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________________ किरण ६-७] भगवान महावीर और स्नका सन्देश २४५ Mander साहब अपनी पुस्तक "Psychology for उसे हम किसी तरह निष्ठुर या हिंसक नहीं कह सकते । Every Man Woman" में क्रोधकी प्रवृत्तिका वर्णन आमाकी उपासना बाकी नौ चिन्होंकी उपासना है। इसीका करते हुए बतलाते हैं कि-"जब मनुष्य पर क्रोधका भूत नाम भेदविज्ञान है । इसी भेदविज्ञानमय परिणतिको शास्त्र सवार हो जाता है तो उसका चेहरा सुर्ख होजाता है, की परिभाषामें अन्तरात्मा कहा जाता है । इस पदको पा मुट्टियों बंध जाती हैंविचारशक्ति उसमें बाकी नहीं रहती। लेनेके बाद कर्तव्याकर्तव्यका प्रतिभास होता है। सांसारिक आँखोंसे चिनगारियां निकलती हैं और वह परिणामको सोचने सुखों और दुखोंको वह स्थितप्रज्ञ उदासीन भावसे भुगतता के बदले मरने-मिटने पर तुल जाता है। यह उसकी है, विश्वकल्याण में सहायक होता है । पुरुषार्थी होने के अस्वाभाविक दशा है, उसका विकृत रुप हैं। उसकी कारण समाज या राष्ट्रको उन्नतिमें उसका हाथ होता है । स्नायविक प्रन्थियों में ऐठन पैदा होजाती है। हृदयसे शकरकी नैसर्गिक नियमों, सामाजिक, नैतिक अथवा धार्मिक बन्धनोंमात्रा खूनकी नाली में दौड़ जाती है और इस कारण हम का उल्लंघन करने वाला अपने कियेकी सज़ा पाता है । किसी भयंकर बातके करनेपर उतर पाते हैं। फलत: पाचन- धार्मिक परिभाषामें इसे पाप या धर्माचरण के फलके नामसे क्रिया बन्द हो जाती है। ऐसे समयमें शरीर-विज्ञानके याद करते हैं, और पाश्चिमात्य लोग प्रकृतिके खिलाफ्न मतानुसार एड्रेनलीन (Adrenalin) की अधिक बग़ावत करनेका अवश्यंभावि परिणाम कहते हैं। चाहे जो मात्रा इतनी प्रतिक्रिया प्रारंभ करके शरीरको अपनी असली भी कह लें, दुष्कर्मों का फल भुगतना प्राणिमात्रके लिए हालतमें लानेके लिए सहायक होती है। अतएव इन विद्वानों अनिवार्य है। व्यभिचारी या हिंसक राज्यद्वारा या समाजसे के मतानुसार मनुष्यको ऐसे अस्वाभाविक तथा अप्राकृतिक अपने कियेका दण्ड पाता है। यदि किसी देशमें यह चीज़ शाने या तो किसी उद्यानमें निकल जाना चाहिये या दण्डनीय समझी नहीं गई तो भी प्रकृति उसे बीमारीके कोई शारीरिक काममें अपने श्रापको व्यस्त रखना चाहिए,' रूपमें अवश्य दण्ड देती है। अतएव मनुष्यमात्र अपनी इसी तरह उस समय भोजन करना शरीरको हानि करतूतोंका जिम्मेदार है। उसकी उन्नति या अवनति पहुँचाना है।" आदि उसीके हाथ है। जब प्राणी अवनतिके अभिमुख होता है तो उसे दर्शनशास्त्री 'बहिरास्मा' के नामसे पुकारते हैं, यह अत: इस पाश्चिमात्य मानसशास्त्रीने भी स्पष्ट रूपसे स्थिति सर्वनाशका कारण है । अन्तरात्माकी दशामें बतला दिया है कि क्रोध मनुष्य मात्रका स्वभाव नहीं है मनुष्य अपने जीवनको स्वर्गीय वातावरण में बदल सकता और इससे भयंकर हानि होती है, अतएव यह त्याज्य है। है. किन्तु जिसके सामने विशेष प्रादर्श है वह इन तमाम इसीलिए तो तमाको प्रारमाका गुण कहा गया है। इसके बातोंसे परे अतुलनीय, असीम व अखण्ड सुखके लिए बराबर कोई दूसरा तप नहीं है। और न दयाहीन धर्मको प्रात्मशुद्धिकी ओर अग्रसर होता है। वही पूर्ण शुद्ध व्यक्रि धर्मके नाम से जाना जा सकता है, किन्तु उसका व्यवहार-धर्म परमात्मा कलवानेका हक रखता है । यही मानवताकी चरम की दृष्टिपे यह अर्थ कदापि नहीं है कि यदि न्यायका खून सीमा है. यही उपादेय है । वहीं प्रारमसाक्षात्कार है, हो रहा हो; समाजकी मर्यादाका अतिक्रम हो रहा हो, सिद्धावस्था है तथा मुक्तिका कमनीयरूप है । यह अनुभवगम्य लौकिक विधिर्यो जबरन उल्लंघन किया जा रहा हो या है, अन्तरात्मा पदमें इसकी परम श्रानन्ददायिनी झलक खुदका फूक फूंक कर कदम रखनेके अनन्तर भी सर्वनाश हो दिखाई दे सकती है। तर्कके घोड़े यहाँ पहुँचने नहीं रहा हो तो दुब्बूपनका सबूत दो या श्रातताइयोंके धागे सर पाते।झुका दो । बल्कि ऐसे समयमें श्रातताइयोंको शिक्षा देना, दण्ड देना या दमन-नीतिसे काम लेना भी प्राय अहिंसा तथा "रहिमन बात अगमकी कहन सुननकी नाहिं । न्यायमार्गमें दाखिल है। यहाँ नियतका सवाल है। डाक्टर जो जानत ते कहत नहीं कहत ते जानत नाहिं॥" रोगियोंका इलाज करनेके लिये शस्त्रक्रिया करता है किन्तु अतएव विश्व कल्याणके हेतु जगत्के प्राणियोंके लिए Jain Education International For Personal Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527238
Book TitleAnekant 1946 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1946
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size3 MB
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