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श्रनैकान्त
कारकादिरूप जो विविध अर्थ हैं उन्हें बालक तक भी स्वीकार करते हैं इसलिये वे सिद्ध हैं और उनका इस प्रकारसे सिद्ध होना ही स्वभाव है - तो यह वादान्तर हुआ; परन्तु यह वादान्तर भी ( हे वीर भगवन् ! ) आपक द्वेषियों के यहाँ बनता कहाँ है ? – क्योंकि वह श्रबाल-सिद्धिसे होनेवाली निर्णीति नित्यादि सर्वथा एकान्तवादका श्राश्रय लेने पर नहीं बन सकती, जिससे सब पदार्थों सब कार्यों और सब कारणोंकी सिद्धि होती । कारण यह कि वह निर्णीति श्रनित्य होती है और विना विक्रियाके बनती नहीं, इसलिये सर्वथा नित्य एकान्तके साथ घटित नहीं हो सकती । प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे किसी पदार्थकी सिद्धिके न हो सकनेपर दूसरोंके पूछने अथवा दूषणार्थ जिज्ञासा करनेपर स्वभाववादका श्रव लम्बन ले लेना युक्त नहीं है; क्योंकि इससे प्रतिप्रसंग आता है— प्रकृतसे श्रन्यत्र बिपक्षमें भी यह घटित होता है— सर्वथा नित्य अथवा क्षणिक-एकान्तको सिद्ध करनेके लिये भी स्वभाव एकान्तका अवलम्बन लिया जा सकता है।
यदि यह कहा जाय कि प्रत्यक्षादि प्रमाणोंकी सामर्थ्यसे विविधार्थकी सिद्धिरूप स्वभाव है तो फिर स्वभाव - एकान्तवाद कैसे सिद्ध हो सकता है ? क्योंकि स्वभावकी तो स्वभावसे ही व्यवस्थिति है उसको प्रत्यक्षादि प्रमाणोंके बलसे व्यवस्थापित करनेपर स्वभाव एकान्त स्थिर नहीं रहता। इस तरह हे वीर जिन ! आपके अनेकान्तशासन से विरोध रखने काले सर्वथा एकान्तवादियोंके यहाँ कोई भी वादान्तर ( एकके साथ दूसरा वाद ) बन नहीं सकता — वादान्तर तो सम्यक् एकान्तके रूपमें आपके मित्रों - संपक्षियों अथवा अनेकान्तवादियोंके यहाँ ही घटित होता है ।
येषामवक्तव्यमिहाऽऽत्म-तत्त्वं देहादनन्यत्व- पृथक्त्व- क्लृप्तेः ।
तेषां ज्ञतवेऽनवधार्यतच्चे का बन्ध-मोक्ष- स्थितिरप्रमेये ॥ १० ॥
वर्ष ८
नित्यत्मा देहसे (सर्वथा) अभिन्न है या भिन्न इस कल्पनाके होनेसे (श्रौ श्रभिरन्नत्व तथा भिन्नत्व दोनोंमेंसे किसी एक भी विकल्पके निर्दोष सिद्ध न हो सकनेसे) जिन्होंने आत्मतत्वको 'अवक्तव्य' - वचनके अगोचर अथवा अनिर्वचनीय माना है उनके मत में आत्मतत्त्व अनवधार्य (श्रज्ञेय) तत्त्व हो जाता है— प्रमेय नहीं रहता। और आत्मतत्त्वके अनवधायें होनेपर - प्रत्यचादि किसी भी प्रमाण का विषय न रहनेपर- बन्ध और मोक्षकी कौनसी स्थिति बन सकती है ? बन्ध्या-पुत्र की तरह कोई भी स्थिति नहीं बन सकती-न बन्ध व्यवस्थित होता है और न मोक्ष | और इसलिये बन्ध-मोतकी सारी चर्चा व्यर्थं ठहरती है ।"
हेतुर्न दृष्टोऽत्र न चाप्यदृष्टो योऽयं प्रवादः क्षणिकाऽऽत्मवादः ।
'न ध्वस्तमन्यत्र भवे द्वितीये' सन्तानभिन्नेन हि वासनाऽस्ति ॥ ११ ॥
'प्रथम क्षण में नष्ट हुआ चित्त-आत्मा दूसरे क्षण में विद्यमान नहीं रहता' यह जो ( बौद्धोंका ) क्षणिकात्मवाद है वह (केवल) प्रवाद है- प्रमाणशून्य वाद होनेसे प्रलापमात्र है; क्योंकि इसका ज्ञापक— अनुमान करानेवाला — कोई भी दृष्ट या अदृष्टहेतु नहीं बनता ।
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देहसे श्रात्माको सर्वथा श्रभिन्न माननेपर संसारके प्रभावका प्रसंग आता है; क्योंकि देह-रूपादिककी तरह देहात्मक आत्माका भवान्तर-गमन तब बन नहीं सकता और इसलिये उसी भवमें उसका विनाश ठहरता है, विनाशका नित्यत्व के साथ विरोध होनेसे श्रात्मा नित्य नहीं रहता और चार्वाकमतके श्राश्रयका प्रसंग 'ता है, जो श्रात्मतत्वको भिन्नत न मानकर पृथिवी आदि भूतचतुष्कका ही विकार अथवा कार्य मानता है और जो प्रमाण- विरुद्ध है तथा श्रात्मतत्ववादियोंको इष्ट नहीं है । और देहसे श्रात्माको सर्वथा भिन्न माननेपर देहके उपकार- अपकार से श्रात्मा के सुख-दुःख नहीं बनते, सुख-दुःखका प्रभाव होनेपर राग-द्वेष नहीं बन सकते और राग-द्वेषके अभाव में धर्म-अधर्म संभव नहीं हो सकते । श्रतः 'स्वदेहमें अनुरागका सद्भाव होनेसे उसके उपकार - अपकार के द्वारा श्रात्माके सुख-दु:ख उसी तरह उत्पन्न होते हैं जिस तरह स्वगृहादिकें उपकारअपकारसे उत्पन्न होते हैं' यह बात कैसे बन सकती है ? नहीं बन सकती । इस तरह दोनों ही विकल्प सदोष ठहरते हैं ।
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