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________________ २२८ अनेकान्त गिरा-वाणी-सरस्वतीको कहते हैं, जिसकी वाणी-सरस्वती प्रवर्तिका हो – जनताको सदाचार एवं सन्मार्ग में लगानेवाली हो—उसे 'वट्टकेर' समझना चाहिये । दूसरे, वट्टकोंप्रवर्तकों में जो इरि गिरि-प्रधान- प्रतिष्ठित हो अथवा ईरि समर्थ - शक्तिशाली हो उसे 'वट्टकेरि' जानना चाहिये। तीसरे, वट्ट नाम वर्तन-आचरणका है और ईरक प्रेरक तथा प्रवर्तकको कहते हैं सदाचारमें जो प्रवृत्ति करानेवाला हो उसका नाम 'वट्टेरक' है । अथवा वह नाम मार्गका है, सन्मार्गका जो प्रवर्तक, उपदेशक एवं नेता हो उसे भी 'वट्टेरक' कहते है । और इसलिये अर्थकी दृष्टिसे ये वट्टकेरादि पद कुन्दकुन्दके लिये बहुत ही उपयुक्त तथा संगत मालूम होते हैं । श्राचर्य नहीं जो प्रवर्तकत्व-गुणकी विशिष्टताके कारण ही कुन्दकुन्दके लिये वहेरकाचार्य (प्रवर्तकाचार्य) जैसे पदका प्रयोग किया गया हो । मूलाचारकी कुछ प्राचीन प्रतियों में ग्रन्थकर्तृत्वरूप से कुन्दकुन्दका स्पष्ट नामोल्लेख उसे और भी अधिक पुष्ट करता है । ऐसी वस्तुस्थितिमें सुहृद्वर पं० नाथूरामजी प्रेमीने, जैन सिद्धान्तभास्कर (भाग १२ किरण १ ) में प्रकाशित 'मूलाचार के कर्ता वहकेरि' शीर्षक अपने हालके लेखमें, जो यह कल्पना की है कि, बेट्टगेरि या बेहकेरी नामके कुछ ग्राम तथा स्थान पाये जाते हैं, मूलाचारके कर्ता उन्हींमेंसे किसी बेट्टगेरिया बेट्टकेरी ग्रामके ही रहनेवाले होंगे और उस परसे कोesकुन्दादिकी तरह 'वट्टकेरि' कहलाने लगे होंगे, वह कुछ संगत मालूम नहीं होती - बेह और वह शब्दोंके रूपमें ही नहीं किन्तु भाषा तथा श्रर्थ में भी बहुत अन्तर है। बेट्ट शब्द, प्रेमीजीके लेखानुसार, छोटी पहाड़ीका वाचक कनदी भाषाका शब्द है और गेरि उस भाषामें गलीमोहल्लेको कहते हैं; जब कि वह और वहक जैसे शब्द प्राकृत भाषाके उपर्युक्र अर्थके वाचक शब्द हैं और ग्रन्थकी भाषा अनुकूल पड़ते हैं । ग्रंथभर तथा उसकी टीका में बेगेरि या बेट्टकेरि रूपका एक जगह भी प्रयोग नहीं पाया जाता और न इस ग्रंथ के कर्तृत्वरूपमें अन्यत्र ही उसका प्रयोग देखने में आता है, जिससे उन कल्पनाको कुछ श्रवसर मिलता । प्रत्युत इसके, ग्रन्थदानकी जो प्रशस्ति मुद्रित प्रतिमें ति है उसमें 'श्रीमद्वट्टेरकाचार्यकृतसूत्रस्य मद्विधेः ' इस वाक्यके द्वारा 'वट्टेरक' नामका उल्लेख है, जो कि प्रन्थकार-नामके उक्त तीनों रूपोंमेंसे एकरूप है और सार्थक Jain Education International [ वर्ष - है। इसके सिवाय, भाषा-साहित्य और रचना-शैलीक भी यह ग्रंथ कुन्दकुन्दके ग्रंथोंके साथ मेल खाता है, इतना ही नहीं बल्कि कुन्दकुन्द के अनेक ग्रंथों के वाक्य ( गाथा तथा गाथांश) इस ग्रंथमें उसी तरहसे संप्रयुक्त पाये जाते हैं जिस तरह कि कुंदकुंदके अन्य ग्रंथोंमें परस्पर एक-दूसरे ग्रन्थके वाक्योंका स्वतंत्र प्रयोग देखनेमें आता है* । अतः जब तक किसी स्पष्ट प्रमाण द्वारा इस ग्रन्थके कर्तृत्वरूपमें वट्टकेराचार्य का कोई स्वतंत्र अथवा पृथक् व्यक्तित्व सिद्ध न हो जाय तब तक इस ग्रंथको कुन्दकुन्दकृत मानने और घट्टकेराचार्यको कुन्दकुन्दके लिये प्रयुक्त हुआ प्रवर्तकाचार्य पद स्वीकार करने में कोई खास बाधा मालूम नहीं होती । २ कार्तिकेयाऽनुप्रेक्षा और स्वामिकुमार - . यह अ वादि बारह भावनाओंपर, जिन्हें भव्यजनों के लिये श्रानन्दकी जननी लिखा है (गा० १), एक बड़ा ही सुन्दर, सरल तथा मार्मिक ग्रंथ है और ४८६ गाथा- संख्याको लिये है। इसके उपदेश बड़े ही हृदय-ग्राही हैं, उक्रियाँ हुए अन्तस्तलको स्पर्श करती हैं और इसीसे यह जैनसमाजमें सर्वत्र प्रचलित है तथा बड़े आदर एवं प्रेमकी दृष्टिसे देखा जाता है। इसके कर्ता ग्रन्थकी निम्न गाथा नं० ४८८ के अनुसार 'स्वामिकुमार' हैं, जिन्होंने जिनवचनकी भावनाके लिये और चंचल मनको रोकनेके लिये परमश्रद्धा के साथ इन भावनाओं की रचना की है : जिण वयण-भावा सामिकुमारेण परमसद्धाए । रइया अणुपेक्खाओ चंचलमण-रुभट्ठ ॥ 'कुमार' शब्द पुत्र, बालक, राजकुमार, युवराज, श्रविवाहित, ब्रह्मचारी श्रादि अथके साथ 'कार्तिकेय' अर्थ में भी प्रयुक्त होता है, जिसका एक श्राशय कृतिकाका पुत्र है और दूसरा आशय हिन्दुओंका वह षडानन देवता है जो शिवजीके उस वीर्यं से उत्पन्न हुआ था जो पहले अग्निदेवताको प्राप्त हुआ, अग्निसे गंगामें पहुंचा और फिर गंगामें स्नान करती हुई छह कृतिकाओंके शरीरमें प्रविष्ट हुआ, जिससे उन्होंने एक एक पुत्र प्रसव किया और वे छहों पुत्र बादको विचित्र रूपमें मिलकर एक पुत्र 'कार्तिकेय' हो गये, * देखो, अनेकान्त वर्ष २ किरण ३ पृ० २२१-२४ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527238
Book TitleAnekant 1946 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1946
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size3 MB
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