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किरण ६-७]
६३ वें सूत्रमें 'संजद' पदका विरोध क्यों ?
विवेचन एवं प्रतिपादन किया जाता है। साथमें जो विषय- होते हैं। वे निम्न प्रकार है:की प्रधानताको लेकर वर्णन हो उसे सब जगह सम्बन्धित (क) जिस कालमें षट्खण्डागमकी रचना हुई है उस नहीं करना चाहिये । तात्पर्य यह कि ८६ वाँ सूत्र भाववेदी कालकी-अर्थात् करीब दो हजार वर्ष पूर्वको अन्त:मनुष्य द्रव्यस्त्रीको अपेक्षासे नहीं है, किन्तु भाव और द्रव्य साम्प्रदायिक स्थितिको देखना चाहिये । जहां तक ऐतिमनुष्यकी अपेक्षासे है। इसी प्रकार १० वा सूत्र भाववेदी हासिक पर्यवेक्षण किया जाता है उससे प्रतीत होता है पुरुष और द्रव्यवेदी पुरुष तथा गौणरूपसे केवल द्रव्यवेदी कि उस समय अन्त:साम्प्रदायिक स्थितिका यद्यपि जन्म पुरुषकी अपेक्षासे है और चूंकि यह सूत्र पर्याप्त अवस्थाका हो चुका था परन्तु उसमें पक्ष और तीव्रग नहीं आई थी। है इस लिये जिस प्रकार पर्याप्त अवस्थामें द्रव्य और भाव कहा जाता है कि भगवान महावीरके निर्वाणके कुछ ही पुरुषों तथा स्त्रियोंके चौथा गुणस्थान संभव है उसी प्रकार काल बाद अनुयायिसाधुअोंमें थोड़ा थोड़ा मत-भेद शुरू पर्याप्त अवस्थामें द्रव्यवेदसे तथा भाववेदसे पुरुष और हो गया था और संघभेद होना प्रारम्भ हो गया था, लेकिन केवल द्रव्यवेदी पुरुष १४ गुणस्थान इस सूत्रमें वर्णित वीरनिर्वाणकी सातवीं सदी तक अर्थात् ईसाकी पहली किये गये हैं।
शताब्दीके प्रारम्भ तक मत-मेद और संघ-भेदमें कट्टरता इस तरह पण्डितजीने द्रव्यप्रकरण सिद्ध करनेके नहीं श्राई थी। अत: कुछ विचारमेदको छोड़कर प्रायः लिये जो भावप्रकरण-मान्यतामें आपत्तियां उपस्थित जैनपरम्पराकी एक दी धारा (अचेल) उस वक्त की हैं उनका ऊपर सयुक्तिक परिहार हो जाता है। तक बहती चली श्रारही थी और इसलिये उस समय अत: पहली दलील द्रव्य-प्रकरणको नहीं साधती । और षटखण्डागमके रचयिताको षटखण्डागममें यह निबद्ध इस लिये ६३ वा सूत्र द्रव्यस्त्रियोंके पांच गुणस्थानोंका करना या जुदे परके बतलाना श्रावश्यक न था कि द्रव्यविधायक न होकर भावस्त्रियोंक १४ गुणस्थानोंका विधायक स्त्रियोंके पाँच गुणस्थान होते हैं उनके छठे श्रादि नहीं है । अतएव ६३ सूत्रमें 'संजद' पदका विरोध नहीं है। होते । क्योंकि प्रकट था कि मुक्ति अचेल अवस्थासे होती . ऊपर यह स्पष्ट हो चुका है कि षट्खण्डागमका
है और द्रव्य मनुष्यनियां अचेल नहीं होती-वे सुचेल
ही रहती है। अतएव सुतगं उनके सचेल रहनेके कारण प्रस्तुत प्रकरण द्रव्य-प्रकरण नहीं है, भाव-प्रकरण है।
पांच ही गुणस्थान सुसिद्ध हैं। यही कारण है कि टीकाकार. अब दूसरी श्रादि-शेष दलीलोंपर विचार किया जाता है।
वीरसेन स्वामीने भी यही नतीजा और हेतु-प्रतिपादन उक्त २-यद्यपि षट्रखण्डामममें अन्यत्र कहीं द्रव्यस्त्रियोंके
१३ वे सूत्रकी टीकामें प्रस्तुत किये हैं और राजवातिककार • पांच गुणस्थानोंका कथन उपलब्ध नहीं होता, परन्तु इससे TE
अकलङ्कदेवने भी बतलाये हैं। . ... .. यह सिद्ध नहीं होता कि इस कारण प्रस्तुन ६३ वां सूत्र
ज्ञात होता है कि वीर निर्वाणकी सातवीं शताब्दीके . ही द्रव्यस्त्रियोंके गुणस्थानोंका विधायक एवं प्रतिपादक है।
पश्चात् कुछ साधुओं द्वारा कालके दुष्प्रभाव आदिसे. क्योंकि उसके लिये स्वतंत्र ही हेतु और प्रमाणोंकी जरूरत
वस्त्रग्रहणपर जोर दिया जाने लगा था, लेकिन उन्हें इसका है, जो अब तक प्राप्त नहीं हैं और जो प्राप्त है वे निराबाध
समर्थन श्रागमवाक्योंसे करना श्रावश्यक था, क्योंकि उसके और सोपपन्न नहीं हैं और विचारकोटिमें हैं-उन्हींपर यहाँ
बिना बहुजनसम्मत प्रचार असम्भव था। इसके लिये विचार चल रहा है । अतः प्रस्तुत दूसरी दलील ६३ वें
उन्हें.. एक आगमवाक्यका संकेत मिल गया वह था सूत्रमें संजद'पदकी श्रस्थितिकी स्वतंत्र साधक प्रमाण नहीं है।
। साधुअोंकी २२ परिषहोंमें आया हुआ 'अचेल' शब्द । ____ हाँ, विद्वानोंके लिये यह विचारणीय अवश्य है कि इस शब्दके अाधारसे अनुदरा कन्याकी तरह 'ईषद् चेलः षड्खण्डागममें द्रव्यस्त्रियों के पांच गुणस्थानोंका प्रतिपादन अचेल:'अल्पचेल अर्थ करके वस्त्रग्रहणका समर्थन किया क्यों उपलब्ध नहीं होता ? मेरे बिचारसे इसके दो समाधान और उसे श्रागमसे भी विहित बतलाया। इस समयसे ही हो सकते हैं और जो बहुत कुछ संगत और ठीक प्रतीत वस्तुतः स्पष्ट रूपमें भगवान महावीरकी अचेल परम्पराकी
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