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अपभ्रंश भाषाका जैनकथा साहित्य
( ले० - पं० परमानन्द जैन, शास्त्री )
कथा साहित्यकी महत्ता
भारतीय वाङमय में कथा पुराण और चरित ग्रन्थोंका उल्लेखनीय बाहुल्य है । प्रायः सभी सम्प्रदायोंके साहित्यक विद्वानोंने विविध भाषाओं में पुराणों चरितों और काव्य चम्पू “आदि ग्रंथोंका निर्माण किया है। जहाँ जैनेतर विद्वानोंने sarvat गौर संस्कृत आदि दूसरी भाषाओंमें कथा साहित्यकी सृष्टि की है । वहाँ जैनविद्वानोंने 'प्राकृत और संस्कृतके साथ अपभ्रंश, भाषामें भी कथा, चरित्र, और पुराण ग्रंथ निबद्ध किये हैं। इतना ही नहीं किन्तु भारतकी विविध प्रान्तीय भाषाओं मराठी, गुजराती और हिन्दी श्रादिमें भी कथा साहित्य रचा गया है। अस्तु, आज मैं इस लेख द्वारा पाठकोंको अपभ्रंशभाषाके कुछ अप्रकाशित कथा साहित्य और उनके कर्ताओं के सम्बन्ध में प्रकाश दालना चाहता हूं, जिससे पाठक उनके विषय में विशेष जानकारी प्राप्त करसकें ।
कथाएँ कई प्रकारकी होती हैं; परन्तु उनके दो भेद मुख्य है— लौकिक और आध्यात्मिक । इन दोनोंमें सभी कथाओं का समावेश हो जाता है, अथवा धार्मिक और लौकिक के भेदसे वे दो प्रकारकी हैं उनमें धार्मिक कथाओं में तो आध्यात्मिकताकी पुट रहती है और लौकिक कथाओं में पशु-पक्षियों राजनीति, लोकनीति आदि बाह्य लौकिक मनोरंजक श्राख्यानोंका सम्मिश्रण रहता है। इनमें प्राध्या स्मिकतासे श्रोत-प्रोत धर्मिक कथाओंका प्रांतरिक जीवन घटना के साथ घनिष्ट सम्बन्ध रहता है और उनमें व्रतोंका सदनुष्ठान करने वाले भव्य श्राचकोंकी धार्मिक मर्यादाके साथ नैतिक जीवनचर्याका भी अच्छा चित्रण पाया जाता है । साथही भारी संकट समुपस्थित होनेपर धीरतासे विजय प्राप्त करने, अपने पुरुषार्थको सुदृढ रूपमें कायम रखने तथा धार्मिक श्रद्धा अडोल रहनेका स्पष्ट निर्देश पाया जाता है, जिससे उन्हें सुनकर तथा जीवनमें उतार कर उनकी महत्ता
यथार्थ अनुभव किया जा सकता है। कितनी ही कथाओं में जीवनोपयोगी आवश्यक तस्वका संकलन यथेष्ठ रूपमें
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पाया जाता है जो प्रत्येक व्यक्तिके जीवनको सफल बनाने के लिये कावश्यक होता है। असल में सत्पुरुषोंका उच्चतर जीवन दूसरोंके लिये आदर्श रूप होता है, उसपर चलने से ही जीवन में विकास और नैतिक चरितमें वृद्धि होती है, एवं स्वयंका आदर्श जीवन बनता है। इससे पाठक सहज़ही में कथाकोंकी उपयोगिता और महत्ताका श्रनुभव कर सकते हैं।
अपभ्रंश भाषाके इन कथाप्रन्थोंमें अनेक विद्वान कवियोंने व्रतका अनुष्ठान अथवा श्राचरण करनेवाले भव्यश्रावकों के जीवन-परिचय के साथ व्रतका स्वरूप, विधान और फलप्राप्तिका रोचक वर्णन किया है। साथ ही, व्रतका पूरा अनुष्ठान करनेके पश्चात् उसका उद्यापन करने की विधि, तथा उद्यापनकी सामर्थ्य न होनेपर दुमना व्रत करनेकी श्रावश्यकता और उसके महत्वपर भी प्रकाश डाला है।
का उद्यापन करते समय उस भव्य श्रावककी धर्मनिष्ठा, कर्तव्यपालना, धार्मिक श्रद्धा, साधर्मिवासल्य, निर्दोषवताचरणकी क्षमता और उदारताका अच्छा चित्रण किया गया है और उससे जैनियोंकी तत्तत् समयोंमें होनेवाली प्रवृत्तियों लोकसेवाओं, आहार औषधि, ज्ञान और अभयरूप चारदानों की प्रवृत्ति, तपस्वी-संयमीका वैध्यावृत्य तथा दीनदुखियोंकी समय समयपर की जानेवाली सहायताका उल्लेख पाया जाता है। इस तरह यह कथासाहित्य और पौराणिक चरित्रग्रंथ ऐतिहासिक व्यक्तियोंके पुरातन श्राख्यानों, वाचरणों श्रथवा मीच ऊँच व्यवहारोंकी एक कसौटी है । यद्यपि उनमें वस्तुस्थितिको अलंकारिक रूपसे बहुत कुछ बढ़ाचढ़ा कर भी लिखा गया है; परन्तु तो भी उनमें केवल कविकी कल्पनामात्र ही नहीं है, किन्तु उनमें कितनी ही ऐतिहासिक श्राख्यायिकाएँ (घटनाएँ) भी मौजूद हैं जो समय समयपर वास्तविक रूप से घटित हुई हैं । उनके ऐतिहासिक तथ्योंको यों ही नहीं भुलाया जा सकता । जो ऐतिहासिक विद्वान इन कथाग्रन्थों और पुराणों को कोरी गप्प या असल्य कल्पकार्थीक गढ़ कहते हैं वे वास्तविक वस्तुस्थितिका मूल्य श्रकने में असमर्थ रहते हैं। अतः उनकी यह कल्पना समुचित नहीं कही जा सकती ।
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