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ये ले बैठे हैं कि थोड़े ही दिनोंमें उन्हें अनुभव हो जाता है कि ऐसी स्वतन्त्रतामें किसी किस्मकी सिद्धि नहीं है और न सच्ची तृप्ति । ऐसे लोगोंने अगर उच्च आदर्श ही छोक दिया तो फिर उनमें तारक असन्तोष भी नहीं बच पाता। विवाह सम्बन्ध में केवल भोग-संबंधका विचार करने वाले लोगोंने भी अपना अनुभव जाहिर किया है
एतत्कामफल लोके यद्वयोः एक चित्तता । श्रन्यचित्तकृते कामे शवयोरिव संगमः ॥ यह एकचित्तता यानी हृदयकी एकता अथवा स्नेहग्रन्थी अन्योन्यनिष्ठा और अपत्यनिष्ठाके बिना टिक ही नहीं सकती। बदनेकी बात दूर ही रही।
संयम और निष्ठा ही सामाजिक जीवनकी सच्ची बुनियाद है । संयमसे जो शक्ति पैदा होती है, वही चारित्र्य का आधार है । जो आदमी कहता है —Jcan resist Ponything but temptatiun—वह चालियकी छोटी-मोटी एक भी परीक्षा उत्तीर्ण न हो सकेगा। इसीलिए संयम ही चालियका मुख्य आधार है।
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अनेकान्त
चारित्र्यका दूसरा आधार है निष्ठा व्यक्ति के जीवनकी कृतार्थता तभी हो सकती है जब वह स्वतन्त्रतापूर्वक समष्टि के साथ श्रोत-प्रोत हो जाता है। व्यक्ति-स्वातन्यको सम्हालते हुये अगर समाज-परायणता सिद्ध करनी हो तो वह अन्योन्यनिष्ठा के बिना हो नहीं सकती और अखिल समाजके प्रति एकसी अनन्यनिष्ठा तभी सिद्ध होती है, जब श्रादमी ब्रह्मचर्य का पालन करता है, श्रथवा कम-से-कम वैवाहिक जीवन परस्पर दृढ़निष्ठासे प्रारम्भ करता . अन्योन्यनिष्ठा जब आदर्श कोटिको पहुंचती हैं तब वहींसे संधी समाज सेवा शुरू होती है।
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इस सब विवेचनका सार यह निकला कि "व्यक्रिगत विकासके लिये कौटुम्बिक समाधान के लिये, सामाजिक कल्याणके लिये और आध्यात्मिक प्रगति के लिये संयम और निष्ठा अत्यन्त आवश्यक है", और इसीलिये सामाजिक जीवनमें लैंगिक सदाचारका इतना महत्व है।
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अब इस सदाचारका श्रात्यन्तिक स्वरूप क्या है, कौनसा स्वरूप तात्विक है और कोनसा साँकेतिक, यह विचार समय-समयपर करना पड़ता है । उसमें चन्द बातों में परिवर्तन भी आवश्यक हो, लेकिन इतना तो समझ ही लेना चाहिये कि लैंगिक सदाचारके बिना समाज-सेवा निष्ठाके साथ हो नहीं सकती ।
जिनका विकास एकांगी दुआ है अथवा जिनके जीवन में विकृति आ गई हैं, उनसे भी कुछ-न-कुछ, सेवा ली जा सकती है; लेकिन वे समाजके विश्वासपात्र सदस्य नहीं बन सकते । समाज निर्भयतासे उनकी सेवा नहीं ले सकता और ऐसे आदमीका विकास अशक्यप्राय होता है । उसकी प्रतिष्ठा नाममात्र की रहती है
विषय गम्भीर है। उसके पहलू भी प्रसंख्य है और इनका शुद्ध विचार करनेकी पात्रता प्राजके अपूर्ण समाजमें पूरी-पूरी है भी नहीं, तो भी इस विषयको हम छोड़ भी नहीं सकते। लीपा-पोतीसे काम नहीं चलता । केवल रूढिको सम्हालकर हम समाजको सुरक्षित नहीं रख सकते और अनेक रूढियोंका तुलनात्मक अध्ययन किये बिना और उनका सार्वभौम समन्वय किये बिना हम सामाजिक प्रगति भी नहीं कर सकते। इसीलिये समय-समयपर मनुष्य जातिको इस सवालकी चर्चा करनी ही पड़ती है ।
(मधुकर)
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