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________________ किरण ६-७ ] Ends and means "साध्य और साधन" में इन्हीं समस्याओं पर प्रकाश डाला है । साध्य और साधनकी व्याख्या करते हुये आपने आदर्श समाज, धनासक्क मानव, और अहिंसा आदि विषयोंको जोरदार शब्दों में प्रतिपादित किया है। वे फर्माते हैं कि किसी तरह भी बुरे उपायों या साधनोंद्वारा उत्तम साध्य या ध्येय की प्राप्ति नहीं हो सकती । "यदि हमारा ध्येय तथा श्रादर्श शुद्ध है तो उँचे श्रादर्श तक हमारी रसाई ( पहुंच) सिर्फ पवित्र तथा शुद्धसाधनों द्वारा ही हो सकती है" । किन्तु खेद तो इस बातका है कि इस समय सारे संसारपर स्वार्थ साधनका भूत सवार है, वह इसके परिणाम स्वरूप वासनाओका गुलाम बन गया है ! ऐसी परिस्थिति में मानव या राष्ट्रको विश्वकल्याण के पवित्र श्रादर्श में सहायक खयाल करना गलत है। जैन धर्म की भी यही मान्यता है । वह कहता है कि अहिंसा द्वारा ही जगत् में शान्ति प्रस्थापित की जा सकती है। आत्मोद्धारकी कुंजी भी यही है। इसी मार्ग का अनुसरण करके स्वाभाविक तथा असीम सुखकी प्राप्ति हो सकती है । अहिंसा, सत्य, ईश्वर, धर्म, शान्ति, सुख, संतोष आदि एक ही अर्थके पर्यायवाची शब्द हैं। इन्हींकी उपासना, इन्हींका सहारा, व इन्हीका सम्पूर्ण ज्ञान ही हमारा उच्चादर्श है तथा नैतिक, व्यावहारिक, स्वाभा विक या धार्मिक कर्तव्य भी यही है । इसके सामने स्वार्थसाधु, विषय- लोलुप, वासनाओंका पुजारी घुटने टेक देता है। इसके लिए सच्चे नागरिक, दार्शनिक या धार्मिक पुरुषको मुसीबतें झेलनी पड़ती हैं, कष्ट सहन करने पड़ते हैं । यही नहीं, बल्कि आत्मोत्सर्ग द्वारा विरोधियोंके हृदय पर विजय प्राप्त करनी होती है। भगवान महावीर और उनका सन्देश जैनशास्त्रोंनें परिषह - सहन तथा उपसर्गं जीतने का बड़ा मौलिक तथा रोचक वर्णन किया गया है। विरोधियोंकी कष्ट - न देकर स्वयं कष्ट सहना खेल नहीं है, इस तत्वमें मानसशास्त्र (Psychology) के गढ़ तम्बों का अंतभाव है। दूसरों के लिए कष्ट सहना जीवनका बढ़ा ध्येय है । जब बीज स्वयंको नष्ट कर डालता है तब ही तो नयन-मनोहर वृक्ष उसमेंसे जन्म लेता है। हिंसा तथा असत्य या राग भावोंद्वारा पैर व मत्सर बढ़ता है । शान्तिकी लहरें जीवन - सागर में उठती हैं, द्वेषके बादल सिरपर मंडराने लगते हैं तथा सर्वमका पहाड़ सिर पर टूट पड़ता है, किन्तु परिषह-सहन Jain Education International २४३ काले हृदयको भी नतमस्तक बना देता है। सारा संसार ऐसे श्रादर्श व्यक्तिको सर आँखों पर बिठा लेता है । विरोधियों के हृदयको शुद्धब पवित्र कर देता है। वह पश्चात्ताप की अग्नि में बुरे भावोंको जला देता है और पवित्र अन्तःकरण से धीर, वीर तथा अपने उपकारीका अनुयायी बन जाता है। अब वह अपने आपमें तबदीली महसूस करने लगता है और समझता है कि "सत्वेषु मैत्रीं गुणिषु प्रमोदं निष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम् । माध्यस्वभावं विपरीत- वृत्ती, सदा ममात्मा विधातु देव ॥” (अमितगति) यही धर्मका व्यावहारिक तथा सार्वभौम रूप है । कुछ आधुनिक पाश्चिमात्य विद्वानोंका मत है कि भारतवर्ष जैसे सुसम्पन्न कृषि प्रधान देशमें प्राचीन काल में रोटीका सवाल ऐसा उम्र नहीं था, इसीसे अध्यात्मवाद बेकार लोगोंके दिमासी पैदावार है । "An idle brain is satan's workshop " इसी उक्रिके अनुसार ही फुरसत के समय में Mysticism या Spirituality का जन्म हिन्द में हुआ । किन्तु एक दूसरी विचारधारा यह भी बताती है कि यह जरूरी नहीं कि फुरसत के समयको सबलोग बरबाद ही कर देते हैं, बल्कि ललित कलाओं, ज्ञानके विविध अंगों तथा संस्कृति व सभ्यता की उन्नतिको चरम सीमापर ऐसे ही समय में पहुंचाया जाता है । भारतवर्ष के प्रकागद-पडितोंने जो सेवाएँ साहित्य, विज्ञान, संस्कृति और कलाके सिलसिले में की हैं वे भुलाई नहीं जासकतीं । विश्वके इतिहास में यह अमर गाथाएँ अंकित रहेंगी । प्रो० मैक्समूलर (Prof. Max Muller) जैसे शास्त्रियोंका मत है कि इस भारतवर्षने सदियों पहिले, जब यूरोप अज्ञानकी घोर निद्रामें पड़ा हुआ था, ऐसी सभ्यताको जन्म दिया जो रहती दुनिया तक यादगार रहेगी और इस देशको यदि विश्वगुरुके पदसे विभाषित किया जाय तो योग्य है, आदि । आर. सी. दत्त (R. C. Dutt ), अलपेरूनी Alberun 5 ) ब्राउन (Brown ), कौंउट जरना Count Jerna) आदि कतिपय विद्वानोंने अपने लेखों द्वारा उपरोक्त मतका ही समर्थन किया है। कहा जाता है कि आध्यात्मिक विचारवादका बीज सबसे पहिले भारतवर्ष ही में For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527238
Book TitleAnekant 1946 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1946
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size3 MB
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