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अनेकान्त
[वर्ष
सर्वथा चेलरहित-दिगम्बर और अल्पचेल-श्वेताम्बर पलब्ध है। ये दो धारायें बन गई प्रतीत होती हैं। यह इस बात्तसे . (ख) यह पहले कहा जा चुका है कि षट्खण्डागमका मी सिद्ध है कि इसी समयके लगभग हुए प्राचार्य उमा- समस्त वर्णन भावकी अपेक्षासे है। अतएव उसमें द्रव्यस्वातिने भगवान महावीरकी परम्पराको सर्वथा चेलरहित वेदविषयक वर्णन अनुपलब्ध है। अभी हाल में इस लेखको ही बतलाने के लिये यह जोरदार और स्पष्ट प्रयत्न किया लिखते समय विद्वद्वर्य पं.फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्रीका जैनकि 'अचेल' शब्द का अर्थ अल्पचेल नहीं किया जाना बोधकमें प्रकाशित लेख पढ़नेको मिला । उसमें उन्होंने चाहिये-उसका तो नग्नता-सर्वथा चेलरहितता ही सीधा- खुद्दाबन्धके उल्लेखके आधारपर यह बतलाया है कि षट्मादा अर्थ करना चाहिए और यह ही भगवान महावीरकी खण्डागम भरमें समस्त कथन भाववेदकी प्रधानतासे किया परम्परा है। इस बातका उन्होंने केवल मौखिक ही कथन गया है। अतएव वहां यह प्रश्न उठना ही नहीं चाहिये नहीं किया, किन्तु अपनी महत्वपूर्ण उभय-परम्परा सम्मत कि षट्खण्डागममें द्रव्यस्त्रिोंके लिये गुणस्थान विधायक सूत्र सुप्रसिद्ध रचना तत्त्वार्थसूत्र में बाईस परीषहोंके अन्तर्गत क्यों नहीं आया ? उन्होंने बतलाया है कि 'घटखण्डागमकी अचेल परिषदको, जो अब तक दोनों परम्पराओंके शास्त्रोंमें रचनाके समय द्रव्यवेद और भाववेद ये वेदके दो भेद ही इसी नामसे ख्यात चली आई, 'नाग्न्य परीषह' के नामसे नहीं थे उस समय तो सिर्फ भाववेद वर्णनमें लिया जाता ही उल्लेखित करके लिखित भी कथन किया और अचेल था । षट्खण्डागमको तो जाने दीजिये जीवकाण्डमें भी शब्दको भृष्ट और भ्रान्तिकारक जानकर छोड़ दिया। द्रव्यस्त्रियोंके ५ गुणस्थानोंका विधान उपलब्ध नहीं होता क्योंकि उस शब्दकी खींचतान दोनों तरफ होने लगी और इसलिये यह मानना चाहिये कि मूल ग्रन्थों में भाव
और उसपरसे अपना इष्ट अर्थ फलित किया जाने लगा। वेदकी अपेक्षासे ही विवेचन किया जाता रहा, इस लिये हमारा विचार है कि इस विवाद और भ्रान्तिको मिटानेके मूल ग्रन्थों अथवा सूत्रग्रन्योमें द्रव्यवेदकी अपेक्षा विवेचन लिये ही उन्होंने स्पष्टार्थक और अंभ्रान्त अचेलस्थानीय नहीं मिलता है। हाँ, चारित्रग्रन्योंमें मिलता है सो वह 'नाम्न्य' शब्दका प्रयोग किया। अन्यथा, कोई कारण ठीक ही है। जिन प्रश्नोंका सम्बन्ध मुख्यतया चरणानुयोगसे नहीं कि 'अचेल' शब्दके स्थानमें 'नाग्न्य' शब्दका है उनका समाधान वहीं मिलेगा, करणानुयोगमें नहीं।' परिवर्तन किय जाता जो कि अबतक नहीं था। अतएव पण्डितजीका यह सप्रमाण प्रतिपादन युक्तियुक्त है। दूसरी श्रा० उमास्वातिका यह विशुद्ध प्रयत्न ऐतिहासिकोंके लिये बात यह है कि केवलीषटवण्डागमपरसे ही स्त्रीमुक्ति मिषेधकी इतिहासकी दृष्टिसे बड़े महत्वका है। इससे प्रकट है कि दिगम्बर मान्यताको कण्ठत: प्रतिपादित होना आवश्यक प्रारम्भिक मूल परम्परा अचेल-दिगम्बर रही और स्त्र के हो तो सर्वथावस्त्रत्याग और कवलाहारनिषेधकी दिगम्बर अचेल न होनेके कारण उसके पांच ही गुणस्थान सम्भव मान्यताप्रोको भी उससे कण्ठतः प्रतिपादित होना चाहिये । हैं. इससे आगेके छठे आदि नहीं।
इसके अलावा, सूत्रोंमें २२ परिषहोंका वर्णन भी दिखाना जान पड़ता है कि साधुअमेिं जब वस्त्र-ग्रहण चल चाहिये । क्या कारण है कि तत्त्वार्थसूत्रकारकी तरह षट्पड़ा तो स्त्रीमुक्तिका भी समर्थन किया जाने लगा; क्योंकि खण्डागमसूत्रकारने भी उक्त परीषहोंके प्रतिपादक सूत्र क्यों उनकी सचेलता उनकी मुक्तिमें बाधक थी। वस्त्र-ग्रहणके नहीं रचे? इससे जान पड़ता है कि विषय-निरूपणका बाद पुरुष अंथवा स्त्री किसीके लिये भी सचेलता बाधक संकोच-विस्तार सूत्रकारकी दृष्टि या विवेचनशैलीपर निर्भर नहीं रही। यही कारण है कि आद्य जैन साहित्यमें स्त्री- है। अत: षट्खण्डागममें भाववेद विवक्षित होनेसे द्रव्यमुक्तिका समर्थन अथवा निषेध प्राप्त नहीं होता । अतः स्त्रियोंके गुणस्थानोंका विधान उपलब्ध नहीं होता। सिद्ध है कि सूत्रकारको द्रव्यस्त्रियोंके ५ गुणस्थानोंका. ३-तीसरी दलीलका उत्तर यह है कि 'पर्यात' बतलाना उस समय आवश्यक ही न था और इसलिये शब्दके प्रयोगसे वहाँ उसका द्रव्य अर्थ बतलाना सर्वथा षट्खण्डागममें द्रव्यस्त्रियोंके ५ गुणस्थानोंका विधान अनु- मूल है। पर्याप्तकर्म जीव विपाकी प्रकृति और उसके
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