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________________ किरण ६-७] समन्तभद्र-भारतीके कुछ नमूने २२५ (यदि यह कहा जाय कि 'जो सत् है वह सब स्वभावसे ही मणिक है, जैसे शब्द और विद्युत् आदि; अपना प्रारमा भी चूँ कि सत् है अतः वह भी स्वभावसे क्षणिक है, और वह स्वभावहेतु ही उसका ज्ञापक है, तो इस - प्रकार के अनुमानपर ऐसा कहने अथवा अनुमान लगानेपर-यह प्रश्न पैदा होता है कि वह हेतु स्वयं प्रातपत्ता (ज्ञाता) के द्वारा दृष्ट (देखा गया) है या अदृष्ट (नहीं देखा गया अर्थात कल्पनारोपित) है? दृष्टहेतु संभव नहीं हो — सकता; क्योंकि सब कुछ क्षणिक होने के कारण दर्शनके अनन्तर ही उसका विनाश हो जानेसे अनुमानकालमें भी उसका प्रभाव होता है। साथ ही, चित्तविशेषके लिङ्गदर्शी उस अनुमाताका भी संभव नहीं रहता । इसी तरह कल्पनारोपित (कशित) अदृष्ट हेतु भी नहीं बनता; क्योंकि उस कल्पनाका भी तत्क्षण विनाश होजानेसे अनुमानकालमें सद्भाव नहीं रहता।) (यदि यह कहा जाय कि व्याप्तिके ग्रहण कालमें लिङ्गदर्शनकी जो कल्पना उत्पन्न हुई थी उसके तरक्षण विनाश हो जानेपर भी उसकी वासना (संस्कार) बनी रहती है अत: अनुमानकालमें लिङ्गदर्शनसे प्रबुद्ध हुई उस वासनाके सामर्थ्यसे अनुमान प्रवृत्त होता ही है, तो ऐसा कहना युक्र नहीं है, क्योंकि) सन्नानभिन्न (चित्त)में-हेतु(साधन) और हेतुमद् (साध्य) के अविनाभाव-सम्बन्धरूप व्याप्तिके ग्राहक चित्तसे अनुमाताका चित्त (सन्तानतः भिन्नकी तरह) भिन्नसन्तान होनेसे उसमें-वासनाका अस्तित्व नही बन सकता-यदि भिन्न सन्तानवालेके वासनाका अस्तित्व माना जाय तो भिन्नसन्तान देवदत्त-द्वारा साध्य-साधनकी व्यातिका ग्रहण होनेपर जिनदत्तके (व्याप्तिका ग्रहण न होने पर भी) साधनको देखने मात्रसे साध्यके अनुमानका प्रसंग आएगा; क्योंकि दोनों में कोई विशेषता नहीं है। और यह बात संभव नहीं हो सकती; क्योंकि व्याप्तिके ग्रहण विना अनुमान प्रवर्तित नहीं हो सकता)। आधुनिक भाषाओंकी व्युत्पत्तिके लिये जैनसाहित्यका महत्व (ले०-वा. ज्योतिप्रसाद जैन, एम. ए.) - <. • गुजराती पत्र 'श्री जैन सत्यप्रकाश' (वर्ष १२ किन्तु इस शब्द । संस्कृत रूप एक प्राचीन जैन अंक १) में प्रो० मूलराजजीका एक संक्षिप्त लेख 'दो अन्य 'धृहत्कथाकोष' में उपलब्ध होता है । इस शब्दोंकी व्युत्पत्ति' शीषकसे प्रकाशित हुआ है। उससे ग्रन्थके रचयिता दिगम्बराचार्य हरिषेण थे और प्रकट होता है कि जैन साहित्यका अध्ययन भारतवर्ष उन्होंने इस प्रन्थकी रचना विक्रम संवत् ८९ (सन् की आधुनिक लोकभाषाओं की व्युत्पत्तिकी जानकारीके ६३२ ई०) में की थी। यह ग्रन्थ अब प्रसिद्ध प्राच्य लिये भो उपयोगी एवं आवश्यक है। भषाविज्ञ डा. ए. एन. उपाध्ये द्वारा संपादित होकर पंजाब प्रान्तमें प्रचलित लोकभाषाका एक शब्द सिघी जैन ग्रंथमाला के अर्न्तगत, भारतीय विद्याभवन कडो, जिसका अर्थ है कन्या, लड़की अथवा पुत्री। बम्बई से प्रकाशित हो चुका है । उक्त कथाकोषकी यह शब्द अपने इस प्रकृतरूपमें अथवा किसी रूपान्तर कथा न. ३. (पृ०५०) का शीर्षक 'मृतक संसर्ग नष्ट को लिये हुए अन्य किसी प्रान्तीय भाषामें नहीं मिलता माला कथानकम्' है। इस कथामें लड़कीके अर्थों में संस्कृत प्राकृत आदि भाषाओं में भी अभी तक ऐसा 'कुटिकां' शब्दका प्रयोग हुआ है* । फुटनोट तथा कोई शब्द जानने में नहीं आया जिससे कुड़ी', शब्दकी भूमिका पृ० १०३ पर दिये हुए विशेषशब्दार्थकोषमें व्युत्पत्तिकी जासके। * वृहत्कथाकोष, कथा नं० ३०, श्लोक ८-६। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527238
Book TitleAnekant 1946 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1946
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size3 MB
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