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________________ २९६ अनेकान्त [वर्ष - - जैनसन्देशका राष्ट्रीय अंक-निसबी जनता चिर- आ पाया, मुश्किलसे ऐसे प्राधे व्यक्यिोंका ही उल्लेख इसमें कालसे प्रतीक्षा कर रही थी, आखिर जनवरीके अन्तिम होगा। जिन व्यक्रियोंका परिचय दिया गया है उनकी एक सप्ताहमें प्रकट होगया। अंक पुस्तकाकार २०४३० अठपेजी संक्षिप्त परिचयात्मक नामानुक्रमणिका भी साथमें लगी होती साइजके १०० पृष्टोंमें राष्टीयता विषयक महत्वपूर्ण लेख. तो अच्छा था। क्योंकि पं० पन्तके शब्दों में यह कहने में कविता गीताना तनिक भी संदेह नहीं कि जनसमाजने स्वतन्त्रता आन्दोलनमें राष्ट्रीयकार्यकत्ताओं और उनकी देशसेवाओं के संचिप्त परिचय बहुत बड़ा भाग लिया है और कितने ही कार्यकर्ताओंका सहित बहुतसी समयोपयोगी पठनीय एवं ज्ञातव्य सामग्रीसे र राजनैतिक क्षेत्र में प्रमुख स्थान है। युक्र है। कितने ही जैनराष्ट्रीय कार्यकत्ताओंके ब्लाक चित्रोंसे भिर भी ऐसे अंकोंकी भारी आवश्यकता थी और थोड़े भी अलंकृत है। सम्पादक महोदयका प्रयत्न सराहनीय है। अंशमें ही सही इससे उसकी पूर्ति अवश्य होती है, अत: किन्तु जैसाकि लगभग एक वर्ष पहिलेसे जैनसन्देश साप्ता इस दृष्टिसे इसका प्रकाशन समयोपयुक्त एवं श्रावश्यक ही हिकमें बार बार प्रकाशित सूचनाओं, और विज्ञापित गेजनाओं है।पाठकोंको इसमें पर्याप्त उपयोगी जानकारी मिलेगी। के आधारपर इस अंकपे श्राशा की जाती थी वैसा यह नहीं बनपाया । पूर्वसूचित १७ विषयविभा!मेसे मुश्किलसे ४-५ -कुंवर श्री नेमिचन्द्रजी पाटनी द्वारा विषयोंके संबंधकी सामग्री ही इसमें संकलित हो पाई है। लिखित तथा श्र मगनमल हीरालाल पाटनी दि० जैन अल्पसंख्यक समस्या और जैन, भारतके भावीविधानमें पारमार्थिक ट्रस्ट, मदनगञ्ज (किशनगढ़) द्वारा प्रकाशित यह जैनसमाजका स्थान, अहिंसा और राजनीते, धर्म और ५७ पृष्टका एक उपयोगी टैक्ट है। साथमें श्रेयासकुमार जैन सष्टीयता, क्या एकतन्त्र जैनधर्म सम्मत है, जैनसंस्कृतिकी शास्त्री न्यायतीर्थकी संक्षिप्त भूमिका है तथा पूज्यवर्णाजी दृष्टिये भारतकी अखंडता, जैनोंकी स्वतन्त्र शिक्षाप्रणाली एवं न्यायाचार्य पं. माणिकचन्दजीके अभिमत भी हैं। . हिन्दी और हिन्दुस्तानी क्षेत्रमें जैनोंकी सेवाएँ. इत्यादि ऐसे विषय थे जिनपर लिखे गये प्रमाणित लेखोंका संकलन इस इस पुस्तिकामें लेखकने 'धर्म क्या है इस विषयपर अंको अवश्य ही होना चाहिये था। अंकके संबंध में जिन सरल ले.कोपयोगी भाषामें जैनदृष्टिसें श्रांशिक प्रकाश डाला श्राशाओंको लेकर माननीय बा. सम्पूर्णानन्दजीने अपनी है। वस्तुत: इसमें स्वामी समन्तभद्राचार्यकृत धर्मके सुप्रसिद्ध यह सम्मति दी है कि वह अंक 'इस दृष्टिसे बहुत सामयिक स्वरूपश्लोकहै कि उसमें उन कई महत्वपूर्ण समस्थानोंपर विचार होगा जो इस समय राष्ट्रके विचारशील व्यकियों के सामने हैं,' उन 'देशयामि समीचीनं, धर्मकर्मनिवर्हणम्। पाशाओंकी पूर्ति यह नहीं कर सका है। उसमें जैनराष्ट्रीय संसारदुःखत: सत्वान यः धरयुत्तमे सुखे । कार्यकर्ताओं द्वारा लिखे गये अपने संस्मरणों, अनुभवों तथा (१० क० श्रावकाचार) सामयिक राजनीतिक समस्याओंपर अपने विचार उक्र समस्या की स्वतन्त्र विस्तृत व्याख्या की गई है। पुस्तक पठनीय ओं एवं वर्तमान राष्ट्रीय परिस्थियियोंका जैनसमाजके साथ संबंध या उसपर पड़ने वाले प्रभावके. दिग्दर्शनका भी है। छपाई सफाई साधारण है, न श्रादिकी ग़लतियें हैं ही। मूल्य मात्र मनन है। वितरण करनेके लिये मंगाने प्रभाव है जो खटकता है। राष्ट्रीय यज्ञमें योग देने वाले और स्वदेश स्वातन्त्र्यकी वलिवेदीपर अपने आपको न्योछावर बालों को २५) सैंकको मूल्यपर प्रकाशकों से मिल सकती है। करदेने वाले सब ही जैन महानुभावोंका परिचय भी नहीं ज्योतिप्रसाद जैन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527238
Book TitleAnekant 1946 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1946
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size3 MB
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