा । तभी मेरे मुँहसे निकला झते हैं वह जबरन मुससमान क्योंकर बनाये जा सकते हैं। कि कोई यूरोपियन हिन्दुस्तानमें हिन्दू-मुसलमानको भी और यह जबर्दस्ती बनियों, ब्राह्मणोंपर तो मानी भी जा इसी तरह बाबासानी पहचान सकता है। हिन्दू ठोकर लगने सकती है, पर बे राजपूत जो बात-बातमें तलवार निकाल पर पूछेगा 'आपके चोट तो नहीं लगी, क्षमा करना ।' लेते थे, जबस्न कैसे मुसलमान बनाये जा सकते थे। मुसलमान ठोकर लगानेवालेको कमजोर देखेगा तो हमला और नौ मुसलमानों में अधिकांश संख्या राजपूतों की ही है करेगा, बलवान देखेगा तो ऊपरसे हँसता हुश्रा और मनमें ये कयासके बाहर है कि वे कभी जबरन भी अपना धर्म खो गालियां देता हुआ बढ़ जायगा । सिक्ख इसी तरहके बल- सकते थे। वान लोगों में हैं।
बात चाहे हसन निजामी साहबने एक दम झूठ कही, . जिन बंगलियोंने कलकत्तेसे उठाकर अंग्रेजोंकी राजधानी पर हमारे पास इसका जवाब नहीं है। नेता कहते हैं-बंगदिल्ली फेंक दी। बंग भंगका नशा उतार कर जिन्होंने जूतेसे नारिको सीताका श्रादर्श उपस्थित करनेको । मै पूछता हूं नाक काटकी, चटगांवके शस्त्रागारको लूटकर अंग्रेजोंके धाक सीताका वह कौन-सा श्रादर्श था, जो हिन्दु-ललनाएँ अमल की बुनियाद ढा दी, समूचे भारतमें बमों और पिस्तौलोंका में नहीं ला रही हैं। हिन्दु-नारियां तो आज उसी आदर्शपर आतंक फैलाकर शक्तिशाली गवर्नमेण्टकी छाती दहला ही चल कर अपनी सन्तानका भक्षण कर रही हैं। और जिसके एक सपूत 'सुभाष' ने नाकों चने चबा दिये, सीताको हरण करनेके लिये रावण साधुका वेश बनाकर आज उन्हीं बंगवीरों की माताएँ, बहनें और पुत्रियाँ क्यों पाया तो वही सीता जो पर-पुरुषसे एकान्तमें बात करना प्रातताइयों के बरोंमें चुपचाप आंसू बहा रही हैं ? बलवान पार समझती थी और अनेक दास दासियोंके समीप रहनेपर मार तो सकता है, पर जबरन बाँधकर नहीं रख सकता। भी अशोक वाटिकामें तिनकेकी श्रोट देकर रावणको प्रत्युत्तर
.. मनुष्य तो मनुष्य, भेड़-बकी.भी जबरन बाँधकर नहीं देती है उसी सीताने निर्जन बनमें एक पर-पुरुषसे बात करने रखी जा सकतीं, उनके मनमें ही जब दासता समा जाती का श्रादर्श उपस्थित किया ! लक्ष्मणको शंकित दृष्टिसे देखने है, तभी वह बँधी रहती हैं, अन्यथा वह ऐसा शोर मचाती वाली सीता उसकी बनाई रेखाके बाहर आई । और रावण हैं कि बाँधनेवाल। तो क्या, उसके पड़ोसियोंकी भी नींद के हरण करनेपर मौन सत्याग्रहका आदर्श उपस्थित किया। हराम हो जाती है। मनुष्य तो आखिर मनुष्य है। बचपनसे यही आदर्श तो श्राज हिन्दू नारियां उपस्थित कर रही हैं सुनते आये हैं कि चौपाया तो बाँधकर रखा भीजा सकता है, फिर भी उन्हें उपदेश दिया जाता है ! दोपाया नहीं। मगर अब तो इसके विपरीत हो रहा है। सीता शरीरसे अवश्य निर्बल थी, परन्तु उसके पास
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किरण ६-७1
कायरता घोर पाप है
[२५६
मकार
दांत और नख दोनों थे, चाहती तो रावणकी आंख बचाकर, होती और तब आतताई उनके पास मानेमें उसी तरह नोचकर काटकर, छीना-झपटी करके देर अवश्य लगा सकती भय खाते जैसे छडून्दरके पास पानेमें सांप भय खाता है। थी। तनिक भी इस तरहका साहस दिखाया होता तो शायद एक बार बनारस गया तो विश्वनाथजीका मन्दिर इतनेमें राम ही आ जाते। वनोंसे भील वगैरह ही रक्षार्थ दिखाते हुए पण्डा वहां ले गया जहां औरंगजेब द्वारा हिन्दू श्रा जाते और कोई भी न आता तो एक आदर्श तो बन मन्दिर तोड़ कर बनवाई हुई मस्जिद आज भी जाता, ताकि गुडिरोंकी तरह हिन्द नारियोंको उठाकर कोई हिन्दु जातिके सीनोंपर मेखकी तरह जमी हुई मौजूद नहीं ले जा सकता । परन्तु सीता तो उस कायरताबहु- . है । पण्डेने एक कूत्रा दिखाकर कहा, 'धर्मावतार ! यह रूपिणीके चकमे में आगई जो हमेशा अहिंसाकासा रूप बना- वही कुत्रा है जिसमें बाबा विश्वनाथ मुसलमानोंके छुनेके कर लोगोंको बुद्धिभ्रष्ट करके आपदाओं में डालती रहती है। सयसे कूद गये थे और आज तक वहीं मौजूद हैं। मैंने यदि उसके घेरे में सीता न पाई होती तो सीता लंकामें कुढ़कर कहा 'और तुम लोग उनके साथ क्यों नहीं गये, क्या जाकर भी अवसर पाकर रावणका बध कर सकती थी, महलों तुम्हें मुसलमानों के छूजानेका भय नहीं था। भला जिस में आग लगाकर अपहरणका स्वाद चखा सकती थी। पर, जातिको यह पाठ पढ़ाया जाता हो कि उनके ईश्वर भी नहीं वह गायकी तरह बधिकके कब्जे में रहकर केवल आंसू आतताइयोंसे भागते रहते हैं वह उनका डटकर कैसा बहाती रही।
मुकाबिला करेंगे, सोचनेकी जरूरत नहीं। एक हिन्दु हैं मगर सीताका यह आदर्श जटायुको पसन्द न आया जो हजारों मन्दिरोंकी बनी मस्जिदोंको बड़े चावसे अपने शायद इसीलिए समझादार लोगोंने इसे पक्षीतक कह दिया है। महमानोंको दिखाते हैं और एक सिक्ख हैं जो मुस्लिम जो भी हो, यह अन्याय उसके पुरुषत्वके लिये चुनौतीथा।यू मिनिस्ट्रीके होते हुए भी मस्जिदको गुरुद्वारा बना बैठे। सीतारामसे कोई राग और रावणसे उसे द्वेष न था । उसके । जब हम चलें तो साया भी अपना न साथ दे। सामने वो प्रश्न था किधर्म क्या है और अधर्म क्या है ? चुप- जब वह चलें तो जमीन चले आस्मां चले ॥-जलील चाप आतताईके अन्यायको सहन करना उसने अधर्म. और सीताका दूसरा आदर्श ये था कि वे साध्वी रहीं। आतताईको दण्ड देना, अत्याचारके विरोधमें उठना, नारीकी आज भी हिन्दू नारियाँ उसी आदर्शपर चल रही हैं। परन्तु रक्षा करना धर्म समझ कर वह रावणसे भिड़ गया! सीता और आजकी नारियोंके युगमें बहुत बड़ा अन्तर ये भिड़नेसे पूर्व जटायु भी यह जानता था कि हाथी और है कि रावण बलात्कारी नहीं था। श्राजके आतताई बलामच्छरकी लड़ाई है ? सीताको छुड़ाना तो दर किनार अपना कारी हैं। रावण बलात्कारी होता तब इस श्रादर्शकी भी सफाया हो जायगा । फिर भी वह जाँबाज रावणपर रूपरेखा क्या हुई होती, कुछ कहा नहीं जा सकता। टूट पड़ा। मरा तो, पर रावणको क्षत विक्षत करके। बंगालके उपद्रवोंपर जिन्होंने कहा था कि हिन्दु-मुस्लिम : पुरुषोंको यह पाठ पढ़ा गया कि खबरदार ! आततायी झगड़े ठीक नहीं। ताली दोनों हाथसे बजती हैं, अत: दोनों
कितना ही बलवान हो उसके अत्याचारका विरोध अवश्य सम्प्रदायोंके लोगोंको शांत रहना चाहिये । इस शरारत भरे - करना । आज शायद जटायुके उस पाठका ही परिणाम है वक्तव्यसे बदनमें प्राग-सी लग गई। घरको डाकू लूटते • कि लोग शांति शान्ति क्षमा-क्षमाके शोरमें भी अत्याचारका रहैं और रोते बिलखते घरवालोंको यह कहकर सान्त्वना विरोध करके अपना रक्त बहाकर जटायुका तर्पण करते दी जाय कि 'भाई आपसमें मत लड़ो, मेल मिलापसे रहो।' रहते हैं।
पूछता हूँ डाकुओंका क्या बिगड़ा जो हाथ लगा ले भागे, ___ यदि सीताने भी हरण होते हुए समय बल-प्रयोग मकान मालिक लुट गया और झगड़ालू भी करार दिया किया होता या लंकामें जाकर रावणको सोते हुए बध कर गया सो मुफ्तमें। दिया होता या महलोंमें आग लगा दी होती तो निश्चय यह तो वही बात हुई जैसे कई मुर्ख पत्रकार बैलगाड़ीही बाज हिन्दु-नारियोंके सामने एक निश्चित रूप रेखा हुई को ट्रेनसे किरचा-किरचा होती देख रेल-बैलगादी भिदना
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. [ वर्ष ८
लिख देते हैं।'
कर दिये गये। बिहारके शहीदोंके लिये कहा जा रहा हैक्या खुब? .
'जुगे हर बरस मेले शहीदोंके मजारोपर जब कोई जुल्म नया करते हैं फर्माते हैं।
और पूर्वी बालके लिए:- अगले वनोंके हमें तर्जे सितम याद नहीं ।
'जन मरे परवाने शमापर कोई पुरसा न था।'
मैं भी इस बक्रव्यका कायल हूँ, जो लबते.हुए मरता बंगालकी प्रतिक्रिया स्वरूप जटायुका श्रादर्श सममने है सचमुच बह शहीद होकर वीर-गतिको प्राप्त होता है। वाले विहारमें उपद्रव हुए तो जिन्हा फौरन पैतरा बदल- एक ऐतिहासिक घटना है :कर बोले, 'नहीं, बाज़ दफा एक हाथ दूसरे हाथपर अपने औरंगजेबके हुक्मपर जब उसके भाई दाराको बधिक भाप प्रडकर वाली बजा देता है।' पूर्वी बङ्गालमें हिन्दुओंका लोग करल करने पहुंचे तो वारा उस समय चाकूसे सेव छील नाश कर दिया गया, तब भी जिन्हाकी नजरोंमें उस तबाहीमें रहा था। बधिकोंको देखकर वह चाक लेकर खड़ा हो गया स्वयं बाली हिन्दुचों ही का दोष था। और बिहारमें पड़ने, और बोला-'भाभो आलिमों ! तैमूरका वंशज कुत्तोंकी बिहार शरीफ वगैरहमें महीनों पहलेसे मुसलमानोंकी तैयारी तरह न मरकर अपने पूर्वजोंकी तरह लबते हुए मरेगा।' हो रही थी, तो भी वहाँ केवल हिन्दु का अपराध धा। दारा पाचज करता हुआ मर गया। हपारे शास्त्रों और मुसलमान तो चाहे बङ्गालके हों या बिहारके बिचारे सीधे इतिहासमें इस तरहके अनेक उदाहरण भरे पड़े हैं। मगर साधे हैं। क्या खूब 'दूसरेके घरमें बगे तो पाग, अपने मनको इस तरहसे ढक या विकृत कर दिया गया है कि यहाँ हो तो बैसन्धर
कुछ भी तो स्पष्ट नहीं मालूम होता। और जो हमारे और जबानकी सफाई देखिये मुस्लिमलीगी 'पत्र डान' उपदेशक या दार्शनिक है न जाने कहाँ से देने कायरताके लिखता है-बिहारमें मुसलमान भायज्ञ बहुत कम हुए हैं, उदाहरण निकाल खाते है कि मानो इन्होंने अवतारही मरने वालोंकी तादाद कयाससे बाहर है। क्योंकि बिहारके हमारा नाश करनेको लिया है। मुसलमान जालिम हिन्दुओंका मुकाबला करते हुए हस्तामपर महात्मा गाँधीने पूर्वी बङ्गालके अपहरणकी घटनाओंशहीद हुए हैं। न मरने वाले मुसलमानोंने हमें बतला पर वक्रव्य दिया कि जबर्दस्ती परिवर्तनसे तो जहर खाकर दिया है कि इस्लामपर इस तरह जान कुर्बान किया करते मर जाला अच्छा है? क्यों जहर खा लेना अच्छा है? यही हैं। एक एक मुसलमान हजारों हिन्दुओंका मुकाबला करके तो आतताई चाहते हैं। काफिरोंसे पाक 'पाकिस्तान' और शहीद हुआ है।
सनकी धन दौलत । जहर खानेके बजाय उनके घरमें घुसअब देखिये मरनेवालोका भाग्य । विहारये जो हिन्दु. कर वह कृत्य क्यों नहीं करना चाहिए, जो रावणके घर भोको मारते पछाबते मरे वह तो सब शहीद हो गये। सीताको करना था। मगर बालके हिन्दु बगैर किसी मुसलमानको मारे उनके बिस्तीके भयसे कबूतर प्रांखें बन्द करते या आत्महाथसे मर गये वह जिबह हुप । मरे दोनों ही, मगर मृत्यु- हत्या बिल्जीका दोनों तरह लाभ है ! वह बाजकी तरह सन्युमें अन्तर है। वे युद्ध में मरकर बीरभातिको प्राप्त हुए, मपट कर उसकी ऑख्ने जबतक नहीं फोड़ देता खतरे में ये कसाइयोंके हाथसे जिबह होकर कीड़े-मकोड़ोंमें शामिल ही रहेगा।
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किरण ६-७]
बङ्गालके कुछ प्राचीन जैनस्थल
. .. (पृ०.२५६ का शेषांश) . .... (३) 'पर्याप्त' शब्दका द्रव्य अर्थ विवक्षित नहीं है जाय तो उस समय दोनों ही परम्पराएँ अपनी अपनी उसका भाव अर्थ विवक्षित है। पर्याप्तकर्म जीवविपाकी प्रगति करनेमें अग्रसर थीं । अतः उस समय यदि सचेल प्रकृति है और उसके उदय होनेपर ही जीव पर्याप्तक कहा पुरुष मूर्तियां भी निर्मित कराई गई हो तो आश्चर्य ही नहीं जाता है। है। दुर्भाग्यसे आज भी हम अलग हैं और अपनेमें अधिक- (४) पं० मक्खनलालजी शास्त्रीने जो भावस्त्रीमें तम दूरी ला रहे है और लाते जा रहे है । समय सम्यग्दृष्टिके उत्पन्न होनेकी मान्यता प्रकट की है वह स्खलित प्राये और हम तथ्यको स्वीकार करें, यही अपनी भावना और सिद्धान्तविरुद्ध है। स्त्रीवेदकी उदय व्युच्छित्ति दूसरे है। और यदि सम्भव हो तो हम पुनः अापसमें एक हो जावें ही गुणस्थानमें हो जाती है और इसलिये अपर्याप्त अवस्थामें तथा भगवान महावीरके अहिंसा और स्याद्वादमय शासन- भावनी चौथा गुणस्थान कदापि संभव नहीं है। को विश्वव्यापी बनायें।
(५) वीरसेन स्वामीके 'अस्मादेवार्षाद' इत्यादि कथनसे . उपसंहार
सूत्र में 'संजद' पदका टीकाद्वारा स्पष्टतया समर्थन होता है। उपरोक्त विवेचनके प्रकाश में निम्न परिणाम सामने (६) द्रव्यस्त्रीके गुणस्थानोंका कथन मुख्यतथा चरणापाते है:
नुयोगसे सम्बन्ध रखता है और षटखण्डागम करणानुयोग ५. (१) षट्खण्डागममें समय कथन भावकी अपेक्षासे है, इसलिये उसमें उनके गुणस्थानोंका प्रतिपादन नहीं किया गया है और इसलिये उसमें व्यस्त्रीके गुणस्थानोंकी किया गया है। द्रव्यस्त्रीके मोक्षका निषेध विभिन्न शास्त्रीय चर्चा नहीं पाई।
प्रमाणों, हेतुओं, पुरातत्वके अवशेषों, ऐतिहासिक तथ्यों (२)६३वे सूत्र में 'संजद' पदका होनानागमसे विरुद्ध प्रादिसे सिद्ध है और इसलिये षट्खण्डागममें द्रव्यस्त्रियोंके
और न युक्तिसे । बल्कि न होने में इस योगमार्गणा गुणस्थानोंका विधान न मिलनेसे, श्वेताम्बर मान्यताका सम्बन्धी मनुष्यनियोंमें १४ गुणस्थानोंके कथनके प्रभावका अनुषंग नहीं प्रासकता। प्रसंग, वीरसेन स्वामीके टीकागत संजद' पदके समर्थनकी प्राशासूत्रमें वें 'संजद' पदका विरोध न किया असंगति और राजवातिककार अकलंकदेवके पर्याप्त. जायगा और उसमें उसकी स्थिति अवश्य स्वीकार की मनुष्यनियोंमें १४ गुणस्थानोंको बतलानेकी असंगति आदि जाएगी। कितने ही अनिवार्य दोष सम्प्राप्त होते हैं।
बीरसेवामन्दिर, ता. ६-६-१६४६ . .
बंगालके कुछ प्राचीन जैनस्थल
(ले०-बा० ज्योतिप्रसाद जैन; एम. ए.)
नक्स आफ दी भंडारकर ओरियंटल रिसर्च इस्टी-व्य. वरन् कुखएक विशेष महत्वपूर्ण स्थानोंके इतिहासपर ही जिल्द नं० २६ का भाग ३-४ (संयुक्त) अभी हालमें संलिप्त प्रकाश डाला है। ही प्रकाशित हुभा है। उसके पृष्ठ १७७.पर डा.विमला लेखपरसे. प्राचीन काल में निम्न लिखित स्थानोंके परण बाका एक लेख "बंगालके प्राचीन ऐतिहासिक साथ जैनधर्मका सम्बन्ध व्यक्त होता है:पल" नामका प्रकट हुआ है। इस लेख में विद्वान लेखकने पहाड़पुरबंगदेशके सभी प्राचीन स्थानोंका विवेचन महीं किया है, इस नगरके ध्वंसावशेष बंगालके ज़िले राजशाहीमें,
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२६२
भनेकान्त
"
[वर्ष ८
नमकान्व
बी. ए. रेलवेथे जमालगंज स्टेशनसे तीन मील पश्चिमकी किंपुरुषों गंधवों, विद्याधरों, किसरों भादिकी मूर्तियाँ भी
और अवस्थित हैं। इसका प्राचीन नाम सोमपुर था। बंगाल के सुदी हुई मिलती है। पाल नरेशोंके समय, ८ वीं शताब्दी स्वीमें, यहाँ बौद्ध- सुन्दरबनविहार तथा तारादेवीके मन्दिर निर्माण हुए बताये जाते हैं। सुन्दरवनका वन्य प्रदेश, प्राचीनकालमें समतट अथवा यहाँके, खण्डहरोंकी दीवारोंपर पंचतन्त्र व हितोपदेशकी बागडी (ज्यावतटी) राज्यमें सम्मिलित था।सन ई की सातवीं कथाएँ, रामायण और महाभारतके दृश्य तया कृष्ण राधा शताब्दीमें, चीनी यात्री झेनसांगने इस 'समतर' प्रान्त में श्रादिकी मूर्तियों भी अंकित हुई पाई जाती हैं।
अनेक जैनमन्दिर देखे थे। किन्तु अभी तक उन प्राचीन ५ वीं "शताब्दी ईस्वीमें इस स्थान पहाड़पुर अपर मन्दिरोंका वहाँ कोई चिन्द नहीं मिला है।" नाम सोमपुरमें एक विशाल जैन मन्दिर अवस्थित था। कुछ चित्रित इंटें, खण्डित पाषाण मूर्तियोंके टुकड़े, महास्थानगढ़
स्कन्दगुप्त व कुशान राजा हुविष्कके सिके भादि पुटकर इसके "ध्वंसावशेष आधुनिक कस्बे बोगससे ७ मील वस्तुएँ उपलब्ध हुई हैं। उत्तरकी ओर पाये जाते हैं। कनिंघम साहबने इस स्थानको ताम्रलिप्तिप्राचीन नगर पुण्जवर्धनके रूपमें चीहा था, जिसका कि इसका प्रचलित नाम तामलुक है और यह स्थान नाम एक मौर्यकालीन जैन शिलाज्ञेम्बमें भी मिलता है। मिदनापुर जिलेमें अवस्थित है। महाकाव्यों, पुराणों तथा ४थीले ६ ठी शताब्दी ईस्वी तक यह स्थान गुप्त-साम्राज्यके बौद्ध ग्रन्थों में इस मगरके उल्लेख पाये हैं। थी शताब्दी एक प्रधान सूबेकी राजधानी था।.वीं शताब्दीमें चीनी ईस्वीपूर्वसे १२ वीं शताब्दी ईस्वी तक यह स्थान एक यात्री हनसांग यहाँ भाया था, और १२ वीं शताब्दीके प्रसिद्ध बन्दरगाह तथा व्यापारका भारी केन्द्र रहा था। पश्चात यह नगर गौणताको प्राप्त होगया।
चीनी यात्रियों-फ्राह्यान, इत्सिंग तथा बनसांगने यहाँकी इस स्थानसे जो पुरातत्व-संबंधी महत्वपूर्ण वस्तुएँ यात्रायें की थीं।
. प्राप्त हुई हैं उनमें एक प्राचीन खण्डित जैन मूर्ति भी यद्यपि विद्वान लेखकसे यह बात कूट गई है, परन्तु है। (यह स्थान अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु स्वामीकी प्राचीन जैन साहित्यमें भी इसी सामलिप्ति (तामलिति, जन्मभूमि थी)।
.. तामलिस्तिका, सामलिस्तिपुर). नगरके उल्लेख अनेक स्थलोंमैनामती तथा लालभाईकी पहाड़यां-
में आये हैं; जैसेकि प्राचार्य हरिषेणके वृहत् कथाकोषकी ये पूर्वी बंगालके तिप्पेरा जिले में, कमिला नगरसे कई कथाओंमें, जैनश्वेताम्बर प्रागमोंमें, प्राचीन कालके ६ मील पश्चिमकी ओर स्थित हैं। इस स्थानका प्राचीन २५३ देशोंकी सूचीके अन्तर्गत वंगदेशकी राजधानीके रूप में, नाम (७ वीं 5वीं शताब्दी ईस्वीमें) पट्टिकेरा था और यह इत्यादि । इन उल्लेखोंसे यह स्पष्ट सूचित होता है कि प्रसिद्ध 'समतट' प्रान्तकी राजधानी थी। उस कालमें बर्मा - प्राचीन कालमें जैनधर्मके साथ भी इस स्थानका विशेष
और अराकानसे भी इस स्थानका गहरा सम्बन्ध था। संबंध रहा है। यहाँके राजा चन्द्रवंशी थे। आख्यायिकाओंके प्रसिद्ध सिद्ध- चन्द्रनाथराजा गोपीचन्द्रकी माता तथा गुरु गोरखनाथकी चेली रानी चिटगाँव जिलेमें सीताकुडके निकट 'चन्द्रनाथ' और मैनावतीके नामपर ही इस स्थानका नामकरण हुआ 'सम्भवनाथ' के प्रसिद्ध प्राचीन मन्दिर हैं। इस समय ये प्रतीत होता है।
दोनों मन्दिर शिवके माने जाते हैं और इस प्रदेशमें शैवमत-' डा. ला महाशयके शब्दों में-"मैनावती स्थानसे . का जोर है। किन्तु उपयुक दोनों माम क्रमसे तथा प्राप्त जैन तीर्थङ्करकी पाषाणमयी दिमम्बर प्रतिमा ऐसा .३ रे जैन तीर्थङ्करों के हैं, जिनकी कि अनेक प्राचीन मूर्तियाँ सूचित करती है कि इस प्रान्त में जैनधर्मका विशेष प्रभाव भी मिलती हैं। क्या आश्चर्य है यदि मूलमें इन जैनरहा है।" यहाँके मन्दिरोंके खंडरोंकी दीवारोंपर यक्षों, तीर्थरोंसे ही उक्त स्थानका संबंध रहा हो।
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चारित्र्यका आधार [ संयम और निष्ठा ]
( ले०० - श्री काका कालेलकर )
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अपने जीवनको शुद्ध और समृद्ध बनानेकी साधना जिन्होंने की है, वे अनुभवसे कहते आये हैं कि "शाहारशुद्धो सवशुद्धिः" | इस सूत्र के दो अर्थ हो सकते हैं, क्योंकि सत्वके दो माने हैं--शरीरका संगठन और चारित्र्य । अगर आहार शुद्ध है, याने स्वच्छ है, ताजा है, परिपक्व है, सुपाच्य है, प्रमाणयुक्त है और उसके घटक परस्परानुकूल हैं तो उसके सेवन शरीरके रक्त, मज्जा, शुक्र श्रादि सब घटक शुद्ध होते हैं । वात, पित्त, कफ आदिकी मध्यावस्था रहती है और सप्तधातु परिपुष्ट होकर शरीर निरोगी, सुदृढ, कार्यक्षम तथा सब तरहके श्राघात सहन करनेके योग्य बनता है और इस श्रारोग्यका मनपर भी अच्छा असर होता है ।
“आहारशुद्धो सत्त्वशुद्धिः” का दूसरा और व्यापक अर्थ यह है कि आहार अगर प्रामाणिक है, हिंसाशून्य है, sोहशून्य है और यज्ञ, दान, तपकी फर्ज अदा करनेके बाद प्राप्त किया है तो उससे चारित्र्यशुद्धिको पूरी-पूरी मदद मिलती है । चारित्र्यशुद्धिका आधार ही इस प्रकारकी आहारशुद्धिपर है ।
अगर यह बात सही है, आहारका चारित्र्यपर इतना असर है, तो विहारका यानी लैंगिक शुद्धिका चारित्र्यपर कितना असर हो सकता है, उसका अनुमान कठिन नहीं होना चाहिये ।
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जिसे हम काम विकार कहते हैं अथवा लैंगिक आकर्षण कहते हैं, वह केवल शारीरिक भावना नहीं है । मनुष्यके व्यक्तित्वके सारे के सारे पहलू उसमें उत्तेजित हो जाते हैं, और अपना-अपना काम करते हैं। इसीलिये जिसमें शरीर, मन, हृदयकी भावनाएँ और धामिक निष्ठा - सबका सहयोग अपरिहार्य है, ऐसी प्रवृत्तिका विचार एकांगी दृष्टिसे नहीं होना चाहिये । जीवनके सार्व
भौम और सर्वोत्तम मूलसे ही उसका विचार करना चाहिये । जिस प्राचरणमें शारीरिक प्रेरणाके वश होकर बाकी सब तत्वोंका अपमान किया जाता है, वह श्राचरण समाजद्रोह तो करता ही है; लेकिन उससे भी अधिक अपने व्यक्तित्वका महान द्रोह करता है ।
लोग जिसे वैवाहिक प्रेम कहते हैं, उसके तीन पहलू हैं। एक भोगसे संबंध रखता है, दूसरा प्रजावन्तुसे और तीसरा भावनाकी उत्कटतासे । पहला प्रधानतया शारीरिक है, दूसरा मुख्यतः सामाजिक और तीसरा व्यापक अर्थ में अध्यात्मिक । यह तीसरा तत्व सबसे महत्वका सार्वभौम है और उसीका असर जब पहले दोनोंके ऊपर पूरा-पूरा पढ़ता है, तभी वे दोनों उत्कट, तृप्तिदायक और पवित्र बनते हैं ।
इन तीन तत्वों में से पहला तत्व बिल्कुल पार्थिव होनेसे उसकी स्वाभाविक मर्यादाएँ भी होती हैं । भोगसे शरीर क्षीण होता है । श्रतिसेवनसे भोग- शनि भी क्षीण होती और भोग भी नीरस हो जाते हैं। भोगमें संयमका प्रमाण जितना अधिक होगा उतनी ही अधिक उसकी उत्कटता होगी। भोगमें संयमका तत्त्व श्रनेसे ही उसमें अध्यात्मिकता श्री सकती है। संयमपूर्ण भोग में ही निष्ठा और परस्पर आदर टिक सकते हैं और संयम और निष्टाके बिना वैवाहिकजीवनका सामाजिक पहलू कृतार्थ हो ही नहीं सकता ।
केवल लाभ-हानिकी दृष्टिसे देखा जाय तो भी वैवाहिक जीवनका परमोत्कर्य संयम और अन्योन्य निष्टामें ही है । भोगतत्त्व पार्थिव है और इसीलिये परिमित है। भावना-तत्त्व हार्दिक और आत्मिक होनेसे उसके विकासकी कोई मर्यादा ही नहीं है।
आजकल लोग जब कभी लैंगिक नीतिके स्वच्छन्दका पुरस्कार करते हैं, तब वे केवल भोग-प्रधान पार्थिव अंशको ही ध्यानमें लेते हैं। जीवनकी इतनी पुत्र कल्पना
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ये ले बैठे हैं कि थोड़े ही दिनोंमें उन्हें अनुभव हो जाता है कि ऐसी स्वतन्त्रतामें किसी किस्मकी सिद्धि नहीं है और न सच्ची तृप्ति । ऐसे लोगोंने अगर उच्च आदर्श ही छोक दिया तो फिर उनमें तारक असन्तोष भी नहीं बच पाता। विवाह सम्बन्ध में केवल भोग-संबंधका विचार करने वाले लोगोंने भी अपना अनुभव जाहिर किया है
एतत्कामफल लोके यद्वयोः एक चित्तता । श्रन्यचित्तकृते कामे शवयोरिव संगमः ॥ यह एकचित्तता यानी हृदयकी एकता अथवा स्नेहग्रन्थी अन्योन्यनिष्ठा और अपत्यनिष्ठाके बिना टिक ही नहीं सकती। बदनेकी बात दूर ही रही।
संयम और निष्ठा ही सामाजिक जीवनकी सच्ची बुनियाद है । संयमसे जो शक्ति पैदा होती है, वही चारित्र्य का आधार है । जो आदमी कहता है —Jcan resist Ponything but temptatiun—वह चालियकी छोटी-मोटी एक भी परीक्षा उत्तीर्ण न हो सकेगा। इसीलिए संयम ही चालियका मुख्य आधार है।
·
अनेकान्त
चारित्र्यका दूसरा आधार है निष्ठा व्यक्ति के जीवनकी कृतार्थता तभी हो सकती है जब वह स्वतन्त्रतापूर्वक समष्टि के साथ श्रोत-प्रोत हो जाता है। व्यक्ति-स्वातन्यको सम्हालते हुये अगर समाज-परायणता सिद्ध करनी हो तो वह अन्योन्यनिष्ठा के बिना हो नहीं सकती और अखिल समाजके प्रति एकसी अनन्यनिष्ठा तभी सिद्ध होती है, जब श्रादमी ब्रह्मचर्य का पालन करता है, श्रथवा कम-से-कम वैवाहिक जीवन परस्पर दृढ़निष्ठासे प्रारम्भ करता . अन्योन्यनिष्ठा जब आदर्श कोटिको पहुंचती हैं तब वहींसे संधी समाज सेवा शुरू होती है।
[ वर्ष प
इस सब विवेचनका सार यह निकला कि "व्यक्रिगत विकासके लिये कौटुम्बिक समाधान के लिये, सामाजिक कल्याणके लिये और आध्यात्मिक प्रगति के लिये संयम और निष्ठा अत्यन्त आवश्यक है", और इसीलिये सामाजिक जीवनमें लैंगिक सदाचारका इतना महत्व है।
1
अब इस सदाचारका श्रात्यन्तिक स्वरूप क्या है, कौनसा स्वरूप तात्विक है और कोनसा साँकेतिक, यह विचार समय-समयपर करना पड़ता है । उसमें चन्द बातों में परिवर्तन भी आवश्यक हो, लेकिन इतना तो समझ ही लेना चाहिये कि लैंगिक सदाचारके बिना समाज-सेवा निष्ठाके साथ हो नहीं सकती ।
जिनका विकास एकांगी दुआ है अथवा जिनके जीवन में विकृति आ गई हैं, उनसे भी कुछ-न-कुछ, सेवा ली जा सकती है; लेकिन वे समाजके विश्वासपात्र सदस्य नहीं बन सकते । समाज निर्भयतासे उनकी सेवा नहीं ले सकता और ऐसे आदमीका विकास अशक्यप्राय होता है । उसकी प्रतिष्ठा नाममात्र की रहती है
विषय गम्भीर है। उसके पहलू भी प्रसंख्य है और इनका शुद्ध विचार करनेकी पात्रता प्राजके अपूर्ण समाजमें पूरी-पूरी है भी नहीं, तो भी इस विषयको हम छोड़ भी नहीं सकते। लीपा-पोतीसे काम नहीं चलता । केवल रूढिको सम्हालकर हम समाजको सुरक्षित नहीं रख सकते और अनेक रूढियोंका तुलनात्मक अध्ययन किये बिना और उनका सार्वभौम समन्वय किये बिना हम सामाजिक प्रगति भी नहीं कर सकते। इसीलिये समय-समयपर मनुष्य जातिको इस सवालकी चर्चा करनी ही पड़ती है ।
(मधुकर)
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धर्म और नारी (लेखक-बा० ज्योतिप्रसाद जैन, एम० ए०, एल-एल० बी) :
और पुरुष दोनों मिलकर ही मानवसमाजकी तिक, सामाजिक, आर्थिक कारणोंसे उक्त जातिमें बुद्धिमानों सुष्टि करते हैं, दोनों ही उसके प्राकृतिक, का प्रभाव, ज्ञान और विवेककी शिथिलता, तज्जन्य अनिवार्य, अभिन्न अङ्ग है। एकसे दूसरे प्रशान, अविवेक, रूढ़िवादिता एवं वहमोंका प्रस्तार-प्रभाव की पूर्णता और अस्तित्व है। दोनों ही बढ़ जाता है तो उस जातिके नैतिक पतनके साथ साथ समानरूपसे मनस्वी होनेके कारण प्राणि- धर्मके गौण बाह्य क्रियाकाण्डों और ढोगोंका प्राबल्य भी वर्गमें सर्वश्रेष्ठ कहे जाते हैं।
हो जाता है। विवेकहीन, विषयलोलुपी स्वार्थी धर्मगुरु और .. किन्तु जब मनुष्यजातिके सामाजिकजीवन, और विशे- धर्मात्मा कहलाने वाले समाज-मान्य मुखिया समाजका षतया स्त्रीपुरुष-संबंधपर दृष्टिपत किया जाता है तो यह वात नियन्त्रण और शासन करने लगते हैं, जीवनके प्रत्येक क्षेत्रमें सहज ही स्पष्ट होजाती है कि जीवनके सामाजिक, गजने- वे अपनी टाँग अड़ाते हैं और मदाखलत बेजा करते हैं। तिक, आर्थिक, धार्मिक, साहित्यिक श्रादि विविध क्षेत्रोंमें उनके प्रादेश ही धर्माशा होते हैं, वे जो व्यवस्था दे देते हैं प्रायः सर्वत्र और सर्व समयोंमें अधिकांशतः पुरुषवर्गका ही उसका कोई अपील नहीं। धर्मके वास्तविक कल्याणकारी प्राधान्य एवं नेतृत्व रहा है। इस बातका सर्वमान्य कारण तस्वों एवं मूलसिद्धान्तोंकी वे तनिक भी पर्वाह नहीं करते, भी सामूहिक रूपमें पुरुषजातिके शारीरिक एवं मानसिक जानबूझकर अक्सर उनकी अवहेलना ही करते हैं और दुर्बल शक्ति-संगठनका स्त्री-जातिकी अपेक्षा श्रेष्ठतर होना है। इस समाज मानसिक पराधीनताकी बेड़ियों में भी नकड़ पाता है। स्वाभाविक विषमताके फलस्वरूप जहाँ एक ओर पुरुषके स्वजाति पुरुषोंकी अपेक्षा अधिक भावप्रवण होने और स्वयं अात्मविश्गसमें महती वृद्धि हुई, उसकी उद्यमशीलता और में हीन का दृढ़ विश्वास (Inferiority complex) कार्यक्षमताको प्रोत्साहन मिला तथा उसका उत्तरदायित्व होने के कारण, अपने ही लिये अधिक अपमानजनक, कष्टकर बढ़ा, वहीं दूसरी ओर उसने अपनी सामूहिक, और जब अव एवं अकल्याणकार ऐसी उन धर्मगुरुप्रोकी आशाओंको सर मिला तब व्यक्तिगत शक्तिविशेषका भरसक अनुचित श्रद्धापूर्वक विना चचरा किये शिरोधार्य करने में सबसे लाभ उठाया तथा स्त्रीजातिपर मनमाने अन्याय एवं अत्या- अधिक उत्साह दिखाती है। और इसीलिये एक पाश्चात्य चार किये । उसके मस्तिष्कमें यह ठूसनेका अथक प्रयत्न · विद्वान् ने ठीक ही कहा है कि-"clergy have been किया कि वह पुरुषकी अपेक्षा हीन है, उसका स्थान गौण the worst enemies of women, whmen
बह पुरुष के प्राधीन है-आश्रित है, उसकी विषयतृप्ति are their best friends." अर्थात् धर्मगुरु स्त्रियोंके की-ऐहिक सुख भोगकी-एक सामग्री है, उसकी भोगेषणा सबसे बड़े शत्र रहे हैं और स्त्रियाँ उनकी सबसे बड़ी मित्र की पूर्तिका साधनमात्र है अथवा उसका अपना निजी स्वतंत्र रही है। फलस्वरूप किसी भी सभ्य, अर्धसभ्य, असभ्य, व्यक्तित्व और अस्तित्व ही नहीं. जो कुछ यदि है तो वह पाश्चात्य, पौर्वात्य, प्राचीन, अर्वाचीन मनुष्यसमाजका पुरुषके ही व्यक्तित्व और अस्तित्व में लीन होजाना चाहिये। इतिहास उठाकर देखिये, किसी न किर्मा समाजकी थोड़े वा
पुरुषकी नारी-विषयक इस जघन्य स्वार्थपरतामें उसका अधिक काल तक, उसके पुरुषवर्ग तथा वैसे धर्मगुरुओंने, सबसे बड़ा सहायक रहा है धर्म ! मनुष्य के जीवनमें धार्मिक चाहे किसी भी धर्मविशेषसे उनका संबंध क्यों न रहा हो. विवासका प्रमुख स्थान रहता आया है। और जब जब, स्त्रीजातिके प्रति अपनी तीन महिष्णुनाका परिचय दिया ही प्रातिविशेषके दुर्भाग्यसे, संयोगवश अथवा किन्हीं राजनै- है। उन सबने ही अपने अपने धर्मगुरुओंकी आड़ लेकर
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. अनेकान्त
[वर्ष
उसके प्रति अपना विद्वष और उसपर पुरुषजानिका सर्वा- बौद्ध भिक्षु सुमन वात्स्यायनके अनुसार बुद्धकालीन धिकार चरितार्थ किया है। उदाहरणार्थ:- . . समाज स्त्रियोंको इतनी हेय और नीच दृष्टसे देखता था कि
ईसाइयोंकी बाइबिल में नारीको सारी बुराइयोंकी जड़ सर्व प्रथम जब बुद्धकी मौसी और मातृवत् पालन पोषण (root of all evil) कहा है, ईसाई धर्मयाजकोंने उसे . करने वाली प्रजापति गौतमीके नेतृत्व में स्त्रियोंने संघमें शैतानका दरवाजा (Thou art the devil's शामिल होनेकी बुद्धसे प्रार्थना की तो उन्हें हिचकिचाहट gate!) कहकर पुकारा है। छठी शताब्दी ईश्वीमें ईसाई हुई। इसे स्त्रियोंके प्रति वुद्धकी दुर्भावना ही समझा जाता धर्मसंघने यह निश्चित किया था कि स्त्रियों में श्रात्मा नहीं होती। है। बुद्धने उन्हें पहले गृहस्थ ही में रहकर ब्रह्मचर्य और - इस्लाम धर्मकी कुरानमें स्त्रियोंका. ठीक ठीक क्या निर्मल-जीवन द्वारा अन्तिम फल पानेके लिये उत्साहित स्थान है, यह बात समझाकर बनलाना कठिन है ।हानवेक किया; बादको जब परिस्थितियोंसे विवश होकर भिक्षुणी
और रिकाट (Hornbeck. Ricaut) आदि ग्रंथ- संघ बनानेका आदेश भी दिए तो उसके नियमोंमें भिक्ष कारीका तो यह कहना है कि मुसल्मानोंके मतसे भी नारीके' संघ भेद भी किये, जिन्हें देशकाल अौर परिस्थितियोंके . श्रात्मा नहीं होती और नारियों को वे लोग पशुत्रोंकी तरह कारण श्रावश्यक बताया जाता है । बुद्ध ने भी. स्त्रियोंकी समझते हैं। उत्तर कालीन वैदिक धर्ममें स्त्रियोंको शास्त्र निन्दा की ही है और पुरुषोंको उनसे सचेत रहनेका श्रादेश सुनने तकका अधिकार नहीं है (यीन श्र तिनोचरा), दिया है। वस्तुत:. श्रीमती सत्यवती मल्लिकके शब्दोंमेंx मनु श्रादि स्मृतिकारोंने स्पष्ट कथन किया है कि स्त्रियाँ "जातक अन्यों एवं अन्य बौद्ध साहित्यमें अनेक स्थलोर जनने और मानव-सन्तान उत्पन्न करने के लिये ही बनाई नारीके प्रति सर्वथा अवांछनीय मनोवृत्तिका उल्देख है।" गई है। अन्य हिन्दु पौराणिक ग्रन्थीमें भी नारीको पतिकी बौद्धप्रधान चीनदेशकी स्त्रियोंकी दुर्दशाकी कोई सीमा नहीं है दासी, अनुगामिनी, पूर्णत: श्राज्ञाकारिणी रहने और और उन्हीं जैमी अवस्था नापानकी स्त्री जातिकी थी, किन्तु मन-वचन-कायसे उसकी भक्ति करने तथा उसकी भृ युार जापान अपनी स्त्रियोंका स्थान उसी दिनसे उन्नत कर सका जीवित ही चितापर जलकर सहमरण करनेका विधान किया जिस दिनसे अपनी सामाजिक रीति-नीतिके अच्छे बुरेका गया है। मध्यकालीन प्रसिद्ध हिन्दु धर्माध्यक्ष शंकराचार्यने विचार वह धर्म और धर्म-व्यवसाइयोंके चंगुलसे बाहिर नरकका द्वार (द्वारं किमेकं नरकस्य नारी) घोषित किया निकाल सका। है। और नीतिकारोंने तो 'स्त्रियश्चरित्रं पुरुषस्य भाग्य जैन-धार्मिक साहित्यकी भी. चाहे वह श्वेताम्बर हो देवा न जानन्ति कुतोमनुष्याः' कह कर उसके चारित्र- अथवा दिगम्बर, प्रायः ऐसी ही दशा है । श्वेताम्बर श्रागमको यहाँ तक संदिग्ध, रहस्मय अथवा अगम्य बतलाया है साहित्यके प्राचीन प्रतिष्ठित 'उत्तराध्ययन' सूत्र में एक कि- उसे मनुष्योंकी तो बात ही क्या, देवता भी जान स्थान पर लिखा है कि स्त्रियाँ राक्षसनियाँ हैं, जिनकी छातीपर नहीं पाते! . ....
...
दो मासपिण्ड 'उगे रहते हैं, जो हमेशा अपने विचारोंको * प्रजानर्थ स्त्रियः मष्टाः सन्तानार्थं च मानवाः (मनु -६६) बदलती र ती है, और जो मनुष्यको ललचाकर उसे गुलाम उत्पादनमपत्यस्य जातस्य परिपालनम् ।
बनाती है। इस सम्प्रदायके अन्य ग्रन्थों में भी एसे अनेक प्रत्यहं लोकयात्रायाः प्रत्यक्षं स्त्रिनिबन्धनम् ॥ (मनु०६-२७) उल्लेख मिलते हैं। पांचवें अङ्गसूत्र भगवतीके (शतक ३-७) + वृद्ध रोगबस जड़ धनहीना, अंध बधिर क्रोधी अति दीना। देवानन्द-यसंगमें चीनांशुक, चिलात और पारसीक देशकी
ऐसे हु पतिकर किये अपमाना, नारि पार्क जमपुर दुख नाना। दासियों का, ज्ञाताधर्मकथानके मेघकुमार-प्रसंगमें १७ एक धर्म एक व्रत नेमा, काय बचन मन पति-पद प्रेमा । विभिन्न देशोंकी दासियोंका तथा उइवाइ सूत्र में भी अनेक
देशोकी दासियोंका उल्लेख है। इसी भाँति दिगम्बर
(रामचरितमानस) २.विशील: कामवृत्तो वा गुणैर्वा परिवर्जितः।
साहित्य मी स्त्री निन्दा-परक कथनोंसे अछून नहीं रहा है। उपचर्यः स्त्रिया माध्च्या सततं देववत्पतिः ॥(मनु०५-१५४) x प्रेमीअभिनन्दनग्रंथ पृ० ६७२-(भारतीय नारीकी बौद्धिकदेन
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किरण ६-७ -]
वास्तव में संसार के प्रत्येक देश, जाति धर्म संस्कृति और सभ्यता के तीन इतिहास एवं वर्तमान वस्तुस्थित परसे ऐसे अनगिनत उदाहरण दिये जा सकते हैं जिनसे कि उनमें स्त्रीजातिपर पुरुष जाति के अत्याचार और अन्यायका प्रत्यक्षीकरण हो जाता है। क्या चीन भारत, चीन, मिश्र, बेबिलोनिया, सुमेरिया, यूनान और रोम, क्या अवीचीन युरोप, अमेरिका और एशिया अथवा अफ्रीका, अमेरिका, पूर्वी पश्चिमी द्वीपसमूहों तथा अन्य स्थानोंकी अर्धसभ्य, असभ्य जातियाँ सभीने धर्मतः, कानूनन अथवा रिवाजन, न्यूनाधिकरूपमें नारीको पुरुषकी सम्पत्ति, उसके स्वत्वाधिकारकी वस्तु और एक उपभोग्य सामग्री समझा है । और कोई भी धर्म इस बातंका दावा नहीं कर सकता कि - उसके किसी भी धर्मगुरुने कभी भी स्त्रियोंको पुरुषोंकी अपेक्षा ही नहीं समझा, उसकी उपेक्षा और निन्दा नहीं की ।
धर्म और नारी
किन्तु इतनेपर भी यह प्रायः देखने में श्राता है कि • प्रत्येक धर्म के अनुयायी दूसरे धर्मोकी निन्दा इस बातको लेकर करते हैं कि उनमें स्त्री जातिके प्रति श्रन्याय किया नया है । अपने धर्मकी विशेषताओं, अच्छाइयों और खूबियोंको संसारके सामने रखने में कोई दोष नहीं है, किन्तु यदि दूसरोंकी कोरी निन्दा और छीछालेदर कर के मुकाबले में स्वधर्म की श्रेष्ठता स्थापित करनेका प्रयत्न किया जाता है तो वई श्रवश्य ही अनुचित एवं निन्दास्पद कहा जायगा, और विशेषकर जबकि वैसी बुराइयोंसे अपना वह धर्म अथवा उसका साहित्य और संस्कृति भी अछूती न बची हो ! परन्तु हो यही रहा है। इस विज्ञापन- प्रधान युगकी विज्ञापनवाजी का प्रवेश धार्मिक और साहित्यिक क्षेत्रमें भी खूब कराया जारहा है । 'धर्मदूत' वर्ष ११ अंक २-३ पृष्ठ २३ पर एक बौद्धविद्वान्का लेख 'बुद्ध और नारीसमाज' शीर्षक से प्रकाशित हुआ है, जिसमें बौद्धेतर हिन्दु, जैन श्रादि धर्मो में नारीको दीनावस्था का दिग्दर्शन कराते हुए बौद्धधर्म में उसका स्थान अपेक्षाकृत श्रेष्ठ एवं न्यायपूर्ण सिद्ध करनेका प्रयत्न किया गया है। इसी प्रकार 'प्राचीनभारत' चैत्र १६६७ पृ० १५६ पर डा० एस० मुकर्जीका लेख 'जैनधर्ममें नारी ' का स्थान' शीर्षक से प्रकट हुआ था । विद्वान् लेखक ने स्वयं अजैन होते हुए भी यह लेख, संभवतया किसी साम्प्रदायिक
२६७
मनोवृत्ति से श्रभिभूत महाशयकी प्रेरणापर, श्वे नम्बर दृष्टिकोण से लिखा है । इस लेख में यह सिद्ध करनेकी चेष्टा की गई है कि जैनधर्मके श्वेताम्बर सम्प्रदाय की अपेक्षा दिगम्बर सम्प्रदाय बहुत अनुदार, संकीर्ण और अविवेकी है; क्योंकि उसमें स्त्रीमुक्तिका निषेध किया है, जबकि श्वेताम्बर संप्रदाय में उसका विधान है । लेखकने दिगम्बर सम्प्रदाय के संबंध में कितनी ही भ्रमपूर्ण, निस्सार एवं श्रयथार्थं बातें लिखकर अपने मतकी पुष्टि करनी चाही है । और प्रसंगवश, हिन्दूधर्म में नारीकी सम्मानपूर्ण श्रेष्ठताका भी प्रतिपादन कर दिया है !!
वास्तव में स्त्रीमुक्तिका प्रश्न जैनधर्मकी एक गौ सैद्धान्तिक मान्यतामात्र है इस मान्यताका प्ररम्भ और इतिहास बहुत कुछ अंधकार में है, और वर्तमान वस्तुस्थिति पर इसका कुछ भी असर नहीं पड़ता । किन्तु फिर भी इसी प्रश्न को लेकर दोनों सम्प्रदायों के बीच काफ़ी खींचतान और और एक प्रकारका कल्पित भेद खड़ा किया जाता है । दोनों ही सम्प्रदायोंके कितने हो विद्वान इस प्रश्न के पक्षविपक्षका प्रतिपादन करनेमें अपनी शक्ति और समयका व्यर्थ दुरुपयोग करते देखे जाते हैं। यूरोपीय तथा भारतीय श्रजैन विद्वानोंको जैनधर्मका जो परिचय दिया गया- और प्रारंभ में तथा अधिकांश में वह परिचय श्वेताम्बर बंधुयों द्वा दिया गया - उसमें भी उन्होंने प्रायः इसी बातपर जोर दियाकि श्वेताम्बर स्त्रीमुक्ति मानते हैं दिगम्बर नहीं मानते, दोनों सम्प्रदायोंमें यही मुख्य भेद है । श्रतः श्रजैन विद्वानों की जैनधर्म-सम्बन्धी रचनाओं में इसी मान्यताका विशेष रूप से उल्लेख मिलता है। जैन सिद्धान्त और साहित्यका गम्भीर अध्ययन करने के उपयुक्त साधनों और अवकाश के प्रभाव में इन संकेतोपर ही संतोष कर बैठे हैं ।
वस्तुत: दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही इस विषय में बिल्कुल एकमत हैं कि भगवान महावीर के निर्माण के ३-४ वर्ष बाद ही, जैनकालगणनानुसार, चौथे कालकी समाप्ति होगई थी। इसके बाद पंचमकाल शुरू हुआ जिसकी अवधि २१००० वर्ष है, उसके बाद २१००० वर्षका छठा काल श्रायेगा, फिर उतने ही वर्षोंका उत्सर्पिणीका छठा कल श्रायेगा, उसके पश्चात् उतने ही वर्षोंका पंचमकाल
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२६८.
. अनेकान्त
वर्ष ८
पायेगा और तत्पश्चात् चौथा काल चलेगा। अर्थात् गत लगभग एक हजार वर्ष बाद (५ वीं शताब्दी ईस्वीके चतुथकालकी समाप्ति और भावी चतुर्थकालके प्रारम्भके अन्तमें) हो गया था। उसके पश्चात विभिन्न भाषाबीचमें ८४००० वर्षका अन्तर है और मोक्ष चौथे काल में प्रोंमें- विविध-विषयक उच्चको टके विपुल जैनसाहित्यकी ही होती है। इसका यह अर्थ है कि पिछले कोई दाई हजार रचना हुई, जिसके प्रणयन और प्रचारमें जैनस्त्रियों और वर्षों में (ठक ठीक २४१० वर्ष में) किसी भी स्त्री या पुरुष पुरुषों सभीने योग दिया है। ने परममुक्ति प्राप्त नहीं की और न आगे करीव ८१५०. स्त्रीमुक्तिको मानने या न माननेसे भी उभय सम्प्रदायोंमें वर्ष नक वैसा करना संभव है। आज कोई भी व्यक्ति ऐसा नारीकी स्थितिपर कोई प्रभाव नहीं पड़ा है। श्राम्नाय-भेद नहीं है कि जो गत २५०० वर्षकी अपनी प्रमाणिक शृङ्खला रहते हुए भी श्वेताम्बर दिगम्बर दोनों सम्प्रदायोंका बद्ध वंशपरम्परा बता सके अथवा इस बातकी गारंटीकर सके सामाजिक जीवन, आचारविचार. रहन-सहन, रीति-रिवाज कि आगामी८१५०० वर्षतक उसकी वंशजपरम्परा अविच्छिन्न प्रायः एकसे हैं दोनोंके अनुयायियोंमें परस्पर श्रादानचलेगी। दोनों ही बातें मानवके सामित शानकी परिधि प्रदान, रोटी बेटी व्यवहार भी होता है। श्वेताम्बर सम्प्रदायमें के बाहर है, प्रागऐतिहासिकता, २अनागत सुदूर भविष्यकी। नारीकी स्थिति और अवस्था दिगम्बर सम्प्रदायकी अपेक्षा अतएव कोई भी व्यक्ति वर्तमानमें यह कह ही नहीं सकता किसी अंशमें भी श्रेष्ठतर नहीं रही है और न है। बल्कि है कि उसके अमुक निजी पूर्वजने मुक्ति प्राप्त की या वह दिगम्बर सम्पदायकी स्त्रियाँ ही ग्रायः करके अधिक सुशिस्वयं कर सकता है, अथवा उसका कोई भी निजी वंशज क्षित, सुसंस्कृत और धर्मपालनमें स्वतन्त्र रहती आई है, कर सकेगा। तब विवाद किस बातका?.और स्त्रीमुक्ति के और आज भी है। जबकि श्वेताम्बर गृहस्थ पुरुषोंको भी प्रश्नको.लेकर व्यर्थकी माथापच्ची किस लिये ? .... आगम ग्रन्थोके अध्ययन करनेकी मनाई है दिगम्बर . जहाँ तक प्रश्न प्रात्मकल्याणका है, आत्मोन्नति और ।
समाजकी स्त्रियाँ सभी सभी शास्त्रोंका अभ्यास करती हैं, श्रात्मीय गुणोंके विकासका है अथवा सच्चारित्र, सदाचार,
शास्त्रोपदेश भी देती है। श्रवण बेलगोलके शिलालेखोंसे टिपालनका मा
पता चलता है कि वे मुनिसंघों की अध्यापिका तक रही उसलोपर आचरण करके अपने और दूसरोंके लिये हाली. है+। श्वेताम्बर सम्प्रदायके प्रसिद्ध दार्शनिक रत्नप्रभाचार्यने किक सुख-शान्ति प्राप्त करने-कराने तथा अपना परमार्थ अपर
अपनी समकालीन दिगम्बर साध्वियोंके सम्बन्धमें स्वयं कहा सुधारने और अपने लिये मुक्तिका मार्ग प्रशस्त करनेका है * कर्णाटककी कान्ति नामक दि. जैन-महिला-कवि छन्द, वह जैनधर्मके अनुसार, आज भी प्रत्येक व्यक्ति, चाहे अलङ्कार, काव्य, कोष, व्याकर आदि नाना ग्रन्थों में वह स्त्री हो या पुरुष दिगम्बर हो या श्वेताम्बर, जैन हो या कुशल थी। बाहुबलि कविने इसकी बहुत बहुत प्रशंशा अजैन, समान रूपसे अपनी अपनी शक्ति और रुचिके करके इसे 'अभिनव वाग्देवी' की पदवी दी थी। द्वारअनुसार पूरी तरह कर सकता है। कोई भी धार्मिक मान्यता समुद्रके वल्लालराजा विष्णुवर्धनकी सभामें महाकवि पंप उसमें बाधक नहीं, और न धर्मानुकूल कोई रिवाज या और कान्तिका विवाद हुआ था। कन्नड़-कवि-चक्रवर्ती सामाजिक नियम ही उसमें किसी प्रकारकी रुकावट डालता रनकी पुत्री अतिमम्बे भी परम विदुषी थी. उसीके लिये है। जैनधर्मका इतिहास, जैन समाजकी जीवनचर्या और रन्नने अजित पुराणकी रचनाकी थी। सेनापति मल्लपकी जैनसाहित्य इसके साक्षी है । दिगम्बर जैनागम ग्रन्योंका । पुत्री अत्तिमन्बेने उस युगमें जबकि छापेका अष्किार नहीं संकलन और लिपिबद्ध होना तथा उनके स्वतंत्र धार्मिक हुआ था, पोनकृत शान्तिपुराणकी १०.. हस्त लखित साहित्यकी रचनाका प्रारंभ भगवान महावीरके निर्माणके प्रतिलिपियें कराकर वितरणकी थीं। इस प्रकारके और भी लगभग ५०० वर्षके भीतर ही (प्रथम शताब्दी ईस्वी पूर्वमें) अनेक उदाहरण जैनइतिहासपरसे दिये जा सकते हैं। होगया था और श्वे. जैनागम साहित्यका भी संकलन व + प्रेमी अभिनन्दन ग्रं० पृ० ६८६; तथा जैन शिलालेखलिपिबद्ध होना तथा स्वतन्त्र ग्रन्थरचनाका प्रारम्भ उनके संग्रह २३, २७, २८, २९, ३५...
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किरण ६-७]
धर्म और नारी
२६६
है कि कई परिव्रामकाएँ सिर मुंडन कर, मोरपंख बना सकता है। और ये बातें स्त्री तथा पुरुष दोनोंके लिये.. और कमंडुल लिये तपस्या किया करती थीं। उनके पर्यटन समान रूपसे लागू होती है । जैनाचार्योने 'वस्तु के स्वभाव' और स्वतंत्र विहारमें कोई रुकावट न थी, जबकि श्वेताम्बर को धर्म कहा है अर्थात् जो जिस चीनका स्वभाव होता श्रार्थिकाएँ प्राय: उपाश्रयो में ही रहती हैं।
है-उसका निजी गुण होता है-यही उसका धर्म है। वास्तवमें. आज जितना धर्मसाधन, श्रात्मकल्याण प्रात्माकी जो असलियत है, उसके जो परानपेक्ष वास्तविक और अपने व्यक्तित्वका विकास एक पुरुष कर सकता है निजी गुण हे वही सब उसका धर्म है, उसकी मौजूदगीमें उतना ही एक स्त्रा भी कर सकती है, इस विषयमें दोनों ही ही उसे सच्चा सुख, शान्ति और स्वतन्त्रता प्राप्त होती है। सम्प्रदायोंमें कोई मतभेद नहीं है। और साथ ही एक जिन लरियोंके द्वारा या जिस मार्गपर. चलकर अात्म्म. पुरुष भी यदि वह कुशाल है, चाव्यिहीन है । अपन अपने उस असली स्वभावको प्राप्त होता है व्यवहारमें, अपाहज या शक्ति-सामर्थ्यहीन है तो वह भी कभी सर्वोच्च उस मार्ग या करियोंको ही.धर्म कहते हैं। स्वामी ममन्तपदकी प्राप्ति उसी जीवन में नहीं करसकता. इस कार्यकी भद्राचार्यके अनुसार इस धर्मका कार्य प्राणियोश्रो दुःखसे सफलताके लिये तो सर्वाङ्ग सर्वश्रेष्ठ शारीरिक मानसिक निकालकर सुखमें धारण करना *। स्त्री और पुरुष संगठन तथा सर्वोत्तम चारित्र, पूर्ण वीतरागताका होना दोनोंकी ही आत्माएँ समान हैं, उनके श्रामीक गुण और अत्यन्त आवश्यक है।
स्वभाव बिल्कुल यकमाँ हैं, उनमें तनिकसा भी अन्दर जहाँ तक धर्मसाधन और स्त्री-पुरुष सम्बन्धका प्रश्न
नहीं होता। दु:ख और सुखका अनुभव तथा दुःखसे बचने है, उस विषयमें किसी अन्य धर्मने स्त्री पुरुषके बीच कोई
और सुख प्राप्त करनेकी इच्छा भ दोनों में बर बर है अपने भेद भले ही किया हो, किन्तु जैनतीर्थरों और धर्माचार्याका घम
धर्म अर्थात् स्वभावको हासिल करने का दानों को समान ... दृष्टिकोण सदेवसे बहुत ही उदार एवं साम्यवादी रहा है। मांधकार है, और उस धमके साधनमें दोनों ही समान उन्होंने मोक्ष प्राप्तिका अाधार किसी व्याक्त या शक्ति विशेष
रूपसे स्वतन्त्र है। ऐसी जैनमान्यता है. और इसमें दिगम्बर
का की अनुकम्पा, अनुग्रह अथवा प्रसन्नताको नहीं रक्खा. "
और श्वेताम्बर दोनो ही सम्प्रदाय पूर्णतया एकमत हैं।.. वरन् प्रत्येक व्यक्तिके अपने स्वयं के किये को, पुरुषायों
धमके श्रादिप्रयतेक प्रथम जैन तर्थकर भगवान और आचरणोंके ऊपर उसे अवलम्बित किया है । इस
ऋषभदे ने भोगप्रधान अज्ञानी मानव समाजमें सभ्यताका सिद्धान्तके अनुसार प्रत्येक व्यक्ति स्वोपान्ति कर्मके अनुरूप
सर्व प्रथम संचार किया था, उन्होंने उसे कर्म करने के लिये ही अपनी भावी अवस्था और स्थितिका स्वयं ही निर्माण
प्रोत्साहित किया, विविध शिल्पों और कलाश्रोकी शिक्षा करता है। उसका भविष्य और उस भविष्यका बनाना
दी, सामाजिक और राजनैतिक व्यवस्था स्थापतकी। उन बिगाडना उसके अपने प्रार्धन है, दूसरे वि.सीका उसमें
श्रादिपुरुषने अपने अनेक पुत्रोंके साथ साथ अपनी दोनों कोई दखल नहीं । इतना ही नहीं, वह सद्धर्माचरण,
पुत्रियों ब्राझी और रन्दरीको भी विशेषरूपसे शिक्षा-दीक्षा तप-संयम, तथा कंधादि कषायोंकी मन्दतारूप अपने
दी थी। कुमारी ब्रह्मा के लिये ही सर्वप्रथम लिपिकलाका . वर्तमानमें किये सदुद्योगों द्वारा पूवोपार्जित दुष्कमौके प्रशभ आविष्कार किया था. और इसीलिये भारतवर्षकी प्राचीनतम फलमें भी परिवर्तन कर सकता है. कभी कभीके पिछले
लिपि 'ब्राझी' कहलाई-ऐसी जैन अनुश्रुति है। दिगम्बर बंधे कौका भी नाश कर सकता है, और अपने लिये अन्योमें उल्लेखित चक्रवति नरेशोंकी पलियाँ इन्न शक्तिमुक्तिका मार्ग प्रशस्त कर सकता है। अहिसाके स्व-पर- मती हती थीं कि वे अपनी कोमल अंगुलियोसे वज्रसदृश हितकारी प्राचरणसे और स्याद्वादात्मक अनेकान्त दृष्टिसे रत्नों (हरि जवाहरात आदि) को चूर्ण करदेती थीं और उत्पन्न सहिष्णुता और सहनशीलतासे वह न सिफ अपने अपने पतियोंकी विजययात्राके उपलक्षमें उस चरों से व्यक्तिगत जीवनको ही वरन् समस्त सामाजिक एवं राष्ट्रीय चौक पूरती थीं । ब्राह्मी, अंजना, सीता, मैना, राजुल, अन्तरराष्ट्रीय जीवनको भी सुख और शान्ति पूर्ण अवश्य ही * संसार दुःखतः सत्त्वान् यो धरत्युत्तमे सुखे।-र.क.अ. १.२.
स्वयंके किया
। इस
म संचार किया
और कलाला
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२७०
सुलोचना, चन्दना, चलना श्रादि श्रनेक सती साध्वी, श्रादर्श गृहस्थ तथा दीक्षा के पश्चात् परम तपस्विनियोंकी यशोगाथासे जैनपुराण व चारित्र ग्रन्थ भरे पड़े हैं। इन देवियोंने अपना स्वयंका ती कल्याण किया ही, अपने सम्पर्कमं श्रानेवाले अनेक पुरुषोंका भी उद्धार किया है। जब उन्हें वैराग्य हुआ और उन्होंने श्रात्मसाधन करनेकी ठानी तब ही पांत, पुत्र, परिजन, घर सम्पत्ति, भोग ऐश्वर्य सब ठुकराकर, तपस्विनी बन वनका माम लिया; पतिका कोई अधिकार या राज्य अथवा समाजका कोई कानून उन्हें ऐसा करनेसे न रोक सका ।
एतिहासिक काल में ही, जैसा कि एक विद्वानका कथन हे*, हमारे देश में जब उन्नति हो रही थी तब स्त्रियोंका खूब आदर था और वे शिक्षिता थीं। भगवान महावीर के पिता अपनी पत्नीका कैसा श्रादर करते थे यह निम्न श्लोकसे रुष्ट है:
आगच्छन्ती नृपो वीक्ष्य प्रियां संभाष्य स्नेहतः । मधुरैर्वचनैस्तस्यै ददो स्वार्धासनं मुदा ॥
अर्थात् - राजा (सिद्धार्थ) ने अपनी प्रियाको दर्बारमें नाते देखकर उनसे मधुर वाक्यांमें प्रेमपूर्वक श्रालाप किया और प्रसन्न होते हुए उन्हें अपना श्राषा सिंहासन बैठनेको दिया, जिसपर वे जाकर बैठीं ।
अनेकान्त
स्वयं भगवान महावीरने अपने ६ महीने के उपवास के पश्चात् जो पारणा किया (आहार ग्रहण किया) वह बेड़ियों में जकड़ी अति दान दीन चन्दनांके अधकचरे साबुत उड़दों जैसे तुच्छ खाद्यका था। अनेक राजा एवं धनिक श्रेष्ठी उन्हें उस समय श्रेष्ठ सुस्वादु भोजन करानेके लिये लालायित थे ! भ० महावीरने स्त्रियोंको जिनदीक्षा देने में म० बुद्ध जैसी हिचकिचाहट नहींकी सती चन्दनबालां के नेतृत्वम, मुनिसंघ के साथ ही साथ, श्रार्थिकासंघका भी निर्माण किया । वास्तव में जैनायिकासंघका यह निर्माण बौद्ध भिक्षुणी संघसे पहिले हो चुका था। भ० महावीर के अनुयायियों में मुनियों की अपेक्षा आर्यिका श्रोंकी और श्रावकोंकी अपेक्षा भाविकाची संख्या कई गुनी अधिक थी+। * जैन हितैषी वर्ष ११ अंक ३ पृ० १८६ + अनेकान्त वर्ष ३ कि० १ पृ० ४५ सौ० इन्दुकुमारीका लेख 'वीरशासन में स्त्रियोंका स्थान' ।
[ वर्ष ८
उनकी समवसरण सभा में स्त्री पुरषोको साथ साथ बैठकर धर्मोपदेश सुनने और अपना २ श्रात्मकल्याण करनेका
समान अवसर प्राप्त था।
व्यवहारिक दृष्टिसे, जैनस्त्रियोने धार्मिक तथा लौकिक दोनों ही क्षेत्रों में अपनी हीनताका अनुभव कमसेकम जैनधर्मके कारण कभी नहीं किया । मध्यकालीन भारत में, विशेषकर दक्षिण प्रान्त में जहाँकि उस युग में जैन धर्मका प्रभाव एवं प्रचार था जैन स्त्रियोंने स्वयं राज्य किया, राज्यकार्यमें अपने पति पुत्रादिकोंको सक्रिय सहयोग दिया, सैन्यसन्चालन किया, ग्रन्थ निर्माण किये कराये, साहित्य प्रचार किया, धर्मप्रचार किया, मन्दिर श्रादि निर्माण कराये, धर्मोत्सव और प्रतिष्ठ यें कराई, श्राचिका और आर्यिका संघका नेतृत्व किया. अध्यान किया, उपदेश दिये, तपस्याएँकी, समाधिमरण किये इत्यादि । जैन धर्म अनुसार, पत्नी अपने पति के धर्मकार्यो और पुण्य प्रवृत्तियों में तो सहायक हो सकती हैं किन्तु वह उसके श्रधर्माचरण और पास प्रवृत्तियो में सहयोग देने या उनमें उसका अनुगमन करनेके लिये कनई बाध्य नहीं है । बिल्वमंगल जैसे उदाहरण जैन संस्कृतिमें नहीं मिलेंगे श्रौर x (i) Dr. Saletore -- Mediaeval Jainism,
ch. V-'Women as defenders of the Faith'.
(ii) Dr. B. C. Law-Distinguished
men and women in Jainism'Indian Culture Vol. Il & III. (iii) श्री त्रिवेणी प्रसाद - 'जैन महिलाओं की धर्मसेवा'जै० सि० भा० ८-२ पृ० ६१
(iv) पंडित चन्दाबाई जैन धर्मसेविका प्राचीन जैनदेवियाँ - प्रे० अ० ग्रंथ पृ० ६८४
(v) मथुरा के प्राचीन जैनपुरातत्व में अनेक जैन महिलाओंकी जिनमें गणिकायें तक भी सम्मिलित है, धर्मसेवा के उल्लेख मिलते हैं ।
(vi) सागर और मलयाचल के बीच, दक्षिणस्थ वेणूर देश में जिलवंशकी जैनरानी पदुमला देवीने सन् १६८३ से १७२१ तक राज्य किया- श्रनेकान्त २-७ पृ० ३८४
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किरण ६-७]
धर्म और नारी
२७
पति के लिये सहमरण करनेको तो जैनधर्म में महापातक में सन् ईस्वी पूर्वक प्रथम शताब्दीमें होने वाले प्राचार्य माना है । यहाँ स्त्री पतिकी सम्पत्ति नहीं है और न उसके शिवार्यने स्पष्ट कथन किया है किभोगकी सामग्री मात्र ही उसका स्वयंका दायित्व भी है पर कहे हए दोष स्त्रियों में हैं, उनका यदि पुरुष
और उमका उत्तराधिकार भी स्वतन्त्र है। वह अपने किसानो से भयानक दीखेंगी और उसका घरकी स्वामिनी है, और अपना नैतिक उत्कर्ष एवं प्रात्म- चित्त उनसे लौटेगा ही। किन्तु नीच स्त्रिों में जो दोष हैं कल्याण करने में किसीकी अपेक्षा नहीं रखती। जैनधर्म में
वे ही दोष नीच पुरुषों में भी रहते हैं, इतना ही नहीं, कन्या हिन्दु धर्मकी भाँति रान देनेकी वस्तु भी नहीं है। स्त्रियों की अपेक्षा उनकी अन्नादिकोंसे उत्पन्न हुई शक्ति जैन विवाहपद्धति के अनुमार कन्यादान नहीं किया जाता,
अधिक रहनेसे उनमें स्त्रियोंसे भी अधिक दोष रहते है। उसमें कन्या द्वारा पतिका वरण ही होता है, और उसके
शीलका रक्षण करनेवाले पुरुषों को स्त्री जैसे निदनीय अर्थात् साथ सप्तपदीके रूपमें कुछ शर्ते भी होती हैं जिनके पालन
त्याग करने योग्य है वैसे ही शीलका रक्षण करने वाली करनेकी वरको प्रतिज्ञा करनी पड़ती है। इसप्रकार जैन
स्त्रियोंको भी पुरुष निदनीय अर्थात् त्याज्य हैं । संसार संस्कृति में नारीका स्थान सुनिश्चित् एवं सम्मानपूर्ण है।
शरीर भोगोंसे विरक मुनियों के द्वारा स्त्रियाँ निन्दनीय मान।
गई हैं, तथापि जगतमें कितनी ही स्त्रियाँ गुणातिशयसे अात्मसाधनके हित संसार शरीर और भोगोंसे विरक्त होनेका उपदेश सभी धर्मोंके प्राचार्योने दिया है, और
· शोभायुक्त होने के कारण मुनियोके द्वार भी स्तुति योग्य दुई स्त्री जाति के भी पुरुषके इन्द्रिय भौगोंका एक प्रधान साधन
हैं, उनका यश जगतमें फैला है, ऐसी स्त्रियाँ मनुष्य
लोकमें देवताके समान पूज्य हुई हैं, देव उनको नमस्कार होने तथा नारीके प्रति उसकी विषयासक्तिके उसकी आत्म
करते हैं। तीर्थकर चक्रवर्ती नारायण बलभद्र और गणधराकल्याणमें रुचि होने के मार्गमें एक भारी रुकावट होने के
दिकोंको जन्म देने वाली स्त्रियाँ देव और मनुष्योंमें जो कारण श्रात्मार्थी पुरुषके लिये उसे घणित, निन्दनीय एवं त्याज्य प्रदर्शित किया है। ठीक इसी वृत्तिसे प्रेरित होकर,
प्रधान व्यक्ति हैं उनके द्वारा बन्दनीय होगई है। कितनी निवृति प्रधान जैनधर्मके ब्रह्मचर्यव्रतधारी, निस्पृह, अपरि
ही स्त्रियाँ एक पतिव्रत धारण करती है, कितनी ही आजन्म
अविवाहित रहकर निर्मल ब्रह्मचर्यव्रत धारण करती हैं, ग्रही, शानध्यानतंप लीन निग्रंथ साधुश्रोने श्रात्मकल्याण
कोई कोई स्त्रियाँ वैधव्यका तीव्र दुःख भी श्राजन्म धारण साधनमें स्त्रीप्रसंग द्वारा होने वाले दोषों और वाघानीर
करती हैं। शीलव्रत धारण करनसे कितनी स्त्रियों में शाप प्रकाश डाला है, और प्रसंगवश स्त्रीजातिकी बहुत कुछ निन्दा भी की है। किन्तु इसपर भी, इन जैनाचार्योंकी
देने ओर अनुग्रह करनेकी भी शक्ति प्राप्त होगई थी, ऐसा एक भारी विशेषता कह रही है कि कथन करनेकी भाषा
शास्त्रोंमें वर्णन है देवताओंके द्वारा ऐसी स्त्रियों का अनेक संबंधी सुविधा के लिये ही ऐसे कथन प्रायः पुरुषपक्षसे
प्रकारसे महात्म्य भी दिखाया गया है। ऐसी महाशीलवनी किये गये हैं और इसीलिये उनमें विपक्षी स्त्रीजातिके
स्त्रियोंको जलप्रवाह भी बहाने में असमर्थ हैं. अग्नि भी संसर्गकी निन्दा की गई है, किन्तु उक्त कथन समान रूपसे
उनको जला नहीं सकती, शीतल हो जाती है, ऐसी स्त्रियोंको
सर्प व्याघ्रादि प्राणी भी नहीं खा सकते और न अन्य स्त्रीपक्षमें पुरुष जातिके लिये भी उपयुक्त समझने चाहिये।
स्थानमें उठाकर फेंक सकते हैं। सम्पूर्ण गुणोसे परिपूर्ण उदाहरणार्थ, दिगम्बर जैनाचारके प्रसिद्ध प्राचीन ग्रंथ
श्रेष्ठ पुरुषों में भी श्रेष्ठ तद्भवमोक्षगामी पुरुषोंको कितनी ही 'भगवती आराधना' (श्राश्वास ६, गाथा ६६१-१००२)
। शीलवती स्त्रियांने जन्म दिया है। मोहके उदयसे जीव • Also see Prof. Satkori Mukerji's कुशील बनते हैं, मलिन स्वभावके धारक बनते हैं, और
article-The status of women in यह मोहका उदय सब स्त्रीपुरुषोंमें समान रीतिसे है। जो पीछे • Jain religion" और जैनधर्मेर नारी स्थान, रूपनन्दा स्त्रियोंके दोषोंका वर्णन किया है वह श्रेष्ठ शीलवती स्त्रियोंपौष १३४४
के साथ सम्बंध नहीं रखता अर्थात् वह सब वर्णन कुर्शल
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अनेकान्त
[वष
-
स्त्रियोंके विषयमें ही समझना चाहिये, क्योंकि शीलवती इतनेपर भी, इस विषय में सन्देह नहीं है कि पुरुषजाति स्त्रियाँ गुणोंका पञ्ज स्वरूप ही हैं, उनको दोष कैमे छू ने धम जैसी पवित्र और सर्वकल्याणकारी वस्तु के नामपर सकते हैं।"
भी स्त्री जाति के साथ अन्याय किये ही हैं। वस्तुत:, जैमा - अपराजित सूर (5 वीं शताब्दी ), प्राचार्य कि वंगीय साहित्य महारथी स्व. शरत् बाबूने कहा हे*जयनन्दि (१० वीं शताब्दी) पं. श्राशाधरजी (१३ वीं 'समाजमें नारीका स्थान नीचे गिरनेसे नर और नारी दोनों शताब्दी) इत्यादि विद्वानोंने शिवार्यके उपर्यत कथनका का ही अनिष्ट होता है और इस अनिष्टका अनुसरण करनेसे समर्थन किया है। जैन योगके प्रसिद्ध ग्रन्थ ज्ञानार्णवमें समाज में नागका जो स्थान निर्दिष्ठ हो सकता है. उसे प्राचार्य शुभचन्द्र ने कहा है - 'बाह! इस संसार में अनेक समझना भी कोई कठिन काम नहीं है । समाजका अर्थ है सिमाजोपासा नर और नारी। उसका अर्थ न तो केवल नरही है और न और शीलसंयमसे भूषित हैं तथा अपने वंशमें तिलक भूत
केवल नारी ही है।" तथा "सुसभ्य मनुष्यकी स्वस्थ संयत है, उसे शोभायमान करती हैं तथा शास्त्राध्ययन और तथा शुभबुद्धि नारीको जो अधिकार अर्पित करने के लिये मत्यभाषणसे अलंकृत है।' तथा 'अनेक स्त्रियाँ ऐसी कहती है वही मनुष्यकी सामाजिक नीति है, और इसे जो अपने सतीत्व, महत्व, चारित्र, विनय और विवेकसे
समाजका कल्याण होता है। समाजका कल्याण इस बातसे इस पृर्श्वतलको भूषित करती हैं।' 'महापुराण में जिनसेन नही होता कि
नहीं होता कि किसी जातिकी धर्मपुस्तकमें क्या लिखा स्वाम:ने गुणवनी नारीको स्त्री सृष्टि में प्रमुखपद प्राप्त करने हार क्या न
isो है और क्या नहीं लिखा है।" सामाजिक मानवके संबंधों गली बताया है (नारी गुणवती धत्ते स्त्रीसृष्टिर ग्रिमं पदम्)। एक श्रग्रज विद्वानका उात गुणभद्राचार्य कृत 'श्रात्मानुशासन' की टीकामें. अनुदार "Perhaps in no way is the moral एवं स्थितिपालक कहे जाने वाले दल के एक प्राधु नक
progress of mankind more clearly
1947 917 shown than by contrasting the posiविद्वानका कथन है कि+-'...पुरुषर्षाका मुख्य मानकर 'tion of women among savages with उनको संबोधन कर यह उपदेश दिया गया है किन्तु स्त्रीके their position among the most लिये जब यह उपदेश समझना हो तब ऐमा अर्थ करना advanced of the civilized." अर्थात् असभ्य चाहिये कि स्त्रियाँ कुत्सत व्यभिचारी पुरुषोंके संबंधसे वहशी लोगोमें स्त्रियोंकी जो अवस्था है तथा समसमाजके व्यसनोंमें श्रासक्त होकर अात्महितसे वंचित रहती हुई सर्वाधिक उन्नत लोगोंमें स्त्रीजातिकी जो स्थिति है, उसकी अनेक पाप संचित करके क्या नरकोंमें नहीं पड़ती ? अवश्य तुलना करनेसे. मानवजातिकी नैतिक उन्नतिका जितना पड़ती है, और उनको नरकों में डालने में निमित्त वे पुरुष स्पष्ट और अच्छा पता चलता है उतना शायद किसी अन्य होते हैं। इसलिये वे पुरुष उन्हें नरकके घोर दुःखों में प्रवेश प्रकारसे नहीं हो सकता । अस्तु, मानवकी सभ्यता, सुसंस्कृति कराने के लिये उघड़े हुए विशाल द्वारके समान हैं। ....... शिष्टता और विवेककी कसौटी स्त्रीजातिके प्रति उसका गृहधर्ममें स्त्रियों के द्वारा पुरुषोंको जो अनेक उपकार मिलते व्यवहार और परिणामस्वरूप स्त्रीजातिकी सुदशा है। हैं उनके बदलेमें वे पापी पुरुष हैं कि जो उनको नरकोंमें वर्तमानमें, मनुष्यके लिये अपमी २ समाज, जाति और डालकर उनका अपकार करने वाले हैं।'
वर्गकी अवस्थाको इस मापदण्डसे ही जाँचना और आदर्श . इस प्रकार स्त्री जातिके संबंध में जैनधर्म और जैनाचायो प्राप्तिकेलिये प्रयत्नशील होना ही सर्वप्रकार श्रेयस्कर होगा। की नीति एवं विचार स्पष्ट हैं और वे किसी भी अन्य धर्म वीरसेवामन्दिर ।
ता०६.१.४७ की अपेक्षा श्रेष्ठतर है।
-* शरत्वाबूका निबंध 'नारीर मूल्य' (नारीका मूल्य) + जै० प्र० २० कार्यालय बम्बईसे प्रकाशित-आत्मा- -पृ०६७, ७४, ६४
नुशासनकी पं० वंशीधर कृत हिन्दी टीका पृ. ६५
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अपभ्रंश भाषाका जैनकथा साहित्य
( ले० - पं० परमानन्द जैन, शास्त्री )
कथा साहित्यकी महत्ता
भारतीय वाङमय में कथा पुराण और चरित ग्रन्थोंका उल्लेखनीय बाहुल्य है । प्रायः सभी सम्प्रदायोंके साहित्यक विद्वानोंने विविध भाषाओं में पुराणों चरितों और काव्य चम्पू “आदि ग्रंथोंका निर्माण किया है। जहाँ जैनेतर विद्वानोंने sarvat गौर संस्कृत आदि दूसरी भाषाओंमें कथा साहित्यकी सृष्टि की है । वहाँ जैनविद्वानोंने 'प्राकृत और संस्कृतके साथ अपभ्रंश, भाषामें भी कथा, चरित्र, और पुराण ग्रंथ निबद्ध किये हैं। इतना ही नहीं किन्तु भारतकी विविध प्रान्तीय भाषाओं मराठी, गुजराती और हिन्दी श्रादिमें भी कथा साहित्य रचा गया है। अस्तु, आज मैं इस लेख द्वारा पाठकोंको अपभ्रंशभाषाके कुछ अप्रकाशित कथा साहित्य और उनके कर्ताओं के सम्बन्ध में प्रकाश दालना चाहता हूं, जिससे पाठक उनके विषय में विशेष जानकारी प्राप्त करसकें ।
कथाएँ कई प्रकारकी होती हैं; परन्तु उनके दो भेद मुख्य है— लौकिक और आध्यात्मिक । इन दोनोंमें सभी कथाओं का समावेश हो जाता है, अथवा धार्मिक और लौकिक के भेदसे वे दो प्रकारकी हैं उनमें धार्मिक कथाओं में तो आध्यात्मिकताकी पुट रहती है और लौकिक कथाओं में पशु-पक्षियों राजनीति, लोकनीति आदि बाह्य लौकिक मनोरंजक श्राख्यानोंका सम्मिश्रण रहता है। इनमें प्राध्या स्मिकतासे श्रोत-प्रोत धर्मिक कथाओंका प्रांतरिक जीवन घटना के साथ घनिष्ट सम्बन्ध रहता है और उनमें व्रतोंका सदनुष्ठान करने वाले भव्य श्राचकोंकी धार्मिक मर्यादाके साथ नैतिक जीवनचर्याका भी अच्छा चित्रण पाया जाता है । साथही भारी संकट समुपस्थित होनेपर धीरतासे विजय प्राप्त करने, अपने पुरुषार्थको सुदृढ रूपमें कायम रखने तथा धार्मिक श्रद्धा अडोल रहनेका स्पष्ट निर्देश पाया जाता है, जिससे उन्हें सुनकर तथा जीवनमें उतार कर उनकी महत्ता
यथार्थ अनुभव किया जा सकता है। कितनी ही कथाओं में जीवनोपयोगी आवश्यक तस्वका संकलन यथेष्ठ रूपमें
पाया जाता है जो प्रत्येक व्यक्तिके जीवनको सफल बनाने के लिये कावश्यक होता है। असल में सत्पुरुषोंका उच्चतर जीवन दूसरोंके लिये आदर्श रूप होता है, उसपर चलने से ही जीवन में विकास और नैतिक चरितमें वृद्धि होती है, एवं स्वयंका आदर्श जीवन बनता है। इससे पाठक सहज़ही में कथाकोंकी उपयोगिता और महत्ताका श्रनुभव कर सकते हैं।
अपभ्रंश भाषाके इन कथाप्रन्थोंमें अनेक विद्वान कवियोंने व्रतका अनुष्ठान अथवा श्राचरण करनेवाले भव्यश्रावकों के जीवन-परिचय के साथ व्रतका स्वरूप, विधान और फलप्राप्तिका रोचक वर्णन किया है। साथ ही, व्रतका पूरा अनुष्ठान करनेके पश्चात् उसका उद्यापन करने की विधि, तथा उद्यापनकी सामर्थ्य न होनेपर दुमना व्रत करनेकी श्रावश्यकता और उसके महत्वपर भी प्रकाश डाला है।
का उद्यापन करते समय उस भव्य श्रावककी धर्मनिष्ठा, कर्तव्यपालना, धार्मिक श्रद्धा, साधर्मिवासल्य, निर्दोषवताचरणकी क्षमता और उदारताका अच्छा चित्रण किया गया है और उससे जैनियोंकी तत्तत् समयोंमें होनेवाली प्रवृत्तियों लोकसेवाओं, आहार औषधि, ज्ञान और अभयरूप चारदानों की प्रवृत्ति, तपस्वी-संयमीका वैध्यावृत्य तथा दीनदुखियोंकी समय समयपर की जानेवाली सहायताका उल्लेख पाया जाता है। इस तरह यह कथासाहित्य और पौराणिक चरित्रग्रंथ ऐतिहासिक व्यक्तियोंके पुरातन श्राख्यानों, वाचरणों श्रथवा मीच ऊँच व्यवहारोंकी एक कसौटी है । यद्यपि उनमें वस्तुस्थितिको अलंकारिक रूपसे बहुत कुछ बढ़ाचढ़ा कर भी लिखा गया है; परन्तु तो भी उनमें केवल कविकी कल्पनामात्र ही नहीं है, किन्तु उनमें कितनी ही ऐतिहासिक श्राख्यायिकाएँ (घटनाएँ) भी मौजूद हैं जो समय समयपर वास्तविक रूप से घटित हुई हैं । उनके ऐतिहासिक तथ्योंको यों ही नहीं भुलाया जा सकता । जो ऐतिहासिक विद्वान इन कथाग्रन्थों और पुराणों को कोरी गप्प या असल्य कल्पकार्थीक गढ़ कहते हैं वे वास्तविक वस्तुस्थितिका मूल्य श्रकने में असमर्थ रहते हैं। अतः उनकी यह कल्पना समुचित नहीं कही जा सकती ।
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०७४
अनेकान्त
कथाग्रंथोंके निर्माणका उद्देश्य
जैनाचायों अथवा निधिद्वानों द्वारा कथायोंके बनाये जानेका समुद्देश्य केवल यह सीस होता है कि यमसे बचे और प्रतादिके सुष्ठान द्वारा शरीर और आत्मा की शुद्धि की ओर असर हो साथ ही दुव्र्यसनों और अन्याय अत्याचारोंके पूरे परिणामोंको दिखामेका अभिप्राय केवल उनसे अपनी [रा करना है और इस तरह जीवनकी कमियों एवं त्रुटियोंको दूर करते हुए जीवनको शुद्ध एवं सात्विक बनाना है । और व्रताचरण - जन्य पुण्य-फलको दिखानेका प्रयोजन यह है कि जनता श्रधि से श्राधक अपना जीवन संवत और पवित्र बनावे, मादजनक, अनिष्ट, अनु पसेव्य अपघात कर बहुधातरूप अभय वस्तुओंके व्यव बहारसे अपने को निरंतर दूर से ऐसा करनेसे ही मानव अपने जीवनको सफल दना सकता है। इससे कट है कि जैनविद्वानोंका यह दृष्टिकोण कितना उम्र और लोको पयोगी है।
1
कथाग्रन्थ और ग्रन्थकार
अब तक इस अपभ्रंश भाषामें दो कथाकोश, दो बड़ी कथाएँ और उनतीस छोटी छोटी कथाएँ मेरे देखने में श्राई हैं । पुराण और चरितग्रंथोंकी संख्या तो बहुत अधिक है जिसपर फिर कभी प्रकाश डालने का विचार है। इस समय तो प्रस्तुत कथाप्रन्थों और ग्रन्थकारोंका ही संक्षिप्त परिचय नीचे दिया जाता है :
कथाकोश- -अपभ्रंश भाषाका यह सबसे बड़ा कथा कोष है इसमें विविध इसके काय द्वारा फल प्राप्स करने बाकी कथाओंका रोचक ढंग से संकलन किया गया है। इसमें प्रायः वे ही कथाएँ दी हुई हैं जिनका उदाहरणस्वरूप उल्लेख आचार्य शिवायकी भगवती आराधनाकी गाथाको पाया जाता है। इससे इन काफी ऐतिहासिक सभ्यता कोई सन्देह नहीं रहता । प्रस्तुत कथाकं शके रचयिता मुनि श्रीचन्द्र हैं जो सहस्रकीर्तिके प्रशिष्य और वीरचन्द्र के प्रथम शिष्य थे। यह प्रन्थ तिरेपन संधियोंमें पूर्ण हुआ है। ग्रंथी प्रशस्तिसे मालूम होता है कि इसे कविने हिलपुरके प्राग्वट वंशी सज्जनके पुत्र और मूलराजनरेश के गोष्ठिक कृष्ण के लिये बनाया था । इनकी दूसरी कृति
[ वंष ८
*
-
स्नकरण्ड श्रावकाचार पद्धड़िया छंट २१ संधियों और चारहजार चारी तेईस श्लोकों में समाप्त हुआ है । इसका रचनाकारल विक्रम संवत् 1 है कि श्रीपुरमें कयं नरेन्द्रका राज्य था । इस ग्रन्थ में भी सभ्यग्दर्शन के निशंकितादि अंगों में प्रसिद्ध होनेवालोंकी कथाएँ बीच बीचमें दी हुई हैं । धम्मपरिक्खा - इस ग्रंथके कर्ता मेवाड़वासी धक्ड़वंशी कविवर हरिदेश हैं जो गोवर्द्धन और गुरु दर्ताके पुत्र थे । यह चित्तौड़ को छोड़कर अचलपुर में श्राए थे और वहाँ ही इन्होंने वि० सं० १०४४ में धर्मपरीक्षाको पंढडिया छंद रचा था। इसमें मनोवेग के द्वारा अनेक रोचक कथानकों तथा सैद्धान्तिक उपदेशों आदि पयेगी श्रद्धाकी धर्म में परिवर्तित कर जैन सुद्ध करनेका प्रयाण किया गया है। ग्रंथ में अपने पूर्व बनी हुई जयरामकी प्राकृताधा धर्मपरीक्षाका भी उलेख हुआ है अभीतक अप्राप्य है। साथही अपने से पूर्ववर्ती सीन महा कवियों का मुं स्वयंभू कोर पुष्पदन्तका भी प्रशंसात्मक लेख किया है। भविसयत्तकहा पक्षस्य कथाग्रंथोंमें कविवर सरु धनपाल की भविष्यदत्तपंचमी कथा ही सबसे प्राचीन मालूम होती है। यह ग्रंथ २२ संधियोंमें पूर्ण हुआ है ग्रंथका कथाभाग बड़ा ही सुन्दर है । इस पंचमी तके फल की निदर्शक कथाएँ कई विद्वान कवियोंने रची है जिनका परिचय फिर किसी स्वतंत्र लेख द्वारा करानेका विचार है। यह धनपाल नामके वैश्य वंश में उत्पन्न हुए थे। उनके पिताका नाम माएसर और माताका धनश्री देवी था। कदेको सरस्वतीका वरदान प्राप्त था। यद्यपि कपिने ग्रंथ कहीं भी उसका रचनाकाल नहीं दिया, फिर भी यह ग्रंथ विक्रमी दशमी शताब्दीका बताया जाता है ।
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पुरंदरविहाण कहा इस कथा कर्ता भट्टारक कति है जिन्होंने रात देशके महीयडु' प्रदेश व गोदा (गोधा ) नामके नगर में ऋषभजिन चैत्यालयमै विक्रम संवत् १२४० की भादों शुमला चतुर्दशी गुबारके दिन 'पटकर्मोपदेश' की रचना की है। उस समय धातुक्य वंशी बंदिदेयके पुत्र कर्याका राज्य था। ग्रंथ कथिने अपने* विशेष परिचय के लिये देखो, 'श्रीचन्द्र नामके तीन विद्वान शीर्षक मेरा लेख अनेकान्त वर्ष ७ किरण ३-१० ।
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'किरण' ६-७ ]
को 'मुनि' 'गणि' और 'सूरि' आदि विशेषणोंके साथ उल्लेखित किया है । इससे मालूम होता है कि वे गृहस्थ श्रवस्था छोड़ कर बादको मुनि बनगए थे । यह माधुरसंधी vaifoe शिष्य थे। इन्होंने अपनी जो गुरुपरम्परा दी है उससे मालूम होता है कि यह अमरकीर्ति श्राचार्य अमितगतिकी परम्परामें हुए हैं। श्रमितगति काष्टासंघ के विद्वान थे, जो माथुर संघकी एक शाखा है । भ० अमरकीर्तिने षट्कर्मोपदेशमें निम्न ग्रंथोंके रचे जानेकी सूचना की हैनेमिनाथचरिउ, महावीरचरिउ, टिप्पणधर्मचरित, सुभाषितरत्ननिधि, धर्मोपदेशचूडामणि और भारणपई ।
खेद है कि ये ग्रंथ अभीतक किसी भी शास्त्रभंडार में उपलब्ध नहीं हुए हैं । प्रस्तुत ग्रंथकर्ताने अपना 'षट्कर्मो पदेश' और 'पुरंदविधानकथा' ये दोनों ग्रंथ अम्बाप्रसादके निमित्तसे बनाये हैं यह अम्बाप्रसाद अमरकीर्तिके लघु बाँध थे ।
चंदगडीकहा—इस कथाके कर्ता कविलक्ष्मण थवा लाख है । इनकी गुरुपरम्पराका कोई विवरण प्राप्त नहीं हुआ । अतएव यह कहना अत्यंत कठिन है कि पडित लाखू अथवा लक्ष्मण किस वंशके थे और उनके गुरुका क्या नाम था ? लक्ष्मण नामके दो अपभ्रंश भाषाके कवियोंका संक्षिप्त परिचय मेरी नोटदुकमें दर्ज है। उनमें . प्रथम लक्ष्मण कवि वे हैं जो जायस अथवा जैसवाल वंश में उप हुए थे। इनके पिताका नाम श्रीसाहुल था । यह त्रिभुवनगिरिके निवासी थे, उसके विनष्ट होने पर वे यत्र-तत्र परिभ्रमण करते हुए विलरामपुर में आए थे, यह विलरामपुर एटा जिलेमें श्राज भी दसा हुआ है। वहांके सेठ 'विल्हण के पौत्र और जिनधरके' पुत्र श्रीधर थे, जो, पुरवाढवंशरूपी कमलोंको विकसित करने वाले दिवाकर थे । इन्हीं साहू श्रीधरकी प्रेरणा एवं श्राग्रहसे लक्ष्मण ने 'जिदत्तचरित' की रचना विक्रम संवत् १२७५ की पौष कृष्णा षष्ठी रविवार के दिन की थं + । इनका विशेष परिचय स्वतंत्र लेख में दिया जायगा ।
+ बारहसय सत्तरयं पंचोत्तरयं विक्कमकाल वियत्तउ । पडमपक्खि रविवारह छट्टि सहारइ पूसमासे सम्मत्तउ ॥ - जिनदत्तचरितप्रशस्ति
२७५
दूसरे कचि लक्ष्मण या लखमदेव वे हैं जो रतनदेव नामक के पुत्र थे और जो मालवदेशके 'गोद' नगरके निवासी थे। उस समय यह नगर धन, जन, कन और कंचनसे समृद्ध तथा उत्तुंग जिनालयोंसे विभूषित था । यह पुराण वंश के तिलक थे और रातदिन जिनवाणी के अध्ययनमें लगे रहते थे । उनकी एकमात्र रचना 'नमिनाथचरिउ' उपलब्ध हैं जिसमें तेरासी कड़वकों और चार संधियों में जैनियोंके बाईसवें तीर्थंकर भगवान नेमिनाथका चरित चित्रित किया गया है । ग्रंथ में रचनाकाल दिया हुआ नहीं है किन्तु सिर्फ इतना ही उल्लेख मिलता है कि ग्रंथ आषाढकी त्रयोदशीको प्रारम्भ किया गया और चैत्रकी त्रयोदशीको पूर्ण हुआ था । चतः निश्चित समयका समुल्लेख करना कठिन है इन दोनों लक्ष्मण नामके विद्वानों में से कौन लक्ष्मण कवि चन्द्रनषष्ठी कथाके कर्ता हैं अथवा इन दोनोंसे भिन्न कोई तीसरे ही लक्ष्मण या लाखू कवि उक्त कथा के कर्ता हैं, इसके अनुसंधान होने की जरूरत है ।
णिज्झरपंचमी विहाण कहाणक—इस कथा के कर्ता भट्टारक विनयचन्द्र हैं जो माथुरसंघीय भट्टारक बालचन्द्र के शिष्य थे । विनय चंद्रके गुरु मुनि बालचन्द्र ने भी जो उदयचन्दके शिष्य थे, दो कथाएं रची हैं जिनका परिचय धागे दिया जायगा । प्रस्तुत विनयचन्द विक्रमकी तेरहवीं शताब्दी के आचार्य कल्प विद्वान् पं० श्राशाधरजीके समकालीन विनयश्चन्द्रसे, जिनकी प्रेरणा एवं श्राग्रहसे उक्त पंडितजीने श्राचार्य पूज्यपाद (देवनन्दी) के इष्टोपदेश ग्रंथकी संस्कृत टीका बनाई थी* भिन्न हैं; क्योंकि पंडित श्राशावरजीने उन्हें सागरचन्द्र मुनिका शिष्य बतलाया है जैसाकि उनकी टीका प्रशस्तिके निम्न पद्यसे प्रकट हैः
-
1
उपशम इव मूर्तः सागरेन्दु मुनीन्द्रादजनिविनयचन्द्रः सच्च कोरेकचन्द्रः । जगदमतसगर्भशास्त्रसंदर्भगर्भः शुचिचरितवरिष्णोर्यस्य धिन्वंति वाचः ॥ २ ॥ इस पथ की रोशनी में दोनों विनयचन्द्रोंकी भिन्नता में विनये दुमुनेर्वाक्याद्भव्यानुग्रहहेतुना । इष्टोपदेशटीकेयं कृताशा धरधीमता ॥ १ ॥ -
- इष्टोपदेश टीकाप्रशस्ति ।
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२७६
अनेकान्त
[वर्ष ८
सन्देहको कोई गुंजायश नहीं रहती; क्योंकि उन दोनोंकी निदुहसत्तमी कहा और नरयउतागविहिगुरुपरम्परा भिन्न भिन्न है। और समय भी मित्र है । सागर-. इन दोनों क्याओंके कर्ता मुनिकाल चंद्र हैं जो मुनिउदय चन्दके चन्द्रक शिष्य विनयचन्द्रका समय विक्रमका तरहवा शताब्दी शिष्यथे, इन्हीं बालचन्द मुनिके शिष्य विनयचन्द्रमुनिका ऊपर सुनिश्चित है तथा उक्र निर्मरपंचमी कथाके कर्ता विनयचन्द्र
परिचय दिया गया है । प्रस्तुत बालचन्द्रमुनि प्राचार्य इनसे बादके विद्वान मालूम होते हैं, इनकी दो कृतियाँ और
कुं. कुंदके प्राभृतत्रयके टीकार मुनि बाल चन्द्रसे मित्र हैं; भी समुपलब्ध हैं। एक 'चूमडी' और दूसरी 'कल्याणकरासु'
क्योंकि वे नयकीर्तिके शिष्य थे, जो सिद्धान्त चक्रवर्तीकी है। इन दोनोंमेंसे प्रथम रचनामें तेतीस पद्य हैं और
उपाधिसे अलंकृत थे। उक्त कथाओंके कर्ता मुनि बालचन्द्र द्वितीय रचना 'कल्याणकरासु' में जैनियों चतुर्विंशति
कब हुए, यह यथेष्ठ साधन सामग्रीके प्रभावमें निश्चितरूपसे तीर्थकरोंकी पंचकल्याणक तिथियोंका वर्णन दिया हुआ है।
कहना कठिन है। . ये दोनों रचनाएं जिस गुटके में लिखी हुई हैं वह विक्रम
जिनत्तिकहा और रविबउकहा- संवत् १५७६ में सुनपत नगरमें सिकन्दरशाहके पुत्र इब्राहीम
दोनों के राज्यमें लिखा गया है । इससे विनयचन्द्र अनुमानत: सौ . कथाश्राक
कथाओंके कर्ता यशकीर्ति भट्टा.गुरु कीर्तिके लघुभ्राता व शिष्य या डेढ़सौ वर्ष पूर्व ही हए होगे अत: इनका समय थे। गुए कीर्ति महातपस्वी थे, उनका तपश्चरण से शार विक्रमकी १४ वीं या पंद्रवीं शताब्दी होगा।
अत्यंत क्षीण होगया था। इनके शिष्य यश:कीर्ति अपने समय
के एक अच्छे विद्वान् कवि थे । इन्होंने संवत् १४८६ में x अनेकान्त वर्ष ५ किरण ६-७ पृष्ठ २५८ से ६१ तक जो विबुधश्रीधरके संस्कृत भविष्यदत्तदरित्र और अपभ्रंश विनयचन्द्र मुनिकी चूनडीनामकी रचना प्रकाशित हुई है। भाषाके 'सुकमालचरित' की प्रतियाँ अपने ज्ञानावरणी उसके मुद्रित पाठका नया मन्दिर धर्मपुरा देहलीकी कर्मके क्षयार्थ लिखवाई थीं । महाकवि रहधूने अपने हस्तलिखित प्रतिपरसे'ता. ८-५-४५ को मैने संशोधन सम्म जिनचरित' की प्रशस्तिमें रश:कीर्तिका निम्न शब्दों किया था उसके फलस्वरूप मालूम हुआ कि मुद्रित पाठमें में उल्लेख किया है:प्रथम-द्वितीय पद्य तथा अन्तिम पद्यकी कुछ पंक्रियाँ लेखकों
"भव्व-कमल-सर-कोह-पयंगो, की कृपासे छूट गई हैं जिससे चूनडीके ३१ पद्य शेष
बंदि वि सिरिजसकित्ति असंगो।" स्हगए हैं। असनमें उक्त चूनदी ३३ पोंमें समाप्त हुई कवि रहधूने यश:कीर्ति तथा इनके शिष्योंकी प्रेरणासे है, उसका वह आदि और अन्तिम भाग इस प्रकार है:- कितने ही ग्रंथों की रचना की है । यश:कीर्तिने स्वयं अपना श्रादिभाग
'पाण्डवपुराण' वि० सं० १५४७ में अग्रवालवंशी साहु विणएं वंदिवि पंचगुरु
वील्हा के पुत्र हेमराजकी प्रेरणासे बनाया था, यह पहले मोह-महातम-तोडण-दिणयर, बंदिवि वीरणाह गुण गण हर। हिसारके निवासी थे और बादको उदयवश देहलीमें रहने तिहुवण सामिय गुण गिलट, मोक्खह,मग्गु पयासण जगगुर। लगे थे, और जो देहलीके बादशाह मुबारकशाहके मंत्री थे, णाह लिहावहि चूनडिया,मुन्ड पमणइ पिड जो डिविकर। वहाँ इन्होंने एक चैस्यालय भी बनवाया था और उसकी पणविवि कोमल-कुवलय-ण यणी लोयालोय पयासण-वयणी। प्रतिष्ठा भी कराई थी। इनकी दूसरी कृति 'हरिवंशपुराण' पसरि वि सारद जोयह जिमा, जाअंधारउ सयलु विणासही है जिसकी रचना इन्होंने वि० सं० १५०० में हिसारके सा महु णिवसर माणुसहि, हंसवहू जिम देवी सरासह ॥२ साहु दिवढाकी प्रेरणासे की थी । साहुदिवढा अग्रवाल अन्तिम
कुलमें उत्पन्न हुए थे और उनका गोत्र गोयल था। वे बड़े इह चूनडीय मुनिंद पयासी, संपुण्णा जिण आगमभासी।
धर्मात्मा और श्रावकोचित द्वादश व्रतोंका अनुष्ठान करनेवाले पढहिं गुणहिं जेसाहहिं, तेन सिव.सुह लहहिं पयतें।
र
य
थे। इनकी तीसरी कृति प्रादित्यवार कथा है, जिसे रविव्रतविणएं वंदिवि पंचगुरु ॥३३॥
* देखो, उक्त दोनों ग्रंथोंकी लेखक पुष्पिका।
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किरण ६-७]
अपभ्रंश भाषाका जैनकथा-साहित्य
२७७ .
कथा भी कहते हैं। और चौथी रचना जिनरात्रि कथा है पुण्यासव कहा-इस कथा ग्रंथमें कविवर रहष जिसमें शिवरात्रि कथाके ढंगपर जिनरात्रिके ब्रतका फल. ने पुण्यका श्राश्रव करनेवाली ब्रतों की कथाएँ दी हैं। ग्रंथमें बतलाया गया है। इनके सिवाय 'चन्दप्पह चरिउ' नामका कुल तेरह संधियाँ हैं। इस ग्रंथकी रचना कविवर रइधने अपभ्रशभाषाका ‘एक ग्रन्थ और है उसके कर्ता भी यशः
महाभव्य साहू नेमिदास की प्रेरणापे की है, और इसलिये कीर्ति हैं। वे प्रस्तुत यश:कीर्ति हैं या कि. अन्य कोई
यह ग्रंथ भी उन्हींके नामांकित किया गया है। ग्रंथप्रशस्तिमें यश:कीर्ति हैं इसका ठीक निश्चय नहीं; क्योकि इस नामके साह ने मिासके परिवारका विस्तृत परिचय निहित है। अनेक विद्वान होगए हैं।
___कविवर रहधूने अपभ्रंशभाषामें २३-२४ ग्रंथोंकी प्रणथमी कथा-इस थालेकी र
रचना की है। रहधु हैं जो भ० यशकीर्तिके समकालीन विक्रमकी १५ वीं अणथमी कथा (द्वितीय)-इस कथाके कर्ता शताब्दीके उत्तरार्थ और सोलहवीं सदीके प्रारम्भके विद्वान् कवि हरिचन्द हैं जो अग्रवाल कुल में उत्पन्न हुए थे। इसके हैं। पद्मावती पुरवालकुलमें समुत्पन्न हुए थे, उदयराजके सिवाय इनका कोई परिचय उपलब्ध नहीं होता । प्रस्तुत प्रपौत्र और हरिसिहके पुत्र थे, ग्वालियरके निवासी थे। कथा पं० रइथूकी उल्लिखित कथासे बढ़ी है, यह १६ इन्होंने वि० सं० १४६६ में सुकौशलचरितकी रचना की है, कड़वकोंमें समाप्त हुई है। और उसमें रात्रिभोजनके दोषोंका यह आशुकवि थे और जल्दी ही सरल भाषामें कविता करते उल्लेख करते हुए उसके त्यागकी प्रेरणा की गई है। थे । कवि रइधूने ग्वालियरके तोमरवंशी राजा अणंतवयकहा आदि १५ कथाएँ-हुन
गसिंह और उनके पुत्र कीति सिंहके राजकालमें कथाओंके कर्ता भट्टारक गुणभद्र हैं। यद्यपि गुणभद्र नामके अनेक ग्रंथों की रचना की है और मूर्तियों की अनेक विद्वान प्राचार्य और भट्टारक प्रसिद्ध हैं। परन्तु ये प्रतिष्ठा भी कराई है। वे प्रतिष्ठाचार्य नामसे प्रसिद्ध भी थे।
भट्टारक गुणभद्र उन सबसे भिन्न हैं। यह माथुरसंघी भट्टाकविने प्रस्तुत 'भणथमी' कथामें रात्रिभोजनके दोषों और
रक मलयकीर्तिके शिष्य थे और अपने उक्न गुरुके बाद उससे होनेवाली व्याधियोंका उल्लेख करते हुए लिखा है गोपाचलके पट्टपर प्रतिष्ठित हुए थे। इनकी रची हुई निम्न कि दो ही दिनके रहनेपर श्रावक लोग भोजन करें, क्योंकि पन्द्रह कथाएँ पंचायती मन्दिर देहलीके गुटका नं. १३ सूर्यके तेज मंद होनेपर हृदयकमल संकुचित हो जाता है, १४ में दी हई हैं, जो संवत् १६०२ में श्रावण सुदी एका अत: रात्रिभोजनका धार्मिक तथा शारीरिक स्वास्थ्यकी दृष्टिसे।
दशी सोमवारके दिन रोहतकनगरमें पातिसाह जलालुहीनके त्यागका विधान किया है, जैसा कि उसके निम्न दो पोसे राज्यकालमें लिखा गया है । उन कथाओं के नाम इस प्रकट है
प्रकार हैं:जि रोय दलदिय दीण अणाह,
१ अणंतवयकहा २ सवणबारसिविहाणकहा जि कुट्ठ गलिय कर करण सवाह । ३ पखवइकड़ा ४णहपंचमी कहा ५चंदायणवयदुहग्गु जि परियणु वग्गु अणेहु , कहा ६ चंदणछट्ठी कहा ७ णरयउतारी दुद्धारसकहा सु-रयणिहिं भोयणु फजु जि मुणहु ॥८॥ मणिद्दहसत्तमी कहा हमउडसत्तमी कहा १० पुप्फं घड़ो दुइ वासरु थक्कइ जाम , जलि-वयकहा ११ रयणतयविहाणकहा १२ दहसुभोयणु सावय भुजहि ताम । लक्खणवयकहा १३ लद्धिवयविहाण कहा १४. दियायरु तेउ उजि मंदर होइ,
+ देखो, अनेकान्त वर्ष ५ किरण ६-७ । . सकुकुच्चइ चित्तहु कमलु जि सोइ॥६॥ अथ संवत्सरेस्मिन् श्रीनृपविक्रमादित्यराज्यात् संवत् १६०२ + विशेष परिचपके लिये देखो, जैनसिद्धान्तभास्कर भाग वर्षे श्रावणसुदि ११ सोमवासरे रोहितासशुभस्थाने पातिसाह ११ किर ९ में मेरा भ. यशःकीर्ति नामका लेख। जलालदी, (जलालुद्दीन) राज्यप्रवर्तमाने पछ॥
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अनेकान्त
[वर्ष
।
सोलहकारणवयविहि १५ सुयंघदसमी कहा।
कहा-इस कथाके रचयिता इन कथाओंमेंसे नं.१,१० और १२ नंबरकी तीनों विमलकीति हैं. इनकी गुरुपरम्परा आदिका कोई परिचय कथाएँ ग्वालियरके जैसवाल वंशी चौधरी लक्ष्मणसिंहके पुत्र
लक्ष्मणसिहक पुत्र प्राप्त नहीं हो सका।
नहीं पंडित भीमसेनके अनुरोधसे रची गई हैं। और नं. २ तथा
• सुबंधदसमी कहा-इस कथाके कर्ता कविवर नं० १३ की ये दोनों क्याएँ ग्वालियरवासी संघपति साहु उद्धरणके जिनमन्दिरमें निवास करते हुए साह सारंगदेवके देवदत्त हैं। इनकी गुरुपरम्परा और समयादि भी प्राप्त नहीं
हो सका। के पुत्र देवदासकी प्रेरणाको पाकर बनाई गई हैं। नं.. की कथा उक्र गोपाचलवासी साह बीधाके पुत्र सहजपालके
रविवउकहा और अणन्तवयकहाअनुरोधसे लिखी गई है। शेष नौ कथाओंके सम्बन्धमें इन दोनों कथाओंके रचयिता मुनि नेमिचन्द्र हैं जो माथुर निर्मापक भव्य श्रावकोंका कोई परिचय दिया हया नहीं है। संघमें प्रख्यात थे। नेमिचन्द्र नामके अनेक विद्वान होगए
भट्टारक गुणभद्रका समय भी विक्रमकी १६ वीं शता- अतः सामग्रीक अभावस प्रस्तुत नामचन्द्र की र ब्दीका पूर्वार्ध है; क्योंकि संवत् १५०६ की धनपाल पंचमी
और समयादिके सम्बन्धमें अभी कुछ नहीं कहा जा सकता। कथाकी प्रशस्तिसे मालूम होता है कि उस समय ग्वालियर
इनके अतिरिक्र 'अणंतवयकहा' और 'मुत्तावली के पट्टपर भट्टारक हेमकीर्ति विराजमान थे । और संवत्
विहाणकहा' इन दोनों कथाओंके कर्ता अभी अज्ञात हैं, १५२१ में राजा कीर्तिसिंहके राज्यमें गणम मौजद थे जब प्रस्तुत कथाओंमें कर्ताका कोई परिचय दिया हुआ नहीं है। ज्ञानार्णवकी प्रति लिखी गई थी। इन्होंने अपनी कथाओं
___इस तरह इस लेखमें दो कथाकोषों, दो बड़ी कथाओं में रचना समय नहीं दिया है। इसीसे निश्चित समय मालूम
और छोटी छोटी तीस कथाओंका परिचय दिया गया है। करने में बड़ी कठिनाई हो जाती है।
आशा है अन्वेषक विद्वान इन कथाओंके अतिरिक्र जो और
दिगम्बर तथा श्वेताम्बर कथा साहित्य हो उसपर भी प्रकाश * देखो, धनपाल पंचमी कथाकी लेखक प्रशस्ति, कारंजाप्रति। डालनेका यत्र करेंगे, जिससे इस कथा साहित्यके सम्बन्धमें और कैटलोग सं० प्रा० सी० पी० एण्ड बरार ।
जनताकी विशेष जानकारी प्राप्त हो सके। - देखो, 'ज्ञानार्णव' आरा प्रतिकी लेखक प्रशस्ति । वा. २०।१०। ४६] वीरसेवामन्दिर, सरसावा
'मेरा यह विश्वास है कि अहिंसा हमेशाके लिये है। वह आत्माका गुण है इसलिये वह व्यापक है; क्योंकि प्रात्मा तो सभीके होती है। अहिंसा सबके लिये है, सब जगहोंके लिये है, सब समयोंके लिये है। अगर वह दरअसल आरमाका गुण है. तो हमारे लिये वह सहज हो जाना चाहिये । श्राज कहा जाता है कि सत्य व्यापारमें नहीं चलता, राजकाजमें नहीं चलता। तो भिर वह कहाँ चलता है ? अगर सत्य जीवन के सभी क्षेत्रोमें
और सभी व्यवहारोंमें नहीं चल सकता तो वह कौड़ी कीमतकी चीज़ नहीं है। जीवन में उसका उपयोग ही क्या रहा ? मै तो जीवनके हरएक व्यवहारमें उसके उपयोगका नित्य नया दर्शन पाता हूं?
-महात्मा गांधी "दुनियामें जितने लोग दुखी हुए हैं, वे अपने सुखके पीछे पड़े, इसीलिये दुखी हुए। और जो दुनिगमें सुखी पाये जाते हैं, वे सब औरोंको सुखी करनेकी कोशिशके कारण ही सुखी हैं।
काश, केवल हमारे धर्मोपदेशक ही नहीं, किन्तु दुनियाके राजनैतिक नेतागण मी इस सिद्धान्तको समझ लेते।"
-काका कालेलकर
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प्राचीन जैनमन्दिरोंके ध्वंसावशेषोंसे निर्मित मस्जिदें
पुरानी दिल्लीकी मस्जिद
जाय कि उनका स्थान परिवतन नहीं किया गया तो • सर्वप्रथम तो मुसलिम विजेताओंको जैन
भी यह तो प्रत्यक्ष है कि मुसलमानोंने उनके चौगिर्द मन्दिरके स्तंभपूर्ण सभामंडपोंमें वह सर्व सामग्री प्राप्त
दीवारें खड़ी करदी, क्योंकि सभी 'सूत्रपथ' उनकी होगई जो कि एक बनी बनाई मस्जिदके लिये आव
अपनी शैलीकी सजावटसे ढके हुये हैं और उनके श्यक होती। जो कुछ करना था वह केवल इतना ही .
समस्त खुले (उघड़े) हुए भागों में नुकीली महराबें कि भवनके बीच में स्थित जैन मन्दिर ( वेदीगृह)
बनी हुई हैं जिनका कि भारतीय कभी उपयोग को हटा दिया जाय और पश्चिमी दिशामें महराबों
नहीं करते । सब बातों को ध्यानमें रखते हुए सभासे अलंकृत एक नई दीवार खड़ी करदी जाय, जो
वना यही प्रतीत होती है कि मुसलमानों ने समूची कि खुदाके बंदों (मुसलमानों) को उस दिशाका निर्देश
इमारतको पुनः संयोजित करके उसे उसका वर्तमान करती रहे जिसमें कि मक्का अवस्थित है, और
अवस्थित रूप दिया है। कनोगे' की प्रख्यात मस्जिद जिसकी ओर, जैसा कि सर्व प्रसिद्ध है, नमाजके
प्राचीन काहिरामें स्थित अमरूकी मस्जिदकी योजना वक्त मुह करके खड़े होनेकी कुरानमें उनके लिये
के बिल्कुल समकक्ष ढंगपर पुनः संयोजित एक जैन आज्ञा है। किन्तु यह निश्चयसे नहीं कहा जा सकता।
मन्दिर ही है, इस में तनिक भी सन्देह नहीं है । छत कि भारतवर्ष में वे कभी मात्र इतनेसे ही सन्तुष्ट रहे और गुम्बद सब जैन स्थापत्यकलाके हैं जिससे कि हों। कमसे कम इन दो उदाहरणोंमें जिनका हम
अन्दरूनी हिस्से में मूर (मुसलमानी-अरबी) शैलीका उल्लेख करने जा रहे हैं, उन्होंने, उपयुक्त परिवतन .
कोई भी चिन्ह दृष्टिगोचर नहीं होता; किन्तु बाहरी के अतिरिक्त, जैन स्तंभोंके आगे महराबोंका एक
भाग उतना ही विशुद्ध मुसल्मानी कलाका है । मांडू परदा उठानेका और उसे अति यत्नपूर्वक निर्मिती
के निकट धार स्थानमें एक अन्य मस्जिद है जो तथा सर्वप्रकार सम्पन्न प्रचुर खुदाई-कटाईको कारी- अपेक्षाकत अर्वाचीन है और निश्चय ही एक जैन
से जो कि उनकी भारतीय प्रजा निर्माण कर मन्दिरका पुनर्योजित रूप है। एक दूसरी मस्जिद सकती थी, अलंकृत करनेका भी निश्चय किया। जौनपुरके किलेमें तथा अहमदाबाद व अन्य स्थानो ___ यह निर्णय करना तनिक कठिन है कि किस हद की अनेक दूसरी मस्जिदें-सब ही, जैनमन्दिरों रुक ये स्तंभ उसी रूप और क्रममें अवस्थित हैं जिसमें को तोड़ फोड़कर और उनसे प्राप्त सामग्रीकी एक कि भारतीयोंने उनकी मूलतः योजनाकी थी, अथवा विभिन्न योजनानुसार पुनर्योजना करनेके ढंगको किस हद तक विजेताओंने उन्हें स्थानभ्रष्ट करके सूचित करती हैं। अस्तु, यदि कुतुबकी मस्जिदवाले पुनः संयोजित किया । यदि यह मान भी लिया स्तंभ पूर्ववत् अवस्थित रहते तो यह एक अपवाद
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२८०
अनेकान्त
होता, किन्तु फिर भी मैं यह सन्देह किये बिना नहीं रह सकता कि कोनों में स्थित दुमंजिले भवन
इमारतों में से भी कुछएक अपने मूलरूप ही स्थित हैं; किन्तु इसपर हम अजमेरी मस्जिदके प्रकरण में जिस मस्जिद में कि जैनस्तंभ प्रायः निश्चयतः अपनी प्राथमिक योजनानुसार स्थित हैं, पुनः विचा· करेंगे । तथापि यह पूर्णतः निश्चित है कि कुतुबके कितने ही स्तंभ वैसे ही खंडों से निर्मित हैं, और वे मस्जिदके निर्माताओं द्वारा उन स्थानों में स्थापित किये गये हैं जहां वे आज भी खड़े हुए हैं।
वह भाग अर्थात् प्रधान स्तंभश्र णीका अर्धभाग (जो कि महराबों की विशाल श्रृंखलाके सन्मुख पड़ता है) अपने रूपको स्वयं शब्दों की अपेक्षा कहीं अधिक भले प्रकार स्पष्ट करता है । वह इतना विशुद्ध जैन है कि उक्त शैलीका कथन करते हुए उसका कथन शायद वहीं करना चाहिये था; किन्तु वह भारतवर्षकी चूंकि सबसे प्राचीन मस्जिदका एक अंग — जनरल कनेघमको उसकी दीवारपर एक अभिलेख अङ्कित मिला था जिसमें लिखा था कि इस मस्जिदके वास्ते सामग्री प्रदान करनेके लिये २७ भारतीय मन्दिर नष्ट किये गये थे (आर्कोलोजिकल रिपोट्र्स, जिल्द १ ५० १७६) । तथापि इसपरसे विशेष कुछ सिद्ध नहीं होता जब तक कि किसीको यह मालूम न हो कि इस कार्यके लिये जो मन्दिर ध्वंस किये गये वे कैसे थे । खजुराहो जैसे २७ मन्दिर, गन्धई मन्दिरको छोड़कर, इसके अन्दरूनी मंडपोंके श्रधेके लिये भी स्तंभ प्रदान नहीं कर सकते, और सादरी जैसा एक ही मन्दिर पूरी मस्जिद के लिये पर्याप्त सामग्री प्रस्तुत करदेता, यद्यपि यह मन्दिर बहुत श्रर्वाचीन है तथापि यह मानलेने का भी कोई कारण नहीं है कि मुस्लिमकाल से पूर्व ऐसे मन्दिर अवस्थित ही नहीं हो सकते थे ।
[वर्ष ८
है अतः इसी प्रसंग में उसका उल्लेख करना सर्वोपयुक्त है। ये स्तंभ उसी श्र ेणी के हैं जैसे कि श्राबू पर्वतपर ( देलवाड़ाके जैनमन्दिरों में ) प्रयुक्त हुए हैं- सिवाय इसके कि देहलीवाले स्तंभ उनकी अपेक्षा अधिक समृद्ध और अधिक श्रमपूर्वक निर्मित हैं । इनमें से अधिकाँश तो संभवतः ११ वीं या १२ वीं शताब्दी के हैं और भारतवर्ष में उपलब्ध उन थोड़ेसे नमूनों में से हैं जो कि श्रलङ्कारों (सजावट) से अत्यधिक लदे हुए हैं। इनमें, सिवाय परदेके पीछे वाले स्तंभो के तथा उनमें से कुछ एकके जिनका संबंध अधिक प्राचीनतर भवनों से था, सबमें ही शिरोभाग (चोटी) से लगाकर मूल तक एक इंच स्थान भी कहीं सजावटसे खाली नहीं है । तिसपर भी इनकी सजावट इतनी तीक्ष्ण है और इतनी चतुराई एवं कुशलता से अङ्कित की गई है और उसका प्रभाव उनकी जीणेंशीर्ण अवस्थामें भी इतना चित्रोपम है कि ऐसी अत्यधिक सौन्दर्यपूर्ण वस्तुमें कोई भी दोष ढूंढ निकालना अत्यन्त कठिन है । कुछ स्तंभों मेंसे उनके अड्डो में अंकित ऐसी मूर्तियों को काट-तोड़ कर निकाल दिया गया है जो कि मुसल - मानो की मूर्तिपूजाविषयक कट्टरताको क्षुब्ध वरती थीं । किन्तु छतमें तथा कम दीख पड़ने वाले भागों में जैन अर्हतो की पद्मासनस्थ मूर्तियाँ और उस धर्म के अन्य चिन्ह - धार्मिक प्रतीक- आदि अब भी लक्षित किये जा सकते हैं।
कुतुबमीनार -
यह स्पष्ट नहीं होता कि मीनार की खड़ी बांसुरी नुमा कोनियें कहाँसे नक़ल की गई हैं- खुरासान तथा और सुदूर पश्चिम में पाई जानेवाली मीनारों की किसी प्रकल्पक विशेषतासे, या कि वे जनमन्दिरों की
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किरण ६-७ ]
आकृतियों परसे लीगई हैं ? गजनीकी मीनारो के तलभागों की आकृतियों को देखते हुए प्रथम निष्कर्ष की संभावना सी प्रतीत होती है; किन्तु अनको मन्दिरों, विशेषकर मैसूर तथा अन्य स्थानों के जैन मन्दिरों की ताराकृति (सितारेनुमा शकल) से यही प्रतीत होता है कि वे मूलतः भारतीय ही हैं।
कुतुबकी मस्जिद
प्राचीन जैनमन्दिरोंके ध्वंसावशेषों से निर्मित मस्जिदें
कुतुबुद्दीनकी मस्जिद, जो कि सारे 'कुव्वतुल इस्लाम' (इस्लामकी शक्ति ) कहलाती है, सामनेसे पीछे की ओर, स्थूल रूपसे १५० फीट लम्बी है और आजू बाजू उसकी आधी (लगभग ७५ फीट) चौड़ी है । उनके मध्यका खुला आंगन १४२ फीट लम्बा और १०८ चौड़ा है। पूर्वी और उत्तरी दिशाके द्वार अभी भी समूचे हैं और उनपर मस्जिदकी स्थापना- संबंधी अभिलेख अंकित हैं। दक्षिणी दिशाका द्वार और उसके साथ ही पश्चिमी सिरेका बहुभाग तथा दक्षिणी दीवार की सम्पूर्ण पश्चिमी स्तंभावली अस्य हो चुकी हैं। यद्यपि यह मस्जिद पूर्णतः भारतीय 'बल्कि - वस्तुतः जैनमंदिरों की सामग्रीसे निर्मित है तथापि इसका प्रत्येक भाग दुबारा ही निर्मित हुआ है। ये मत भी, कि श्रांगनका प्राकारमूल तथा विस्तृत महराबदार परदेके पीछे वाले स्तंभ उसी प्रकार अवस्थित हैं जैसे कि वे भारतीयों द्वारा निर्मित किये गये थे, वैसे ही भ्रमपूर्ण हैं। इसमें शक नहीं कि प्रारंभ में दीवारों का बाहिरी भाग उसी प्रकार प्लास्टर से पूर्णतया ढका हुआ था जैसा कि अन्दरूनी भागके खंभे; किन्तु यह सब प्लास्टर अब उतर चुका
"
२८१
है । पूर्वी द्वारके बीचसे जो दृश्य दीख पड़ता है वह बड़ा ही मनोहर है और मध्य गुम्बदके दोनों ओर स्थित क्रमबद्ध स्तंभावलीका जो दृश्य छोरपरसे दीख पड़ता है वह अत्यन्त कमनीय है । यह गूढ़छन्नपथ (Corridor) प्रायः पूर्ण है, किन्तु उत्तर ओर वाले ऐसे पथका तीन चौथाई भाग तथा दक्षिणी पथ एवं अपेक्षाकृत अधिक सादे स्तंभों का अत्यल्पांश ही अब अवशेष रह गया है। सर्वाधिक सुन्दर स्तंभ पूर्वी आच्छादित पथकी उत्तर दिशा में स्थित हैं; उनके ऊपर अंकित पुष्पपात्रों (फूलदान, गमले) जिनमें से फूल पत्तियाँ बाहरको लटक रही हैं, प्रथानुसारी पुष्पमालायुक्त व्याघ्रमुखों, गुच्छेदार रस्सियों, जंजीरोंसे लटकती घंटियों और अनेक कौसुमी ( फूलदार) रचनाओंका उत्कीर्णीकरण ध्यानपूर्वक परीक्षण करने योग्य हैं । दीवारखे दूसरी पंक्तिमें, मध्यस्थलसे उत्तर की ओर पांचवें स्तंभ एक सयुक्त गौ (गाय-बछड़ा) अति है, और उमी पंक्ति में आंगनके सिरेपर पांचवा स्तंभ समस्त स्तंभों में शायद सर्वाधिक सुन्दर स्तंभ है । अनेकों अधखंडित जैनमूर्तियाँ और कितनी ही अखंडित भी, जो कि मास्टर द्वारा पूर्णतया छिपाई जा सकती थीं, इन स्तंभों पर उत्की हुई देख पड़ेंगी।
नोट- प्रस्तुत लेख, ला० पन्नालालजी जैन अग्रवाल देहली द्वारा प्रेषित 'All about Delhi' ( सब कुछ देहली सम्बन्धी) नामक पुस्तक के पृ० ४१, ४४-४५, ४६४७, ५१, १८७ परसे लिये गये अंग्रेजी उद्धरणोंका अनुवाद है
— ज्योतिप्रसाद जैन, एम. ए.
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रत्नकरण्ड और आप्तमीमांसाका एक-कर्तृत्व प्रमाणसिद्ध है
- (ले० न्यायाचार्य पं० दरबारीलाल जैन, कोठिया) ,
__[गत किरणसे आगे]
उपलक्षणमात्र है।
यसमा
नता-यस- असाधारण'-उसी मात्र में रहनेवाला और तदतिरिक्रमें न
रहने वाला-धर्म होता है वही उनका च्यावरीक लक्षण मानतापर विचार
(भेदक) माना जाता है। पर जो धर्म टभयत्र दोनोंमें हमने प्राप्तमीमांसाके अध्यात्म बहिरप्येष विग्रहा- पाया जाता है वह लक्षण नहीं होता-उपलक्षण हो सकता दिमहोदयः' इस द्वितीय कारिका-वाक्य और उसके
' इस द्वितीय कारिका-वाक्य भार उसक है । अत: मानवीय क्षुधादि प्रवृत्तियोंका अभाव किसी प्राचार्य विद्यानन्द तथा बसुनन्दिकृत टीकागत व्याख्यानसे अपेक्षासे समानता रखने वाले सरागी और वीतरागी देवाने यह प्रमाणित एवं प्रतिपादित किया था कि प्राप्तमीमांसा- . बतलानेसे वे अभिन्न नहीं हो जाते-सकषाय और अकषायकारने सुधादि प्रवृत्तियों के प्रभावको केवलीमें श्राभ्यन्तर काभेट उनमें पान विग्रहादि-महोदय (शारीरिक अतिशय) के रूपमें स्वीकार , अब प्रश्न सिर्फ यह रह जाता है कि फिर उसे (क्षुधादि किया है-उसे छोड़ा नहीं है। किन्तु वह रागादिमान् प्रवृत्तियोंके अभावको) घातिकर्म-लय-न्य या महनीयकर्मस्वर्गवासी देवताओं में भी पाया जानेसे लक्षण नहीं है- सय-जन्य कैसे माना जा सकता है क्योंकि इन कोसे विशिष्ट
संरागी देवों में भी वह पाया जाता है? इसपर प्रो. सा. ने यह आपत्ति उपस्थित की है कि वास्तव में सम यहीं भूल करते हैं कि क्षधादि प्रवृत्तियोंके यदि क्षुधादि-प्रवृत्तियोंका अभाव सरागी देवोंमें भी हो, तो प्रभावको सर्वथा घातिकर्मक्षय-जन्य अथवा मोहनीय कर सरागी और वीतरागी देवोंमें कोई भेद नहीं रहेगा। साथमें क्षय-जन्य ही समझ लेते हैं। पर बात यह नहीं है । क्षुधा सुधादि प्रवृत्तितोंके अभावको घातिकम-क्षय-जन्य या मोहनीय- प्रवृत्तियोंका अभाव घातिया कोंके अथवा मोहनीय कर्म कर्म-क्षय-जन्य नहीं माना जा सकेगा; क्योंकि सरागी देवोंके सर्वथा क्षयसे भी होता है और उनके विशिष्ट क्षयोपशम घातिकर्म और मोहनीरकर्म मौजूद हैं?
भी होता है। कोई भी गुण अथवा दोषाभाव हो वह । इसका उत्तर यह है कि सरागी और वीतरागी देवों में तरहसे होता है२-कर्मों के चयसे अथवा कर्मों के श्योपसा "जो भेद है वह सुधादि प्रवृत्तियोंके अभावको लेकर नहीं है, 'तदितरावृत्तित्वे सति तन्मात्रवृत्तित्वमसाधारणत्वम्'।-त.
किन्तु सरागता और वीतरागताको लेकर है जैसाकि उनके २ ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय ये चा 3. नामांसे और स्वयं प्राप्तमीमांसाकारके 'रागादिमत्सु सः' कर्म धातिकर्म कहलाते हैं। इनमें मोहनीर.का तो प्रभा
इस प्रतिपादनसे ही प्रकट है। अर्थात् जो स्वर्गवासी देव हैं. तीन तरहसे होता है-उपशमसे, क्षयोपशमसे और क्षयसे वे तो राग, दुष, मोह आदि दोपोंसे विशिष्ट हैं और जो शेष तीन कर्मोंका अभाव दो ही तरहसे होता है-क्षयो वीतरागी देव हैं वे उन दोषोंसे सर्वथा रहित हैं-निषि ' पशमसे और क्षयसे । उपसम, क्षयोपशम और क्षय तीनों हैं। अत एव दुधादि प्रवृत्तियोंका अमाव दोनों में रहनेपर हालत में दोषाभाव और गुरु का प्राविर्भाव होता है। भी सरागता और वीतरागता-कृत भेद उनमें स्पष्ट है। उपशमकी हालतमें दोषभाव और गुण का प्राविभोर कितनी ही बातों में समानता और कितमी हीमें असमानता अन्तर्मुहुर्त जितने काल के लिये ही होता है। अतः या दोनों हर एकमें रहती हैं। इतना ही है कि जो उनका यहाँ गौण है। क्षयोपशम अवस्थामें दोषाभाव और गुण
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किरण ६-७]
रत्नकरण्ड और प्राप्तमीमांसाका एक कर्तृत्व प्रमाणसिद्ध है
२८३
से । कर्मों के सर्वथा क्षयसे जो दोषाभाव अथवा गुण होता चार-चार महीने और एक एक वर्ष तक प्रतिमायोग धारण है वह अपने परिपूर्ण रूपमें और सदाके लिये होता है। करनेपर भी कभी थकते नही हैं और न उन्हें पसीना ही उस नष्ट शेषके अथवा उत्पच गुणके अंभावके पुनः होनेकी पाता है। राजवार्तिकका यह उद्धरण इस प्रकार है:किसी भी काल, किसी भी क्षेत्र और किसी भी पर्यायमें "वीर्यान्तराय, योपशमाविर्भूतासाधारणकायबसम्भावना नहीं रहती। एक बार उत्पन्न हुआ फिर वह सटेव लत्वान्मासिकचातौमिक-सांवत्सरिकादिप्रतिमायो - अनन्त कालतक वैसा ही बना रहता है-उसकी प्रच्युति फिर नहीं होती। पर कर्मों के क्षयोपशमसे जी दोषाभाव
: गधारणेऽपि श्रम-क्लमविरहिताः कायबलिनः"पृ.१४४ अथवा गुण होता है वह न्यूनाधिक और किसी निश्चित देवोंके आयुकर्म और घातिकर्मका उदय मौजूद है. और काल तक के लिये ही होता है और इसीलिये क्षयोपशमिक श्रादुकर्म तो प्रतिक्षण गलता भी रहता है फिर भी उनके । गुण अथवा दोषाभाव तरतमता-न्यूनाधिकताको लिये हए पाये जरा नहीं जाती-उसका अभाव है और इसीलिये उन्हें जाते हैं और असंख्यातरूपसे वे घटते बढ़ते रहते हैं--एक 'निर्जर" कहा गया है । यदि पूछा जाय कि उनके जराका बार उत्पन्न हुथा क्षयोपशमिक गुण अथवा दोषाभाव प्रभाव किस कर्मके क्षयसे है या किस तरहसे है तो इसका कालान्तर, देशान्तर और पर्यायान्तरमें नष्ट होकर पुनः भी उत्तर यही दिया जायगा कि यद्यपि उनके वीर्यान्तरायकर्मका उत्पन्न हो जाता है। उदाहरणस्वरूप एक वीर्यान्तरायकर्मके उदय है-क्षय नहीं है फिर भी उसका उनके भवनि मत्तक क्षयोपशमको ही लीजिये, वह सर्वतो न्यून सूक्ष्म निगोदिया विशिष्ट क्षयोपशम है और उससे उन्हें ऐसा बल प्राप्त रहता लब्ध्यपर्याप्तक होता है और सर्वतो अधिक तेरहवें गुण- है कि जिसकी वजहसे वे बुढापाको प्राप्त नहीं होते। इसी स्थानके उन्मुख 'हए बारहवें गुणस्थानवी महायोगी क्षयोपशमके प्रभावसे पसीनाका भी उनके प्रभाव है। तात्पर्य
निर्ग्रन्थके और सर्वार्थसिद्धिके देवके है। मध्यवर्ती असंख्यात यह कि इस कर्मके क्षयोपशमका बड़ा अचिन्त्य प्रभाव है। __ भेद दूसरे अनन्त प्राणियोंके हैं। एक ही जीवके विभिन्न इसी प्रकार मोहनीय, ज्ञानावरण और दर्शनावरण के क्षयो
कालोंमें वह संख्यातीत प्रकारसे हो सकता है। इस वीर्यान्त- . पशमको भी समझना चाहिये । निद्रादर्शनाचरण कर्मका रायकर्मके क्षयोपशमका ही प्रभाव है कि दो-दो छह-छह उदय उनके विद्यमान है-उसका उनके क्षय नहीं है फिर महीने और यहाँ तक कि बारह वर्ष तक भी मानवशरीरमें भी जो उनके निद्राका अभाव है और वे सदैव 'निर्निमेष भूख-प्यासादिकी वेदना नहीं हो पाती। यह बात तो आज अथवा 'अस्वप्न' बने रहते हैं वह उस कर्मके भावनिमित्तक भी अनुभव सिद्ध है कि वीर्यन्तरायकर्मके तयोपशमकी विशिष्ट क्षयोपशमकी ही कृपा है। अन्तमहर्तमें समग्र न्यूनाधिकतासे कोई एक ही उपवास कर पाता है या मामूली द्वादशाङ्ग श्रुतका पारायण करने वाले श्रुतकेवलीको कौन ही परिश्रम कर पाता है और दूसरा स-स बीस-बीस नहीं जानता ? अत: यही बात प्रकृतमें समझिये । केवली उपवास कर लेता है या बड़ा-सा बड़ा परिश्रम करके भी भगवानके चूकि वातिकर्मोंका सर्वथा क्षय हो चुका है, थकानको प्राप्त नहीं होता। अकलंकदेवने राजवार्तिकमें एक इसलिये उनके सुधादि प्रवृत्तियोंका प्रभाव उन कायबलऋद्विधारी योगी मुनिका वर्णन किया है. जिसमें कर्मों के सर्वथा क्षयजन्य है और सरागी देवोंके चकि घातकहा गया है कि उन्हें वीर्यान्तरायकर्मके क्षयोपशमसे असा- कौंका एक खास तरहका क्षयोपशम है और इसलिये उनके धारण काय-बल प्राप्त होता है जिससे वे एक एक महीने उन प्रवृत्तियोंका खास तरहका अभाव है और वह क्षयं पशमप्राविर्भाव कुछ अधिक ६६ सागर तक बना रहता है।
- जन्य है, जो क्षयोपशम उनकी आयु पर्यन्त ही रहता है और क्षय-अवस्थामें दोषाभाव और गुरु का आविर्भाव
तथा पा के समाप्त होनेपर पर्यायान्तर-मानव या तिथंचसादि होता हुश्रा अनन्त काल तक अर्थात् सदैव रहता.१ "अमरा निर्जरा देवास्त्रिदशा विबुधाः।"-अमरकोष १-७ है-फिर उसकी प्रच्युति नहीं होती। इन दोनोंपर ही २ "आदित्या ऋभयोऽस्वप्ना अमर्त्या अमृतान्धसः।" प्रकृतमें विचार किया गया है।
-अमरकोष १-८॥
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२८४
अनेकान्त
[वर्ष
की पर्याय-ग्रहण करते ही उस पर्यायानुकूल भूख-प्यासा- विद्यानन्दके इस शंका-समाधानसे स्पष्ट है कि केवलीके दिकी प्रवृत्ति होने लगती है। अपनी पर्यायमें तो उन मानव धादि प्रवृत्तियोंका अभावरूप महोदय घातियाकर्मक्षय-जन्य साधारण प्रवृत्तियोंका अभाव ही है । तात्पर्य यह हुआ कि है और सरागी देवोंके घातियाकर्मक्षय-जन्य न होकर उनके सुधादि प्रवृत्तियोंका अभाव धातिया कोंके क्षयसे और क्षयोपशम-जन्य है। यही कारण है कि उन महोदयको उनके सयोपशमसे दोनोंसे होता है । उनका सर्वथा श्रात्य-. अतिशयमात्र ही बतलाया गया है-उसे लक्षणको टमें न्तिक अभाव तो केवलीके होता है जो घातिकर्मों के रुय-जन्य नहीं रखा और इसलिये वह उपलक्षण हो सकता है। यहाँ है और दैशिक, कालिक और पार्यायिक उनका अभाव हम यह भी प्रकट कर देना चाहते हैं कि क्षुधादि प्रवृत्तियोंमें सरागी देवोंके या विशिष्ट योगियोंके होता है जो घातिकमोंके यथासम्भव प्रवृत्तियोंका ही प्रभाव देवोंमें है, जैसे पसीनाका क्षयोपशम-जन्य है । और इसलिये घातियाकर्मों के क्षय तथा प्रभाव, जराका प्रभाव मानवीय क्षुधा-पिपासाका प्रभाव, क्षयोपशम और बुधादि प्रवृत्तियों के प्रभावमें कारण-कार्य- आतंक (रोग) का प्रभाव, अकालमृत्युका अभाव आदि । भाव सोपपन्न है-इसमें कोई बाधादिदोष नहीं हैं। और इनकी अपेक्षा सरागी तथा वीतरागी देवोंमे समानता हमारे इस विवेचनका समर्थन प्राचार्य विद्यानन्दके
है। और राग, द्वष, मोह, चिन्ता, भय आदिके अभावकी
अपेक्षा उनमें असमानता है। प्राप्तमीमांसामें चुकि हेतुवादसे अष्ठसहस्रीगत महत्वपूर्ण शंका-समाधानसे भी हो जाता है, जो इस प्रकार है
प्राप्तका निर्णय अभीष्ट है, इसलिये वहाँ वह केवल असमा
नता (वीतरागता, सर्वज्ञता और हितोपदेशकता) ही विवक्षित “अथ यादृशो घातिक्षयजः स (विग्रहादिमहो- हुई है और इसीके द्वारा अरहन्तको कपिलादिसे व्यवच्छेद दयः) भगवति न तादृशो देवेषु येनानैकान्तिकः करके प्राप्त सिद्ध किया गया है। पर, रत्नकरण्डश्रावकाचार स्यात् । दिवौकस्वप्यस्ति रागादिमत्सु स नैवास्तीति चुकि श्रद्धाप्रधान श्रावकोंके धर्मका प्रतिपादक ग्रंथ है, अत:
वहाँ हेतुवाद और अहेतुवाद (आज्ञावाद-भागमवाद) दोनों व्याख्यानादभिधीयते । तथाप्यागमाश्रयत्वादहेतु :
द्वारा स्वीकृति अतिशयदिछुक भी प्राप्तका स्वरूप वर्णित पूर्ववत् ।"-पृ०४। ।
किया गया है। इससे स्पष्ट है कि प्राप्तमीमांसामें बधादि यहाँ विद्यानन्द पहले शंकाकार बन कर कहते हैं कि
प्रवृत्तियोंका प्रभाव भी केवलीमें विवक्षित है। पर, लक्षण
अब जैसा घातियाकर्मक्षयजन्य वह निःस्वेदत्यादि महोय रूपसे नहीं, किन्तु उपलक्षण अथवा अतिशयरूपसे। भगवान्में पाया जाता है वैसा देवोंमें नहीं है. उनके तो
लक्षण और उपलक्षणका विवेकघातियाकर्म मौजूद हैं-मात्र उनका चयोपशम है और .' इसलिये उनका महोदय छाति कर्मों के आयजन्य नहीं मैंने अपने इसी लेखमें आगे चलकर यह बतलाया था है-क्षयोपशपजन्य ही है। अत: हेतु अनैकान्तिक नहीं है कि 'रत्नकरण्ड (श्लोक ५) में प्राप्तका स्वरूप तो
और इसलिये यह महोदय (पातिकर्मक्षय-जन्य) प्राप्तपनेका सामान्यत: प्राप्तमीमाँसाकी ही तरह "प्राप्तनोत्सन्ननिर्णायक होसकता है। इसका वे फिर उत्तरकार बनकर उत्तर दोषेण" इत्यादि किया है। हाँ, आप्तके उक स्वरूपमें देते हैं कि फिर भी (उक प्रकारसे हेतुमें व्यभिचार वारित आये 'उत्सन्नदोष के स्पष्टीकरणार्थ जो वहाँ क्षुत्पिपासा हो जानेपर भी) हेतु आगाम श्रय है, पहलेकी तरह । अर्थात् प्रादि पद्य दिया है उसमें लक्षण-रागद्वेषादिका प्रभाव वह भागमपर निर्भर है-श्रागमकी अपेक्षा लेकर ही साध्य और उपलक्षण-क्षुधादिका प्रभाव दोनोंको 'उत्सन्नदोष सिद्धि कर सकेगा; क्योंकि आगममें ही भगवानके निःस्वे- के स्वरूपकोटिमें प्रविष्ट किया गया है ।' और फुटनोटमें दत्वादि महोदयको घातियाकर्मक्षय-जन्य बतलाया गया है न्यायकोष तथा संक्षिप्तहिन्दीशब्दसागरके आधारसे और इसलिये यहाँ हेतुवादसे प्राप्तका निर्णय करने में वह लक्षण और उपलक्षणमें भेद दिखाया था। इसपर प्रो. अविवक्षित है।
सा० ने उपलक्षणके दो-तीन और लक्षण अपने मूल लेखमें
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किरण ६–७]
ही— फुटनोट में नहीं— उपस्थित किये हैं, मानों वे मेरी दृष्टिमें न हों और अन्तमें मुझसे पूछा है कि 'मेरे मतानुसार सुधादिवेदनाओं का अभाव प्राप्तका किस प्रकारका उपलक्षण है और रत्नकरण्डकार उसके द्वारा प्राप्तकी क्या विशेषता बतलाना चाहता है ? उसके द्वारा प्राप्तको सरागी देवोंके सदृश बतलाना उन्हें अभीष्ट या उनसे पृथक् ।' मेरे द्वारा लक्षण और उपलक्षण में सप्रमाण दिखाये गये अन्तरमें आपने कोई दोष नहीं बतलाया और जब उसमें कोई दोष नहीं है तो उपलक्षण के लांगूल पुच्छकी तरह श्रन्यथासिद्ध और लक्षणोंको प्रस्तुत करना सर्वथा अनावश्यक है उनसे सिद्ध प्रसिद्ध कुछ भी नहीं होता । शब्दस्तोममहानिधिगत उपलक्षणके स्वरूपको प्रस्तुत करते हुए तो वे उपलक्षण और अजहत्स्वार्था लक्षणामें भेद ही नहीं समझ सके । श्रस्तु हम पुनः दोहराते हैं कि हमने जो लक्षण और उपलक्षणके मध्युमें न्यायकोष और हिन्दीशब्दसागर के श्राधारसे अन्तर दिखाया है वह निर्दोष है और इसलिये वही हमारे लिये वहाँ विवक्षित है। वास्तवमें उपलक्षण कहीं तो शब्दपरक होता है, जैसे “काकेभ्यो दधि रदयताम्” में काक पद उपलक्षण है और कहीं अर्थपरक होता है, जैसे श्रात्मा के ५३ भावों में जीवत्वभावके अलावा
एक प्राचीन ताम्र-शासन
२८५
५२ भाव उपलक्षण हैं। प्रकृतमें सुधादि प्रवृत्तियोंका अभाव श्राप्तमें अर्थपरक उपलक्षण है और उससे रत्नकरण्ड श्रावकाचारका कर्ता श्राप्तको मानवप्रकृति से भी प्रतीत बतलाना चाहता है । अर्थात् 'वे (केवली भगवान्) लोकोत्तर परमात्मा है यह उसके द्वारा प्रकट करना उन्हें अभीष्ट है । सरागी देव मानवप्रकृति से ऋतीत (श्रमानव) होते हुए भी वे प्राप्तसे पृथक हैं, प्राप्त तो मानवप्रकृतिरहित और देवाधिदेव है एवं घातिकर्मक्षयजन्य श्रपरिमित विशेषताओंसे युक्त है, पर सरागीदेव केवल मानवप्रकृतिरहित ही हैं एवं कर्मोंके विशिष्ट क्षयोपशमजन्य सीमित और श्रल्पकालिक विशेषता — महोदयोंसे ही युक्त हैं-- वे देवाधिदेव वीतरागदेव नहीं हैं, यह रत्नकरड श्रावकाचार के ६ ठवें पद्यमें उसके कर्ताने बतलाया है और यह स्वयं श्राप्तमीमांसाकारकी ही द्वितीय रचना स्वयम्भूस्तोत्रके मानुषीं प्रकृतिमभ्यतीतवान्' आदि ७५ वें पद्य के सर्वथा अनुकूल है। अतः सरागी और वीतरागी देवोंके कुछ सादृश्यको लेकर उन्हें सर्वथा एक समझना या बतलाना भारी भूल है । इस सम्बन्धमें पीछे पर्याप्त विचार किया जा चुका है छतः और अधिक विस्तार अनावश्यक है ।
एक प्राचीन ताम्र-शासन
अर्सा हुआ भारत सरकार के अभिलेख वेत्ता डा० हीरानन्दजी शास्त्री एम० ए० ने ऊटकमण्ड (मद्रास) से एक प्राचीन ताम्रशासनकी प्रतिलिपि (कापी), कुछ प्रश्नोंके साथ, मुनि पुण्य विजयजी के पास पाटन भेजी थी और उनके पाससे, तत्सम्बन्धी जानकारीके लिये, मुझे प्राप्त हुई थी; क्योंकि ताम्रशासन का सम्बन्ध आर्यनन्दि नामके दिगम्बराचार्य से है, जिन्हें इस शासनपत्र में 'जम्बूखण्ड' गणका श्राचार्य लिखा है और विस्तृत ज्ञान-दर्शन- तपसे सम्पन्न बतलाया है । ये आचार्य उस समय 'जलार' ग्राम में जो कि कण्माण्डी देशके अन्तर्गत पर्वत निकटवर्ती ग्राम था, अपने गण अथवा संघ सहित स्थित थे । इनके नामपर इस शासनपत्रमें ग्रामके उत्तर में स्थित पूर्विण ग्रामका ५० निवर्तन क्षेत्र, भगवान् अर्हन्तकी प्रतिमा अथवा प्रतिमाओंकी नित्यपूजा के लिये और शिक्षक (शैक्ष्य - शिष्य ?), ग्लान (रोगी) तथा वृद्ध तपस्वियोंकी वैयावृत्ति (सेवा) के लिये, दान किया गया है, जिसकी सीमाओं का दानपत्र में स्पष्ट उल्लेख है। यह दान उन श्रीमान् इन्द्ररणन्द अधिराजकी ओरसे, अपने वंशजोंकी और अपनी धर्मवृद्धिके लिये,
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(क्रमश:)
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[ वर्ष =
दिया गया है जो कि विजयानन्द मध्यमराजाके पुत्र थे, सेन्द्रक नामक निर्मल कुलरूप आकाशके उदित दीप्त - दिवाकर थे और राष्ट्रकूट वंशमें उत्पन्न हुए श्री देढ महाराजके द्वारा अभिमत (माने हुए राजा ) थे । और यह दान उन गुप्तायिक राजाओं के ८४५ वर्ष बीतनेपर दिया गया है जो कि इस अवसर्पिणी कालके २४ वें तीर्थकर सन्मति श्रीवर्द्धमानकी वृद्धिंगत तः सन्ततिमें हुए हैं— अथात् भगवान् वर्द्धमान (महावार) के तीर्थानुयायी थे । उन्ही वर्द्धमान तीर्थंकर के शासनकी आदिमें एक श्लोकद्वारा मंगलाचरणरूप से वृद्धि-कामना की गई है - लिखा है कि 'जिन्होंने रिपुत्रों - कर्मशत्रुवोंका नाश किया है उन बर्द्धमान गरण-समुद्रके वद्धमानरूप चन्द्रमाका दैदीप्यमान शासन (तीर्थों) वृद्धिको प्राप्त होवे, जो कि मोह के शासन स्वरूप है— मोहपर कंट्रोल रखने अथव विजय प्राप्त करनेकी एकनिष्ठको लिये हुए और दानपत्रके अन्तमें यह घोषणा की गई है कि 'जो इस दानका अपहरण करता है वह पंच महापातकों से युक्त होता है— हिंसादि पांच घोरपापों का भागी होता है।' दानपत्रमें कुल १६ पंक्तियाँ हैं और इस लिये उसे पंक्तिक्रमसे ही आज अनेकान्त पाठकों के सामने रक्खा जाता है:
1
:
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श्रकान्त
| वर्द्धतां वर्द्धमानेन्दोर्वर्द्धमानगणोदधेः शासनं नाशित2 रिपोर्भासुरं मोहनाशनम् ।। इहास्यामवसर्पिण्यान्तीर्थ3. कराणां चतुर्विंशतितमस्य सन्मतेः श्रीवर्द्धमानस्य वर्द्धमा4. नायां तीर्थसन्ततावागुप्तायिकानां राज्ञामष्टासु वर्षशते5 षु पंचचत्वारिंशदग्रेषु गतेषु राष्ट्रकूटान्वयजातश्रीदे6 अ (स्य ?) महाराजस्याभिमतः श्रीसेन्द्र कामलकुलाम्बरोदितदी7 प्रदिवाकरो विजयानन्दमयमराजात्मजः श्रीमानिन्द्रणन्दाधि8 राजः स्ववंश्यानामात्मनश्च धर्मवृद्धये कमाएडीविषये
9 पर्वतप्रत्यासन्तजलारग्रामे जम्बुखण्डगणस्यायज्ञान10 दर्शनतपसम्पन्नाय आर्य्यणन्द्याचार्याय भगवदह|| प्रतिमानवरतपूजार्थं शिक्षकग्लानवृद्धानां च तपस्विनां वै12 यावृत्त्यार्थं ग्रामस्योत्तरतः पूर्विणग्रामविरेयसीमकं द13 क्षिण मुञ्जलमार्गपर्यन्तं अपरतः एन्दाविरुत्स
14 हितवल्नीकं तस्मादुत्तरतः पुष्करणी ततश्च यावत्पूर्व्वविरेय15 कं राजमानेन पंचाशन्निवर्तनप्रमाणक्षेत्रन्द
16 सवानेतद्यो हरति स पंचमहापातकसंयुक्तो भवति [1]
इस शासनपत्रमें उल्लेखित आगुप्तायिक राजाओं, उनके संवत्, राष्ट्रकूटवंशी देठ महाराज, सेन्द्रककुल, विजयानन्द राजा, उसके पुत्र इन्द्रनन्द आधिराजा, कष्माण्डी देश, जलार ग्राम, पूर्विण
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किरण ७-८
भट्टारकीय मनोवृत्तिका एक नमूना
२८७
ग्राम, जम्बूखण्ड गण, और आर्यनन्दि आचार्यके विषयमें विशेष अनुसन्धानकी जरूरत है, उससे इतिहास-विषयपर कितना ही नवीन प्रकाश पड़ेगा। अतः विद्वानोंको इस विषयमें अवश्य प्रयत्न करना चाहिये और उसके नतीजेसे अनेकान्तको सूचित करके अनुगृहीत करना चाहिये। -सम्पादक
भट्टारकीय मनोवृत्तिका एक नमूना
स समय भट्टारकोंका स्वेच्छाचार अनुवादित करके उनपर टीकाएं लिखकर उन्हें
बहुत बढ़ गया था-उनके आचार सवत्र प्रचारित करनेका बीडा उठाया गया था, - विचार शास्त्रमर्यादाका उल्लंघन जिससे गृहस्थजन धर्म एवं तत्त्वज्ञानके विषयको
_R करके यथेच्छ रूप धारण कर रहे स्वयं समझकर ठीक आचरण करें और उसके लिये IANER थे और उनकी निरंकुश, दूषित गृहस्थो से गये बीते मठाधीश और महापरिग्रही
' एवं अवांछनीय प्रवृत्तियोंसे जैन भट्टारकोंके मुखापेक्षी न रहें, इसका नतीजा बड़ा सुन्दर जनता कराह उठी थी और बहुत कुछ कष्ट तथा निकला-गृहस्थों में विवेक जागृत हो उठा, धर्मका पीडाका अनुभव करती करती ऊब गई थी, उस जोश फैल गया, गृहस्थ विद्वानों द्वारा शास्त्रसभाएं समय कुछ विवेकी महान् पुरुषोंने भट्टारकोंके चंगुल होने लगी, भट्टारकों की शास्त्रसभाएं फीकी पड़ गई, से अपना पिण्ड छुड़ाने, भविष्यमें उनकी कुत्सित स्वतंत्र पाठशालाओं द्वारा बच्चों की धार्मिक शिक्षा प्रवृत्तियों का शिकार न बनने, उनके द्वारा किये जाने का प्रारम्भ हुआ और जैनमन्दिरों में सर्वत्र शास्त्रों वाले नित्यके तिरस्कारों-अपमानों तथा अनुचित के संग्रह, स्वाध्याय तथा नित्यवाचनकी परिपाटी कर-विधानोंसे बचने और शास्त्रविहित प्राचीन मार्ग चली । और इन सबके फलस्वरूप श्रावक जन धर्मसे धर्मका ठीक अनुष्ठान अथवा आचरण करनेके कर्ममें पहलेसे अधिक सावधान होगये—वे नित्य लिये दिगम्बर तेरहपन्थ सम्प्रदायको जन्म दिया स्वाध्याय, देवदर्शन, शास्त्रश्रवण, शील-संयमके था। और इस तरह साहसके साथ भट्टारकीय जूए पालन तथा जप-तपके अनुष्ठानमें पूरी दिलचस्पी को अपनी गदनोंपरसे उतार फेंका था तथा धर्मके लेने लगे और शास्त्रों को लिखा लिखा कर मन्दिरों मामले में भट्रारकोंपर निर्भर न रहकर उन्हें ठीक में विराजमान किया जाने लगा। इन सब बातों में प्रथमें गुरु न मानकर-विवेकपूर्वक स्वावलम्बनके स्त्रियों ने पुरुषों का पूरा साथ दिया और अधिक प्रशस्त मार्गको अपनाया था। इसके लिये भट्टारकों तत्परतासे काम किया, जिससे तेरह पन्थको उत्तरोको शास्त्रसभामें जाना, उनसे धर्मकी व्यवस्था लेना · तर सफलताकी प्राप्ति हुई और वह मूलजैनाम्नाय
आदि कार्य बन्द किये गये थे । साथ ही संस्कृत- का संरक्षक बना । यह सब देखकर धर्मासनसे च्युत पाकृतके मूल धर्मग्रंथोंको हिन्दी आदि भाषाओं में हुए भट्टारक लोग बहुत कुढ़ते थे और उन तेरह
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अनेकान्त
[ वर्ष
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मिश्रित खिचड़ी भाषामें लिखे गये हैं और बहुत कुछ अशुद्ध पाये जाते हैं इनके ऊपर “हृदे (दथ)बोघ ग्रंथ कथनीयः” लिखा है । संभव है 'हृदयबोध' नामका कोई और ग्रंथ हो, जिसे वास्तवमें 'हृदयवेध' कहना चाहिये, और वह ऐसे ही दूषित मनोवृत्ति वाले पद्यों से भरा हो और ये पद्य ( जिनमें ब्रकेटका पाठ अपना है) उसीके अंश हों “सूतउत्पत्यं (सुतोत्पत्तौ ) जगत्सर्वं हर्षमानं प्रजायतेः (ते) तेरापंथी वन्क (वनिक) पुत्रं (त्रे) रोरवं देवतागणाः ।१। त्रिदश १३ पंथर तौ (ता) निशिबासराः । गुरुविवेक न जानति निष्ठुराः जप-तपे कुरुते बहु निफलां (ला) किमपि ये व (?) जना सम कांठया ॥ २ ॥ पुर्व (रुष) रीत लबै निजकामिनी प्रतिदिनं चलिजात जी (जि) नालये । गुरुमुखं नहि धर्मकथा श्रुणं नृपगृहे जिम जाति वरांगना ॥ ३ ।”
पन्थमें रात दिन रत रहनेवाले श्रावकों पर दूषित मनोवृत्तिको लिये हुए बचन-वाणों का प्रहार करते थे— उन्हें ‘निष्ठुर' कहते थे, 'काठिया' (धर्मकी हानि करनेवाले). बतलाते थे और 'गुरु विवेकसे शून्य' बतलाते थे। साथ ही उनके जप-तप और शील. संयमादिरूप धर्माचरणको निष्फल ठहराते थे और यहाँ तक कहनेकी धृष्टता करते थे कि तेरहपंथी वनिकपुत्रकी उत्पत्तिपर देवतागण रौरव - नरकका अथवा घोर दुःखका अनुभव करते हैं, जब कि पुत्रकी उत्पत्तिपर सारा जगत हर्ष मनाता है। इसके सिवाय वे पतितात्मा उन धर्मप्राण एवं शील-संयमादिसे विभूषित स्त्रियोंको, जो धर्म के विषय में अपने पुरुषोंका पूरा अनुसरण करती थीं और नित्य मन्दिरजीमें जाती थीं किन्तु भट्टारक गुरु के मुखसे शास्त्र नहीं सुनती थीं, 'वेश्या' बतलाते थे ! – उनपर व्यंग्य कसते थे कि वे प्रतिदिन जिनालय ( जैन मंदिर ) को इस तरह चली जाती हैं जिस तरह कि राजाके घर वारांगना ( रण्डी) जाती है !!
हालमें इस भट्टारकीय मनोवृत्तिके परिचायक तीन पद्य मुझे एक गुटकेपरसे उपलब्ध हुए हैं, जो गत भादों मासमें श्री वैद्य कन्हैयालालजी कानपुरके पाससे मुझे देखनेको मिला था और जिसे सिवनीका बतलाया गया है। यह गुटका २०० वषसे ऊपरका लिखा हुआ है। इसमें संस्कृत प्राकृत आदि भाषाओं के अनेक वैद्यक, ज्योतिष, निमित्तशास्त्र और जंत्रमंत्र-तंत्रादि विषयक ग्रंथ तथा पाठ हैं । अस्तु; उक्त तीनों पद्य नीचे दिये जाते हैं, जो संस्कृत-हिन्दी
इन विषबुझे वाग्बाणों से जिनका हृदय व्यथित एवं विचलित नहीं हुआ और जो बराबर अपने लक्ष्यकी ओर अग्रसर होते रहे वे स्त्रीपुरुष धन्य हैं। और यह सब उन्हींकी तपस्या, एकनिष्ठा एवं कर्तव्यपरायणताका फल है, जो पिछले जमाने में भी धर्मका कुछ प्रकाश फैल सका और विश्वको जैनधर्म एवं तत्वज्ञान विषयक साहित्यका ठीक परिचय मिल सका। अन्यथा, उस भट्टारकीय अन्धकार के प्रसार में सब कुछ विलीन हो जाता ।
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सम्पादक
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विविध-विषय
अतःकालीन सरकार सामान्यतः मस्लिम दो दलों में विभक हो जायगी और तब उसके वायसरायके लीगके केन्द्रस्थ कांग्रेती सरकारमें सम्मिलित होनेका देशमें श्राधीन रहने और उसके द्वारा नियन्त्रित होनेकी ही सर्वत्र सहर्ष स्वागत किया जाता; किन्तु इस नवीन सम्मि
सम्भावना है, किन्तु इस परिस्थितिको काँग्रेस कभी भी लनके प्रति देश वस्तुतः अत्यन्त उदासीन एवं निरुत्साह ही
स्वीकार नहीं करेगी। इस राजनैतिक समझौते के-या इसे रहा। मि० जिन्ना द्वारा प्रस्तुत समस्या के हल करने के प्रयत्नको
जो कुछ भी नाम दिया जाय उसके-फलस्वरूप साम्प्रदायिक 'अत्यन्त रूखा' कहकर ठीक ही बयान किया गया है। खींचतानके भी कम होनेके कोई खक्षण नहीं दीख पड़ते । उनके स्वयं के अनुयायियों में भी, छोटे बड़े सब ही इससे नोभाखोजीकी भयङ्कर दुरवस्था किसी भी भारतीय देशभत्रको माखुश रहे । उन्होंने अन्त:कालीन सरकारसे अलग रहनेकी यह महसूस करने नहीं दे सकती कि देशने अपनी कठिनाइयों अपनी मूर्खताको भी महसूस किया और उसका प्रतिकार और संकटोंसे मुक्ति पाली है । एक मात्र यही सन्तोषकी बात करना चाहा। कांग्रेस और लीगके बीच समझौता कराने के है कि (अन्त:कालीन सरकारके) कांग्रेसी दलमें देशके लिये नवाब भौगल द्वारा किया गया हस्तक्षेप भी विफल विद्यमान सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति ही सम्मिलित हैं; और संभव है रहा; अन्तमें, परिणामस्वरूप, मि० जिनाको वायसरायके थे ऐसी स्थिति में भी सामञ्जस्यकी भावनायें सञ्चारित हाथोंसे वही स्वीकार करना पड़ा जोकि नेहरू सरकार उन्हें करने में सफल हो जाय जहाँ उसकी कोई पाशा नहीं है। पहले ही स्वयं दे रही थी। उन्होंने नेहरू सरकारकी अपेक्षा किन्तु यह मात्र एक श्राशा ही है, यदि अभिलाषा नहीं।' वायसरायके हाथों वे ही पांच स्थान लेने पसन्द किये।
-के. एम. मुन्शी । इस बातसे उनके मस्तिष्कका मित्रता अथषा सहायता पूर्ण
कांग्रेस सभापतिका सन्देश- गत २२-२३-२४ होना सूचित नहीं होता। उन पांच स्थानों से एक स्थान
मधम्बरको मेरठ में अ. भा. राष्ट्रीय महासभाका ५४ वाँ उन्होंने एक कांग्रेस-विरोधी हरिजनको इस आशामें देदिया
अधिवेशन सफलता पूर्वक सम्पन्न हुआ। उक्त अवसरपर कि उससे भारतीयः हरिजनोमें फूट पड़ जायगी । इस बातसे भी उनके इरादोंमें मित्रभावका अभाव झलकता है। प्रत
देश के मनोनीत राष्ट्रपति प्रागर्य कृपलानीने जनताको
स्वावलम्बी बनने के लिये प्रेरित किया। आपने कहा-'श्राप इसके, यह भारतकी राष्ट्रीय एकताको भंग करनेका उनका
लोगोंको अपनी रक्षाके लिये अन्तःकालीन सरकार, प्रान्तीय एक साहसिक प्रयत्न था। नेहरू सरकारने पहिले ही अपने
सरकार, फौज या पुलिसकी ओर न देखकर अपनी शकि, ऊपर संयुक्त उत्तरदायित्व लेकर शनि और सामजस्यकी एक
अपने संगठन तथा अपनीब हादुरीपर निर्भर रहना चाहिये। पाश्चर्यजनक प्रथा डालदी थी। इस सरकारके लिये यह
आप लोगोको जातिपातके बंधन स्याग देने चाहिये, अच्छे एक आसान बात थी, क्योंकि इसके सदस्य या तो कांग्रेसी
पड़ोसियों के साथ मित्रता कायम करनी चाहिये और साहस थे या पके राष्ट्रवादी । क्या ये नये पाँच सदस्य, जो अब
तथा संगठनके साथ गुण्डेपनका विरोध करना चाहिये।' पाकिस्तान प्राप्त करनेकी श्राशा लगाये बैठे हैं इस संयुक्त उत्तरदायित्वको अपनायेंगे अथवा नहीं, यह एक अत्यन्त प०
पं. नेहरूजीका जन्मदिवस-ता० १४ नवम्बसन्दिग्ध प्रश्न है, यदि वे ऐसा नहीं करते तो नेहरू सरकार को देश विदेशमें, भारतीय राष्ट्र के शिरमौर पं. जवाहरलाल
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२६०
अनेकान्त
[वर्ष ८
नेहरुका जन्मदिन सोसाह मनाया गया। न्यूयार्क (अमेरिका) हस्तक्षेप नहीं कर सकती। भारतका विधान बनाने के लिये में स्थित भारतीय स्वातन्त्र्य सभाकी राष्ट्रीय समिति द्वारा विधान परिषद अपने ऊपर लगाई पाबन्दियोंको तब देगी। इस उत्सवका आयोजन विशेष महत्वपूर्ण रहा। उसमें अन्य देशोंने भी जब विधान परिषदें चुनकर उन्हें विधान अमेरिका, रूस, चीन, इंगलिस्तान, फिलीपाइन द्वीपसमूह, बनानेका काम सौंपा तो उन्हें भी इस प्रकारकी कठिनाइयोंका अफगानिस्तान, लेबिनन श्रादि राष्ट्रोंके प्रतिनिधि सरकारी सामना करना पड़ा था। हम भी अन्त में उन्हीं देशोंकी भाँति तौरपर सम्मिलित हुए थे। भारतीय प्रतिनिधिमंडलकी नेत्री कठिनाइयोंपर विजय प्राप्त कर लेंगे।' श्रीमती विजयलक्ष्मी पंडित भी उपस्थित थीं। चीनी राजदूत स्वर्गीय मालवीयजी-भारतभूषण महामना पं०. डा. विलिङ्गटन कू उत्सवके प्रमुख वक्ता थे, आपने कहा कि
मदनमोहन मालवीयका ८५ वर्षकी आयु में गत १२ नवम्बर 'यह वर्षगांठ उन (पं.नेहरू)के लिये तथा उस देशके लिये
को काशीस्थ अपने निवास स्थानपर स्वर्गवास होगया, उनकी जिसके कि वे आज वास्तविक कार्याध्यक्ष हैं, नवजीवनकी
मृत्युका निकट कारण नोपाखालीमें हिन्दुओंपर किये गये सूचक है।' श्रीयुत कृष्णमेननने कहा 'उन्होंने अन्तराष्ट्रीय
भीषण अत्याचारोंका धक्का था जिसे ये हिन्दुप्राण महामना, संसारमें भारतवर्षको एक स्वतन्त्र राष्ट्रकी भाँति कार्य करने
अत्यन्त बृद्ध तो थे ही, सहन न कर सके । स्व० मालवीयजी योग्य बना दिया है। यहाँ न्यूयार्क में हम अब 'अपने मालिकों
अपने समयके सबसे पुराने देशभक. जातिभक सार्वजनिक की प्रतिध्वनि मात्र' नहीं रहगये हैं जैसा कि हम बर्सेइ तथा
कार्यकर्ता थे । आपने लगभग ६० वर्ष पर्यन्त निरन्तर जनेवामें रहे थे।' विलियम फिलिप्सने कहा कि 'सर्वोच्च
स्वदेश और स्वजातिकी अथक सेवाकी, चार बार अ. भा. भारतीय नेताकी वन्दना करना मैं अपना सौभाग्य समझता
कांग्रेसके सभापति हुए, काशी हिन्दुविश्वविद्यालय जैसी है। हेनरी वेलेसने नेहरूजीको संसारके सर्वोच्च नेताओंमेंसे
महान संस्थाकी स्थापना की और उसे अपने वर्तमान उमत एक माना। और सुमनेर वेल्सने उनकी हृदयसे प्रशंसाकी।
रूपको पहुंचा दिया । धारासभाओंमें दी गई श्रापकी लंदनमें इंडिया लीगकी ओरसे प्रो. हल्दानेके सभा.
प्रोजपूर्ण लम्बी २ वताएँ स्मरणातीत रहेंगी । कटर पतित्वमें यह उत्सव मनाया गया जिसमें पार्लमेंटके सदस्य
सन तनी होते हुए भी आप उत्कट समाज सुधारक थे। मि० जुलियस सिलवरमेनने कहाकि 'नेहरूकी राजनैतिक
महात्मागांधी श्रादि सभी राष्ट्रीय तथा जातीय नेताओं और दृष्टि विश्वभरमें सर्वाधिक प्रशस्त है। उन्होंने जीवनभर
भारतीय तथा विदेशी राजनीतिज्ञोंके श्राप जीवनभर श्रद्धाभारतके लिये कष्ट सहन किये, किन्तु उनसे उनमें कटुता
भाजन बने रहे। आप सच्चे अर्थों में भारतभूषण और नहीं पाई ।' स्वराज्य हाउस द्वारा भी यह उत्सव मनाया
महामना थे। अापके निधनसे भारतवर्ष में सर्वत्र शोककी गया था और उसमें वकाोंने कहा कि 'नेहरू जी हमारे
लहर व्याप्त होगई । हमारी हार्दिक भावना है कि स्वर्गीय युमके सर्वश्रेष्ठ समाजवादी विचारक हैं।'
श्रात्माको शान्ति एवं सद्गति प्राप्त हो। विधान परिषद के अध्यक्ष-विहार रत्न डा. श्रद्धेय मालवीयजीके निधनपर देशके विभिन्न नेताओंने राजेन्द्रप्रसादजीने ३ दिसम्बरको अपने जीवनके ६३ वें वर्ष अपने २ जो उद्गार व्यक्त किये हैं उनमेंसे कुछ इस प्रकार में प्रवेश किया है। इस इपलक्षमें देशने सर्वत्र श्रापका अभि- हैंनन्दन किया है अाप भारतीय विधानपरिषदके प्रथम स्थावी पं. जवाहरलाल नेहरू-' अब हमें वह चमकता अध्यक्ष निर्वाचित हुए हैं जिसका कि कार्य प्रारंभ होगया है, हा सितारा और नहीं देख पड़ेगा जिसने कि हमारे यद्यपि लीगकी अनिश्चित नीति और सम्राटकी सरकारके जीवनको प्रकाशित किया था श्री हमारे बचपनसे ही हमें अप्रत्याशित हस्तक्षेपोंके कारण उसके भविष्यके संबंधमें सप्रेरणायें दी थीं। वे (मालवीयजी) अब स्वतन्त्र भारत के अभी निश्चित कुछ नहीं कहा जा सकता तथापि अध्यक्ष पद उस प्रतिष्टित भव्य भवनमें रहेंगे जिसे नींवसे शिखर पर्यंत का भार संभालते समय डा. राजेन्द्रप्रसादजीने स्पष्ट घोषणा उन्होंने निर्मित किया है। मुझे उसदिनकी सजीव स्मृति करदी है कि 'विधानपरिषदको कार्यवाही में कोई वाह्य सत्ता है जब, कितने ही वर्ष हुए, मैं पुरानी साम्राज्य-व्यवस्था
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किरण ६-७ ]
पिका-सभाकी दर्शक जरीमें बैठा हुआ मूक प्रशंसाके साथ पं० मालवीयकी प्रभावशाली पड़ता सुन रहा था। वह अपने युग के राजनैतिक महापुरुष थे।'
डा० राजेन्द्रप्रसाद – 'उनका नाम भावी सन्ततिको यह याद दिलाते रहने के लिये सदैव अमर रहेगा कि एक व्यक्ति अपनी एवं सतत् लगन द्वारा कितना कुछ कर सकता है।'
डा० भगवानदास - 'भारतका एक सूर्य अस्त होगया । as युवावस्था ही हिन्दी और अंगरेजीमें समानरूप से दक्ष लेखक एवं यत्रा थे और अपने इन्हीं गुणोंके कारण असे ६० वर्ष पूर्व कांग्रेसके पिता द्वारा प्रशंसित किये गये थे।'
श्री कृष्ण सिंह 'वे एक ऋषि थे और अपने अत्यन्त धार्मिक, निर्धन एवं त्यागपूर्ण जीवनके कारण वे अपने करोड़ों देशवासियों के स्ने; भाजन बन गये ।'
श्रीयुत श्रीप्रकाश — 'पं० मनमोहन मालवीय की मृत्युके साथ साथ हमारे राष्ट्रीय रामसे 14 वीं शताब्दीका अन्तिम राष्ट्रनिर्माता श्रदृश्य होगया । वह एक अपूर्व व्यक्ति थे और उनके जीवनसे हमें, घंटे बड़े सभीको, अनेक शिक्षा है मिलती हैं । उनकी जिह्वासे कभी कोई कटुशब्द नहीं निकला और उहोंने कभी किसीकी निन्दा नहीं की एकरसता एवं सतत् लगन उनके महान गुण थे । अपने दीर्घ एवं घटनापूर्ण जीवनमें उन्होंने न अपना परिधान ही कभी बदला और न अपने विचार ही ।'
विधानपरिषदका उद्देश्यउद्देश्य भारतीय विधान परिप के प्रारंभिक अधिवेशन में जो सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रस्ताव स्वीकृत हुआ वह पं० नेहरूजी द्वारा उपस्थित किया गया था और उसमें उक्त परिषदका उद्देश्य भारतवर्षके लिये एक सर्वतन्त्र स्वतंत्र प्रजातन्त्रात्मक विधान निर्माण करना निश्चित
साम्प्रदायिक दंगे राजनैतिक अधिकारीकी प्रासिके मिस कतिपय स्वार्थी एवं अविवेकी दलोंके इशारेपर देश के विभिन्न भागों में अन्तःसाम्प्रदायिक विद्वेष तथा सज्जन्य दंगे फ़साद, रक्तपात व रोमाञ्चकारी श्रमानुषी अपराधोंकी एक बादली गई, फलस्वरूप शान्तिप्रिय जनसाधारणकी इज्ज़त आबरू, जन धन सब प्ररक्षित और आक्रान्त हुए । और
विविध विषय
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यह सब उस समय हुधा जब कि लगभग आधी शताब्दीके निरन्तर त्याग तपस्या कष्टसहन तथा विविध आन्दोलनों के फलस्वरूप देश स्वतन्त्रताके द्वारपर श्रा खड़ा हुआ था, और दूसरी ओर सप्तवर्षीय महाभयङ्कर विश्वयुद्ध समाप्त हो
चुका था।
इन दंगों के शिकार पीडित ग्रस्त, धन जन गृह हीन मानयों की सहायतार्थ अनेक संस्थाएँ एवं सेवाभावी सजन प्रयत्नशील हुए । पूर्वी बंगाल में जहाँ यह विनाशकारी विभीषिका खूब खुलकर खेली थी महात्मा गांधी स्वयं पहुंचे और गांव गांव पैदल दौरा करके शान्ति र सजायन का संचार कर रहे हैं। कितने ही देनी महानुभावोंने भी इस कार्य में सक्रिय सहयोग दिया; विशेषकर कलकत्तेके बा० छोटेलालजी, जो वीरसेवामन्दिरकी प्रबन्धसमिति सभापति भी हैं, स्वयं उन स्थानों में गये, महात्माजी से भी मिले, और प्रशंसनीय सेवाकार्य किया। आपकी ओरसे विभिन्न
पत्रोंमें जैनसमाज से सहायतार्थ अपीलें भी निकली हैं, उनके उत्तरमें समाज ने अभीतक जो सहायता दी है यद्यपि वह पर्याप्त नहीं है, तथापि उसमें 1० बी० साहू शान्तिप्रसादजीका नाम खासतौर से उल्लेखनीय है जिन्होंने इस हेतु पचास हज़ार रुपये प्रदान किये हैं। स्वयं बा० छोटेलालजीने भी इस कार्य में हजारों रुपये व्यय किये हैं । 'वीर' शादि पत्रोंने भी कुछ अन्य एकत्रित करके उनके पास भेजा है। दानी और उदार जैनसमाज अपना समुचित योग देनेसे गुँड न मोड़ेगी । सहायता भेजनेका पता - बा० छं टेलाल जैन, १०४ - चितरंजन एवेन्यु कलकत्ता, है ।
हम आशा करते हैं कि लोकहितके इस कार्य में
अणु बम सन् ४५ में जापान के हिरोशामा तथा नागासाकी स्थानों के स्फोटसे को बिनाशकारी दुष्परिणाम हुए यह सर्वविदित हैं, तथापि आजके ष्ट्रीय जगतके प्रमुख राष्ट्रोंनें इस बम सम्बन्धी मोह एवं उसके बनाने और संग्रह करने का प्रयत्न कम हुआ नहीं दीख पड़ता । परिणामस्वरूप उसका मुकाबला करनेकी समस्या मानवहितैषी विचारकोंके लिये चिन्ताका विषय बनी हुई है। प्रख्यात दया प्रचारक एवं सामाजिक कार्यकर्त्री अंग्रेज महिला मिस मरयल लिस्टरने अक्तूबर में ईसाइयों के एक अन्तराष्ट्री सम्मेलनमें भाषण देते हुए कहा था कि- 'अणुशत्रिका
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२६२
अनेकान्त
मुकाबला करने के लिये हम सबको उस नैतिक एवं श्रात्मिक शक्तिको मुक्र तथा प्रकट करना होगा जो हमारे भीतर दबी पक्षी है। आत्माकी यह शक्रि पौड्गसिक की श कहीं अधिक और बलवती है। हमें अपनी आत्माओं को पोन्मुख प्रयत्नशील रखना चाहिये। विश्व घमंड और हडताकी अपेक्षा सत्यं शिवं सुन्दरम्से ही श्रोत प्रीत है।' जैनाधिकार संरक्षण बहुत सयमसे समान हितैषी जैन- विचारकों और नेताओंको भी अम्ब अस्पसंख्यक जातियोंकी भाँति यह चिन्ता बनी रही है कि कहीं विविध राजनैतिक हलचलों परिवर्तनोंडे फलस्वरूप पथवा स्वतन्त्र भारत के नवनिर्मित विधानमें, जिसकी सफलताके हिरा उन्होंने सदैव पयारात्रि पूर्ण सहयोग एवं बलिदान दिया है, उनकी संस्कृति और न्याय अधिकारीकी उपेक्षा न की जाय उनके साथ अन्याय न किया जाय। कईबार विभिन्न व्यक्तियों तथा 'कतिपय संस्थाओं द्वारा इस प्रकारकी आवाजें उठाई गई किन्तु वे सब कारखाने में तीकी आवाज़ होकर ही रहगई। मा समाप्त होगया, अधिकांश प्रान्तों सार्वजनिक महाकु राष्ट्रीय सरकारें स्थापित होगई, केबिनेट मिशन श्राया और चलागया, उसके अनुसार केन्द्रमें भी श्रन्तःकालीन राष्ट्रीय सर कारने कार्यभार संभाल लिया और स्वतंत्रभारतका विधान बनाने के लिये विधाननिर्मात्री लोक परिषदका भी निर्वाचन एवं कार्य प्रारंभ होगया किन्तु जैन नेता कानोंमें तेल डाले पदे सोते ही रहे, और स्वभावतः जैनियों का कहीं ध्यान भी नहीं रक्खा गया में लगभग एक मास हुआ, देहली में अ० भा० दि० के जैन परिषद प्रधान मन्त्री बा० राजेन्द्रकुमारीके संयोजकचमें विभिन्न छैन नेताओंकी एक मीटिंग हुई और उसमें इस विषयका एक प्रस्ताव पास किया गया कि 'केबिनेट मिशन' के १६ मई के बयान पैरा २० के अनुसार निर्मित होनेवाली 'नागरिक अधिकारों, अल्पसंख्यक जातियों तथा आदिवासी एवं बहिष्कृत क्षेत्रों संबंधी सलाहकार समिति' में तो कमसे कम जैनियोंका प्रतिनिधित्व स्वीकार कर लिया जाय इस प्रस्तावकी नकलें राष्ट्रपति आचार्य कृपलानी, विधान परिषद के अध्यक्ष डा० राजेन्द्रप्रसाद, अन्तःकालीन सरकारके उपाध्यक्ष पं० जवाहरलाल नेहरू तथा गृहमंत्री सरदार पचनभाई पटेल के पास भेजी गई। इस प्रस्ताव में यह भी स्पष्ट कह दिया गया था कि जैन
वर्ष ८
समाजका भविष्य सामान्यतः अखिल भारतीय जनताके राजनैतिक उत्कर्ष के साथ घनिष्ठत्या संबंधित है।
उस मीटिंग में यह भी मिश्रय हुआ था कि इस कना को सफलीभूत दमानेके लिये उपयु धारों अधिकारी राष्ट्रीय नेतासे डेपुटेशन के रूपमें सम्पात् मिला फाय । फलतः श्रभी तक वह जैन डेपुटेशन डा० राजेन्द्रप्रसादजी से भेंट कर चुका है और उन्होंने उसके साथ कुल विषयपर बड़े ही सौहार्द एवं सौजन्यपूर्वक चर्चा की बताई जाती है तथा अन्त में यह श्राश्वासन भी दिलाया बताया जाता है कि वे प्रकरण प्रस्तुत होनेपर इस बात का अवश्य ध्यान रखेंगे ।
७;
किन्तु यत २४ फगवरीको विधानसभा अधिवेशन पं० गोविन्दवल्लभ पन्त द्वारा प्रस्तुत उन सल्लाहकार समितिनिर्माण विषयक को प्रस्ताव सर्वसम्मतिले पास हुआ है. उस में उस समिति के सदस्योंकी संख्या यद्यपि ७२ निश्चित की गई है तथापि फिलहाल विधानसभा द्वारा केवल ५० सदस्य चुने जाने निश्चित हुए हैं, जो इस प्रकार हैंबंगाल, पंजाब, उप सीमान्त विलोचिस्तान और सिन्के ७ हिन्दू ; संयुक्त प्रान्त, विहार, मध्यशन्त, मद्रास, बबई, श्रासाम और उड़ीसा के मुसलमान ७; परिगणित जातियोंके सिक्ख ६ भारतीय ईसाई ४ पारसी में ऍग्लो इंडियन ३ कबायली व बहिष्कृत प्रवेश १३- इस वाक्लिक में प्रत्यक्ष ही का नाम नहीं है जो कि पारसियों और ऍम्बो इण्डियनोंकी अपेक्षा संख्या में कहीं अधिक हैं और हिन्दू मुसलमान, सिक्ख, पारसी, ईसाई श्रादिकी श्रपेक्षा कहीं अधिक प्राचीन, स्वतन्त्र एवं विशिष्ट धर्म और संस्कृतिसे संबंधित है। ता० २५ जनवरीके 'वीर' की सूचनानुसार । विधानपरिषदके कांग्रेसी सदस्योंने उम्र सलाहकार समिति के लिये अपने प्रतिनिधि चुन लिये हैं जिनमें एक प्रो० के. टी. शाह भी हैं जो जैन है। किन्तु जहाँ तक हम समझते हैं प्रो० शाह जैनप्रतिनिधिके रूपमें नहीं चुने गये वे यहाँ एक कांग्रेसी प्रतिनिधिकी हैसियत है। अतः उनके नि धनद्वारा नोंके इस दिशा में किये गये प्रयत्नोंकी सफलता मानकर सन्तोष कर लेना एक भूल है ।
जैनियोंके अपने सांस्कृतिक एवं धार्मिक स्वत्वाधिकारोंके संरचय के हित किये गये इन नगण्य प्रयत्नोंमेंसे भी कतिपय अतिशय उग्रगामी जैन सज्जनोंको ही बरामत और १४ पू.ट
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फिरण ६-७ ]
डालनेवाली पूणित जातिकी साम्प्रदायिकता तथा व्यक्तिगत arrant भावनाकी गंध आती प्रतीत होती है । हमारी समझमें तो यह उनका एक भ्रम ही है, इससे ऐसी कोई बात फलित नहीं होती । प्रथम तो, इन प्रयत्नों और इनके बलको देखते हुए इनकी सफलता और महत्व भी बहुत कुछ सन्दिग्ध ही है, और यदि इनमें कुछ सफलता मिलती भी है और उसका मैमी दुध बमोचित लाभ भी उठा पाते हैं तो उससे सम्पूर्ण राष्ट्र अथवा राष्ट्रीय महासभा के हितों और उद्देश्योंका विरोधी होनेकी तो कोई संभावना ही नहीं है। हाँ, उनके स्वाभिमान एवं आत्मविश्वास में अवश्य ही वृद्धि होजायगी और वे भी अपने आपको नयनिर्मित सर्वतंत्र स्वतन्त्र प्रजातन्त्रात्मक भारतीय राष्ट्रके स्वतंत्र सम्मानित नागरिक एवं अङ्ग अनुभव करेंगे ।
विविध विषय
कुछ
सचे साधु और सामान्य भिक्षुक प्रान्तीय सरकारों द्वारा पास किये गये भिक्षावृत्तिनिरोधक कानूनों के संबंध में एक जैन डेपुटेशनसे भेंट करते हुए, विधानपरिषदके सदस्य श्रीयुत रघुनाथ वि० धुलेकर एम० एल० ए० ने आश्वासन दिया कि जैनसाधु कथवा सनातनी सन्यासी कोई भी सामान्य भिक्षुक नहीं है। मुझे यह विश्व स है कि प्रान्तीय सरकारें ऐसे साधुओं और सम्यासियोंको जो हिन्दू समाजका एक आवश्यक भांग है, बाधा पहुंचाने वाला कानून न तो बनावेंगी और न बना सकती हैं। इन साधुओं की परम्परा कई सहस्र वर्षसे चली आती है, जिनके अनुसार हिन्दू परिवारोंसे भिन्ना मांगना भिक्षावृत्ति नहीं, वरन् धार्मिक अधिकार एवं कर्तव्य है। मैं आपको विश्वास दिला सकता हूँ कि कांग्रेस सरकार हिन्दू संस्कृतिको सामान रूपसे तथा जैन संस्कृतिको विशेष रूपसे नष्ट करनेवाली नहीं है, यह इन कानूनोंको लागू करनेमें इस बातकी हयश्य व्यवस्था करेगी कि साधारण भिखमंगों तथा सच्चे साधुओं एवं सन्यासियों में विभेद किया जा सके। आप प्रान्तीय असेम्बली तथा विधान परिषद में इस विषय में मेरे समर्थनका विश्वास रक्खें ।'
सरदार पटेलका उद्बोधन —गत २६ दिसम्बरको अहमदाबा में एक जैन विद्यालयका उद्घाटन करते हुए सरदार बलभभाई पटेलने कहा था कि जैनकी परीक्षा
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२६३
का आधार मनुष्यका आचरण है । जैन या जितेन्द्रियकी अपनी सफलता संबंध विचार करते समय सोचना चाहिये कि उसने संयमधर्मका कितना पालन किया ? यह भ्रात्मानुभवकी चीज़ है; वाह्याडंबर तो बहुत दीखता है, तिलक छापे करना, मन्दिरोंमें जाना जात्रायें करना कादि सब धर्म की मर्यादा कहलाती हैं, ये सब धर्मको समझने के लिये हैं, लेकिन श्रात्मानुभव या संयमको छोड़कर यदि केवल वाह्य आपको ही जो धर्म मानता है वह केवल नामाका ही जैन है, वह सच्चा जैन नहीं कहला सकता । 'अहिंसा परमोधर्मः' यह तो जैनोंका सर्वोपरि सिद्धान्त है। इसका जिसे अच्छी तरह ज्ञान हो वह भी दुकानपर कार्य करते समय आवाज़ सुने कि 'हुल्लड़ हुआ गुण्डे श्रारहे हैं' और सुनते ही माला फेंक फांक कर भागने लगे, उसे जैन नहीं कह सकते। उसने तो अपने पास के परिग्रहको सस्परूप समझा और भय की वजहसे भागा, इसको ही भीरुता कहते हैं। किसी भी धर्म में कायरता नहीं हो सकती है, जैन धर्ममें सो हरगिज़ नहीं। जैसी कोई भी हिंसा भले ही न करे, परन्तु उसमें स्वयंको होमदेने की शक्ति तो होनी चाहिये । इसके बिना सिद्धान्तको क्या कीमत ? जैनमें तपश्चर्या और श्रात्मशुद्विकी वह शक्ती होनी चाहिये कि जिसे देखकर गुरा डेके हाथमेंसे हथियार नीचे गिरजाय । आज तो महात्माजी. अहिंसा धर्मका सेवन कर रहे हैं और हिचके समय साय पदार्थका पाठ रख रहे हैं। अपनी दृष्टि दूषित हो जीभको झूठ खनेकी भारत हो, हृदय मलिन विकारोंसे परिपूर्ण हो, तो बाह्य श्राचरण भाररूप हो जायगा, बाह्य शुद्धिके साथ साथ अन्तरङ्गः शुद्धि भी करनी चाहिये ।'
नेताजी दिवस
२३ जनवरीको भारतवर्ष में सर्वत्र तथा सम्हन आदि विदेशों में भी नेताजी श्री सुभाषचन्द्र बोसका ५१ वाँ जन्मदिवस सोत्साह मनाया गया। स्वयं गांधीजीने भी नेताजीके प्रति अपनी श्रद्धांजली अर्पितकी । किन्तु अभीतक यह प्रश्न एक चिकट पहेली ही बना हुआ है कि सुभाष बाबू जीवित हैं अथवा नहीं?
स्वतन्त्रता दिवस-२६ जनवरीको समस्त भारतमें स्वाधीनता दिवस मनाया गया जो सन् १३३० से निरन्तर प्रतिवर्ष भारतीयोंको अपनी स्वतन्त्रता प्राप्तिके ध्येयकी याद
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२६४
अनेकान्त
[ वर्ष
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दिलाने तथा तत्संबंधित प्रतिज्ञाको दुहरवानेके लिये आता स्वार्थ साधन किया है, अपने नामोंके आगे लम्बी २ उच्चरहा है। इस प्रतिज्ञापत्रका मूलमंत्र है स्व. लोकमान्य तिलक बोला उपाधियें लगाजी हैं, और विभिन्न संस्थानोंकी का प्रसिद्ध सूत्र 'स्वराज्य हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है।' सम्पत्तिपर अपना प्राधिपत्य जमा लिया है। और इसका सार है कि कि अंग्रेजी राज्य-द्वारा भारतका क्या हम श्राशा करें कि जैनी लोग अपने दानके प्रार्थिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक और अध्यात्मिक दृष्टिसे प्रवाहको सरसावेके 'वीरसेवामंदिर' तथा बम्बई में प्रेमीजी विनाश हा है, अत: शान्तिपूर्ण एवं वैधानिक उपायों द्वारा सम्पादित संचालित 'मानिक्यचन्द्र ग्रन्थमाला' की ओर द्वारा अंग्रेजोंसे संबंध विच्छेद करके पूर्ण स्वराज्य और देशकी प्रवाहित करदेंगे। स्वाधीनता प्राप्त करना तथा लक्ष्य प्राप्ति तक उसके हित
श्राचार्य जुगलकिशोरजी तथा प्रेमीजी दोनोंको ही एक अहिंसक रीतिसे लड़ाई जारी रखना, और उसके अन्तर्गत,
प्रेसकी आवश्यकता है जिसपर उनका पूगपूरा निर्बाध अधिकार खादी, साम्प्रदायिक एकता, अरश्यता निवारण, जातिएवं
हो और जो सर्वोत्तम एवं उन्नत छापेकी तथा लीनोटाइपकी धर्मगत भेदभाव बिना देशवासियों में प्रत्येक अवसरपर
मेशिनोंसे तथा सुयोग्य कुशल कर्मचारियों एवं अन्य साधनसद्भावनाका प्रचार करना, उपेक्षितों, अज्ञानियों, दीन
सामग्रीसे युक्त हो। ऐसे प्रेसके लिये कई लाख रुपये की दरिद्वयों तथा पिछड़े हुए देशवासियोंका उद्धार करना तथा
आवश्यकता है; और हेमानदार निस्पृह कार्यकत्तों तो बिना देशव्यापी ग्राम्यसुधार, घरेलु उद्योग धंधोंको प्रोत्साहन देना,
कठिनाई के मिल जायेंगे।' देशके लिये त्याग एवं कष्ट सहने तथा बलिदान होने वाले
भारतजैन महामंडल इसका २७ वौं वार्षिक देशभक्कोंके प्रति श्रद्धांजली भेंट करते हुए कांग्रेसके सिद्धांतों और नीतियोंका अनुशासनके साथ पालन करने और उसके।
अधिवेशन आगामी मार्च सन् ४७ में बम्बई प्रान्तीय आह्वानपर आज़ादीकी लड़ाई चलाने के लिये तैयार रहनेकी
व्यवस्थापिका सभाके अध्यक्ष श्री कुन्दनमल सोभागचन्द्र प्रतिज्ञा करना।
फिरोदिया एडवोकेट अहमदनगरके सभापतित्वमें, दक्षिण
हैदराबादमें होना निश्चित हुआ है। पं० अजितप्रसादजी एडवोकेटके विचार- वीरसेवामंदिरमें हाकिमइलाका-ता. २३-१जैनगजट भाग ४३ न०११-१२ पृ. १५३ पर उसके विद्वान ४७ को ठाकुर मुन्शीसिंहजी मेजिस्ष्टेट, हाकिमहलाका. सम्पादक पं. अजितप्रसादजी एडवोकेट, लखनऊ प्रेमी
वीरसेवामन्दिरमें पधारे। आपने मन्दिर के कार्यालय, पुस्तअमिनन्दनग्रन्थकी समालोचना करते हुए लिखते हैं
कालय तथा भवनका निरीक्षण किया, 'अनेकान्त पत्र' को "जैन समाजमें कोढ़ियों पंडित हैं, किन्तु उनमेंसे केवल दो
जनताके लिये हितप्रद और मन्दिरकी लाइब्रेरीको अनुपम ही ऐसे हैं जिनका उल्लेख हम जैन साहित्यिक अनुसंधानके बताया; अधिष्ठाताजी तथा अन्य कार्यकत्ताओंके कार्यकी क्षेत्र में निस्वार्थ कार्यकर्ताओंके रूपमे कर सकते हैं। प्राचार्य सराहनाकी, जनताका और विशेषकर जैन जनताका ध्यान जुगलकिशोरजी मुख्तार, जिनके सम्मानका दो वर्ष पूर्व प्राश्रमकी सहायता करनेकी ओर आकर्षित किया। कलकत्तेमें आयोजन किया गया था और जिन्होंने सरसावा, स्वामी माधवानन्दजीका संदेश-'भारतीय जि. सहारनपुर, में वीर सेवा मन्दिरकी स्थापना करनेमें संस्कृतिको गँवाकर स्वराज्य प्राप्त करना हेय है। भारतीय अपना सर्वस्व बलिदान करदिया है, मात्र एकही ऐसे विद्वान संस्कृतिका संरक्षण करते हुए स्वराज्य प्राप्त करना प्रत्येक हैं जिनने प्रेमीजीकी भाँति साहस, निर्भीकता एवं लगन भारतीयका कर्तव्य है। भारतीय धर्म ही सच्ची शान्तिका पूर्वक जैन धार्मिक साहित्यरूपी महासागरकी गहराइयोंमें सचा उपाय है। भारतीय संस्कृति दैवी संपदाका प्रतीक इबकी लगाकर वहाँसे अमूल्य अाबदार मोती निकाल संसार है। यूरोप आदि देशोकी संस्कृति प्रासुरी संपदाका प्रतीक को प्रदान किये हैं और, जबकि दूसरोंने केवल किनारेकी सिवार है। जिस स्वराज्यभवनकी नींव अभारतीय संस्कृतिपर मेंसे सीपियें ही एकत्रित की हैं और उन्हें भी विक्रय करके अवलम्बित हो, उसका ध्वस्त होजाना निश्चित है।' J. P.
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साहित्य- परिचय और समालोचन
प्रेमी अभिनन्द ग्रन्थ — श्रद्धेय पं० नाथूरामजी प्रेमी की चिरकालीन एवं महत्वपूर्ण साहित्यिक सेवाओं के उपलक्ष में उनका अभिनन्दन करनेके लिये, ता० २० अक्तूबरको नागपुर विश्वविद्यालय में होने वाले अ० भा० प्राच्यविद्यासम्मेलनके अवसर पर एक उपयुक्त समारोह किया गया था, और उसमें प्रसिद्ध नेता एवं साहित्यसेवी काका कालेलकरके हाथों प्रेमी जीको यह अमूल्य ग्रंथ समर्पित किया गया था । ग्रंथ समपरण तथा अभिनन्दन समारोहका आयोजन प्रेमो अभिनन्दन समितिकी ओर से हुआ था, जिसके प्रेरक श्रद्धेय पं० बनारसीदासजी चतुर्वेदी, अध्यक्ष डा० वासुदेवशरण जो अग्रवाल, तथा मन्त्री श्री यशपाल जैन बी० ए० एल-एल० बी० थे ।
ग्रंथके सम्पादक मंडल में जैन अजैन, स्त्री-पुरुष, चोटी ४६ साहित्यसेवी विद्वान थे और उक्त मंडलके अध्यक्ष भी डा० अग्रवालजी ही थे । ग्रंथको १८ उपयुक्त विभागों में विभक्त करनेकी योजना थी और इन विभागों की अलग अलग कुशल सम्पादन समितियाँ संयोजित करदी गई थीं । किन्तु बादमें उक्त १८ विभागों को सकुचित करके ६ ही विभाग रक्खे गये जो इस प्रकार हैं
अभिनन्दन, भाषाविज्ञान और हिन्दीसाहित्य, भारतीय संस्कृति पुरातत्त्व और इतिहास, जैनदर्शन, संस्कृत प्राकृत और जैनसाहित्य, मराठी और गुजराती साहित्य, बुन्देलखण्ड, समाजसेवा और नारीजगत तथा विविध । इन विभागों के अन्तर्गत १२७ विभिन्न अधिकृत विद्वान लेखकों द्वारा प्रणीत १३३ महत्वपूर्ण लेख संगृहीत हैं । प्रायः सब ही लेख मौलिक, गवेषणापूर्ण एवं स्थायी मूल्य के हैं । इनमें से ४० लेख जैनदर्शन साहित्य इतिहास समाज आदिके सम्बन्ध में हैं । लेखों के सम्मादनमें सम्पादकाध्यक्ष तथा अन्य संपादक महोदयों ने भी
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यथेष्ट परिश्रम किया है । लेखों के अतिरिक्त ३४ विविध चित्रों से भी ग्रन्थ सुसज्जित किया गया इन चित्रों में २= फोटो चित्र हैं और शेष ६ कलाकार श्री सुधीर नास्तगीर द्वारा निर्मित काल्पनिक चित्र हैं जो यद्यपि कलापूर्ण हैं तथापि विशेष आकर्षक नहीं प्रतीत होते, फोटोचित्रो में भी, व्यक्तिगत चित्रों को छोड़कर अन्य चित्रों में जैनकला एवं पुरातत्त्व संबंधी चित्रों का प्रायः अभाव है जो खटकता है । लेखो में भी जैनसाहित्य इतिहासे कला आदिपर अपेक्षाकृत बहुत कम लेख हैं और जो हैं उनमें भी इन विषयों पर पयाप्त एवं समुचित प्रकाश नहीं पड़ पाया। ग्रंथकी छपाई आदि तैयारी ला जरनल प्रेस, इलाहाबाद में हुई है । अतएव उत्तम तथा निर्दोष है; हाँ प्रूफ आदिकी कुछ अशु द्वियें फिर भी रह गई हैं। कुछ लेखो में अनावश्यक काटछाँट भी की गई प्रतीत होती है जो उन लेखों के लेखकों की स्वीकृति बिना कुछ उचित नहीं जान पड़ती। इसपर भी ग्रंथ सवप्रकार सुन्दर, महत्वपूर्ण, पठनीय एवं संग्रहणीय है, और इसका मूल्य भी मात्र दश रुपये है जो संस्करणकी सुन्दरता विपुलता तथा ठोस सामग्रीको देखते हुए अत्यल्प है।
अनित्य - भावना - वीर सेवामन्दिरकी प्रकीर्णक पुस्तकमाला के अन्तर्गत प्रकाशित यह पुस्तक श्री पद्मनन्द्याचार्य - विरचित संस्कृत 'अनित्यपञ्चाशत' का पं० जुगल किशोरजी मुख्तारकृत ललित हिन्दी पद्यानुवाद, भावार्थ, उपयोगी प्रस्तावना एवं पद्यानुक्रमणिका सहित तथा मुख्तार साहब द्वारा ही सम्पादित, संशोधित परिवर्द्धित तृतीय संस्करण है । पुस्तक बहुत लोकोपयोगी, उपदेशप्रद एवं पठनीय है और जनसाधारण में वितरण करने योग्य है । छपाई सफाई सन्तोषजनक है । मू० चार आने है ।
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अनेकान्त
[वर्ष
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जैनसन्देशका राष्ट्रीय अंक-निसबी जनता चिर- आ पाया, मुश्किलसे ऐसे प्राधे व्यक्यिोंका ही उल्लेख इसमें कालसे प्रतीक्षा कर रही थी, आखिर जनवरीके अन्तिम होगा। जिन व्यक्रियोंका परिचय दिया गया है उनकी एक सप्ताहमें प्रकट होगया। अंक पुस्तकाकार २०४३० अठपेजी संक्षिप्त परिचयात्मक नामानुक्रमणिका भी साथमें लगी होती साइजके १०० पृष्टोंमें राष्टीयता विषयक महत्वपूर्ण लेख. तो अच्छा था। क्योंकि पं० पन्तके शब्दों में यह कहने में कविता गीताना
तनिक भी संदेह नहीं कि जनसमाजने स्वतन्त्रता आन्दोलनमें राष्ट्रीयकार्यकत्ताओं और उनकी देशसेवाओं के संचिप्त परिचय बहुत बड़ा भाग लिया है और कितने ही कार्यकर्ताओंका सहित बहुतसी समयोपयोगी पठनीय एवं ज्ञातव्य सामग्रीसे
र राजनैतिक क्षेत्र में प्रमुख स्थान है। युक्र है। कितने ही जैनराष्ट्रीय कार्यकत्ताओंके ब्लाक चित्रोंसे
भिर भी ऐसे अंकोंकी भारी आवश्यकता थी और थोड़े भी अलंकृत है। सम्पादक महोदयका प्रयत्न सराहनीय है। अंशमें ही सही इससे उसकी पूर्ति अवश्य होती है, अत: किन्तु जैसाकि लगभग एक वर्ष पहिलेसे जैनसन्देश साप्ता
इस दृष्टिसे इसका प्रकाशन समयोपयुक्त एवं श्रावश्यक ही हिकमें बार बार प्रकाशित सूचनाओं, और विज्ञापित गेजनाओं है।पाठकोंको इसमें पर्याप्त उपयोगी जानकारी मिलेगी। के आधारपर इस अंकपे श्राशा की जाती थी वैसा यह नहीं बनपाया । पूर्वसूचित १७ विषयविभा!मेसे मुश्किलसे ४-५
-कुंवर श्री नेमिचन्द्रजी पाटनी द्वारा विषयोंके संबंधकी सामग्री ही इसमें संकलित हो पाई है। लिखित तथा श्र मगनमल हीरालाल पाटनी दि० जैन अल्पसंख्यक समस्या और जैन, भारतके भावीविधानमें पारमार्थिक ट्रस्ट, मदनगञ्ज (किशनगढ़) द्वारा प्रकाशित यह जैनसमाजका स्थान, अहिंसा और राजनीते, धर्म और ५७ पृष्टका एक उपयोगी टैक्ट है। साथमें श्रेयासकुमार जैन सष्टीयता, क्या एकतन्त्र जैनधर्म सम्मत है, जैनसंस्कृतिकी शास्त्री न्यायतीर्थकी संक्षिप्त भूमिका है तथा पूज्यवर्णाजी दृष्टिये भारतकी अखंडता, जैनोंकी स्वतन्त्र शिक्षाप्रणाली एवं न्यायाचार्य पं. माणिकचन्दजीके अभिमत भी हैं। . हिन्दी और हिन्दुस्तानी क्षेत्रमें जैनोंकी सेवाएँ. इत्यादि ऐसे विषय थे जिनपर लिखे गये प्रमाणित लेखोंका संकलन इस
इस पुस्तिकामें लेखकने 'धर्म क्या है इस विषयपर अंको अवश्य ही होना चाहिये था। अंकके संबंध में जिन सरल ले.कोपयोगी भाषामें जैनदृष्टिसें श्रांशिक प्रकाश डाला श्राशाओंको लेकर माननीय बा. सम्पूर्णानन्दजीने अपनी है। वस्तुत: इसमें स्वामी समन्तभद्राचार्यकृत धर्मके सुप्रसिद्ध यह सम्मति दी है कि वह अंक 'इस दृष्टिसे बहुत सामयिक स्वरूपश्लोकहै कि उसमें उन कई महत्वपूर्ण समस्थानोंपर विचार होगा जो इस समय राष्ट्रके विचारशील व्यकियों के सामने हैं,' उन
'देशयामि समीचीनं, धर्मकर्मनिवर्हणम्। पाशाओंकी पूर्ति यह नहीं कर सका है। उसमें जैनराष्ट्रीय
संसारदुःखत: सत्वान यः धरयुत्तमे सुखे । कार्यकर्ताओं द्वारा लिखे गये अपने संस्मरणों, अनुभवों तथा
(१० क० श्रावकाचार) सामयिक राजनीतिक समस्याओंपर अपने विचार उक्र समस्या
की स्वतन्त्र विस्तृत व्याख्या की गई है। पुस्तक पठनीय ओं एवं वर्तमान राष्ट्रीय परिस्थियियोंका जैनसमाजके साथ संबंध या उसपर पड़ने वाले प्रभावके. दिग्दर्शनका भी
है। छपाई सफाई साधारण है, न श्रादिकी ग़लतियें हैं
ही। मूल्य मात्र मनन है। वितरण करनेके लिये मंगाने प्रभाव है जो खटकता है। राष्ट्रीय यज्ञमें योग देने वाले और स्वदेश स्वातन्त्र्यकी वलिवेदीपर अपने आपको न्योछावर
बालों को २५) सैंकको मूल्यपर प्रकाशकों से मिल सकती है। करदेने वाले सब ही जैन महानुभावोंका परिचय भी नहीं
ज्योतिप्रसाद जैन
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- वीर सेवामन्दिरको सहायता
वीरसेवामन्दिमें पं० वंशीधरजी न्यायालंकार
गत किरण (४-५ ) में प्रकाशित सहायताके बाद वीर सेवा मन्दिरको सदस्य फीस के अलावा जो सहायता प्राप्त हुई है वह निम्न प्रकार हैं, जिसके लिये दातार महानुभाव धन्यवाद के पात्र हैं
गत अक्तूबर मास में विद्वद्वर्य श्रीमान् पं० वंशीधर जी न्यायालंकार, इन्दौर, अपने साथ श्री पं० मनोहरलालजी वर्णी, श्री चम्पालालजी सेठी तथा बा० नेमीचन्दजी २५०) श्रीमती जयवन्ती देवी, नानौता जि० सहारनपुर (श्री वकील सहारनपुरको लेकर वीरसेवामन्दिर सरसावा में पधारे ।
दादीजी के स्वर्गवाससे पहले निकाले हुए १००१). के दानमेंसे ग्रन्थप्रकाशनार्थ) । १५०) सकल दिगम्बर जैन पंचान कलकत्ता ( दशलक्षण पर्व के उपलक्ष में) मार्फत सेठ बलदेवदासजी सरावगी, कलकत्ता ।
आपने मन्दिरके पुस्तकालय और कार्यालयका निरीक्षण किया श्रद्धेय मुख्तार साहिब तथा मन्दिरके अन्य विद्वानों के साथ तात्त्विक एवं साहित्यिक विषयोंपर चर्चा की और मन्दिर में जो शोध खोज तथा ग्रन्थ- निर्माण सम्बन्धी कार्य चल रहे हैं उन्हें देखा । श्राप यहाँकी कार्यपद्धति श्रौर उसके महत्व से बहुत प्रभावित हुए तथा समय निकालकर कुछ दिनोंके लिये वीर सेवामन्दिर में श्रानेका वचन दिया । साथ ही संस्थाकी निरीक्षणबुक में अपनी शुभ सम्मति निम्न प्रकारसे अंकित की -
८०) श्रीमती विशल्यादेवी धर्मपत्नी साहू प्रकाशचन्दजी जैन, नजीबाबाद (लायब्रेरी में ग्रन्थ मंगानेके लिये ) मार्फत बा० नरेन्द्रप्रसादजी सहारनपुर ।
२१) जैनशास्त्रसभा नयामन्दिर देहली । मार्फत ला० जुगल किशोरजी कागजी, देहली।
१५) ला० धवलकित मेहरचन्दजी जैन सहारनपुर ( चि० नरेशचन्द्र के विवाहकी खुशी में । १०) बा० पीताम्बरकिशोरजी जैन एजीक्यूटिव इंजीनियर, रुड़की जिo सहारनपुर ।
१०) ला० पारसदासजी जैन स्यालकोट निवासी ( पुत्री कान्तादेवीके विवाहकी खुशीमें) मार्फत पं० रूपचन्द जैन गार्गीय, पानीपत ।
३||) ला०विमलप्रसादजी जैन, सदर बाजार, देहली ।
५३६॥)
कान्तको सहायता
गत चौथीपाँचवीं किरण में प्रकाशित सहायता के बाद श्रनेकान्तको जो सहायता प्राप्त हुई है वह निम्न प्रकार है, जिसके लिये दातार महानुभाव धन्यवादके पात्र हैं । ११) ला० देवीदास शंकरदासजी जैन, कलरमर्चेन्ट चूड़ी सराय मुलतान (सेठ सुखानन्दजीके स्वर्गवास के समय निकाले हुए दानमेंसे) ।
५) मंत्री दि० जैन पंचायत कमेटी, गया । ५) ला० व्रजलालजी जैन सौदागर संतर जि० मुरार (पिता जी के स्वर्गवास के समय निकाले हुए दान मेंसे) ।
व्यवस्थापक 'अनेकान्त'
२१)
श्रधिष्ठाता 'वीर सेवामन्दिर'
" श्राज ता० १६ १०-४६ को वीरसेवामन्दिर में आया, श्रीमान् पं० जुगलकिशोरजी के दर्शन से बहुत ही प्रसन्नता हुई। मुख्तार साहबने इस युग में जिस पद्धति से जैनदर्शन जैनसाहित्य, जैनइतिहासके पर्यवेक्षण, श्रन्वेवं मीमांसा करते हुए कितनी गम्भीरता के साथ विवेचन करते हुए विविध ग्रन्थोंका प्रकाश किया है, वह भूरिभूरि प्रशंसा के योग्य है। मुझे तो वर्तमान दि० जैन समाजमें एक मात्र श्रद्वितीय विद्वद्वन प्रतीत होते हैं। आपकी जैनवाङ्मयको सिलसिलेवार नवीन रूपसे लोगों के सामने प्रकाशित करनेकी बहुत बड़ी लगन है । दि० जैन समाज के धनाढ्य पुरुषोंका कर्त्तव्य है कि वे पंण्डितजी के मनोरथोंको पूर्ण करने में मुक्तहस्त हो भरपूर सहायता दें। यदि वे ऐसा करेंगे तो जैनाचायोंके बहुत बड़े उपकारोसे उपकृत हुए कृतज्ञ कहे जा सकेंगे। विशेष क्या लिखूँ वीर सेवामन्दिर में वास्तविक और ठोस कार्य किया जा रहा है। इसके लिये पं० दरबारीलालजी एवं पं० परमानन्दजी शास्त्रीका सहयोग सराहनीय है।"
J, P.
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________________ Regd. No. A-736 IIIIIIIIIIIIHIIIIIIIIII peoसो HOLLYogeo वीरसेवामन्दिरके प्रकाशन 1 // ) 1 समाधितन्त्र-संस्कृत और हिन्दी टीका-सहित / 2 बनारसी-नाममाला-(पद्यात्मक, हिन्दी-शब्दकोश, शब्दानुक्रम-साहित)। . ."1) 3 अनित्य-भावना-हिन्दी-पद्यानुवाद और भावार्थ-सहित। ) 4 उमास्वामि-श्रावकाचार-परीक्षा ऐतिहासिक प्रस्तावनासहित) 5 प्रभाचन्द्रका तत्त्वार्थसूत्र-अनुवाद तथा व्याख्या सहित। / ) 6 सत्साधु-स्मरण-मंगलपाठ-श्रीवीर-वर्द्धमान और उनके बादके 21 महान प्राचार्योंके 137 पुण्य स्मरणोंका महत्वका संग्रह, हिन्दी-अनुवादादि-सहित। ... ... . ) 7 अध्यात्म-कमल-मार्तण्ड-हिन्दी-अनुवाद तथा विस्तृत - प्रस्तावना सहित। " . .." 8 विवाह-समुद्देश्य–विवाहका मार्मिक और तात्त्विक विवेचन, उसके अनेक विरोधी विधि-विधानों एवं विचार-प्रवृत्तियोंसे उत्पन्न हुई कठिन और जटिल समस्याओंको सुलझाता हुआ। न्याय-दीपिका महत्वका नया संस्करण)-संस्कृत टिप्पण, हिन्दी अनुवाद, विस्तृत प्रस्तावना और अनेक उपयोगी परिशिष्टोंसे अलंकृत, सजिल्द। ... .... पुरातन-जैनवाक्य-सूचि (जैनप्राकृत-पद्यानुक्रमणी)-अनेक उपयोगी परिशिष्टोंके साथ 63 मूलग्रन्थों और ग्रन्थकारों के परिचयको लिये हुए विस्तृत प्रस्तावनासे अलंकृत, सजिल्द / 15) 11 स्वयंभूस्तोत्र-समन्तभद्र-भारतीका प्रथम ग्रन्थ, विशिष्ट हिन्दी अनुवाद और महत्वकी प्रस्तावना-सहित। (प्रेसमें) 1) 12 जैनग्रन्थ-प्रशस्ति-संग्रह-संस्कृत और प्राकृतके कोई 150 अप्रकाशित ग्रन्थोंकी प्रशस्तियोंका मंगलाचरण-सहित अपूर्व संग्रह. अनेक उपयोगी परिशिष्टों तथा विस्तृत प्रस्तावनासे युक्र / (प्रेसमें) IIIIIIIIIIIII मुद्रक, प्रकाशक पं० परमानन्दशास्त्री वीरसेवामन्दिरके लिये श्यामसुन्दरलाल द्वारा श्रीवास्तवप्रेस सहारनपुर में मुद्रित /