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अनेकान्त
वृक्ष
बोया गया। यहाँकी भौगोलिक, प्राकृतिक तथा मानसिक परिस्थिति इसी अनुकूल थी। इस विचारधाराके लिए यहाँका जलवायु बहुत अच्छा सिद्ध हुआ । इस वृक्षको फलने फूलते देखकर दूसरे देशोंमें भी यह बीज बोया गया, किन्तु दूसरी जगह विशुद्ध वातावर एके न मिलने से पिशालकाय नहीं हो सका। मानसशास्त्रियों Psychologists तथा समाजविशन (Social Science के परिवर्तीका कथन है कि बाह्य और अभ्यंतर परिस्थितियोंका प्रभाव विचार-निर्माणपर पड़ता है । यही कारण है कि श्राध्यात्मिक विचारधारा यहीं पर बढ़ी, उसका विकास यहींके शान्त वातावरण में हुआ। न तो यहाँ पहिले रोटीका सवाल ही था और न दूसरे अडंगे। फलतः इस धन-धान्यले परिपूर्ण भूमिपर बड़े बड़े प्राचार्यने साहित्य और ज्ञानकी ऐसी बड़े बड़े उपासना की कि अध्यात्मकी देवी प्रसन्न होगई यहाँके नयनाभिराम स्वगपम प्राकृतिक सौन्दर्य, शीतल तथा शान्त वातावरण, मनोहर दृश्यों और ज्ञान-पिपासा धादिने अध्यादकी गुथियाँको सुला दिया । अन्यामवाद भारतवर्ष की सारे विश्वको श्रनुपम देन है । इसकी क़दर वही कर सकता है जिसने यह मजा चखा है। सारे विश्वकी बीमारीका यही इलाज है । ग़ालिब साब भी बढी फरमाते हैं:
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"इसे तबियतने शीतका महा पाया ।
दर्द की दवा पाई दर्द बे-दवा पाया ।" देवशास्त्रका निधन भी वही अध्यात्मवाद है, किन्तु खवाज रहे कि यह निष्क्रिय नहीं है इसके लिए पुरुषार्थ को अपनाना पड़ता है ।
"अमलसे ज़िन्दगी बनती है, जन्नत भी, जन भी" पारलौकिक जगतका आधार या निश्रय धर्मका आधार व्यवहार धर्म है। व्यवहार धर्म पहिली सीढ़ी है। इसी गुजरते हुए, ऊपरकी मंजिल पर पहुंचा जा सकता है। अध्यात्मवाद बेकारीका नतीजा नहीं, बल्कि पुरुषार्थ का नतीजा है, मनुष्यमात्रकी चरमोतम उन्नति है ।
वास्तव में रूयोंके प्रावधर्म असली रूपको छिपा दिया है। अबतो केवल धामारहित अस्थिपंजर पा कलेवरका भीषण दृश्य ही दिखाई देता है । इसी रूपको देख कर पाश्चिमात्य लोग धर्मको अव्यावहारिक समझने लगे हैं।
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[ वर्ष ८
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धर्मने तो यही प्रतिपादित किया है कि दुष्ट के साथ हमें नीच नहीं होना चाहिए किन्तु क्रोधको शान्तिसे वैर भावको प्रेम तथा दयाभावसे और को साधुतासे जीतना ही श्रेष्ठ है। धर्मकी रूढ़ियों और बाह्य लोंको समयानुकूल बदलना पाप नहीं है। धर्म के नामपर श्राडम्बर, ज्ञान, ६. त्याचारका प्रदर्शन करना पाप है धर्मके मूलभूत सिद्धान्त कभी नहीं बदलते चोरी और झूठ रुदा पाप ही समझे जायेंगे। दुनिया के कोने २ से इसके विरुद्ध ही आवाज उठेगी। लौकिक स्वार्थ-साधन या श्रारमाका विकारी रूप ही नरकका द्वार कहलाया जासकता है । मानवताका पुजारी जब पति हो जाता है तो वह घृणित समझा जाता है । इसीको अधमाचरण का फल कहा जायेगा। अकर्मण्यता और वैराग्यमें बहुत बड़ा अन्तर है उतरदायिश्वसे घबरला धर्म नहीं बंधन और फाकाकशीको तपस्या नहीं कहा गया है किन्तु लोक लौकिक धर्मको साधन करता हुआ पुरुषार्थी जीव ने विशेष और स्वाभाविक आदर्श मुनि की तरफ बढ़ता है । वह जानता है कि "सर्व परवशं दुःखं सर्वं श्रात्मदशं सुखम्" धर्मको मूल जानेसे मनुष्य अपनी मनुष्यता को खो देता है तथा बदनामी का जीवन गुज़ारकर कालके गाल में चला जाता है । इसीलिये तो किसीने कहा है कि जगतमें आकर हमें मानवताका सबूत देना चाहिए तथा पथ भ्रष्ट न होना चाहिए। कर्तव्यका डी दूसरा नाम धर्म ?
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"जो तू श्रयो जगतमें जगत सराहे तोय | ऐसी करनी कर चली को पावे ईसी न दोष" ||
धर्म दो प्रकार का है। एककों मोच धर्म या नि धर्म कहते हैं तो दूसरे को व्यवहारधर्म या श्रावकधर्म कह सकते हैं। पहले धर्मका आदर्श विशिष्ट वया स्वाभाविक पदकी प्राप्ति है । दूसरे का आदर्श यह है कि हमें संसार में क्या करना चाहिए घ हम क्या कर सकते हैं । समाजमें हमारा स्थान क्या है ? हमें हमारे उत्तरदायित्व को किस तरह निभाना चाहिए। धर्मके दस चिन्द्र बताये गये हैं इमा, मार्दव, चाय, - क्षमा, श्रार्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग श्राकिंचन्य और ब्रह्मचर्य । येही चीजें मानवताकी द्योतक है। इनसे जब यह मानवत होजाता है या अपने स्वभावको भूल जाता है तो वह न सिर्फ अपनी अधोगति अभिमुख होता है बल्कि सामाजिक जीवनमें भी बाधा डालता है । ए० ई० मैण्डर A. E
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