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किरण ६-७ ]
उदय होनेपर जीव पर्याप्तक कहा जाता है। अतः उसका भाव भी अर्थ है । दूसरे, वीरसेन स्वामीके विभिन्न विवेच और अलङ्कदेव राजवार्त्तिकगत प्रतिपादनसे पर्याप्त मनुष्यनियों १४ गुणस्थानोंका निरूपण होने से वहाँ 'पर्याप्त' शब्दका अर्थ द्रव्य नहीं लिया जासकता है और इसलिये 'ज्जत्तम सिण' से द्रव्यस्त्रीका बोध करना महान् सैद्धान्तिक भूल | मैं इस सम्बन्ध में अपने " संजद पदके सम्बन्ध में अकलंकदेवका महत्वपूर्ण अभिमत" शीर्षक लेखमें पर्याप्त प्रकाश डाल चुका हूँ ।
४ – हमें बड़ा आश्चर्य होता है कि 'संजद' पदके विरोध में यह कैसे कहा जाता है कि 'वीरसेन स्वामीकी टीका उक्त सूत्रमें 'संजद' पदका समर्थन नहीं करती, श्रन्यथा टीका में उक्त पदका उल्लेख अवश्य होता ।' क्योंकि टीका दिनकर - प्रकाशकी तरह 'संजद' पदका समर्थन करती है। यदि सूत्रमें 'संजद' पद न हो तो टीकागत समस्त शंका-समाधान निराधार प्रतीत होगा । मैं यहाँ टीकागत उन पद वाक्यदिकों को उपस्थित करता हूँ जिनसे 'संजद' पदका प्रभाव प्रतीत नहीं होता, बल्कि उसका समर्थन सेष्टतः जाना जाता है। यथा
६३ वें सूत्र में 'संजद' पदका विरोध क्यों ?
'हुण्डावसर्पिण्यां स्त्रीषु सम्यग्दृष्टयः कन्नोत्पद्यन्ते, इति चेत्; नोट द्यन्ते । कुतोऽवसीयते ? अस्मादेव र्षात् । अस्मादेवार्षाद् द्रव्यस्त्रीणां निर्वृत्तिः सिद्धयेत्, इति चेत्, न सत्रास्त्वादप्रत्याख्यानगुण स्थितानां संयमानुश्पत्तेः। भावसंयमस्तासां सवाससामप्यविरुद्धः, इति चेत्, न तासां भावःसंयमोऽस्ति भावासंयमा'विनाभावि वरादान (न्यथानुपपत्तेः । कथं पुनस्तासु चतुर्दश गुणस्थानानीति चेत्, न, भावस्त्रीविशिष्टमनुष्यगौताविराधात् । भाववेदो वादरषाय न्नोपस्तीति न तत्र चतुदशगुणस्थानास सम्भव इति चेत्, न, अत्र वेदस्य प्राधान्याभावात् । गतिस्तु प्रधाना नसाद्विनश्यति । वेदविशेषणायां गतौ न तानि • सम्भवन्ति इति चेत्, न तद्वय देशमादधानमनुष्यगौ तत्सत्त्वाविरोधात् ।'
यहाँ सबसे पहले यह शंका उपस्थित की गई है कि यद्यपि स्त्रियों (द्रव्य और भाव दोनों) में सम्यग्दृष्टि जीव मरकर उत्पन्न नहीं होते हैं । लेकिन हुण्डावसर्पिणी ( श्राप
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वादिककाल) में स्त्रियों में सम्यग्दृष्टि क्यों नही उत्पन्न होते? ( इस शंकासे यह प्रतीत होता है कि वीरसेन स्वामीके सामने कुछ लोगोंकी हुण्डावसर्पिणी कालमें स्त्रियों में सम्यग्दृष्ट उत्पन्न होने की मान्यता रही और इसलिये इस शंका द्वारा उनका मत उपस्थित करके उसका उन्होंने निराकरण किया है । इसी प्रकारसे उन्होंने आगे द्रव्यस्त्री मुक्तिकी मान्यताको भी उपस्थित किया है जो सूत्रकार के सामने नहीं थी और उनके सामने प्रचलित थी और जिसका उन्होंने निराकरण किया है । हुण्डावसर्पिणीकालका स्वरूप ही यह है कि जिसमें अनहोनी बातें हो जायें, जैसे तीर्थंकरके पुत्र का होना, चक्रवर्तीका अपमान होना श्रादि । श्रौर इसलिये उक्त शंकाका उपस्थित होना सम्भव नहीं है ।) वीरसेन स्वामी इत· शंकाका उत्तर देते हैं कि हुण्डावसर्पिणी काल में स्त्रियों में सम्यग्टष्टपन्न नहीं होते। इसपर प्रश्न हुआ कि इसमें प्रमाण क्या है ? अर्थात् यह कैसे जाना कि हुडावसर्पिणी में स्त्रियों में सम्यग्दृष्ट उत्पन्न नहीं होते ? इसका उत्तर यह दिया गया है कि इसी आगम-सूत्रवाक्य से उक्त बात जानी जाती है । श्रर्थात् प्रस्तुत ६३ वे सूत्र में पर्याप्त मनुष्यनीके ही चौथा गुणस्थान प्रतिपादितः किया है, अपर्याप्त मनुष्यनीके नहीं, इससे साफ जाहिर है कि सम्यग्दृष्टि जीव किसी भी कालमें द्रव्य और भाव दोनों ही तरह की स्त्रियोंमें पैदा नहीं होते । श्रतएव सुतरां सिद्ध है कि हुण्डावसर्पिणी में भी स्त्रियों में सम्यग्दृष्टि पैदा नहीं हं ते ।
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यहाँ हम यह उल्लेख कर देना श्रावश्यक समझते हैं कि पं० मक्खनलालजी शास्त्रीने टीकोक्क 'स्त्री' पदका द्रव्यस्त्री अर्थ करके एक और मोटी भूल की है । 'स्त्रीषु' पदका बिल्कुल सीधा सादा श्रर्थ है और वह है- 'स्त्रियोंमें' । वहाँ द्रव्य और भाव दोनों ही प्रकारकी स्त्रियोंका प्रह है। यदि केवल द्रव्यस्त्रियोंका ग्रहण इष्ट होता तो वीरसेन स्वामी अगले 'द्रव्यस्त्रीणां' पदकी तरह यहाँ भी 'द्रव्यत्रषु' पदका प्रयोग करते और जिससे सिद्धान्त विरोध अनिवार्य था, क्योंकि उससे द्रव्यस्त्रियोंमें ही सम्यग्दृष्टियों के उत्पन्न न होनेकी बात सिद्ध होती, भावस्त्रियोंमें नहीं । किन्तु वे ऐसा सिद्धान्तविरुद्ध श्रसंगत कंथन कदापि नहीं कर सकते थे और इसी लिये उन्होंने 'द्रव्यस्त्रष' पदका
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