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________________ २७२ अनेकान्त [वष - स्त्रियोंके विषयमें ही समझना चाहिये, क्योंकि शीलवती इतनेपर भी, इस विषय में सन्देह नहीं है कि पुरुषजाति स्त्रियाँ गुणोंका पञ्ज स्वरूप ही हैं, उनको दोष कैमे छू ने धम जैसी पवित्र और सर्वकल्याणकारी वस्तु के नामपर सकते हैं।" भी स्त्री जाति के साथ अन्याय किये ही हैं। वस्तुत:, जैमा - अपराजित सूर (5 वीं शताब्दी ), प्राचार्य कि वंगीय साहित्य महारथी स्व. शरत् बाबूने कहा हे*जयनन्दि (१० वीं शताब्दी) पं. श्राशाधरजी (१३ वीं 'समाजमें नारीका स्थान नीचे गिरनेसे नर और नारी दोनों शताब्दी) इत्यादि विद्वानोंने शिवार्यके उपर्यत कथनका का ही अनिष्ट होता है और इस अनिष्टका अनुसरण करनेसे समर्थन किया है। जैन योगके प्रसिद्ध ग्रन्थ ज्ञानार्णवमें समाज में नागका जो स्थान निर्दिष्ठ हो सकता है. उसे प्राचार्य शुभचन्द्र ने कहा है - 'बाह! इस संसार में अनेक समझना भी कोई कठिन काम नहीं है । समाजका अर्थ है सिमाजोपासा नर और नारी। उसका अर्थ न तो केवल नरही है और न और शीलसंयमसे भूषित हैं तथा अपने वंशमें तिलक भूत केवल नारी ही है।" तथा "सुसभ्य मनुष्यकी स्वस्थ संयत है, उसे शोभायमान करती हैं तथा शास्त्राध्ययन और तथा शुभबुद्धि नारीको जो अधिकार अर्पित करने के लिये मत्यभाषणसे अलंकृत है।' तथा 'अनेक स्त्रियाँ ऐसी कहती है वही मनुष्यकी सामाजिक नीति है, और इसे जो अपने सतीत्व, महत्व, चारित्र, विनय और विवेकसे समाजका कल्याण होता है। समाजका कल्याण इस बातसे इस पृर्श्वतलको भूषित करती हैं।' 'महापुराण में जिनसेन नही होता कि नहीं होता कि किसी जातिकी धर्मपुस्तकमें क्या लिखा स्वाम:ने गुणवनी नारीको स्त्री सृष्टि में प्रमुखपद प्राप्त करने हार क्या न isो है और क्या नहीं लिखा है।" सामाजिक मानवके संबंधों गली बताया है (नारी गुणवती धत्ते स्त्रीसृष्टिर ग्रिमं पदम्)। एक श्रग्रज विद्वानका उात गुणभद्राचार्य कृत 'श्रात्मानुशासन' की टीकामें. अनुदार "Perhaps in no way is the moral एवं स्थितिपालक कहे जाने वाले दल के एक प्राधु नक progress of mankind more clearly 1947 917 shown than by contrasting the posiविद्वानका कथन है कि+-'...पुरुषर्षाका मुख्य मानकर 'tion of women among savages with उनको संबोधन कर यह उपदेश दिया गया है किन्तु स्त्रीके their position among the most लिये जब यह उपदेश समझना हो तब ऐमा अर्थ करना advanced of the civilized." अर्थात् असभ्य चाहिये कि स्त्रियाँ कुत्सत व्यभिचारी पुरुषोंके संबंधसे वहशी लोगोमें स्त्रियोंकी जो अवस्था है तथा समसमाजके व्यसनोंमें श्रासक्त होकर अात्महितसे वंचित रहती हुई सर्वाधिक उन्नत लोगोंमें स्त्रीजातिकी जो स्थिति है, उसकी अनेक पाप संचित करके क्या नरकोंमें नहीं पड़ती ? अवश्य तुलना करनेसे. मानवजातिकी नैतिक उन्नतिका जितना पड़ती है, और उनको नरकों में डालने में निमित्त वे पुरुष स्पष्ट और अच्छा पता चलता है उतना शायद किसी अन्य होते हैं। इसलिये वे पुरुष उन्हें नरकके घोर दुःखों में प्रवेश प्रकारसे नहीं हो सकता । अस्तु, मानवकी सभ्यता, सुसंस्कृति कराने के लिये उघड़े हुए विशाल द्वारके समान हैं। ....... शिष्टता और विवेककी कसौटी स्त्रीजातिके प्रति उसका गृहधर्ममें स्त्रियों के द्वारा पुरुषोंको जो अनेक उपकार मिलते व्यवहार और परिणामस्वरूप स्त्रीजातिकी सुदशा है। हैं उनके बदलेमें वे पापी पुरुष हैं कि जो उनको नरकोंमें वर्तमानमें, मनुष्यके लिये अपमी २ समाज, जाति और डालकर उनका अपकार करने वाले हैं।' वर्गकी अवस्थाको इस मापदण्डसे ही जाँचना और आदर्श . इस प्रकार स्त्री जातिके संबंध में जैनधर्म और जैनाचायो प्राप्तिकेलिये प्रयत्नशील होना ही सर्वप्रकार श्रेयस्कर होगा। की नीति एवं विचार स्पष्ट हैं और वे किसी भी अन्य धर्म वीरसेवामन्दिर । ता०६.१.४७ की अपेक्षा श्रेष्ठतर है। -* शरत्वाबूका निबंध 'नारीर मूल्य' (नारीका मूल्य) + जै० प्र० २० कार्यालय बम्बईसे प्रकाशित-आत्मा- -पृ०६७, ७४, ६४ नुशासनकी पं० वंशीधर कृत हिन्दी टीका पृ. ६५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527238
Book TitleAnekant 1946 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1946
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size3 MB
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