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अनेकान्त
[वर्ष
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सोलहकारणवयविहि १५ सुयंघदसमी कहा।
कहा-इस कथाके रचयिता इन कथाओंमेंसे नं.१,१० और १२ नंबरकी तीनों विमलकीति हैं. इनकी गुरुपरम्परा आदिका कोई परिचय कथाएँ ग्वालियरके जैसवाल वंशी चौधरी लक्ष्मणसिंहके पुत्र
लक्ष्मणसिहक पुत्र प्राप्त नहीं हो सका।
नहीं पंडित भीमसेनके अनुरोधसे रची गई हैं। और नं. २ तथा
• सुबंधदसमी कहा-इस कथाके कर्ता कविवर नं० १३ की ये दोनों क्याएँ ग्वालियरवासी संघपति साहु उद्धरणके जिनमन्दिरमें निवास करते हुए साह सारंगदेवके देवदत्त हैं। इनकी गुरुपरम्परा और समयादि भी प्राप्त नहीं
हो सका। के पुत्र देवदासकी प्रेरणाको पाकर बनाई गई हैं। नं.. की कथा उक्र गोपाचलवासी साह बीधाके पुत्र सहजपालके
रविवउकहा और अणन्तवयकहाअनुरोधसे लिखी गई है। शेष नौ कथाओंके सम्बन्धमें इन दोनों कथाओंके रचयिता मुनि नेमिचन्द्र हैं जो माथुर निर्मापक भव्य श्रावकोंका कोई परिचय दिया हया नहीं है। संघमें प्रख्यात थे। नेमिचन्द्र नामके अनेक विद्वान होगए
भट्टारक गुणभद्रका समय भी विक्रमकी १६ वीं शता- अतः सामग्रीक अभावस प्रस्तुत नामचन्द्र की र ब्दीका पूर्वार्ध है; क्योंकि संवत् १५०६ की धनपाल पंचमी
और समयादिके सम्बन्धमें अभी कुछ नहीं कहा जा सकता। कथाकी प्रशस्तिसे मालूम होता है कि उस समय ग्वालियर
इनके अतिरिक्र 'अणंतवयकहा' और 'मुत्तावली के पट्टपर भट्टारक हेमकीर्ति विराजमान थे । और संवत्
विहाणकहा' इन दोनों कथाओंके कर्ता अभी अज्ञात हैं, १५२१ में राजा कीर्तिसिंहके राज्यमें गणम मौजद थे जब प्रस्तुत कथाओंमें कर्ताका कोई परिचय दिया हुआ नहीं है। ज्ञानार्णवकी प्रति लिखी गई थी। इन्होंने अपनी कथाओं
___इस तरह इस लेखमें दो कथाकोषों, दो बड़ी कथाओं में रचना समय नहीं दिया है। इसीसे निश्चित समय मालूम
और छोटी छोटी तीस कथाओंका परिचय दिया गया है। करने में बड़ी कठिनाई हो जाती है।
आशा है अन्वेषक विद्वान इन कथाओंके अतिरिक्र जो और
दिगम्बर तथा श्वेताम्बर कथा साहित्य हो उसपर भी प्रकाश * देखो, धनपाल पंचमी कथाकी लेखक प्रशस्ति, कारंजाप्रति। डालनेका यत्र करेंगे, जिससे इस कथा साहित्यके सम्बन्धमें और कैटलोग सं० प्रा० सी० पी० एण्ड बरार ।
जनताकी विशेष जानकारी प्राप्त हो सके। - देखो, 'ज्ञानार्णव' आरा प्रतिकी लेखक प्रशस्ति । वा. २०।१०। ४६] वीरसेवामन्दिर, सरसावा
'मेरा यह विश्वास है कि अहिंसा हमेशाके लिये है। वह आत्माका गुण है इसलिये वह व्यापक है; क्योंकि प्रात्मा तो सभीके होती है। अहिंसा सबके लिये है, सब जगहोंके लिये है, सब समयोंके लिये है। अगर वह दरअसल आरमाका गुण है. तो हमारे लिये वह सहज हो जाना चाहिये । श्राज कहा जाता है कि सत्य व्यापारमें नहीं चलता, राजकाजमें नहीं चलता। तो भिर वह कहाँ चलता है ? अगर सत्य जीवन के सभी क्षेत्रोमें
और सभी व्यवहारोंमें नहीं चल सकता तो वह कौड़ी कीमतकी चीज़ नहीं है। जीवन में उसका उपयोग ही क्या रहा ? मै तो जीवनके हरएक व्यवहारमें उसके उपयोगका नित्य नया दर्शन पाता हूं?
-महात्मा गांधी "दुनियामें जितने लोग दुखी हुए हैं, वे अपने सुखके पीछे पड़े, इसीलिये दुखी हुए। और जो दुनिगमें सुखी पाये जाते हैं, वे सब औरोंको सुखी करनेकी कोशिशके कारण ही सुखी हैं।
काश, केवल हमारे धर्मोपदेशक ही नहीं, किन्तु दुनियाके राजनैतिक नेतागण मी इस सिद्धान्तको समझ लेते।"
-काका कालेलकर
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