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धर्म और नारी (लेखक-बा० ज्योतिप्रसाद जैन, एम० ए०, एल-एल० बी) :
और पुरुष दोनों मिलकर ही मानवसमाजकी तिक, सामाजिक, आर्थिक कारणोंसे उक्त जातिमें बुद्धिमानों सुष्टि करते हैं, दोनों ही उसके प्राकृतिक, का प्रभाव, ज्ञान और विवेककी शिथिलता, तज्जन्य अनिवार्य, अभिन्न अङ्ग है। एकसे दूसरे प्रशान, अविवेक, रूढ़िवादिता एवं वहमोंका प्रस्तार-प्रभाव की पूर्णता और अस्तित्व है। दोनों ही बढ़ जाता है तो उस जातिके नैतिक पतनके साथ साथ समानरूपसे मनस्वी होनेके कारण प्राणि- धर्मके गौण बाह्य क्रियाकाण्डों और ढोगोंका प्राबल्य भी वर्गमें सर्वश्रेष्ठ कहे जाते हैं।
हो जाता है। विवेकहीन, विषयलोलुपी स्वार्थी धर्मगुरु और .. किन्तु जब मनुष्यजातिके सामाजिकजीवन, और विशे- धर्मात्मा कहलाने वाले समाज-मान्य मुखिया समाजका षतया स्त्रीपुरुष-संबंधपर दृष्टिपत किया जाता है तो यह वात नियन्त्रण और शासन करने लगते हैं, जीवनके प्रत्येक क्षेत्रमें सहज ही स्पष्ट होजाती है कि जीवनके सामाजिक, गजने- वे अपनी टाँग अड़ाते हैं और मदाखलत बेजा करते हैं। तिक, आर्थिक, धार्मिक, साहित्यिक श्रादि विविध क्षेत्रोंमें उनके प्रादेश ही धर्माशा होते हैं, वे जो व्यवस्था दे देते हैं प्रायः सर्वत्र और सर्व समयोंमें अधिकांशतः पुरुषवर्गका ही उसका कोई अपील नहीं। धर्मके वास्तविक कल्याणकारी प्राधान्य एवं नेतृत्व रहा है। इस बातका सर्वमान्य कारण तस्वों एवं मूलसिद्धान्तोंकी वे तनिक भी पर्वाह नहीं करते, भी सामूहिक रूपमें पुरुषजातिके शारीरिक एवं मानसिक जानबूझकर अक्सर उनकी अवहेलना ही करते हैं और दुर्बल शक्ति-संगठनका स्त्री-जातिकी अपेक्षा श्रेष्ठतर होना है। इस समाज मानसिक पराधीनताकी बेड़ियों में भी नकड़ पाता है। स्वाभाविक विषमताके फलस्वरूप जहाँ एक ओर पुरुषके स्वजाति पुरुषोंकी अपेक्षा अधिक भावप्रवण होने और स्वयं अात्मविश्गसमें महती वृद्धि हुई, उसकी उद्यमशीलता और में हीन का दृढ़ विश्वास (Inferiority complex) कार्यक्षमताको प्रोत्साहन मिला तथा उसका उत्तरदायित्व होने के कारण, अपने ही लिये अधिक अपमानजनक, कष्टकर बढ़ा, वहीं दूसरी ओर उसने अपनी सामूहिक, और जब अव एवं अकल्याणकार ऐसी उन धर्मगुरुप्रोकी आशाओंको सर मिला तब व्यक्तिगत शक्तिविशेषका भरसक अनुचित श्रद्धापूर्वक विना चचरा किये शिरोधार्य करने में सबसे लाभ उठाया तथा स्त्रीजातिपर मनमाने अन्याय एवं अत्या- अधिक उत्साह दिखाती है। और इसीलिये एक पाश्चात्य चार किये । उसके मस्तिष्कमें यह ठूसनेका अथक प्रयत्न · विद्वान् ने ठीक ही कहा है कि-"clergy have been किया कि वह पुरुषकी अपेक्षा हीन है, उसका स्थान गौण the worst enemies of women, whmen
बह पुरुष के प्राधीन है-आश्रित है, उसकी विषयतृप्ति are their best friends." अर्थात् धर्मगुरु स्त्रियोंके की-ऐहिक सुख भोगकी-एक सामग्री है, उसकी भोगेषणा सबसे बड़े शत्र रहे हैं और स्त्रियाँ उनकी सबसे बड़ी मित्र की पूर्तिका साधनमात्र है अथवा उसका अपना निजी स्वतंत्र रही है। फलस्वरूप किसी भी सभ्य, अर्धसभ्य, असभ्य, व्यक्तित्व और अस्तित्व ही नहीं. जो कुछ यदि है तो वह पाश्चात्य, पौर्वात्य, प्राचीन, अर्वाचीन मनुष्यसमाजका पुरुषके ही व्यक्तित्व और अस्तित्व में लीन होजाना चाहिये। इतिहास उठाकर देखिये, किसी न किर्मा समाजकी थोड़े वा
पुरुषकी नारी-विषयक इस जघन्य स्वार्थपरतामें उसका अधिक काल तक, उसके पुरुषवर्ग तथा वैसे धर्मगुरुओंने, सबसे बड़ा सहायक रहा है धर्म ! मनुष्य के जीवनमें धार्मिक चाहे किसी भी धर्मविशेषसे उनका संबंध क्यों न रहा हो. विवासका प्रमुख स्थान रहता आया है। और जब जब, स्त्रीजातिके प्रति अपनी तीन महिष्णुनाका परिचय दिया ही प्रातिविशेषके दुर्भाग्यसे, संयोगवश अथवा किन्हीं राजनै- है। उन सबने ही अपने अपने धर्मगुरुओंकी आड़ लेकर
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