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अनेकान्त
कथाग्रंथोंके निर्माणका उद्देश्य
जैनाचायों अथवा निधिद्वानों द्वारा कथायोंके बनाये जानेका समुद्देश्य केवल यह सीस होता है कि यमसे बचे और प्रतादिके सुष्ठान द्वारा शरीर और आत्मा की शुद्धि की ओर असर हो साथ ही दुव्र्यसनों और अन्याय अत्याचारोंके पूरे परिणामोंको दिखामेका अभिप्राय केवल उनसे अपनी [रा करना है और इस तरह जीवनकी कमियों एवं त्रुटियोंको दूर करते हुए जीवनको शुद्ध एवं सात्विक बनाना है । और व्रताचरण - जन्य पुण्य-फलको दिखानेका प्रयोजन यह है कि जनता श्रधि से श्राधक अपना जीवन संवत और पवित्र बनावे, मादजनक, अनिष्ट, अनु पसेव्य अपघात कर बहुधातरूप अभय वस्तुओंके व्यव बहारसे अपने को निरंतर दूर से ऐसा करनेसे ही मानव अपने जीवनको सफल दना सकता है। इससे कट है कि जैनविद्वानोंका यह दृष्टिकोण कितना उम्र और लोको पयोगी है।
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कथाग्रन्थ और ग्रन्थकार
अब तक इस अपभ्रंश भाषामें दो कथाकोश, दो बड़ी कथाएँ और उनतीस छोटी छोटी कथाएँ मेरे देखने में श्राई हैं । पुराण और चरितग्रंथोंकी संख्या तो बहुत अधिक है जिसपर फिर कभी प्रकाश डालने का विचार है। इस समय तो प्रस्तुत कथाप्रन्थों और ग्रन्थकारोंका ही संक्षिप्त परिचय नीचे दिया जाता है :
कथाकोश- -अपभ्रंश भाषाका यह सबसे बड़ा कथा कोष है इसमें विविध इसके काय द्वारा फल प्राप्स करने बाकी कथाओंका रोचक ढंग से संकलन किया गया है। इसमें प्रायः वे ही कथाएँ दी हुई हैं जिनका उदाहरणस्वरूप उल्लेख आचार्य शिवायकी भगवती आराधनाकी गाथाको पाया जाता है। इससे इन काफी ऐतिहासिक सभ्यता कोई सन्देह नहीं रहता । प्रस्तुत कथाकं शके रचयिता मुनि श्रीचन्द्र हैं जो सहस्रकीर्तिके प्रशिष्य और वीरचन्द्र के प्रथम शिष्य थे। यह प्रन्थ तिरेपन संधियोंमें पूर्ण हुआ है। ग्रंथी प्रशस्तिसे मालूम होता है कि इसे कविने हिलपुरके प्राग्वट वंशी सज्जनके पुत्र और मूलराजनरेश के गोष्ठिक कृष्ण के लिये बनाया था । इनकी दूसरी कृति
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[ वंष ८
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स्नकरण्ड श्रावकाचार पद्धड़िया छंट २१ संधियों और चारहजार चारी तेईस श्लोकों में समाप्त हुआ है । इसका रचनाकारल विक्रम संवत् 1 है कि श्रीपुरमें कयं नरेन्द्रका राज्य था । इस ग्रन्थ में भी सभ्यग्दर्शन के निशंकितादि अंगों में प्रसिद्ध होनेवालोंकी कथाएँ बीच बीचमें दी हुई हैं । धम्मपरिक्खा - इस ग्रंथके कर्ता मेवाड़वासी धक्ड़वंशी कविवर हरिदेश हैं जो गोवर्द्धन और गुरु दर्ताके पुत्र थे । यह चित्तौड़ को छोड़कर अचलपुर में श्राए थे और वहाँ ही इन्होंने वि० सं० १०४४ में धर्मपरीक्षाको पंढडिया छंद रचा था। इसमें मनोवेग के द्वारा अनेक रोचक कथानकों तथा सैद्धान्तिक उपदेशों आदि पयेगी श्रद्धाकी धर्म में परिवर्तित कर जैन सुद्ध करनेका प्रयाण किया गया है। ग्रंथ में अपने पूर्व बनी हुई जयरामकी प्राकृताधा धर्मपरीक्षाका भी उलेख हुआ है अभीतक अप्राप्य है। साथही अपने से पूर्ववर्ती सीन महा कवियों का मुं स्वयंभू कोर पुष्पदन्तका भी प्रशंसात्मक लेख किया है। भविसयत्तकहा पक्षस्य कथाग्रंथोंमें कविवर सरु धनपाल की भविष्यदत्तपंचमी कथा ही सबसे प्राचीन मालूम होती है। यह ग्रंथ २२ संधियोंमें पूर्ण हुआ है ग्रंथका कथाभाग बड़ा ही सुन्दर है । इस पंचमी तके फल की निदर्शक कथाएँ कई विद्वान कवियोंने रची है जिनका परिचय फिर किसी स्वतंत्र लेख द्वारा करानेका विचार है। यह धनपाल नामके वैश्य वंश में उत्पन्न हुए थे। उनके पिताका नाम माएसर और माताका धनश्री देवी था। कदेको सरस्वतीका वरदान प्राप्त था। यद्यपि कपिने ग्रंथ कहीं भी उसका रचनाकाल नहीं दिया, फिर भी यह ग्रंथ विक्रमी दशमी शताब्दीका बताया जाता है ।
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पुरंदरविहाण कहा इस कथा कर्ता भट्टारक कति है जिन्होंने रात देशके महीयडु' प्रदेश व गोदा (गोधा ) नामके नगर में ऋषभजिन चैत्यालयमै विक्रम संवत् १२४० की भादों शुमला चतुर्दशी गुबारके दिन 'पटकर्मोपदेश' की रचना की है। उस समय धातुक्य वंशी बंदिदेयके पुत्र कर्याका राज्य था। ग्रंथ कथिने अपने* विशेष परिचय के लिये देखो, 'श्रीचन्द्र नामके तीन विद्वान शीर्षक मेरा लेख अनेकान्त वर्ष ७ किरण ३-१० ।
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