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समाज
राजनीति Politics) नागरिकशास्त्र (Civics भरिका गहरा अध्ययन करके मानव प्राणियों के स्वभावों तथा प्राकृतिक नियमको समझकर उनको धर्म सचिहित कर लिया था। यही नहीं बल्कि दुनियावी जरूरतों पर ध्यान देकर इन आश अपितु नैतिक गुरुको जिनका होना एक अच्छे नागरिकके लिए अत्यन्त श्रावश्यक हैव्यवहारिक रूप दिया और यह चीजें लौकिक या व्यवहार धर्ममें समाविष्ट हो गई। प्राचीन कालके आदर्श व्यक्ति अपने समय के अच्छे नागरिक कहलाये जा सकते हैं। बे-लौस होते थे, स्वार्थं उन्हें छूता नहीं था, दूसरों से लडना वे पाप समझते थे । दूसरोंकी सेवा करना, पड़ोसियोंकी सहायता व अभ्यागत, प्रवासियों व अतिथियोंका उचित आदर करना, उन्हें भोजन देना श्रादि पुण्य समझा जाता था। ये चीजें उनके नित्य तथा नैमित्तिक कार्यों में शुमार (परिगणित) की जाती थीं। ऐसे ही शुद्ध व्यक्ति राज्य शासन के जिम्मेदार होते थे । सारांश यह कि राज्य अपने सामने उच्च आदर्श रखता था और इसीलिए वह राष्ट्र, और देश की हर प्रकारकी उच्चतिका जिम्मेदार समझा जाता था । Proj Herold Laski का बयान है कि "त्येक राज्यशासन उसके नागरिकों] चरित्रका आईना है। उसके अन्तर्गत व्यक्रि तथा समाजके नैतिक चरित्रका प्रतिविम्ब उसमें दिखाई देता है।" यदि इस सत्यको जैन साहित्य में कथित पुरायों और कयाकर देखें तो उपरोक बातोंकी सत्यता अनायास ही सिद्ध हो जाती है। वास्तवमें आदर्श राजनीतिज्ञों द्वारा ही सुशासन संचालित होता है । यह उत्तम नरपुंगव - जिनके हृदमों पर अपने अनुयायि की चोट होती है— वातावरणको शुद्ध करनेके लिए, फलप्रातिकी काशा न रखते हुए, राज्यशासन या धर्मशासनको चलाते हैं । मानवप्राणी जिस समाज या राष्ट्रमें रहता हैं उसका जीवन उसी राष्ट्रकी उच्चति या अवनतिपर निर्भर है। इसलिए राजनीतिज्ञ एवम् धार्मिक सिद्धान्तोंके प्रचारक जनसाधारण के कल्याणकी भावनाको लक्ष्य में रखते हुए बड़ी योग्यतासे शासनका रथ हाँकनेमें व्यस्त रहते हैं। 'चेमं सर्वप्रजानां प्रभवतु बलवान् धार्मिको भूमिगल' आदि पाठ इसी बातकी ध्यनित करते हैं। व्यावहारिक जीवनकी कामप्राची ही उनका परमो ध्येय रहता है। शायद इसी
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अनेकान्त
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कारण ही पारधर्मको धामधर्म या पारलौकिक धर्मकी सिद्धि कहा गया है। इसकी सिद्धिके बगैर हम कुछ नहीं कर सकते । इस प्रदर्शपर ही उनकी नई दुनियाकी बुनियाद खड़ी हो सकती है परमार्थका बीज यहीं योगा जा सकता है तथा कोई भी नागरिक त्याग, सेवा, दया, कर्तव्य नैतिक तस्यों द्वारा ही अपने जीवन में स्वके सुखोंका अनुभव करके विश्वकी शान्ति में सहायक सिद्ध हो सकता है।
किन्तु आजकल अनेक देशोंके राज्यशासनने जिस वातावरणको पैदा किया है, उससे नागरिकोंको न तो उन्नति करने का मौका ही मिलता है और न विश्वकल्याण तथा शान्ति का स्वप्न ही सत्यसृष्टिमे परियात किया जा सकता है। इस मसीनों के युगमै इस श्रौद्योगिक तथा व्यावसायिक प्रतियोगिता के दौर में खुदगरजीको विशेष महत्व दिया गया है। स्वायंभावनाएँ प्रदील होती जा रही हैं तथा दूसरों के व्यक्तित्वको मिटानेपर राष्ट्र तुले हुये नफरत की जहरीली भावना बधोग की तरफ उन्हें ले जा रही है, शक्ति और स्वार्थका बोलबाला है और तुर्फा यह है कि प्रत्येक राष्ट्र शान्ति-स्थापनकी दुहाई दे रहा है। बेचारी जनता न तो अपने उद्धारका कोई ज्ञान रखती है और न इस मार्ग पर अग्रसर ही हो सकती है इन राजनीतिज्ञों की कूटनीतिने ही सारे विश्वमें रसन्तोष की भावना पैदा कर दी है। क्या ही अच्छा हो कि ये लोग तनिक विचारसे काम लें और सच्ची मानवता का सबूत दें :
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"कपनी मीठी खाँड सी करनी विष की होय । कथनी तज करनी करें तो विष से अमृत होय ॥ " इसी तरह जो सुख-शान्ति की स्थापनामें अनैतिक व अप्राकृतिक साधनों के अवलंबन द्वारा चिरस्थायी यश प्राप्त करना चाहते हैं, मानों वह आकाशसे फूल तोड़ कर लाने के सदृश ही हास्यास्पद विचार रखते हैं । विष से अमृतफल की आशा नहीं की जा सकती क्यूल को योकर आम नहीं खाये जा सकते, बालूसे तेल नहीं निकाला जा सकता, जल को मथकर नवनीत नहीं किकाला जा सकता । इसी तरह हिंसात्मक उपायों द्वारा शान्ति स्थापित नहीं की जा सकती। जब हमारी नीयत ही बुरी हो तो अच्छे फलोंकी आशा रखना ही व्यर्थ है। श्रोल्डस हकसलेके प्रसिद्ध, मान्य ग्रन्थ
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