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________________ किरण ६-७] अपभ्रंश भाषाका जैनकथा-साहित्य २७७ . कथा भी कहते हैं। और चौथी रचना जिनरात्रि कथा है पुण्यासव कहा-इस कथा ग्रंथमें कविवर रहष जिसमें शिवरात्रि कथाके ढंगपर जिनरात्रिके ब्रतका फल. ने पुण्यका श्राश्रव करनेवाली ब्रतों की कथाएँ दी हैं। ग्रंथमें बतलाया गया है। इनके सिवाय 'चन्दप्पह चरिउ' नामका कुल तेरह संधियाँ हैं। इस ग्रंथकी रचना कविवर रइधने अपभ्रशभाषाका ‘एक ग्रन्थ और है उसके कर्ता भी यशः महाभव्य साहू नेमिदास की प्रेरणापे की है, और इसलिये कीर्ति हैं। वे प्रस्तुत यश:कीर्ति हैं या कि. अन्य कोई यह ग्रंथ भी उन्हींके नामांकित किया गया है। ग्रंथप्रशस्तिमें यश:कीर्ति हैं इसका ठीक निश्चय नहीं; क्योकि इस नामके साह ने मिासके परिवारका विस्तृत परिचय निहित है। अनेक विद्वान होगए हैं। ___कविवर रहधूने अपभ्रंशभाषामें २३-२४ ग्रंथोंकी प्रणथमी कथा-इस थालेकी र रचना की है। रहधु हैं जो भ० यशकीर्तिके समकालीन विक्रमकी १५ वीं अणथमी कथा (द्वितीय)-इस कथाके कर्ता शताब्दीके उत्तरार्थ और सोलहवीं सदीके प्रारम्भके विद्वान् कवि हरिचन्द हैं जो अग्रवाल कुल में उत्पन्न हुए थे। इसके हैं। पद्मावती पुरवालकुलमें समुत्पन्न हुए थे, उदयराजके सिवाय इनका कोई परिचय उपलब्ध नहीं होता । प्रस्तुत प्रपौत्र और हरिसिहके पुत्र थे, ग्वालियरके निवासी थे। कथा पं० रइथूकी उल्लिखित कथासे बढ़ी है, यह १६ इन्होंने वि० सं० १४६६ में सुकौशलचरितकी रचना की है, कड़वकोंमें समाप्त हुई है। और उसमें रात्रिभोजनके दोषोंका यह आशुकवि थे और जल्दी ही सरल भाषामें कविता करते उल्लेख करते हुए उसके त्यागकी प्रेरणा की गई है। थे । कवि रइधूने ग्वालियरके तोमरवंशी राजा अणंतवयकहा आदि १५ कथाएँ-हुन गसिंह और उनके पुत्र कीति सिंहके राजकालमें कथाओंके कर्ता भट्टारक गुणभद्र हैं। यद्यपि गुणभद्र नामके अनेक ग्रंथों की रचना की है और मूर्तियों की अनेक विद्वान प्राचार्य और भट्टारक प्रसिद्ध हैं। परन्तु ये प्रतिष्ठा भी कराई है। वे प्रतिष्ठाचार्य नामसे प्रसिद्ध भी थे। भट्टारक गुणभद्र उन सबसे भिन्न हैं। यह माथुरसंघी भट्टाकविने प्रस्तुत 'भणथमी' कथामें रात्रिभोजनके दोषों और रक मलयकीर्तिके शिष्य थे और अपने उक्न गुरुके बाद उससे होनेवाली व्याधियोंका उल्लेख करते हुए लिखा है गोपाचलके पट्टपर प्रतिष्ठित हुए थे। इनकी रची हुई निम्न कि दो ही दिनके रहनेपर श्रावक लोग भोजन करें, क्योंकि पन्द्रह कथाएँ पंचायती मन्दिर देहलीके गुटका नं. १३ सूर्यके तेज मंद होनेपर हृदयकमल संकुचित हो जाता है, १४ में दी हई हैं, जो संवत् १६०२ में श्रावण सुदी एका अत: रात्रिभोजनका धार्मिक तथा शारीरिक स्वास्थ्यकी दृष्टिसे। दशी सोमवारके दिन रोहतकनगरमें पातिसाह जलालुहीनके त्यागका विधान किया है, जैसा कि उसके निम्न दो पोसे राज्यकालमें लिखा गया है । उन कथाओं के नाम इस प्रकट है प्रकार हैं:जि रोय दलदिय दीण अणाह, १ अणंतवयकहा २ सवणबारसिविहाणकहा जि कुट्ठ गलिय कर करण सवाह । ३ पखवइकड़ा ४णहपंचमी कहा ५चंदायणवयदुहग्गु जि परियणु वग्गु अणेहु , कहा ६ चंदणछट्ठी कहा ७ णरयउतारी दुद्धारसकहा सु-रयणिहिं भोयणु फजु जि मुणहु ॥८॥ मणिद्दहसत्तमी कहा हमउडसत्तमी कहा १० पुप्फं घड़ो दुइ वासरु थक्कइ जाम , जलि-वयकहा ११ रयणतयविहाणकहा १२ दहसुभोयणु सावय भुजहि ताम । लक्खणवयकहा १३ लद्धिवयविहाण कहा १४. दियायरु तेउ उजि मंदर होइ, + देखो, अनेकान्त वर्ष ५ किरण ६-७ । . सकुकुच्चइ चित्तहु कमलु जि सोइ॥६॥ अथ संवत्सरेस्मिन् श्रीनृपविक्रमादित्यराज्यात् संवत् १६०२ + विशेष परिचपके लिये देखो, जैनसिद्धान्तभास्कर भाग वर्षे श्रावणसुदि ११ सोमवासरे रोहितासशुभस्थाने पातिसाह ११ किर ९ में मेरा भ. यशःकीर्ति नामका लेख। जलालदी, (जलालुद्दीन) राज्यप्रवर्तमाने पछ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527238
Book TitleAnekant 1946 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1946
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size3 MB
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