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________________ किरण ६-७.] ६३ वें सत्रमें 'संजद' पदका विरोध क्यों ? २४६ करण्डश्रावकाचार के इस श्लोकमें 'स्त्रीच' सामान्य (जाति) लेकिन वहाँ नपुंसक वेदको छोड़कर अन्य कोई विशिष्ट पदका प्रयोग किया है जिसके द्वारा उन्होंने यावत् स्त्रियों वेद नहीं है। अतएव विवश उसी में उत्पन्न होता है। (स्त्रीत्वावच्छिन्न द्रव्य और भाव स्त्रियों) में पैदा न होनेका परन्तु तिर्यचोंमें तो स्त्रीवेदसे. विशिष्ट-उँचा दूसरा वेद स्पष्ट उल्लेख किया है । पण्डितप्रवर दौलतरामजीने प्रथम पुरुषवेद है, अतएव बद्धायुष्क क्षायिक सम्यग्दृष्टि पुरुषवेदी नरक बिन षभू ज्योतिष वान भवन सब नारी' इस तिर्यंचोंमें ही उत्पन्न होता है । यह श्राम नियम पद्यमें 'सब" शब्द दिया है जो समस्त प्रकारकी स्त्रियोंका है कि सम्यग्दृष्टि जहां कहीं (जिस किसी गतिमें) पैदा बोधक है। यह पद्य भी जिम पंचसंग्रहादिगत प्राचीन होता है वहां विशिष्ट (सर्वोच) वेदादिकों में ही पैदा गाथाका भावानुवाद है उस गाथामें भी 'सव्व-इय॑ सु' होता है-उससे जघन्यमें नहीं। पाठ दिया हुआ है। इसके अलावा, स्वामी वीरसेनने वीरसेनस्वामीके इस महत्वपूर्ण समाधानसे प्रकट है षटखएडागमके सूत्र की टीकामें सम्यग्दृष्टिकी उत्पत्तिको कि मनुष्यगनिमें उत्पन्न होनेवाला सम्यग्दृष्टि जीव द्रव्य और लेकर एक महत्वपूर्ण शंका और समाधान प्रस्तुत किया भाव दोनोंसे विशिष्ट परुषवेदमें ही उत्पन्न होगा-भावसे स्त्रीहै जो खास ध्यान देने योग्य है और जो निम्न प्रकार :- वेद और द्रव्यसे परुषवेदमें नहीं, क्योंकि जो द्रव्य और भाव "बद्घायुष्कःक्षायिकसम्यग्दृष्टिनरिकेषु नपुसकवेद इवात्र दोनोसे पुरुषवेदी है उसकी अपेक्षा नो भाषसे स्ववेदी और स्त्रीवेदे किन्नोखद्यते इति चेत्, न, तत्र तस्यैवैकस्य सत्त्वात् । द्रव्यसे पुरुषवेदीहै वह हीन एवं जघन्य है-विशिष्ट यत्र कवन समुत्पद्यमानः सम्यग्दृष्टिस्तत्र विशिष्ठवेदादिषु (सर्वोच्च) वेदवाला नहीं है। द्रव्य और भाव दोनोंसे जो समुत्पद्यते इति गृह्यताम् " पुरुषवेदी है वही वहाँ विशिष्ट (सर्वोच्च) वेदवाला है। शंका-पायुका जिसने बन्ध कर लिया है ऐसा अतएव सम्यग्दृष्ट भावस्त्री विशिष्ट द्रव्य मनुष्य नहीं हो क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव जिस प्रकार नारकियोंमें नसक- सकता है और इसलिये उसके अपर्याप्त अवस्थामें चौथे वेदमें उत्पन्न होता है उसी प्रकार यहाँ तिर्यचोंमें स्त्रीवेदमें गुणस्थानकी कदापि संभावना नहीं है। यही कारण है कि स्यों नहीं उत्पन्न होता? कर्मसिद्धान्तके प्रतिपादक ग्रन्थोंमें अपर्याप्त अवस्थामें अर्थात् समाधान-नहीं, क्योंकि नारकियोंमें वही एक नपु. विग्रहगतिमें चतुर्थगुणस्थानमें स्त्रीवेदका उदय नहीं बतलाया गया है। सामादन गुणस्थानमें ही उसकी व्युच्छित्ति सकवेद होता है, अन्य नहीं, अतएव अगत्या उसीमें पैदा बतला दी गई है, (देखो, कर्मकाण्ड गा०३१२-३१३-३१६)। होना पड़ता है। यदि वहां नमकवेदमे विशिष्ट-उँचा (बढ़कर) कोई दूमरा वेद होता तो उसी में वह पैदा होता, तात्पर्य यह कि अपर्याप्त अवस्थामें द्रव्यस्त्रीकी तरह भावस्त्रीमात्रके भी चौथा गुणस्थान नहीं होता है। इमीसे १ 'पंढ' शब्दका संशोधन ठीक नहीं है। प्रो. प्रतियों में सूत्रकारने द्रव्य और भाव दोनों तरहकी: मनुष्यनियोंके । 'सब' शब्द ही उपलब्ध होता है। यथा- . अपर्याप्त अवस्था में पहला, दूसराये दो ही गुगास्थान बतलाये छसु हेष्ठिमासु पुढविसु जोइस-वण-भवण-सव्वइत्थीसु । हैं उनमें चौथा गुणस्थान बतलाना सिद्धान्तावरुद्ध होनेके वारस मिच्छोवादे सम्माइहिस्स एत्यि उववादो ॥ कारण उन्हें इष्ट नहीं था। अत: सूत्रकी वर्तमान -पंचसं० १-१६३। स्थितिमें कोई भी आपत्ति नहीं है। पण्डितजीने अपनी छसु हेट्टिमासु पुढवीसु जोइस-वण-बवण-सब्वइत्थीसु। उपर्युक्त मान्यताको जैनबोधकके ६१वे अंकमें भी दुहराते हुए णेदेसु सपुषजह सम्माइट्ठी दु जो जीवो ॥ लिखा है:-"यदि यह ६२ वाँ सूत्र भावस्त्रीका विधायक -धवला मु. १ ली पु० पृ. २०६ । होता तो अपर्याप्त अवस्थामें भी तीन गुणस्थान होने चाहिये। हेछिमछप्पुढवीणं जोइसि-वण-भवण.सव्वइत्यीणं। .. . क्योंकि भावस्त्री (द्रव्यमनुष्य) के असंयत सम्यग्दृष्टि चौथा पुरिणदरे ण हि सम्मो ण सासणे णारयापुणो ॥ गुणस्थान भी लेता है।" परन्तु उपरोक्त विवेचनसे प्रकटो -गोम्मटसार जीवकाँड गा० १२७। कि पण्डितजीकी यह मान्यता प्रापत्ति एवं भ्रमपूर्ण है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527238
Book TitleAnekant 1946 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1946
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size3 MB
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