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अनेकान्त
[वर्ष ८
सन्देहको कोई गुंजायश नहीं रहती; क्योंकि उन दोनोंकी निदुहसत्तमी कहा और नरयउतागविहिगुरुपरम्परा भिन्न भिन्न है। और समय भी मित्र है । सागर-. इन दोनों क्याओंके कर्ता मुनिकाल चंद्र हैं जो मुनिउदय चन्दके चन्द्रक शिष्य विनयचन्द्रका समय विक्रमका तरहवा शताब्दी शिष्यथे, इन्हीं बालचन्द मुनिके शिष्य विनयचन्द्रमुनिका ऊपर सुनिश्चित है तथा उक्र निर्मरपंचमी कथाके कर्ता विनयचन्द्र
परिचय दिया गया है । प्रस्तुत बालचन्द्रमुनि प्राचार्य इनसे बादके विद्वान मालूम होते हैं, इनकी दो कृतियाँ और
कुं. कुंदके प्राभृतत्रयके टीकार मुनि बाल चन्द्रसे मित्र हैं; भी समुपलब्ध हैं। एक 'चूमडी' और दूसरी 'कल्याणकरासु'
क्योंकि वे नयकीर्तिके शिष्य थे, जो सिद्धान्त चक्रवर्तीकी है। इन दोनोंमेंसे प्रथम रचनामें तेतीस पद्य हैं और
उपाधिसे अलंकृत थे। उक्त कथाओंके कर्ता मुनि बालचन्द्र द्वितीय रचना 'कल्याणकरासु' में जैनियों चतुर्विंशति
कब हुए, यह यथेष्ठ साधन सामग्रीके प्रभावमें निश्चितरूपसे तीर्थकरोंकी पंचकल्याणक तिथियोंका वर्णन दिया हुआ है।
कहना कठिन है। . ये दोनों रचनाएं जिस गुटके में लिखी हुई हैं वह विक्रम
जिनत्तिकहा और रविबउकहा- संवत् १५७६ में सुनपत नगरमें सिकन्दरशाहके पुत्र इब्राहीम
दोनों के राज्यमें लिखा गया है । इससे विनयचन्द्र अनुमानत: सौ . कथाश्राक
कथाओंके कर्ता यशकीर्ति भट्टा.गुरु कीर्तिके लघुभ्राता व शिष्य या डेढ़सौ वर्ष पूर्व ही हए होगे अत: इनका समय थे। गुए कीर्ति महातपस्वी थे, उनका तपश्चरण से शार विक्रमकी १४ वीं या पंद्रवीं शताब्दी होगा।
अत्यंत क्षीण होगया था। इनके शिष्य यश:कीर्ति अपने समय
के एक अच्छे विद्वान् कवि थे । इन्होंने संवत् १४८६ में x अनेकान्त वर्ष ५ किरण ६-७ पृष्ठ २५८ से ६१ तक जो विबुधश्रीधरके संस्कृत भविष्यदत्तदरित्र और अपभ्रंश विनयचन्द्र मुनिकी चूनडीनामकी रचना प्रकाशित हुई है। भाषाके 'सुकमालचरित' की प्रतियाँ अपने ज्ञानावरणी उसके मुद्रित पाठका नया मन्दिर धर्मपुरा देहलीकी कर्मके क्षयार्थ लिखवाई थीं । महाकवि रहधूने अपने हस्तलिखित प्रतिपरसे'ता. ८-५-४५ को मैने संशोधन सम्म जिनचरित' की प्रशस्तिमें रश:कीर्तिका निम्न शब्दों किया था उसके फलस्वरूप मालूम हुआ कि मुद्रित पाठमें में उल्लेख किया है:प्रथम-द्वितीय पद्य तथा अन्तिम पद्यकी कुछ पंक्रियाँ लेखकों
"भव्व-कमल-सर-कोह-पयंगो, की कृपासे छूट गई हैं जिससे चूनडीके ३१ पद्य शेष
बंदि वि सिरिजसकित्ति असंगो।" स्हगए हैं। असनमें उक्त चूनदी ३३ पोंमें समाप्त हुई कवि रहधूने यश:कीर्ति तथा इनके शिष्योंकी प्रेरणासे है, उसका वह आदि और अन्तिम भाग इस प्रकार है:- कितने ही ग्रंथों की रचना की है । यश:कीर्तिने स्वयं अपना श्रादिभाग
'पाण्डवपुराण' वि० सं० १५४७ में अग्रवालवंशी साहु विणएं वंदिवि पंचगुरु
वील्हा के पुत्र हेमराजकी प्रेरणासे बनाया था, यह पहले मोह-महातम-तोडण-दिणयर, बंदिवि वीरणाह गुण गण हर। हिसारके निवासी थे और बादको उदयवश देहलीमें रहने तिहुवण सामिय गुण गिलट, मोक्खह,मग्गु पयासण जगगुर। लगे थे, और जो देहलीके बादशाह मुबारकशाहके मंत्री थे, णाह लिहावहि चूनडिया,मुन्ड पमणइ पिड जो डिविकर। वहाँ इन्होंने एक चैस्यालय भी बनवाया था और उसकी पणविवि कोमल-कुवलय-ण यणी लोयालोय पयासण-वयणी। प्रतिष्ठा भी कराई थी। इनकी दूसरी कृति 'हरिवंशपुराण' पसरि वि सारद जोयह जिमा, जाअंधारउ सयलु विणासही है जिसकी रचना इन्होंने वि० सं० १५०० में हिसारके सा महु णिवसर माणुसहि, हंसवहू जिम देवी सरासह ॥२ साहु दिवढाकी प्रेरणासे की थी । साहुदिवढा अग्रवाल अन्तिम
कुलमें उत्पन्न हुए थे और उनका गोत्र गोयल था। वे बड़े इह चूनडीय मुनिंद पयासी, संपुण्णा जिण आगमभासी।
धर्मात्मा और श्रावकोचित द्वादश व्रतोंका अनुष्ठान करनेवाले पढहिं गुणहिं जेसाहहिं, तेन सिव.सुह लहहिं पयतें।
र
य
थे। इनकी तीसरी कृति प्रादित्यवार कथा है, जिसे रविव्रतविणएं वंदिवि पंचगुरु ॥३३॥
* देखो, उक्त दोनों ग्रंथोंकी लेखक पुष्पिका।
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