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________________ किरण ६-७ ] छठेसे चउदह तक के गुणस्थानोंका बोधक है। और इसी लिये वीरसेनस्वामीने उसकी उपपत्ति एवं संगति भावस्त्री मनुष्य की अपेक्षा से बैठाई है, जैसी कि राजवार्तिककार कलंक देवने अपने राजवात्तिकमे बैठाई है। यदि उक्त सूत्र में 'संजद' पद न हो तो ऐसी न तो शंका उठती और न उक्त प्रकार से उसका समाधान होता। दोनोंका रूप भिन्न ही होता । श्रर्थात प्रस्तुत सूत्र द्रव्यस्त्रियोंके ही ५ गुणस्थानों का विधायक दो और उनकी मुक्तिका निषेधक हो तो "अस्मादेव श्रार्षाद् द्रव्यस्त्रीणां निवृतिः सिद्धयेत्” ऐसी शंका कदापि न उठनी, बल्कि द्रव्यस्त्रीणां निवृत्तिः कथं न भवति" इस प्रकार से शंका उठती और उस दशामें 'श्रस्मादेव श्राषद्' और 'निवृतिः सिद्धयेत्' ये शब्द भूल करके भी प्रयुक्त न किये जाते । श्रतः इन शब्दों के प्रयोगसे भी स्पष्ट है कि ε३ वें सूत्रमें द्रव्यस्त्रियोंके ५ गुणस्थानोंका `विधान न होकर भावस्त्रियोंके १४ गुणस्थानोंका विधान है और वह 'संजद' पदके प्रयोगद्वारा अभिहित है। और यह तो माना ही नहीं जा सकता है कि उपर्युक्त टीकामें चउदह गुणस्थानोंका जो उल्लेख है वह किसी दूसरे प्रकरण के सूत्र ·से सम्बद्ध है क्योंकि ‘अस्मादैवार्षाद् द्रव्यस्त्रीणां निर्वृतिः 'सिद्ध्येत्” शब्दों द्वारा उसका सम्बन्ध प्रकृत सूत्रसे ही है, यह सुहट) है । ६३ वें सूत्र में 'संजद' पदका विरोध क्यों ? शंकाकार फिर शंका उठाता है कि भाववेद तो Sarara ( गुणस्थान) से श्रागे नहीं है और इस लिये भाव स्त्रीमनुष्यगति में चउदह गुणस्थानोंका संभव नहीं है ? इसका वे उत्तर देते हैं कि 'नहीं, यहाँ योगमार्गयासम्बन्धी गतिप्रकरण में वेदकी प्रधानता नहीं है किन्तु गतिकी प्रधानता है और वह शीघ्र नष्ट नहीं होती - मनुष्यगतिकर्मका उदय तथा सत्त्व च उदहवें गुणस्थान तक रहता है और इसलिये उसकी अपेक्षा भावस्त्री के चउदद्द गुनास्थान उपपन्न हैं। इसपर पुनः शंका उठी कि "वेदविशिष्ट मनुष्यगति में वे चउदह गुणस्थान संभव नहीं है ? इसका समाधान किया कि नहीं, वेदरूप विशेषण यद्यपि ( नौवें गुणस्थान में) नष्ट हो जाता है फिर भी उपचारसे उक्त व्य1. प्रदेशको धारण करनेवाली मनुष्यगति में, जो चउदहवें स्थान तक रहती है, चउदह गुणस्थानोंका सत्त्व विरुद्ध Jain Education International २५५ नहीं है।' इस सत्र शंका-समाधान से सर्वथा स्पष्ट हो जाता है कि टीकाद्वारा ६३ वें सूत्रमें 'संजद' पदका निःसन्देह समर्थन है और वह भात्रस्त्री मनुष्यकी अपेक्षासे है, द्रव्यस्त्री मनुष्यकी अपेक्षा से नहीं । पं० मक्खनलालजी शास्त्रीने टीकागत उल्लिखित स्थलका कुछ श्राशय और दिया है लेकिन वे यहाँ भी स्खलित हुए हैं। आप लिखते हैं: - 'अब आगेकी टीका का आशय समझ लीजिये, आगे यह शंका उठाई है कि इसी श्रागमसे द्रव्यस्त्रीके मोक्ष सिद्ध होती है क्या ? उत्तर में टीकाकार श्राचार्य वीरसेन कहते हैं कि नहीं, इसी श्रागम से यह बात भी सिद्ध हो जाती है कि द्रव्यस्त्रीके : मोक्ष नहीं हो सकती है ।' यहाँ पण्डितजीने जो 'इसी श्रागमसे द्रव्यस्त्रीके मोक्ष सिद्ध होती है. क्या ?' और इसी आगमसे यह बात भी सिद्ध हो जाती है कि द्रव्यस्त्रीके मोक्ष नहीं हो सकती है ।' लिखा है वह 'अस्मदेवार्षाद् द्रव्यस्त्रीणां निरृत्तिः सिद्धयेत् इति चेत् नः सवासस्त्वादप्रत्याख्यान गुणस्थान संयमानुपपत्तेः ।' इन वाक्योंका श्राशय कैसे निक ला ? इनका सीधा श्राशय तो यह है कि इसी श्रागमसूत्र से द्रव्यस्त्रियों के मोक्ष सिद्ध हो जाय ? इसका उत्तर दिया गए कि 'नहीं, क्योंकि द्रव्यस्त्रियाँ सवस्त्र होने के कारण पंचम श्रप्रत्याशन • गुणस्थान में स्थित हैं और इसलिये उनके संयम नहीं बन सकता है । परन्तु पण्डितजीने 'क्या' तथा 'इमी श्रागमसे यह बात भी मिद्ध हो जाती है कि द्रव्यस्त्रीके मोक्ष नहीं हो सकता है ।' शब्दोंको जोड़कर शंका और उसका उत्तर दोनों ही सर्वथा बदल दिये हैं। टीकाके उन दोनों वाक्यों में न तो ऐसी शंका है कि इसी श्रागमसे द्रव्यस्त्रीके मोक्ष सिद्ध होती है क्या ? और न उसका ऐसा उत्तर है कि इसी आगमसे यह बान भी सिद्ध हो जाती है कि द्रव्यंस्त्रीके मोक्ष नहीं हो सकती है । यदि इसी श्रागमसूत्रमे द्रव्यस्त्रीके मोक्षका निषेध प्रतिपादित होता तो वीरसेनस्वामी 'सामस्वात्' हेतु नहीं देते, उसी श्रागमसूत्र को ही प्रस्तुत करते, जैसा कि सम्यग् ष्ट स्त्रियोंमें उत्पत्ति निषेध में उन्होंने श्रागम कोही प्रस्तुत किया है, हेतुको नहीं । अतएव पंडितजीका यह लिखना भी सर्वथा भ्रमपूर्ण है कि 'यदि ६३ वें सूत्रमें 'संजद' पद होता तो श्राचार्य वीरसेन इस प्रकार टीका नहीं करते कि इसी आर्षसे द्रव्यस्त्रीके मोक्ष नहीं द्धि होती For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527238
Book TitleAnekant 1946 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1946
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size3 MB
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