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________________ २५६ है ।' क्योंकि वीरसेन स्वामीने यह कहीं भी नहीं लिखा कि 'इसी से द्रव्यस्त्रीके मोक्ष नहीं सिद्ध होती है । पण्डित जीसे अनुरोध करूँगा कि वे ऐसे ग़लत श्राशय कदापि निकालने की कृपा न करें । पण्डितजीका यह लिखना भी संगत नहीं है कि वीरसेनस्वामीने 'संयम' पदका अपनी टीका में थोड़ा भी जिकर नहीं किया । यदि सूत्र में 'संयम' पद होता तो यहाँ संयम' पद दिया गया है वह किस अपेक्षासे है ? इससे द्रव्यस्त्रीके संयम सिद्ध हो सकेगा क्या ? आदि शंका भी वे अवश्य उठाते और समाधान करते ।' हम पण्डितजी से पूछते हैं कि 'संयम' पदका क्या अर्थ है ? यदि छठे से चउदह तक के गुणस्थानोंका ग्रहण उसका अर्थ है तो उनका टीका में स्पष्ट तो उल्लेख है । यदि द्रव्य स्त्रियोंके द्रव्यसंयम और भावसंयम दोनों ही नहीं बनते हैं तब उनमें चउदह गुणस्थान कैसे बतलाये ? नहीं भाव स्त्री विशिष्ट मनुष्यगतिकी अपेक्षा से इनका सत्त्व बतलाया गया है— 'कथं पुनस्तासु चतुर्दशगुणस्थानानीति चेत्, न, भावस्त्री विशिष्टमनुप्यगतौ तत्सत्त्वाविरोधात्'– यह क्या है ? आपकी उपयुक्त शंका और समाधान ही तो है । शंकाकार समझ रहा है कि प्रस्तुत सूत्र में जो 'संजद' पद है वह द्रव्यस्त्रियोंके लिये श्राया है और उसके द्वारा छठेसे चउदह तक के गुणस्थान उनके बतलाये गये है । वीरसेन स्वामी उसकी इस शंकाका उत्तर देते हैं कि चउदा गुणस्थान भाव स्त्रीको अपेक्षा से बताये गये हैं, द्रव्यस्त्रीको अपेक्षा से नहीं। इससे साफ है कि सूत्रमें संजद' पद दिया हुआ है और वह मात्रस्त्रीकी अपेक्षासे है । पण्डितजी ने श्रागे चलकर एक बात और विचित्र लिखी है कि प्रस्तुत सूत्रकी टीकामें जो चउदह गुणस्थानों और भाववेद आदिका उल्लेख किया गया है उसका सम्बन्ध इस सूत्र से नहीं है— अन्य सूत्रोंसे है - इसी सिद्धान्तशास्त्र में -जगह जगह ६ और १४ गुणस्थान बतलाये गये हैं । किन्तु पण्डितजी यदि गम्भीरता से 'श्रस्मादेव श्रार्षाद्' इत्यादि वाक्योंपर गौर करते तो वे उक्त बात न लिखते । यह एक साधारण विवेकी भी जान सकता है कि यदि दूसरी जगहों में उल्लिखित गुणस्थानोंकी संगति यहाँ बैठाई गई होती तो 'अस्मादेव श्रार्षाद्' वाक्य कदापि न लिखा जाता, क्योकि Jain Education International अनेकान्त [ वर्ष ८ श्राप के मतसे प्रस्तुत सूत्रमें उक्त चउदह गुणस्थानों या संजद' का उल्लेख नहीं है । जब सूत्रमें 'संजद' पद है और उसके द्वारा चउदह गुणस्थानोंका संकेत (निर्देश ) है तभी यहाँ द्रव्यस्त्री मुक्तिविषयक शंका पैदा हुई है और उसका यहीं समाधान किया गया है। यद्यपि आलाधिकार श्रादिमें पर्याप्त मनुष्यनियोंके चउदह गुणस्थान बतलाये हैं तथापि वहाँ गतिका प्रकरण नहीं है, यहां गतिका प्रकरण है और इसलिये उक्त शंका-समाधानका यहीं होना सर्वथा संगत है । श्रतः ६ श्रौर चउदह १४ गुणस्थानोके उल्लेखका सम्बन्ध प्रकृत सूत्र से ही है, अन्य सूत्रोसे नहीं । श्रतएव स्पष्ट है कि टीकासे भी ६३ सूत्र में 'संजद' पदका समथन होता है और उसकी उसमें चर्चा भी खुले तौर से की गई है। ५- अब केवल पाँचवीं दलील रह जाती है सो उसके सम्बन्ध में बहुत कुछ पहली और दूसरी दलीलकी चर्चा में कथन कराये हैं। हमारा यह भय कि 'इस सूत्र को द्रव्यस्त्रीके गुणस्थानोंका विधायक न माना जायगा तो इस सिद्धान्त ग्रंथसे उनके पांच गुणस्थानोंके कथन की दिगम्बर मान्यता सिद्ध न हो सकेगी और जो प्रो० हीरालालजी कह रहे हैं उसका तथा श्वेताम्बर मान्यताका अनुषंग श्रावेगा ।' सर्वथा व्यर्थ है, क्योंकि विभिन्न शास्त्रीय प्रमाणों, हेतुनों, संगतियों, पुरातवस्त्रे श्रवशेष्ठों ऐतिहासिक तथ्यों आदि से सिद्ध है कि द्रव्यस्त्रीका मोक्ष नहीं होता और इसलिये श्वेताम्वर मान्यताका अनुषंग नहीं श्रा सकता । श्राज तो दिगम्बरमान्यता के पोषक और समर्थक इतने विपुल रूपमें प्राचीनतम प्रमाण मिल रहे हैं जो शायद पिछली शतादियां में मो न मिले होगे । पुरातत्वका अबतक जितना अन्वेषण हो सका है और भूगर्भसे उसकी खुदाई हुई है उस सबमें प्राचीन से प्राचीन दिगम्बर नग्नपुरुष मूर्तियां दी उपलब्ध हुई हैं और जो दो हजार वर्षसे भी पूर्व की है । परन्तु सचेल मूर्ति या स्त्रीमूर्ति, जो जैन निग्रन्थ हो, कहींसे मी प्राप्त नहीं हुईं। हाँ, दशवीं शताब्दीके बादकी जरूर कुछ सचेलपुरुष मूर्तियाँ मिलती बतलाई जाती हैं सो उस समय दोनों ही परम्परा में काफी मतभेद हो चुका था तथा खण्डन- मण्डन भी आपस में चलने लगा था । सच पूछा (शेष पृष्ठ २६१ पर) For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527238
Book TitleAnekant 1946 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1946
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size3 MB
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