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'किरण' ६-७ ]
को 'मुनि' 'गणि' और 'सूरि' आदि विशेषणोंके साथ उल्लेखित किया है । इससे मालूम होता है कि वे गृहस्थ श्रवस्था छोड़ कर बादको मुनि बनगए थे । यह माधुरसंधी vaifoe शिष्य थे। इन्होंने अपनी जो गुरुपरम्परा दी है उससे मालूम होता है कि यह अमरकीर्ति श्राचार्य अमितगतिकी परम्परामें हुए हैं। श्रमितगति काष्टासंघ के विद्वान थे, जो माथुर संघकी एक शाखा है । भ० अमरकीर्तिने षट्कर्मोपदेशमें निम्न ग्रंथोंके रचे जानेकी सूचना की हैनेमिनाथचरिउ, महावीरचरिउ, टिप्पणधर्मचरित, सुभाषितरत्ननिधि, धर्मोपदेशचूडामणि और भारणपई ।
खेद है कि ये ग्रंथ अभीतक किसी भी शास्त्रभंडार में उपलब्ध नहीं हुए हैं । प्रस्तुत ग्रंथकर्ताने अपना 'षट्कर्मो पदेश' और 'पुरंदविधानकथा' ये दोनों ग्रंथ अम्बाप्रसादके निमित्तसे बनाये हैं यह अम्बाप्रसाद अमरकीर्तिके लघु बाँध थे ।
चंदगडीकहा—इस कथाके कर्ता कविलक्ष्मण थवा लाख है । इनकी गुरुपरम्पराका कोई विवरण प्राप्त नहीं हुआ । अतएव यह कहना अत्यंत कठिन है कि पडित लाखू अथवा लक्ष्मण किस वंशके थे और उनके गुरुका क्या नाम था ? लक्ष्मण नामके दो अपभ्रंश भाषाके कवियोंका संक्षिप्त परिचय मेरी नोटदुकमें दर्ज है। उनमें . प्रथम लक्ष्मण कवि वे हैं जो जायस अथवा जैसवाल वंश में उप हुए थे। इनके पिताका नाम श्रीसाहुल था । यह त्रिभुवनगिरिके निवासी थे, उसके विनष्ट होने पर वे यत्र-तत्र परिभ्रमण करते हुए विलरामपुर में आए थे, यह विलरामपुर एटा जिलेमें श्राज भी दसा हुआ है। वहांके सेठ 'विल्हण के पौत्र और जिनधरके' पुत्र श्रीधर थे, जो, पुरवाढवंशरूपी कमलोंको विकसित करने वाले दिवाकर थे । इन्हीं साहू श्रीधरकी प्रेरणा एवं श्राग्रहसे लक्ष्मण ने 'जिदत्तचरित' की रचना विक्रम संवत् १२७५ की पौष कृष्णा षष्ठी रविवार के दिन की थं + । इनका विशेष परिचय स्वतंत्र लेख में दिया जायगा ।
+ बारहसय सत्तरयं पंचोत्तरयं विक्कमकाल वियत्तउ । पडमपक्खि रविवारह छट्टि सहारइ पूसमासे सम्मत्तउ ॥ - जिनदत्तचरितप्रशस्ति
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दूसरे कचि लक्ष्मण या लखमदेव वे हैं जो रतनदेव नामक के पुत्र थे और जो मालवदेशके 'गोद' नगरके निवासी थे। उस समय यह नगर धन, जन, कन और कंचनसे समृद्ध तथा उत्तुंग जिनालयोंसे विभूषित था । यह पुराण वंश के तिलक थे और रातदिन जिनवाणी के अध्ययनमें लगे रहते थे । उनकी एकमात्र रचना 'नमिनाथचरिउ' उपलब्ध हैं जिसमें तेरासी कड़वकों और चार संधियों में जैनियोंके बाईसवें तीर्थंकर भगवान नेमिनाथका चरित चित्रित किया गया है । ग्रंथ में रचनाकाल दिया हुआ नहीं है किन्तु सिर्फ इतना ही उल्लेख मिलता है कि ग्रंथ आषाढकी त्रयोदशीको प्रारम्भ किया गया और चैत्रकी त्रयोदशीको पूर्ण हुआ था । चतः निश्चित समयका समुल्लेख करना कठिन है इन दोनों लक्ष्मण नामके विद्वानों में से कौन लक्ष्मण कवि चन्द्रनषष्ठी कथाके कर्ता हैं अथवा इन दोनोंसे भिन्न कोई तीसरे ही लक्ष्मण या लाखू कवि उक्त कथा के कर्ता हैं, इसके अनुसंधान होने की जरूरत है ।
णिज्झरपंचमी विहाण कहाणक—इस कथा के कर्ता भट्टारक विनयचन्द्र हैं जो माथुरसंघीय भट्टारक बालचन्द्र के शिष्य थे । विनय चंद्रके गुरु मुनि बालचन्द्र ने भी जो उदयचन्दके शिष्य थे, दो कथाएं रची हैं जिनका परिचय धागे दिया जायगा । प्रस्तुत विनयचन्द विक्रमकी तेरहवीं शताब्दी के आचार्य कल्प विद्वान् पं० श्राशाधरजीके समकालीन विनयश्चन्द्रसे, जिनकी प्रेरणा एवं श्राग्रहसे उक्त पंडितजीने श्राचार्य पूज्यपाद (देवनन्दी) के इष्टोपदेश ग्रंथकी संस्कृत टीका बनाई थी* भिन्न हैं; क्योंकि पंडित श्राशावरजीने उन्हें सागरचन्द्र मुनिका शिष्य बतलाया है जैसाकि उनकी टीका प्रशस्तिके निम्न पद्यसे प्रकट हैः
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उपशम इव मूर्तः सागरेन्दु मुनीन्द्रादजनिविनयचन्द्रः सच्च कोरेकचन्द्रः । जगदमतसगर्भशास्त्रसंदर्भगर्भः शुचिचरितवरिष्णोर्यस्य धिन्वंति वाचः ॥ २ ॥ इस पथ की रोशनी में दोनों विनयचन्द्रोंकी भिन्नता में विनये दुमुनेर्वाक्याद्भव्यानुग्रहहेतुना । इष्टोपदेशटीकेयं कृताशा धरधीमता ॥ १ ॥ -
- इष्टोपदेश टीकाप्रशस्ति ।
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