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________________ किरण ६-७] प्रन्थ और प्रत्यकार २२६ जिसके छह मुख और १२ भुजाएँ तथा १२ नेत्र बतलाए जाते सहन करने वाले सन्तजनोंके कुछ उदाहरण प्रस्तुत किये है, हैं। और जो इसीसे शिवपुत्र, अग्निपुत्र, गंगापुत्र तथा जिनमें एक उदाहरण कार्तिकेय मुनिका भी निम्न प्रकार है:कृतिका आदिका पुत्र कहा जाता है। कुमारके इस कार्तिकेय "स्वामिकार्तिकेयमुनिः क्रौचराज कृतोपसर्ग अर्थको लेकर ही यह ग्रंथ स्वामी कार्तिकेयकृत कहा जाता सोद्वा. साम्यपरिणामेन समाधिमरणेन देवलोकं है तथा कार्तिकेयानुप्रेक्षा और स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा जैसे प्राप्यः (त:१)" नामोंसे इसकी सर्वत्र प्रसिद्धि है। परन्तु ग्रन्थभरमें की भी इसमें लिखा है कि 'स्वामिकार्तिकेय मुनि क्रौंचराजकृत ग्रन्थ कारका नाम कार्तिकेय नहीं दिया और न ग्रन्थको उपसर्गको समभावसे सहकर समाधिपूर्वक मरण के द्वारा कार्तिकेयानुप्रेक्षा अथवा स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा जैसे नामसे देवलोकको प्राप्त हुए।' उल्लेखित ही किया है। प्रत्युत इसके. ग्रन्थके प्रतिज्ञा और तत्वार्थराजवार्तिकादि ग्रन्थों में 'अनुत्तरीपपाददशांग' का समाप्ति-वाक्योंमें ग्रन्थका नाम सामान्यत: 'अणुपेहाम्रो' वर्णन करते हुए, वर्द्धमानतीर्थकरके तीर्थमें दारुण उपसर्गोको (अनुप्रेक्षा) और विशेषत:, 'बारसअणुवेक्खा' (द्वादशानुप्रेक्षा) सहकर विजयादिक अनुत्तर विमानों (देवलोक) में उत्पन्न होने दिया है । वुन्दकुन्दके इस विषयके ग्रन्थका नाम भी 'वारस वाले दस अनगार साधुओं के नाम दिये हैं, उनमें कार्तिक अथवा 'अणुपेक्खा है। तब कार्तिकेयानुप्रेक्षा यह नाम किसने और कार्तिकेयका भी एक नाम है। परन्तु किसके द्वारा वे उसर्गको कब दिया, यह एक अनुसन्धानका विषय है। ग्रन्थपर एक- प्राप्त हुए ऐसा कुछ उल्लेख साथम नहीं है। .. मात्र संस्कृत टीका जो उपलब्ध है वह भट्टारक शुभचन्द्रकी हाँ, भगवतीयआराधना जैसे प्राचीन ग्रन्थकी निम्न है और विक्रम संवत् १६१३में बनकर समाप्त हुई है। गाथा नं. १५४६ में क्राँचके द्वारा उपसर्गको प्राप्त हुए एक इस टीकामें अनेक स्थानों पर ग्रंथका नाम 'कार्तिकेनानुप्रेक्षा' ब्यक्रिका उल्लेख जरूर है.साथमें उपसर्गस्थान 'रीहेडक' और दिया है और ग्रन्थकार का नाम 'कार्तिकेय' मुमि प्रकट किया 'शक्ति' हथियारका भी उल्लेख है-परन्तु 'कार्तिकेय' है तथा कुमारका अर्थ भी कार्तिकेय' बतलाया है। नामका स्पष्ट उल्लेख नहीं है। उस व्यक्रिको मात्र अग्निइससे संभव है कि शुभचन्द्र भट्टारकके द्वारा ही यह दायितः' लिखा है, जिसका र्थ होता है अग्निप्रिय, नामकरण किया गया हो-टीकासे पूर्वके उपलब्ध साहित्यमें अग्निका प्रेमी अथवा अग्निका प्यारा, प्रेमपात्र:'ग्रंथकाररूपमें इस नामकी उपलब्धि भी नहीं होती। रोहेडयम्मि सत्तीए हमोकौंचेण अग्गिदयिदोवि। 'कोहेण जाण तापदि' हरयादि गाथा नं. ३६४ की तं वेदणमधियासिय पडिवएणो उत्तम अह्र ।। टीकामे निर्मल समाको उदाहृत करते हुए घोर उपसर्गोंको 'मूलाराधमादर्पण' टीकामें पं० श्राशाधरजीने 'अग्गि*वोच्छं अणुपेहाओ (गा. १); बारमअणुपेक्खायो दयिदो' (अग्निदयितः) पदका अर्थ, 'अग्निराज नाम्नो भणिया हु जिणागमाणुसारेण (गा. ४८८)। राज्ञः पुत्रः कार्तिकेयसंज्ञः'-अग्नि नामके राजाका पुत्र x यथा:-(१) कार्तिकेयानुप्रेक्षाष्टीका वक्ष्ये शुभश्रिये- कार्तिकेय संज्ञक--दिया है। कार्तिकेय मुनिकी एक कया (आदिमंगल) भी हरिषेण, श्रीचन्द्र और नेमिदत्तके कथाकोपोंमें पाई (२) कार्तिकेयानुप्रेक्षाया वृत्तिविरचिता वरा (प्रशस्ति ८)। जाती है और उसमें कार्तिकेयको कृतिका मातासे उत्पन्न (३) 'स्वामिकार्तिकेयो मुनीन्द्रो अनुप्रेक्ष्या व्याख्यातुकाम: अग्निराजाका पुत्र बतलाया है। साथ ही, यह भी लिखा ___ मल गालनमंगलावाप्ति-लक्षण[मंगल]माचष्टे(गा.१) है कि कार्तिकेयने बालकालमें--कुमारावस्थामें ही मुनि (४) केन रचितः स्वामिकुमारेण भव्यवर-पुण्डरीक-श्री- दीक्षा ली थी, जिसका अमुक कारण था, और कार्तिकेयकी स्वामिकार्ति केमुनिना श्राजन्मशीलधारिणः अनुप्रेक्षा: बहन रोहेटक नगरके उस कोच राजाको ब्याही थी जिसकी रचिताः। (गा.४८७)। शकिसे पाहत होकर अथवा जिसके किये हुए दारुण (१) प्राई श्रीकार्तिकेयसाधुः संस्तुवे (rce) उपसर्गको जीतकर कार्तिकेय देवलोक सिधारे हैं। इस (सली ना मन्दिर प्रति वि०, संवत् १८०६ कथाके पात्र कार्तिकेय और भगवती आराधनाकी उक्त गाथाके Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527238
Book TitleAnekant 1946 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1946
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size3 MB
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